3.17 एफ० एच० ब्रैडले
एफ० एच० ब्रैडले (१८४६-१९२४)-का कहना था कि ‘मनुष्यका समाजसे बाहर कोई अस्तित्व ही नहीं। समाजद्वारा ही उसे भाषा एवं विचार मिलते हैं। मनुष्यका शरीर एक पैतृक सम्पत्ति है, परंतु बिना समाजके यह सम्पत्ति प्रगति नहीं कर सकती। व्यक्तित्व-वृद्धिके लिये समाज अनिवार्य है।’ उसके अनुसार ‘व्यक्तिको समाजमें स्थान चुननेकी स्वाधीनता है, परंतु चुननेके पश्चात् समाज-सम्बन्धी कर्तव्योंका पालन अत्यावश्यक है।’ बोसांके (१८४८-१९२३)-की प्रसिद्ध पुस्तक ‘फिलॉसोफिकल थ्योरी ऑफ दि स्टेट’ (राज्यका दार्शनिक सिद्धान्त) है। उसके दर्शनमें रूसोकी सामान्येच्छाका विश्लेषण किया गया है। वह राज्यकी इच्छाको सामान्येच्छा मानता था। वह सामाजिक इच्छाके अनुसार कार्य करनेको ही स्वतन्त्रता मानता था। इसीलिये चोर स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता। व्यक्तिकी सामाजिक इच्छा सामान्येच्छासे अभिन्न है, यह राज्यमें निहित है, उसका कहना है कि ‘एक चोरके चोरी करनेका कार्य स्वार्थमयी इच्छाका प्रतिबिम्ब है। यह कार्य उसके वास्तविक स्वतन्त्रताके अनुसार नहीं है। न्यायाधीशका चोरको दण्ड देनेका कार्य चोरकी सामाजिक या विवेकशील इच्छाका प्रतीक है।’ उसके अनुसार चोरकी वास्तविक स्वतन्त्रता चोरी करनेमें नहीं, बल्कि दण्ड भोगनेमें है। सामान्येच्छा और सबकी इच्छामें यह भी विभिन्नता मानता है।
रूसोकी सामान्येच्छा जनतन्त्रीय है, परंतु इसके मतानुसार ‘सामान्येच्छा राज्यमें ही निहित है, भले ही वह राज्य तानाशाही क्यों न हो। एक तानाशाहकी इच्छा भी उसके अनुसार सामान्येच्छा है।’ रूसोके अनुसार राजसत्ता नागरिकोंमें निहित होती है। अत: उसके अनुसार नागरिकोंको स्वतन्त्र होनेके लिये बाध्य करना न्याय-संगत है, परंतु एक अधिनायककी इच्छाके अनुसार काम करनेके लिये नागरिकको बाध्य किया जा सकता है और इसीको स्वतन्त्र होनेके लिये बाध्य करना कहा जायगा। उसके अनुसार ‘राजसत्ताधारी नागरिकोंकी सामाजिक इच्छाके प्रतिबिम्बभूत सामान्येच्छाके अनुसार नियम बनायें, भले ही नागरिक उनका विरोध करें। वह विरोध उनके अज्ञानका ही प्रतीक है। वे राज्यनिहित अपनी सामाजिक इच्छाको नहीं जानते। स्वार्थी तात्कालिक इच्छाके अधीन होकर नियमका विरोध करते हैं। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति नदीमें तैरना चाहता है। दूसरा उसका हितैषी तैरनेसे रोकता है; क्योंकि उसमें घड़ियाल-मगर आदि हैं। जिसने कि तैरनेवाला खतरेमें पड़ सकता है। तैरनेकी इच्छा स्वार्थी इच्छा है। रोकनेवालेका परामर्श सामाजिक एवं विवेकशील इच्छाके अनुसार है। इसी तरह व्यवस्थापक, सत्ताधारी, सामाजिक, विवेकशील इच्छाका प्रतिनिधि है। विरोधी नागरिक स्वार्थी इच्छाके अनुसार कार्य करता है।’ बोसांकेके मतानुसार ‘राज्य अनैतिक कार्य नहीं कर सकता।’ हीगेलके समान ही बोसांके भी ‘अन्ताराष्ट्रिय नैतिकता और अनुबन्धोंको स्थान नहीं देता। उसने भी राज्यको साध्य बनाया है, साधन नहीं। ‘राज्य सर्वेसर्वा है।’
अनुबन्धवादमें राज्य कृत्रिम संस्था मानी गयी, व्यक्तिको सर्वोच्च स्थान मिला, सामाजिक हित गौण हो गया। ह्यूम, वेन्थम आदिने उपयोगिताको राज्यके जन्मका कारण कहा। इन्होंने राज्यके अनुबन्धवादी और कृत्रिम रूपका खण्डन किया, परंतु उपयोगिताके आधारपर व्यक्तिको सर्वेसर्वा माना। आदर्शवादने राज्यको प्राकृतिक संस्था और व्यक्तिको स्वभावत: सामाजिक प्राणी कहा। इसीलिये प्राणी संस्था या समाज बनाता है। इसी प्रवृत्तिसे राज्य बना। व्यक्तिका राज्यमें रहना आन्तरिक मनोवृत्तिके अनुकूल है। राज्य व्यक्तिकी सामाजिक मनोवृत्तिका प्रतिबिम्ब है। इसमें राज्य साध्य है, व्यक्ति साधन। परंतु भारतीय भावनाके अनुसार ‘रंजनाद्राजा’ के सिद्धान्तानुसार प्रजाका रंजन करना ही राजाका कार्य है। प्रजाहितार्थ तथा व्यक्तियोंके हितार्थ राजा अपने सर्वस्वका बलिदान करता है—
स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा॥
(उत्तररामचरित १।१२)
‘ब्याधि नास हित जननी गनै न सो सिसु पीर।’
—के अनुसार यह ठीक है कि कई प्रजाहित ऐसे हो सकते हैं कि जिन्हें सामान्य जन नहीं समझ सकते, परंतु समष्टिमें विशिष्टों एवं विशेषज्ञोंका अभाव नहीं रहता। अत: समष्टिकी उपेक्षा कर नियमनिर्माण या समाजकी इच्छाके प्रतिकूल कार्य करनेके लिये बाध्य करना न्यायसंगत नहीं। कहा जा चुका है कि डॉक्टरसे ऑपरेशन कराया जा सकता है, परंतु विरोधी शत्रुको ऐसा करनेकी स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती। सावयववादके अनुसार नागरिक अंगहित और राज्य सावयवहित अन्योन्याश्रित है। सावयवराज्यके बिना अवयव नागरिककी बौद्धिक, शारीरिक, नैतिक, आर्थिक प्रगति नहीं हो सकती। समाज या राज्यके बाहर सभ्य-जीवन सम्भव नहीं होता। इस दृष्टिसे राज्य एक आवश्यक विकार न होकर अनिवार्य प्राकृतिक संस्था है। हॉब्सके सत्ताधारी ‘दीर्घकाय मानवदेव’ (लेबियाथन)-के समान ही आदर्शवादियोंने भी नागरिकोंके हितार्थ एक ‘दीर्घकाय’ को समाजशास्त्रमें प्रस्तुत किया। यह दीर्घकाय आदर्शवादियोंका राज्य है। हीगेलका राज्य विश्वात्मा या ‘सर्वव्यापक विचार-तत्त्व’ का प्रतिबिम्ब है। बोसांकेका राज्य ‘सामान्येच्छा’-का प्रतीक है। इन सिद्धान्तोंकी ओटमें व्यक्तिगत उचित स्वतन्त्रताका भी अपहरण किया गया। नैतिकताकी वृद्धि राज्य तथा नागरिकका सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य माना जाना ही आदर्शवादका भौतिकवादियोंसे वैशिष्टॺ है। राजनीति-शास्त्रके साथ आचार-शास्त्रका सम्बन्ध महत्त्वकी वस्तु है। किंतु राज्यको अन्ताराष्ट्रिय नैतिकतासे भी मुक्त मानना राज्यकी पूर्ण निरंकुशताका समर्थन है। ‘राज्य कोई अनैतिक कार्य कर ही नहीं सकता। युद्धसम्बन्धी अत्याचार अनैतिक नहीं कहे जा सकते’ यह सब असंगत एवं मानवता-विरुद्ध है। रामराज्यमें अनिवार्य होनेपर युद्ध आदरणीय अवश्य है, परंतु उसके भी कुछ धर्म हैं, नियम हैं। अत्याचार, क्रूरता वहाँ भी अनैतिक ही है। शस्त्रहीन, अयुद्धॺमान, पराङ्मुखका वध आदि यहाँ भी अनैतिक ही है। स्वतन्त्र-बुद्धि-प्रसूत कल्पनाएँ निरंकुश होती हैं, इसीलिये पाश्चात्य दार्शनिकोंमें दार्शनिकोंकी परस्पर अत्यन्त विसंगति है। कोई व्यष्टिवादका अतिवाद, कोई समष्टिवादका अतिवाद स्वीकार करते हैं। कोई प्रजा-प्राखर्य, कोई राज्य-प्राखर्यको चरम सीमापर ले जाना चाहते हैं। बिना सुस्थिर शास्त्रीय प्रमाण और बिना प्रामाणिक परम्पराके इन विभिन्न नुस्खोंको आजमाइशके लिये विभिन्न राष्ट्ररूपी प्रयोगशालामें प्रयुक्त किया जाता है। कोई भी प्रयोग कुछ सालोंमें ही असफल सिद्ध हो जाते हैं।
रामराज्य-प्रणाली ठीक इसके विपरीत है। वह अनादि अनन्त ईश्वरीय अपौरुषेय शास्त्रों एवं आर्ष, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक शास्त्रों तथा प्रामाणिक परम्पराओंके आधारपर स्थिर है। यह प्रणाली ईश्वरराज्य, धर्मराज्य, रामराज्य, पक्षपात-विहीन धर्मसापेक्षराज्य, अध्यात्मवादपर आधारित धर्मनियन्त्रित शासनतन्त्र आदि नामोंसे प्रसिद्ध है। वह लाखों-करोड़ों नहीं, अरबों वर्षोंसे सफल अनुभूत है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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