3.3 जान लॉक
जान लॉक (१६३२-१७०४) भी समझौतावादी था। उसे सीमित राजतन्त्रमें विश्वास था। उसका पिता ‘प्यूरिटन’ सम्प्रदायका अनुयायी था। ‘लॉक’ १६८८ की रक्तहीन क्रान्तिका दार्शनिक माना जाता है। इंग्लैण्डके जेम्स द्वितीयके पदच्युत होनेपर विलियम और मेरीको राज्यपदके लिये निमन्त्रित किया गया। ‘बिल ऑफ राइट्स’ और ‘ऐक्ट ऑफ सेट्लमेन्ट’ नियमोंद्वारा कार्यपालिका संसद्के अधीन बनी। संसद्का राज्यकोष, राज्यनीति तथा सेनापर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित हुआ। इसी रक्तहीन क्रान्तिके द्वारा संसद् सत्ताधारी बनी और राजा केवल वैधानिक रह गया। यह एक प्रकारसे जनवादका आरम्भ हुआ। लॉक भी प्राकृतिक स्थिति और राज्यकी स्थिति मानता है। उसके मतानुसार मनुष्य विवेकशील एवं सामाजिक प्राणी है। ‘सत्य बोलना अच्छा, झूठ बोलना पाप है’—इत्यादि नैसर्गिक नियमोंका पालन वह आवश्यक समझता था। इन्हीं सब हेतुओंसे प्राणी शान्ति, स्वतन्त्रता एवं भ्रातृताकी ओर प्रवृत्त होता है। उसके मतानुसार ‘स्रष्टाने भूमि एवं विविध पदार्थ सर्वसामान्यके लिये प्रदान किया है। साथ ही श्रमशक्ति भी प्रदान की है। इसीके द्वारा सामान्य वस्तुओंमेंसे कुछको अपने उपयोगयोग्य बनाता है। वही उसकी निजी सम्पत्ति होती है। उदाहरणार्थ नदीका पानी सर्वसामान्य वस्तु है; पर जब एक मनुष्य श्रमद्वारा उसकी कुछ मात्रा लाकर अपने घरमें रखता है तो वह उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति होती है। श्रमके मिश्रणसे ही कोई वस्तु व्यक्तिगत सम्पत्ति बनती है। प्राकृतिक मनुष्य एक विवेकशील सामाजिक तथा नैतिक प्राणी था। वह नैतिकतापूर्ण नैसर्गिक नियमोंका अनुयायी था।’ हॉब्सके विपरीत लॉकके मतानुसार मनुष्य एक-दूसरेके व्यक्तित्व एवं व्यक्तिगत सम्पत्ति और अधिकारका आदान-प्रदान करते थे। वह स्थिति सुख, शान्ति, स्वतन्त्रता और भ्रातृत्वकी थी। लॉकका यह मत भारतीय भावनासे मिलता है। भारतीय दृष्टिकोणके अनुसार पहले यद्यपि राज्य, राजा, दण्ड-विधान नहीं था, परंतु कोई दण्डनीय भी नहीं था। सभी परस्पर एक-दूसरेके पोषक थे, कोई किसीका शोषक नहीं था। सभी धर्मनियन्त्रित थे। धर्मयुक्त होकर सब आपसमें ही काम चला लेते थे।
न वै राज्यं न राजासीन्न च दण्डो न दाण्डिक:।
धर्मेणैव प्रजा: सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्॥
(महा० शा० प० ५९।१४)
‘जो जैसा करेगा वैसा पायेगा’—यह नैसर्गिक नियम प्रचलित था।
लॉकके मतानुसार ‘कुछ दिनों बाद सुखमय न्यायपूर्ण जीवनमें बाधाएँ उत्पन्न हो गयीं। व्यक्ति अज्ञानी और पक्षपाती हो गये। अध्ययनशून्य हो जानेसे उन्हें नियमोंका ज्ञान नहीं रहा। सभी मनमाना नियम लागू करने लगे। अत: लिखित नियमकी आवश्यकता पड़ी। एक निष्पक्ष न्यायाधीश अपेक्षित होने लगा। निर्णयको कार्यान्वित करनेके लिये पुलिसकी भी आवश्यकता हुई। तब समझौता—‘अनुबन्धद्वारा’ सभ्य समाजका निर्माण कराया।’ लॉकके मतानुसार ‘व्यक्तियोंने अपने कुछ ही अधिकार सभ्य समाजको समर्पित किये। नैसर्गिक नियमोंके अनुसार सभ्य समाजको नियम-निर्माण करके निश्चित निष्पक्ष न्यायाधीश नियुक्त करने एवं निर्णयको कार्यान्वित करनेका अधिकार दिया गया, परंतु नैसर्गिक नियमोंके लंघन तथा व्यक्तिगत सम्पत्तिपर आघात करनेका अधिकार उस समाजको नहीं दिया गया।’ लॉकने नैसर्गिक नियमोंको सर्वव्यापक एवं सर्वोपरि बतलाया। व्यक्तिगत सम्पत्तिकी सुरक्षाके लिये ही व्यक्तिने सभ्य समाजकी स्थापना की और असुविधासम्बन्धी उक्त तीनों अधिकारोंका परित्याग किया तथा बहुमतका निर्णय स्वीकार करनेका भी नियम स्वीकार किया। यह सभ्य समाज कुछ व्यक्तियोंका समूह था; परंतु इस समूहको यह अनुभव हुआ कि वह असुविधाओंको दूर करनेमें असमर्थ है। कारण कि न तो सैकड़ों मनुष्य नियम ही निर्माण कर सकते हैं और न न्यायालय और कार्यपालिकाका ही काम कर सकते हैं। इसीलिये सभ्य समाजने व्यवस्थापिका सभा और संसद्की स्थापना की। इसी सभाको नियम-निर्माणका अधिकार दिया गया। सभ्य समाजके समान ही यह सभा भी नैसर्गिक नियमों एवं व्यक्तिगत सम्पत्तिके अधिकारोंका लंघन नहीं कर सकती थी। नैसर्गिक नियमोंके अनुसार कानून बनाना ही उसका काम था। व्यवस्थापिका सभाकी बैठकें स्थायी नहीं होती थीं; किंतु आवश्यकताओंके अनुसार होती थीं। इसीलिये संसद्ने एक स्थायी कार्यपालिकाकी स्थापना की। इसका कार्य नियमोंको कार्यान्वित करना था। कुछ परिस्थितियोंमें वह नियम-निर्माणमें भी भाग लेती थी। संसद्द्वारा नियुक्त न्यायाधीश नैसर्गिक नियमोंपर आश्रित लिखित नियमोंके अनुसार निर्णय करते थे। इस प्रकार संसद्, कार्यपालिका, न्यायपालिका—राज्यके इन तीनों अंगोंकी स्थापना हुई।
युद्ध एवं शान्ति-सम्बन्धी कार्योंको कार्यपालिकाके जिम्मे किया गया और न्यायाधीशकी नियुक्ति संसद्के जिम्मे; परंतु न्यायपालिकाको कार्यपालिकाका अंग माना गया। इस तरह शक्ति-विभाजनकी बात भी आ जाती है। इसीके अनुसार फ्रांसके लेखक मांटेस्क्यूने ‘व्यक्तिगत स्वतन्त्रता’ का समर्थन किया। लॉककी राज्य-संस्था स्वामी नहीं, किंतु एक सेवक है। उसे जनस्वीकृतिकी आवश्यकता थी। व्यक्ति और उसकी सम्पत्ति अर्थात् जीवनस्वतन्त्रता और सम्पत्तिकी सुरक्षा तथा नैसर्गिक नियमोंको लिपिबद्ध करना उसका कर्तव्य था। राजाके मनमाने शासन करने एवं संसद्के कार्यक्रम एवं निर्वाचनमें हस्तक्षेप करने, देशको विदेशी सत्ताके अधीन करने, संरक्षणकार्यमें असफल होने आदिकी हालतमें कार्यपालिकाका विरोध किया जा सकता है एवं उसे हटाया जा सकता है। लॉकके मतानुसार ‘संसद् यद्यपि राज्यका प्राण है तथापि उसे भी नैसर्गिक नियमोंके विपरीत नियम-निर्माणका अधिकार नहीं। संसद् न मनमाने नियम बना सकती है, न नियम बनानेका भार किसी व्यक्ति या संस्थाको दे सकती है। ऐसी स्थितिमें नागरिक-समाजद्वारा उसे पदच्युत करके दूसरी संसद् बनायी जा सकती है।’ लॉक किसी राजाका जन्मसिद्ध असाधारण अधिकार नहीं मानता था और निरपेक्ष राजाके अपने मुकदमेमें स्वयं न्यायाधीश माननेको सर्वथा न्यायरहित मानता था। राजाको सभी अधिकार जनताद्वारा मिले होते हैं। जनता अन्यायी राजासे अपने दिये हुए अधिकारोंको वापस ले सकती है। उसके मतमें नागरिक समाज ही सर्वोत्कृष्ट संस्था है। नागरिक लोगोंको सदा अधिकार रहता है कि नियमोल्लंघन करनेवाले राजा या संसद्को वैधानिक ढंगसे अथवा हिंसाद्वारा अलग कर दें।
लॉकके मतानुसार ‘सर्वोत्कृष्ट सत्ता जनतामें ही निहित होती है, परंतु स्वतन्त्रताके लिये सतर्कता अत्यावश्यक है।’ उसके विचारसे ‘सतर्कता स्वतन्त्रताकी भगिनी है! शासनके कार्योंको देखते रहना, उसमें त्रुटि होनेपर विरोध करना आवश्यक है। जनता एक सुप्तसत्ताधारी है। किन्हीं विशेष परिस्थितियोंमें ही वह अपनी सत्ताका प्रयोग करती है। इस मतसे समाज ही सर्वश्रेष्ठ है। शासक उसीके प्रति उत्तरदायी होता है और नैतिक नियमोंके परतन्त्र होता है। सरकार एक संरक्षकमात्र है, भोक्ता नहीं। जैसे किसी अभिभावकको किसी बालकके शिक्षणके लिये कुछ रुपया दिया जाता है तो वह उसका उसी कार्यमें विनियोग कर सकता है, उसे स्वयं भोग नहीं सकता। इसी प्रकार राजा राज्यका भोक्ता नहीं, किंतु संरक्षकमात्र है। इसमें विभिन्न वर्णोंके समन्वयमें कोई बाधा नहीं पड़ती।’ हूकर, वर्क आदि भी इसी विचारधाराके थे।
भारतीय राजनीतिमें सदासे ही समाजको सर्वश्रेष्ठ माना जाता है और उसमें वर्णाश्रमधर्मका समन्वय है। शासक धर्म एवं समाजके प्रति उत्तरदायी हैं। शासन बदलते रहते हैं, पर समाज और धर्म नहीं बदलते। राज्यके नियम धर्मशास्त्रोंके ही अनुकूल हो सकते हैं। व्यक्तिगत वैध सम्पत्तिपर आघात अन्याय माना जाता है। लॉक समाजको सत्ताधारी मानता है; साथ ही व्यक्तिको भी उच्चस्थान देता है। वह राजाको व्यक्तिका सेवक मानता है। इस सिद्धान्तको सेवाइनने बेमेल बताया। लॉकके अनुसार ‘राज्यकार्य सुरक्षातक ही सीमित है। उसे नैतिकता-शिक्षा आदिके कामोंमें हाथ नहीं डालना चाहिये।’ यह विचारधारा धर्मनियन्त्रित राम-राज्यकी ही है; क्योंकि उसमें शिक्षा, सम्पत्ति एवं धर्मको सदा ही स्वतन्त्र रहना उचित समझा जाता है। राज्यलक्ष्मी चपला होती है। वह कभी देवता और कभी दानवके हाथ भी जा सकती है। उसके हाथमें शिक्षा-सम्पत्ति एवं धर्मके जानेसे व्यक्ति और समाज सदाके लिये नष्ट हो जायँगे। उसीके बलपर व्यक्ति एवं समाज शासनोंमें रद्दोबदल कर सकते हैं। संसद्के नामसे न सही परंतु नीतिशास्त्र एवं मन्त्रिमण्डलकी व्यवस्था सदासे ही धर्मनियन्त्रित शासनतन्त्रमें थी।
आजकल समझा जाता है कि ‘मानव-जातिका इतिहास उन्नतिका ही इतिहास है।’ अत: लॉकका यह कथन कि ‘व्यक्ति पहलेसे ही नैतिक है, उसे नैसर्गिक नियमोंका ज्ञान था’ संगत नहीं है। यदि ऐसा ही था तो उसने प्राकृतिक स्थितिका त्याग क्यों किया? उसमें असुविधा, अनैतिकता क्यों आयी? उसे समाजकी आवश्यकता क्यों पड़ी? अत: नैतिकता, शिक्षा आदि सब समाजकी या व्यक्तिकी देन माननी चाहिये, परंतु रामराज्यके अनुसार इसका समाधान सरल है। जैसा कि कहा जा चुका है कि ‘सत्य एवं धर्मके ह्राससे नैतिकतामें एवं ज्ञानमें कमी आयी, तभी राज्यकी अपेक्षा हुई।’ इस पक्षमें व्यक्ति और समाजकी स्थिति और सम्बन्ध सदा उसी ढंगका होता है, जैसे वृक्ष एवं वनका; सैनिकों एवं सेनाका। निरीश्वर जडवादके अनुसार ही ‘उत्तरोत्तर विकास हो रहा है। पूर्वज लोग असभ्य, अज्ञानी एवं जंगली थे।’ ईश्वरवादीके यहाँ तो विज्ञानपूर्वक विश्वकी सृष्टि है। अत: सृष्टिकालमें लोग आजकी अपेक्षा अधिक ज्ञानशक्ति एवं नैतिकतासे पूर्ण थे। युगह्रासके अनुसार सत्त्व एवं शक्तिका ह्रास होनेसे ही विभिन्न प्रकारकी असुविधाएँ हुईं।
धर्मनियन्त्रित शासनतन्त्रमें जनवाद एवं राजतन्त्रका समन्वय है, विरोध नहीं। धर्मशास्त्र सभीपर लागू होता है अन्यथा लॉकके मतानुसार ‘व्यक्ति कभी नैसर्गिक नियमोल्लंघनके नामपर विरोध करते और नागरिकता स्वीकार करने न करनेमें स्वतन्त्र होते’ तब तो राज्यका चलना ही कठिन हो जाता। ‘श्रम-मिश्रणसे ही धन व्यक्तिगत होता है’ लॉकका सम्पत्ति-सम्बन्धी यह सिद्धान्त सी० एच० ड्राइवर (C.H. Driver) के मतानुसार ‘एक अस्फुटित बम’ के समान था। रेकार्डो आदिने तो श्रम-द्वारा ही वस्तुका मूल्य निर्धारित किया। मार्क्सने भी श्रमको ही आधार मानकर अपना मत खड़ा किया है, परंतु धर्म-नियन्त्रित शासनकी दृष्टिसे यह सिद्धान्त भी त्रुटिपूर्ण है; क्योंकि पद्मरागमणि, वज्रमणि आदिका मूल्य उनके गुणोंपर अवलम्बित होता है, श्रमपर नहीं। इसके साथ ही यह भी समझ लेना आवश्यक है कि भूमि आदि अनेक वस्तुओंमें श्रमयोगके बिना भी पितृ-पितामहादि-परम्परासे स्वत्व प्राप्त होता है। तब भी धर्म-नियन्त्रित व्यक्ति, समाज एवं राज्यद्वारा तथा उचित वितरणद्वारा आर्थिक सन्तुलन बना रहता था। अत: बेकारी, भुखमरीका प्रश्न ही नहीं उठता था। धर्म-नियन्त्रित व्यक्ति सब एक-दूसरेके पोषक ही होते हैं, शोषक नहीं होते।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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