3.11 जनवादी राजसत्ता
आधुनिक जनवादी नागरिक जनता निर्वाचनद्वारा ही नहीं, किंतु प्रचारद्वारा भी राज्यकी नीतिपर प्रभाव डालती है। भाषण, लेखन, आन्दोलनद्वारा जनमत बनता है। सरकारोंको भी तदनुसार अपनी नीति बनानी पड़ती है। कहा जाता है कि ‘समाजके वास्तविक शासक ढूँढ़े नहीं जा सकते। कभी एक संघ, कभी दूसरा, कभी कोई आन्दोलन, कभी कोई प्रचार सफल होता है। अत: सर्वोच्च शासनसत्ता जनतामें ही निहित होती है। नियमविधायिनी संस्थाके संघटनकी दृष्टिसे निर्वाचकगण सत्ताधारी होते हैं। राजनीतिके सम्बन्धमें समस्त जनताके मतका योग ही सत्ताधारी है।’
उपर्युक्त अधिकांश बातें केवल विभिन्न राष्ट्रोंकी घटनाओं, इतिवृत्तोंकी आलोचना-प्रत्यालोचनाओंके आधारपर ही निर्णीत होती हैं। यहाँ औचित्य-अनौचित्यकी कसौटी उत्तरोत्तरकी घटनाएँ तथा मान्यताएँ ही हैं, परंतु भारतीय विवेचक इसे अपर्याप्त मानते हैं। ‘मानवका इतिहास प्रगतिका इतिहास है’, केवल इसी आधारपर पूर्व-पूर्वके विचार और घटनाएँ हेय हैं, उत्तरोत्तरके विचार एवं घटनाएँ उपादेय हैं, यह कहना नितान्त अज्ञता है। इससे तो पूर्व-पूर्वके बुद्धिमानोंका भी महत्त्व घटता है, उत्तरोत्तरके मूर्खोंका भी महत्त्व बढ़ता है। कहा जा चुका है कि घटनाएँ भली, बुरी सब तरहकी होती हैं। विचारधाराएँ भी सदा ही अच्छी-बुरी होती हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्त एवं आगमसम्मत विचार तथा घटनाएँ आदरणीय हैं। तद्विपरीत हेय हैं। तत्त्वनिर्णयमें परिस्थिति, घटनाओं एवं तात्कालिक परिस्थितियोंसे प्रभावित विचारोंका कोई महत्त्व नहीं होता। लुटेरोंका राज्य हो जाय, तो ‘हो गया इसलिये उचित मान लिया जाय’ यह नहीं कहा जा सकता; किंतु सदा ही उसे मिटानेका प्रयत्न होना चाहिये। उचित योग्य व्यवस्था अति प्राचीन हो या अभूतपूर्व अनागत हो, उसका आदर होना चाहिये। धर्मनियन्त्रित धर्मसापेक्ष पक्षपातविहीन समष्टि-व्यष्टि-अविरोधेन सर्वहितकारी राज्य ही रामराज्य, धर्मराज्य एवं ईश्वरराज्य है। उसीका सदा आदर हुआ है, आगे भी होगा। वर्तमान कालमें भी उसीके लिये प्रयत्नशील होना आवश्यक है। इस दृष्टिसे एक सत्तावादीकी निरंकुश राजसत्ताका समर्थन नहीं किया जा सकता।
कहा जाता है कि ‘जहाँ पहले सरकार स्वामी तथा जनता दास थी, वहाँ रूसोकी व्यवस्थामें सरकार दास एवं जनता स्वामी है। उसके मतानुसार जनवाणी देववाणी है। रूसोके जनवादके आधारपर ही मत-संग्रह आदिकी प्रथा है। रूसो भी एक सत्तावादी था, उसके दर्शनमें अन्य संस्था या समुदायका कोई स्थान न था। नागरिक एवं राज्यमें वह सीधा सम्बन्ध रखना चाहता था। उसके शासनतन्त्रमें समाचारपत्रों, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक या सांस्कृतिक संघका स्थान नहीं। उसके अनुसार व्यक्ति प्रकृतिसे ही पवित्र है। संघहीन समाजमें व्यक्ति स्वयं ही सामाजिक इच्छा या राज्यकी सामान्येच्छाके अनुसार सोचेगा। संघों—प्रचारयन्त्रोंसे नैसर्गिक पवित्रताका ह्रास होता है।’
यद्यपि उसका यह कथन अंशत: सत्य है, वर्तमान सभ्यता एवं प्रचारप्रपंचोंसे जाल-फरेबका ही विस्तार हुआ है तथापि सच्छिक्षासे सद्बुद्धि, सद्बुद्धिसे सदिच्छा और उससे सत्प्रयत्न एवं सत्फल होता है। सच्छिक्षाका निर्धारण होना आवश्यक है। यदि दुर्भाग्यवश किसी उत्पथगामी समुदायके हाथमें राजसत्ता आ गयी और समाचारपत्रों तथा प्रचारोंपर भी प्रतिबन्ध रहा, तब तो सदा ही जनसमूहको शासनके अत्याचारोंको सिर झुकाकर सहते रहना पड़ेगा। शासन बदलनेका भी उसे कभी अवसर नहीं मिलेगा। इस तरह आदर्श राज्यके नामपर तानाशाहीकी स्थापना होगी।
रूसो राज्यद्वारा एक नागरिक धर्मनिर्माण भी चाहता था। इस तरह सभी क्षेत्रोंमें राज्य हावी हो जायगा। व्यक्ति-विकासका अवकाश सर्वथा समाप्त हो जाता है। आजके समय सामान्येच्छाका बोध कितना दुर्गम है। विशेषत: व्यक्तिस्वातन्त्र्य एवं प्रकाशन, भाषण-विस्तारका साधन न होनेसे तो वह और भी दुर्ज्ञेय हो जायगी। रूसोने नियमसे नागरिकताकी भावनाका जन्म माना और कहीं पर नागरिक भावनासे नियमका जन्म माना। यह परस्पर विरुद्ध है। उसने यह भी माना है कि ‘राज्यमें एक व्यवस्थापकद्वारा नागरिक भावनाके जन्म और प्रसारका प्रयत्न होगा।’ इस तरह भावना-निर्माण और उसके अनुसार नियम-निर्माण होगा, अन्य किसी व्यक्ति या समुदायको भावना-निर्माणका अधिकार न होगा। फिर तो जिसके हाथमें शासन होगा, वही जो चाहे करेगा। इस तरह रूसोके मतानुसार जनवाद, अधिनायकवाद—दोनों ही साथ-साथ रहते हैं। अधिनायकवाद मानवताका विरोधी ही समझा जाता है। ‘नागरिकको स्वतन्त्र होनेके लिये बाध्य किया जायगा’ यह एक विचित्र बात है। जनकल्याण-कल्पना स्वतन्त्र करनेके नामपर परतन्त्र बनानेका व्यामोहक मायाजाल है। बोसाँके कहता है कि ‘प्रत्येक राज्यकी इच्छा चाहे वह तानाशाहकी इच्छा ही क्यों न हो सामान्येच्छा है।’ उसके अनुसार ‘नागरिकको जीवनयापन करनेके लिये बाध्य किया जाना चाहिये, अर्थात् स्वतन्त्र होनेके लिये बाध्य किया जाना चाहिये।’ यद्यपि यह ठीक ही है कि कितने ही कार्योंमें जनहितके लिये उसकी इच्छाके विरुद्ध कुछ करनेके लिये बाध्य किया जा सकता है। जैसे किसी अदीर्घदर्शी अबोध शिशुकी कुपथ्य-परिवर्जन, पथ्य-परिपालन तथा चिरायता आदि-जैसी कटु औषधोंके सेवनमें प्रवृत्ति नहीं होती तो वहाँ उसे हितैषिणी माताके द्वारा वैसा करनेके लिये बाध्य किया जा सकता है—
जदपि प्रथम दुख पावइ
रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी
गनति न सो सिसु पीर॥
एक हितैषी डॉक्टर भी ऑपरेशन करते हुए चीरफाड़ करता है और एक दुर्भावनावाला कूटनीतिज्ञ दुश्मन भी चीरफाड़ करता है। आजकल विभिन्न शासनारूढ़ दल ऐसी स्थिति उत्पन्न करके नागरिकों एवं दूसरे दलोंकी प्रचार-सुविधा रोककर केवल अपना ही प्रचार करते हैं। यह सदाके लिये अपने दलका शासन कायम रखनेका षडॺन्त्र ही है। स्वास्थ्यवर्धक ओषधि खानेके लिये बाध्य करना एक बात है और जहर खानेके लिये बाध्य करना अन्य बात।
अठारहवीं शतीके मध्यसे उन्नीसवीं शतीतक ब्रिटेन एवं फ्रांसमें आधुनिक आदर्शवादका प्रभाव बढ़ा। स्वतन्त्रता, भ्रातृता, समानता फ्रांसीसी राज्यक्रान्तिका नारा था। वह समस्त यूरोपमें गूँजा और गरीब, किसान तथा मजदूरलोगोंने उसे अपनाया। जर्मनी, प्रशा आदि मध्य यूरोपके देशोंमें राष्ट्रियताका प्रसार हो रहा था। उसके अनुकूल आदर्शवादका जन्म हुआ। उदारवादके अनुसार राज्य-साधन तथा उसका कार्यक्षेत्र सीमित है। उसमें स्वतन्त्रताका अर्थ है स्वेच्छासे जीवन-निर्वाह करना। ठीक इसके विपरीत आदर्शवादके अनुसार आदर्श राज्य साध्य, नि:सीम एवं निरपेक्ष है, उसके हस्तक्षेपपर कोई प्रतिबन्ध नहीं। इसके अनुसार स्वतन्त्रताका अर्थ है ‘राज्यके नियमानुसार जीवन-संचालन करना।’ मान्टेस्क्यू शक्ति-विभाजन स्वतन्त्रताके लिये अनिवार्य मानता था। आदर्शवादी शक्ति-विभाजनके पक्षमें नहीं थे। उदारवादमें जनस्वीकृति मुख्य है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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