3.2 थामस हॉब्स ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.2 थामस हॉब्स

थामस हॉब्स (१५८८-१६७९) ब्रिटेनके गृहयुद्धकाल (१६४२-४९)-का दार्शनिक था। कहा जाता है कि इसकी माताने भयभीत होकर समयसे पहले उसे जन्म दिया था, इसलिये वह भयसे अत्यधिक प्रभावित रहता था। १६४० में इंग्लैण्डकी दीर्घ संसद्की बैठकके समय ब्रिटेनसे भागनेवालोंमें वह सर्वप्रथम व्यक्ति था। उस समय वहाँ राज्यनियम, राजसत्ता, नागरिकता सम्बन्धी विभिन्न विचारधाराएँ प्रचलित थीं। राजसत्ताका प्रश्न मुख्य था। स्टुअर्ट आदिके मतानुसार ‘राजा ईश्वरके प्रति उत्तरदायी है, नागरिकोंके प्रति नहीं’ यह विचार राजाको निरपेक्ष सत्ताधारी बनाता है। संसद्वादियोंके मतानुसार ‘राजसत्ता और राजा संसद‍्में निहित है। राजाकी सत्ता सीमित है।’ दार्शनिकोंके अनुसार ‘नैसर्गिक नियम सर्वोपरि है। कोई भी संस्था उसका लंघन नहीं कर सकती।’ जनतन्त्रवादियोंका कहना था कि ‘आज्ञापालन अनुबन्धके पालनपर आश्रित है। राज्यका जन्म अनुबन्धके द्वारा हुआ है। यदि राजा अनुबन्धका लंघन करे तो नागरिक राज्यका विरोध कर सकते हैं।’ कैथोलिकों और काल्विनिष्टोंके अनुसार ‘धर्म सर्वश्रेष्ठ है, राज्य उसके अधीन है।’ ये ही मतभेद गृहयुद्धकी पृष्ठभूमिमें थे। हॉब्सने अपने कालके सर्वश्रेष्ठ प्रश्न ‘राजसत्ता कहाँ निहित है?’ का उत्तर दिया था। हॉब्स सुव्यवस्थाको परमावश्यक समझता था। चाहे वह नरेशद्वारा स्थापित हो, चाहे क्रामवेल (१५९९-१६५८)-जैसे शासकद्वारा। राज्यके पूर्वकी स्थितिको ‘प्राकृतिक स्थिति’ (दि स्टेट ऑफ नेचर) कहते हैं। जब कोई इंजन खराब हो जाता है तो मिस्त्री उसके कलपुर्जोंको पृथक् करता है। इस क्रमसे उसे इंजनकी खराबी मालूम पड़ जाती है। खराबी दूर कर फिर वह कलपुर्जोंको जोड़ता है। हॉब्सका कहना था कि ‘मनुष्य’ समाज और मकानमें रहते हुए भी सन्दूकमें ताला क्यों लगाता है? सोते समय दरवाजा क्यों बन्द करता है? इसका स्पष्ट अर्थ है कि मनुष्य एक-दूसरेके प्रति विश्वास नहीं रखता। फिर जब राज्यव्यवस्थामें यह हालत है, तब प्राकृतिक स्थितिमें तो कहना ही क्या?’ वह मनुष्यको स्वभावसे स्वार्थी मानता था। मनुष्य सत्ताधारी शक्तिके द्वारा ही सहयोगी बनकर रह सकता है। इसलिये प्राकृतिक स्थितिमें मनुष्य अलग-अलग ही रहते थे। उस समय न कोई व्यवस्था थी, न कोई सत्ताधारी था।
उसके मतानुसार ‘समान शरीर एवं मस्तिष्ककी शक्तिका योग बताता है कि सब मनुष्य बराबर थे।’ यदि कोई किसीसे शारीरिक दृष्टिसे कमजोर रहता था तो वह शारीरिक कमजोरीको मस्तिष्कशक्तिसे पूरा कर लेता था। अत: प्राकृतिक स्थितिमें व्यक्तियोंकी समानता थी। स्वार्थपूर्ति ही उनका लक्ष्य था। सहयोगका उनमें कोई स्थान नहीं था। स्पर्धा ही स्वार्थपूर्तिका साधन था। संघर्षद्वारा ही आधिपत्य जमाया जाता था। दूसरोंद्वारा अपनी कीर्ति स्वीकृत करायी जाती थी। यदि प्राकृतिक स्थितिमें समानता न होती तो अवश्य ही एक-दूसरेपर आधिपत्य जमा सकते। कोई अपनी कीर्ति दूसरोंसे स्वीकृत नहीं करा सकता था। सभी स्वार्थपूर्तिके संघर्षमें लगे रहते थे। भौतिकशास्त्र एवं जीवशास्त्रकी खोजोंको भी समाजशास्त्रपर लागू किया जाता था। गैलिलियो और केप्लरने नक्षत्रोंकी गतिविधि-सम्बन्धी खोज की थी। हर्वेने रक्तसंचरणके विषयमें खोज किया था। हॉब्सने समाजशास्त्रीय गतिविधिकी खोज की। उसने मानवजीवनकी गतिविधिको वैसा व्यापक बताया, जैसे नक्षत्रों तथा प्राणियोंके रक्तकी। हॉब्सके अनुसार ‘संघर्षगति ही मानव-जीवनका सार है। जैसे नक्षत्र-गतिविधिकी अनुपस्थितिमें विश्वका संहार होता है और रक्तगति बिना मनुष्यकी मृत्यु हो जाती है, वैसे ही संघर्षके बिना भी मृत्यु हो जाती है।’ उसने इस गतिका लक्ष्य स्वार्थपूर्ति एवं कीर्तिवृद्धि ही बताया।
‘इस तरह प्रकृतिकी स्थितिमें सब युद्धरत ही थे। यह एक युद्धकी स्थिति थी। उस समय व्यक्तिगत सम्पत्ति, संस्कृति, विद्या, कला, विज्ञान, आयात-निर्यात, विश्व-ज्ञान, समय-ज्ञान, कुछ भी सम्भव नहीं थे। नैतिकता-अनैतिकता, भलाई-बुराई, वैध-अवैधका कुछ भी ज्ञान नहीं था। लोगोंको हत्याका भय सदा बना रहता था। जीवन एकाकी, निर्धन, जंगली, घृणित एवं क्षणिक था; अर्थात् यह प्राकृतिक स्थिति मात्स्यन्यायकी थी। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंसका सिद्धान्त लागू था।’ हॉब्सके विश्वासानुसार ‘मनुष्य एक प्रेरणाप्रभावित प्राणी है। प्रेरणा ही प्राकृतिक स्थितिकी कारण थी।’ साथ ही वह यह भी कहता है कि ‘मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है’ केवल प्रेरणाकी कठपुतली नहीं है। इस भीषण दशामें पहुँचकर मनुष्यने विवेकका उपयोग किया और उसे नैसर्गिक नियमोंका भान हुआ। ये नियम ईश्वराज्ञा-तुल्य होते हैं। उनका पालन व्यक्तियोंके लिये अनिवार्य है।’ वैसे तो १९ नैसर्गिक नियमोंको उसने गिनाया, फिर भी तीनको मुख्य मानता था। प्रथम—मनुष्यको शान्तिस्थापनाका प्रयत्न करना चाहिये। दूसरा यह कि जब अन्य व्यक्ति भी राजी हो तो प्रत्येक व्यक्तिकी शान्तिस्थापना और व्यक्तिगत सुरक्षाके लिये अपने सब अधिकारोंके त्यागके लिये प्रस्तुत रहना चाहिये और तीसरा यह कि प्रत्येक व्यक्तिको समझौता (इकरारनामा) मानना चाहिये।
प्राकृतिक स्थितिसे ऊबकर मनुष्योंने विवेकसे इन तीन नैसर्गिक नियमोंद्वारा असह्य स्थितिसे मुक्त होनेका प्रयत्न किया। प्रेरणाका परित्यागकर विवेकको मनुष्योंने मार्गदर्शक बनाया। फलत: एकत्रित होकर एक समझौता किया और प्रत्येक व्यक्तिने शपथ दुहरायी कि यदि आपलोग अपने अधिकारोंको इसी भाँति समर्पित करनेके लिये प्रस्तुत हैं तो मैं भी अपने अधिकारोंको इस व्यक्ति या व्यक्ति-समूहको समर्पित करता हूँ। इस शपथद्वारा प्राकृतिक स्थितिका अन्त हुआ और समाज तथा राज्यका जन्म हुआ। मानव-इतिहासका एक नया अध्याय आरम्भ हुआ और एक व्यक्ति राजा हुआ। बहुसंख्यक लोगोंने समझौतेमें भाग लिया। यदि कुछ अल्पसंख्यक लोगोंने प्राकृतिक स्थितिमें रहनेका हठ किया तो उन्हें दण्ड मिलना अनुचित नहीं था। हॉब्सके मतानुसार राजसत्ताधारी राजासे शपथ नहीं लिवायी गयी। व्यक्तियोंने ही शपथपूर्वक अपना अधिकार समर्पण किया। ‘मरता क्या न करता’ के सिद्धान्तानुसार प्राकृतिक स्थितिके मनुष्योंने भी शर्तहीन अधिकारोंका त्याग किया। हॉब्स इस सत्ताधारी व्यक्तिको ‘दीर्घकाय’ (मानवदेव) कहता है। दीर्घकाय (लेबियाथन) ही उसकी पुस्तकका नाम है। जैसे पीड़ित लोग देवताके सामने शपथ लेते हैं, वैसे ही प्राकृतिक स्थितिसे पीड़ित व्यक्तियोंने मानवदेवके सामने शपथ ली। जैसे देवता कोई शपथ नहीं लेता, वैसे ही मानवदेवने भी शपथ नहीं ली। अत: यह पूर्ण स्वतन्त्र एवं स्वेच्छाचारी बना। हॉब्सकी पुस्तकके मुखपृष्ठपर बने चित्रमें दीर्घकायका शरीर छोटे-छोटे मनुष्योंके शरीरोंसे घिरा है। इससे विदित होता है कि यह सबका प्रतिनिधित्व करता है। उसके एक हाथमें तलवार, दूसरेमें धर्मशास्त्र—राजकीय शक्ति एवं धर्मरक्षाका प्रतीक है। दीर्घकाय मात्स्यन्याय और सभ्यताके मध्यकी दीवार है। वह समाज तथा राज्य दोनोंका ही प्रतीक है।’
वस्तुत: भारतीय शास्त्रोंमें वर्णित मात्स्यन्याय एवं तदनन्तर स्थापित राजतन्त्रका ही यह अनुकरण है। इतना भेद अवश्य है कि भारतीय दृष्टिसे मात्स्यन्यायके पहले सभी व्यक्तियोंमें सत्त्वगुणकी प्रधानता थी। सभी धार्मिक एवं ईश्वरवादी थे। सभी प्राणिमात्रको ईश्वरका पुत्र समझते थे। सभी सबके साथ समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताका व्यवहार करते थे। कोई अपराधी शोषक था ही नहीं। इसलिये राजा, राज्य एवं दण्ड-विधान आदि अनावश्यक थे। धर्मनियन्त्रित जनता आपसमें ही सब काम चला लेती थी। जब उसमें सत्त्वका ह्रास हुआ, तमोगुण, रजोगुण बढ़ा, धर्म घटा, अधर्मका विस्तार हुआ, तब मात्स्यन्याय फैला। तब प्रजाने पीड़ित होकर ईश्वरसे प्रार्थनाकर उसके अनुग्रहसे चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, वरुण, कुबेर, यम आदि लोकपालोंके गुणों तथा अंशोंसे युक्त राजाको प्राप्त किया और उसे विविध प्रकारसे सम्मानित किया।
‘महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति।’
(मनु० ७।८)
इत्यादि रूपसे भारतीय शास्त्रोंमें राजाका महत्त्व गाया गया है।
हॉब्सने राजाका जन्म ईश्वरद्वारा न मानकर समझौतेद्वारा बताया। राजा निरपेक्ष अवश्य था; परंतु दैवी सिद्धान्तके अनुसार नहीं। संसदीय सिद्धान्तानुसार उसने राज और राजसत्ताको विभक्त नहीं माना। उसके अनुसार ‘नैसर्गिक और लौकिक नियम राज्यकी तलवार बिना शब्दमात्र रह जाते हैं, अत: दीर्घकायकी घोषणाएँ ही नियम हैं। जब जनताने ही अनुबन्धद्वारा अपने अधिकार राज्यको समर्पित कर दिये, तब जनताको विरोध करनेका अधिकार कहाँ रहा? वह अपने अधिकारोंसे च्युत हो चुकी, धर्मका भी रक्षक वही है।’ इस तरह हॉब्सने उस समयके गृह-युद्धकी पृष्ठभूमिमें स्थित विविध विचार-धाराओंका उत्तर दिया; परंतु धार्मिक, नैसर्गिक, लौकिक, किन्हीं नियमोंसे नियन्त्रित न होनेसे वह दीर्घकाय राजा मानवदेव न होकर दानव ही बन जायगा। इसीलिये भारतीय शास्त्रोंने उसे धार्मिक नियमोंसे नियन्त्रित रहना आवश्यक बताया। जैसे बिना नकेलका ऊँट, बिना लगामका घोड़ा, बिना ब्रेककी साइकिल या मोटर खतरनाक होते हैं, वैसे ही अनियन्त्रित शासक संसारके लिये अभिशाप होता है। जो जनता किसीको अधिकार दे सकती है, वह उद्देश्य पूरा न होनेपर उसे अधिकारसे पदच्युत भी कर सकती है। इसीलिये वेन-जैसे उद्दण्ड शासकोंको जनताने पदच्युत कर दिया था। हॉब्सने राज्यको ‘निरपेक्ष संस्था’ कहा अर्थात् बाह्य नीति या संस्थाका उसपर प्रतिबन्ध नहीं होता। उसके मतानुसार ‘किसी प्राकृतिक स्थितिके व्यक्तियों-जैसा राज्योंका असहयोग एवं स्पर्धापूर्ण सम्बन्ध रहता है। उसी तरह किसी व्यक्ति, समूह या किसी नियमद्वारा भी राज्यसत्ता सीमित नहीं होती।’
संघोंके सम्बन्धमें भी उसका कहना है कि ‘संघ प्राकृतिक मनुष्योंकी अँतड़ियोंमें कीड़ोंके समान थे। राज्योत्पत्तिसे प्राकृतिक मनुष्योंका अन्त हो गया। नये नागरिकोंका जन्म हुआ। स्वभावत: प्राकृतिक मनुष्योंके अँतड़ियोंके कीड़ों (संघों)-का भी अन्त हो गया अर्थात् राज्यमें कोई स्वतन्त्र संघ सम्भव नहीं रहा। फिर उनके द्वारा सत्ता कैसे सीमित हो सकती है? दैवी नियम, धर्म, नैसर्गिक नियम, नागरिकता, लौकिक नियमपरम्पराका भी कोई नियन्त्रण राज्यपर न रहा। इस तरह हॉब्सकी राजसत्ता एक निरंकुश शासनसत्ता हो जाती है, जिसका कि भारतीय शास्त्रोंने विरोध किया है। हॉब्सके मतानुसार ‘राजतन्त्रमें ही एकता, मन्त्रणा, गुप्तता, नीतिका स्थायित्व, व्यभिचारोंकी कमी और चापलूसों तथा तानाशाहोंकी कमी सम्भव है। ये सब बातें नरेशको छोड़कर समूहों या संघोंमें सम्भव नहीं हैं। यह सत्ता विभाज्य भी नहीं होती।’ हॉब्सके राज्यका अधिकार बहुत व्यापक था। वह जीवनके सभी क्षेत्रोंमें तथा विचारोंपर भी राज्यका हस्तक्षेप सह्य मानता था, क्योंकि विचारके नियन्त्रित होनेपर ही व्यक्तियोंके कार्य भी नियन्त्रित हो सकते हैं और ‘दीर्घकाय सत्ताधारी’ ही सर्वोच्च न्यायाधीश एवं सर्वोच्च सेनापति है। विधि-निर्माण, दण्डविधान, सन्धि, विग्रह तथा नियुक्ति आदि उसीके अधिकारमें होते हैं। प्राकृतिक स्थितिमें हर समय जीवन एवं सम्पत्ति खतरेमें रहती है। अत: वह राज्यकी ही शरण लेना व्यक्तियोंके लिये एकमात्र परमावश्यक समझता था। इसे वह नैतिक भी मानता था। जब व्यक्तियोंने अपने अधिकार राज्यको दे दिये, तब उसका पुन: अपहरण अनैतिकता है। राज्यप्रदत्त नागरिक स्वतन्त्रतासे अधिक स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। मनुष्योंने जीवन-रक्षाके लिये राज्यकी स्थापना की, राज्यका नियन्त्रण स्वीकार किया। अत: मृत्युभय, स्वार्थ, उपयोगिता ये ही उसके आधार हैं, इसी उपयोगिताके आधारपर वह राज्य-विरोधको न्यायसंगत मानता है। ‘यदि राज्यका नियम नागरिककी जीवन-रक्षापर आघात करता है तो नागरिकोंको ऐसे नियमके विरोध करनेका अधिकार है।’
ईश्वर एवं धर्मका नियन्त्रण अस्वीकारकर अनियन्त्रित धर्महीन शासकका सुख-शान्ति एवं राज्यस्थापनाका उद्देश्य भी पूरा नहीं हो सकता। कहा जाता है कि धर्म और ईश्वर माननेसे प्राणीको विचार करनेका अवकाश नहीं रहता; परंतु धर्म एवं ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार करते हुए भी हिताहित सुव्यवस्थाका पूर्ण विचार करनेका सदा ही अवकाश रहता है। विचारपूर्वक ही प्रत्येक कार्यमें प्रवृत्त होना आवश्यक है। फिर भी अनियन्त्रण, उच्छृंखलतासे हटकर किसी ढंगके भी नियन्त्रणका अंगीकार करना श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त हॉब्सका व्यक्तियोंके सम्बन्धका वर्णन एकांगी भी है। अपने बन्धुओंकी बरबादीसे सुख पानेवाले लोगोंकी संख्या वस्तुत: सदा ही कम थी। बच्चों एवं बन्धुओंकी मृत्युपर प्रसन्न होनेवाले, सोते हुए असहाय प्राणीको पाकर सर्वप्रथम मारनेकी भावना रखनेवाले मनुष्य कभी भी कम ही थे। फिर ऐसे मनुष्योंद्वारा राज्य-जैसी पवित्र संस्थाका निर्माण भी कैसे हो सकता है? रूसोका कहना है कि ‘यह कैसे सम्भव है कि मनुष्य जो एक क्षण दूसरेके गलेपर छुरी मारनेके लिये तत्पर थे, वे ही दूसरे क्षण एक-दूसरेके गले मिलने लगे?’ मानव-इतिहासमें कायाकल्पका कोई दृष्टान्त नहीं, वस्तुत: प्रेरणा और विवेक सभी कार्योंमें प्राणियोंके साथ रहते हैं।
हॉब्स एवं हल्वेशियसके मतानुसार ‘प्राणी परोपकार भी आत्महितके लिये करता है।’ परंतु जब देखा जाता है कि व्याघ्र-सरीखे क्रूर प्राणी भी अपने बच्चोंकी रक्षाके लिये प्राण देनेको तैयार होते हैं तो कहना पड़ता है कि प्रेम-परोपकार प्राणियोंमें स्वाभाविक धर्म भी होते हैं। नीतिकारोंने इन्हें इस प्रकार श्रेणीबद्ध किया है—
एके सत्पुरुषा: परार्थघटका:
स्वार्थं परित्यज्य ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृत:
स्वार्थाविरोधेन ये।
तेऽमी मानुषराक्षसा: परहितं
स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं
ते के न जानीमहे॥
(नीतिशतक ७५)
‘जो स्वार्थ त्यागकर भी परोपकार ही करते हैं, वे सत्पुरुष हैं। जो अपने स्वार्थकी रक्षा करते हुए परोपकार करते हैं, वे सामान्य लोग हैं, जो लोग स्वार्थके लिये परहितका विघात करते हैं, वे तो मनुष्य-वेषमें राक्षस ही हैं; परंतु जो लोग निष्कारण ही परहित-विघात करते हैं, वे कौन हैं—उन्हें क्या कहा जाय—यह समझमें ही नहीं आता।’
सामान्य लोग भले ही स्वार्थी हों, परंतु इस आधारपर कोई व्यवस्था नहीं की जा सकती। सामान्यरूपसे भले ही प्राणी झूठ बोलता और घाट तौलता हो तो भी व्यवहार-व्यवस्थापक यदि झूठ बोलने और घाट तोलनेको प्रश्रय देगा, तब तो अनर्थ ही होगा। इससे भी आगे सामाजिक सुख अर्थात् मनुष्य जातिके सुखके उद्देश्यसे ही प्राणीको कार्याकार्यका निर्णय करना श्रेष्ठ है। फिर भी कभी उसी कार्यसे बहुतोंको सुख होता है, परंतु कुछ लोगोंको दु:ख भी होता है। उलूकको प्रकाशसे कष्ट होता है तो भी प्रकाश त्याज्य नहीं होता। अत: ‘बहुजनसुखाय’ का विचार आवश्यक है। यद्यपि एक ढंगसे चलनेवाली ठीक टाइम देनेवाली घड़ी ठीक समझी जाती है, परंतु मनुष्य यन्त्र नहीं है। यहाँ तो उसके अन्त:करणको देखा जाता है। मान लीजिये—कोई घूस देकर या चोरबाजारीसे कोई चीज खरीदकर परोपकार करता है। भले ही उससे बहुजनहित हुआ, पर इतनेसे ही घूस या चोरी न्याय नहीं हो जायगा। अमेरिकाके एक शहरमें ट्राम्बेकी बड़ी आवश्यकता थी; परंतु जल्दी सरकारी मंजूरी नहीं मिली। व्यवस्थापकने घूस देकर मंजूरी ली और ट्राम्बे चलाया। उससे बहुत लोगोंको लाभ हुआ, हित हुआ; परंतु पीछेसे घूसकी बात खुली और व्यवस्थापकको दण्ड दिया गया।
एक कार्यमें गरीबका चार पैसा और अमीरका लाखों रुपया भावनाकी दृष्टिसे समान या कभी-कभी चार पैसाका दान ही अधिक महत्त्वका होता है। इसीलिये बाह्य परिणामोंकी अपेक्षा नीतिमत्ता एवं बुद्धिका ध्यान होना आवश्यक है।
‘दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।’
(गीता २।४९)
छोटे कीड़ोंसे लेकर मनुष्यतक प्राणियोंमें देखा जाता है कि अपने समान ही अपनी संतानों एवं जातियोंकी भी रक्षा करते हैं। किसीको दु:ख न देकर बन्धुओंकी यथासम्भव सहायता ही करते हैं। अत: सजीव सृष्टिका यही स्वभाव है।
कई कीड़ोंमें स्त्री-पुरुष-भेद नहीं होता। उनके देहमें ही भेद होकर दूसरे कीड़े उत्पन्न होते हैं। वहाँ यही कहना पड़ता है कि संतानके लिये उनमें अपने शरीरके अंशको त्यागनेकी बुद्धि होती है। जंगली जानवरों, मनुष्योंमें भी ऐसी ही प्रवृत्ति होती है। इसीलिये मनुष्य परार्थमें ही सुख मानता है, जैसा कि स्पेन्सरने भी माना है। भारतीय भावनाके अनुसार परार्थ ही जिसका स्वार्थ है, वही पुरुष सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ है—
क्षुद्रा: सन्ति सहस्रश: स्वभरण-
व्यापारमात्रोद्यता:
स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमा-
नेक: सतामग्रणी:।
(सुभाषितावलि २८५)
हॉब्सके अनुसार हत्याके भयसे मनुष्यका व्यक्तिगत स्वतन्त्रताका परित्यागकर एक अनियन्त्रित शासकके शरण होना वैसा ही लगता है, जैसे एक जंगली बिल्लीसे डरकर खूँखार हिंस्र शेरकी शरण जाना। रूसोका कहना है कि ‘स्वतन्त्रता प्रकृतिकी देन है। स्वतन्त्रताका परित्याग मनुष्यताका ही परित्याग है।’ हॉब्सका सिद्धान्त न तो प्राचीन धार्मिक लोगोंने ही माना और न जडवादियोंने ही। उसके मतानुसार ‘राज्यका अधिकार ईश्वरीय, धार्मिक एवं पैतृक भी नहीं और न जनतान्त्रिक ही है।’ वस्तुत: पाश्चात्य दर्शनकार अपनी परिस्थितियोंसे ऊँचे उठकर विचार कर ही नहीं सके। इसीलिये हॉब्सने अपनी भीरु प्रकृतिके अनुसार ही भयमूलक सिद्धान्त भी स्थापित किया।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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