3.10 आदर्शवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.10 आदर्शवाद

ईसाके पूर्व यूनानी कालमें ‘आदर्शवाद’ का उदय हुआ। आदर्शवादी राज्यको एक आदर्श संस्था मानते हैं और कर्तव्यपरायणता उसकी आधार-शिला कहते हैं। इस दृष्टिसे ‘राज्य और व्यक्ति—दोनों ही कर्तव्यके बन्धनमें आबद्ध होकर आगे बढ़ते हैं। इसमें नागरिककी राजभक्ति और राज्यका मनुष्योंके जीवन-यापनकी सुव्यवस्था करना परम कर्तव्य है। दोनों अन्योन्य-पोषक होते हैं। कहा जाता है कि यह सभ्यता दास-प्रथा-कालकी है। जिसमें बहुसंख्यक दासोंके स्वामी ही राज्य करते थे। वे ही स्वतन्त्र नागरिक होते थे। यूनानी दार्शनिक मनुष्योंको प्रकृतिसे ही सामाजिक प्राणी मानते थे। ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’ अरस्तूका यह ऐतिहासिक वाक्य प्रसिद्ध है। समाज एक प्राकृतिक संस्था है। इसका मनुष्यके साथ अंग और अंगी (शरीर) जैसा सम्बन्ध है। जैसे अंगीके बिना अंग जीवित नहीं रह सकता, वैसे ही समाजके बिना मनुष्य नहीं रह सकता।’ इस मतके अनुसार ‘मनुष्य आन्तरिक मनोवृत्तिसे ही राजनीतिक संस्थाका सदस्य है। आदर्श राज्यके द्वारा ही नागरिककी नैतिकताका जन्म होता है। नागरिकोंके जीवनयापनकी सुव्यवस्थाके लिये राज्यको उसके आर्थिक एवं सामाजिक जीवनमें हस्तक्षेप करना आवश्यक है। ग्रीकराज्य एवं समाजमें प्रत्येक वर्ग-उपवर्गके कार्य पृथक्-पृथक् थे। व्यक्तिको स्व-वर्गके अनुसार ही चलना पड़ता था। अफलातून इसीको ‘राज्यकी सच्ची सेवा’ कहता था। स्वधर्म-पूर्तिके लिये ही समाजसेवाका उद्देश्य था। यह व्यक्तिका श्रेष्ठ कर्तव्य था, यही सच्चरित्रता भी थी। ग्रीक (यूनानी) ‘नगर राज्य’ एक स्वतन्त्र राशि माना जाता था। घरेलू विषयोंमें वह सर्वसम्पन्न एवं निरपेक्ष था। इसे कोई अन्ताराष्ट्रिय प्रतिबन्ध भी नहीं था। यह छोटा जनवादी राज्य नागरिकोंकी नैतिकताका प्रतिनिधित्व करता था। वह अन्ताराष्ट्रिय नैतिकतासे परे था। नैतिक जीवन एवं नागरिक स्वतन्त्रता केवल राज्यद्वारा ही सम्भव हो सकती है। यह विचारधारा ‘ग्रीस (यूनान)-की महान् देन’ समझी जाती है। यूरोपमें कई शतियों बाद १८वीं शतीमें रूसोने इसका पुनरुत्थान किया। रूसोके इस प्रयत्नका प्रभाव सभी दर्शनोंपर पड़ा।’
यद्यपि व्यक्तिगतरूपसे ही प्राणियोंको शुभाशुभ काम करने पड़ते हैं। व्यक्तिगतरूपसे ही प्राणियोंको कर्मफल भोगने पड़ते हैं। संसारमें भी राज्य-नियमका उल्लंघन करनेसे व्यक्तिको ही दण्ड मिलता है—
एक: पापानि कुरुते फलं भुङ्‍क्ते महाजन:।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते॥
(महा० उद्यो० प्रजा० ३३।४२)
कभी-कभी एक व्यक्तिके पापका फल समुदायको भी भोगना पड़ता है। जैसे एक व्यक्तिने मधुमक्खीके छत्तेको छेड़ दिया। उसका दुष्परिणाम आस-पासके सभी लोगोंको भोगना पड़ता है। भोक्ता लोग तात्कालिक फल भोगकर मुक्त हो जाते हैं, परंतु कर्ता ही दोषसे लिप्त होता है। परलोकमें अपना शुभाशुभ कर्म ही व्यक्तिके साथ जाता है। व्यक्तिका समुदाय ही समाज होता है। अत: व्यक्तिकी उत्पत्ति पहले हुई, फिर आवश्यकतानुसार समाजका निर्माण संगत है।
रूसो कहता था—‘प्राणी स्वतन्त्र जन्मा है; परंतु सभ्यताके जन्मसे वह विविध बन्धनोंसे जकड़ गया।’ वह इस परतन्त्रताकी बेड़ीसे मनुष्यको मुक्त करना चाहता था। उसका कहना था कि ‘अति प्राचीन नैसर्गिक स्वतन्त्रताका पुनर्जन्म तो नहीं हो सकता; परंतु एक नागरिक उच्च नैतिक वास्तविक स्वतन्त्रताकी स्थापना हो सकती है।’ प्रत्यक्ष जनवादी राज्य रूसोका आदर्श राज्य था। ‘प्रत्येक नागरिक व्यवस्थापिकाका सदस्य होता था। राज्य-नियम स्वीकृतिसे ही बनते थे। वे नियम जनताकी सामाजिक इच्छाका प्रतिनिधित्व करते थे। प्रत्यक्ष जनवादी राज्यकी इच्छा ही रूसोकी ‘सामान्येच्छा’ थी। वही सत्ताधारी था। सबकी इच्छामें एकताकी भावना नहीं होती। वह सुधारद्वारा ही सामान्येच्छा बन सकती है। सामान्येच्छामें सावयव या अवयवीकी-सी एकता होती है। सबकी इच्छामें इसका अभाव होता है। व्यक्तिकी शान्तिकी इच्छा सावयवकी एकतासे विदित होती है। जिस नियममें क्षेत्र, ध्येय, उद‍्गम, सामान्य होते हैं, वही सामान्येच्छाका प्रतीक होता है। अर्थात् जो नियम सभीके लिये हितकर हों, जो व्यक्ति या समुदायविशेषसे सम्बन्धित न होकर सम्पूर्ण राज्यसे सम्बन्धित हों तथा जो नि:स्वार्थ सामाजिक इच्छाका प्रतिनिधित्व करें और उनके मतदानसे निर्धारित हों, वे ही नियम सामान्येच्छाके प्रतिनिधि हैं।’
‘इच्छा दो प्रकारकी होती है। एक सामाजिक, दूसरी व्यक्तिगत। नागरिकोंकी सामाजिक इच्छाका ही प्रतिनिधित्व सामान्येच्छा करती है। प्रगति एवं शान्तिकी इच्छा सामान्येच्छा है। राष्ट्रोंके वैमनस्यमूलक युद्ध आदिकी स्वार्थमूलक इच्छा सबकी इच्छा हो सकती है, सामान्येच्छा नहीं।’ रूसोके अनुसार सबकी इच्छा नागरिकोंकी स्वार्थसम्बन्धी इच्छाका योग है, परंतु सामान्येच्छा तो नागरिकोंकी सामान्येच्छाका प्रतिबिम्ब होती है। सबकी इच्छा अस्थायी हित और स्वार्थी ध्येयोंसे सम्बद्ध होती है। सामान्येच्छामें स्थायी हित एवं सार्वजनिक भलाई निहित है। सावयवकी इच्छाकी भाँति राज्यकी सामान्येच्छा स्थायी है और सदा सत्य एवं सामान्य हितका प्रदर्शन करती है। ऐसे इच्छाकी अनुपस्थितिमें न राज्य सम्भव है, न नागरिकता। जोन्सके अनुसार ‘जैसे एक खेलके खिलाड़ी विभिन्न इच्छा रखते हुए भी खेलके साधारण एवं नैतिक नियमोंका पालन करना चाहते हैं, वैसे ही नागरिकोंको विभिन्न मतभेदोंके होते हुए भी एक सामान्य हित एवं सामाजिक हितकी इच्छा होती है। यह भावना ही सामन्येच्छा तथा सुव्यवस्थाकी धात्री है। ऐसी भावनाको ग्रीन ‘सामान्य स्वार्थ’ कहता है। रूसोके मतसे ‘सामान्येच्छानुसार जीवनयापनमें ही व्यक्तिकी नैतिक, नागरिक तथा वास्तविक स्वतन्त्रता सम्भव है। इसके विपरीत व्यक्तिकी वास्तविक स्वतन्त्रता नहीं होती। ऐसे व्यक्तिके हितके लिये उसे सामान्येच्छाके अनुसार जीवनयापन करनेके लिये बाध्य किया जा सकता है। एक नटखट विद्यार्थीको कक्षामें चुप रहनेके लिये बाध्य करनेकी क्रियाका अर्थ है, उसे स्व-तन्त्रमें होनेके लिये बाध्य करना।’
रूसोके अनुसार ‘स्वतन्त्र राज्यमें स्वतन्त्र नागरिक’ यह आदर्श व्यवस्था है। इसमें स्वतन्त्रता और नियम एक-दूसरेके विरोधी नहीं होते।’ लॉकके अनुसार भी राज्यकी अनुपस्थितिमें ‘मनुष्य स्वतन्त्र और नैतिक जीवन व्यतीत करता था।’ रूसोने इसका खण्डन कर बताया कि ‘नैतिकता और अधिकार केवल राज्यमें ही सम्भव हो सकते हैं।’ एक-सत्ताधारियोंने राजसत्ताधारीका क्षेत्र कुछ सीमित अवश्य कर दिया। बोदाँने राजसत्ताधारीको नैसर्गिक मौलिक नियमोंके अधीन माना था। हॉब्सने कहा था कि ‘राजसत्ताधारी कोई अन्याय नहीं कर सकता, न किसी नागरिकको प्राणत्यागके लिये बाध्य कर सकता है।’ रूसो सामान्येच्छाके क्षेत्रको सामान्य विषयोंतक ही सीमित मानता है। वेन्थम इसे उपयोगितावादसे सीमित मानता है। वेन्थमवादी उपयोगिताके विपरीत नियम-निर्माण नहीं कर सकता, फिर भी वैधानिक दृष्टिसे एक-सत्तावादियोंका राज्य ‘सर्वे सर्वा है’, वह कोई भूल नहीं कर सकता। अपनी प्रादेशिक सीमामें राज्य सर्वाधिकारी प्रभु है। कोई भी संघ, भले वह ईसाई धर्मकी तरह अन्ताराष्ट्रिय ही हो, राज्यके नियमोंसे परे नहीं हो सकता। हाँ, राजदूतावास एवं उसके निवासी राज्यविधियोंके अधीन नहीं होते। इस तरह परदेशी नागरिकों एवं दूतावासोंसे ही राज्यकी व्यापकता सीमित है। उन-उन राजदूतावासोंमें उन-उन राज्योंके ही नियम चलते हैं, अन्य सभी विषयोंमें राज्यका एकाधिकार ही होता है। इस अर्थमें राजसत्ताकी व्यापकता मान्य होती है। इसी तरह राजसत्ता अदेय मानी जाती है। राजसत्ताको राज्यसे हटानेका अर्थ है ‘राज्यका अन्त करना।’ राजसत्ताके बिना राज्य प्राणहीन होता है। अतएव अस्थायीरूपसे राज्य अपने राजसत्ताधारी अधिकार किसी संस्थाको दे सकता है। इस कार्यसे उसके राजसत्ताधारी रूपका अन्त नहीं होता। वह उन अधिकारोंको वापस ले सकता है। यदि एक राजसत्ताधारी राजा या संस्था पदत्याग करे तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि राजसत्ताका अन्त हो गया। इससे केवल राजसत्ताका स्थान परिवर्तित होता है। राज्यके समान ही राजसत्ता स्थायी है। सरकारमें परिवर्तन होनेसे राज्य या राजसत्तामें परिवर्तन नहीं होता। राजसत्ता अविभाज्य होती है। राज्योंके शक्ति-विभाजनके कारण राज्यके कार्य विभक्त होते हैं; परंतु इससे राजसत्ताका विभाजन नहीं होता।
रूसोके अनुसार ‘शक्तिका विभाजन हो सकता है, राज्यकी इच्छाका नहीं।’ १९वीं शतीमें भी औद्योगिक क्रान्तिके फलस्वरूप सामाजिक जीवनमें स्पर्धा एवं संघर्षका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उस स्थितिमें राजसत्ता एक राशि न होकर अनेक प्रकारकी हो गयी। कई राष्ट्रोंमें वैधानिक राजसत्ता मान्य होती है, जैसे ब्रिटेनका सम्राट्, भारतका राष्ट्रपति। उसकी स्वीकृतिके बिना कोई कार्य नहीं चल सकता, परंतु उत्तरदायी मन्त्रिमण्डलकी स्वीकृतिके बिना ऐसे सत्ताधारी श्रेष्ठ जन कुछ भी नहीं कर सकते। ब्रिटेनमें सम्राट् और संसद् राजसत्ताधारी हैं। वे सभी प्रकारका नियम बना सकते हैं। कुछ परिस्थितियोंके कारण संसद् राजसत्ताधारी नहीं होती। आधुनिक समाजसेवक राज्यमें संसद् नियम निर्माणमें स्वतन्त्र नहीं होती। वस्तुत: कार्यपालिका ही सत्ताधारी होती है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिकामें कांग्रेस ही नियम निर्माण करती है, परंतु कुछ नयी परिस्थितियोंके कारण राष्ट्राध्यक्षका भी परोक्षरूपसे नियम-निर्माणमें महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इसीलिये विश्वके वैधानिक अध्यक्षोंमें अमेरिकाका राष्ट्रपति सबसे अधिक अधिकारसम्पन्न होता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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