3.19 कार्ल मार्क्स
मार्क्सका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवारमें हुआ। पहले उसने वकालतकी शिक्षा ग्रहण की। फिर वह पत्रकार बना, समय पाकर उसने ‘हीगेलवाद’ का अध्ययन किया। मानवतावादसे प्रेरित होकर वह श्रमिक आन्दोलनमें अग्रसर हुआ और शीघ्र ही आन्दोलनका नेता बन गया। उसकी जीविकाका आधार उसके लेख एवं एंजिल्सकी सहायता ही थी। गरीबी अवस्थामें भी उसने अपना ध्येय नहीं त्यागा। अफलातून, अरस्तू, हीगेलकी श्रेणीमें ही वह भी उच्च दार्शनिक गिना जाता है। ‘पावर्टी ऑफ फिलॉसफी’ ‘मेनिफेस्टो ऑफ कम्युनिस्ट पार्टी’ ‘एटीन्थ ब्रूमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट’ ‘ए कंट्रिब्यूशन टु दी क्रिटिक ऑफ पोलेटिकल इकोनॉमी’ ‘दास कैपिटल’ ‘सिविल वार इन फ्रांस’ ‘दी गोथा प्रोग्राम’ ‘क्लास स्ट्रगल इन फ्रांस’ ‘रेवेल्यूशन एण्ड काउण्टर रेवेल्यूशन’ आदि उसके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।
एंजिल्स एक धनी व्यवसायी कुटुम्बमें जन्मा था। उसका पिता प्रशाका एक व्यवसायी था। युद्धमें एंजिल्स ब्रिटेनके व्यवसायी नगर मेनचेस्टरमें रहने लगा। वह स्वयं एक मिलमालिक था। उसने मार्क्सको आर्थिक, बौद्धिक दोनों ही प्रकारकी आजन्म सहायता दी। मार्क्सकी मृत्युके बाद कम्युनिस्ट आन्दोलनका नेतृत्व उसने ही किया। उसने मार्क्सके सिद्धान्तोंको विज्ञान तथा दर्शनपर लागू किया। उसकी कई पुस्तकें प्रसिद्ध हैं।
लेनिन क्रान्तिकारी वॉलशेविक दलका जन्मदाता हुआ। २०वीं शताब्दीमें रूसके समाजवादी जनतान्त्रिकदलमें दो पक्ष हो गये। एक वॉलशेविक, दूसरा मेनशेविक। वॉलशेविक दल पहले क्रान्तिकारी था, लेनिन उसका नेता था। बहुत संघर्षोंके बाद १९१७ में उसके नेतृत्वमें समाजवादी क्रान्ति हुई और जीवनपर्यन्त वह सोवियत-शासनका प्रमुख सूत्रधार बना रहा। उसकी सारी कृतियाँ ग्यारह ग्रन्थोंमें संकलित हैं।
मार्क्सके दर्शनको द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (डाइलेक्टिकल मेटिरियलिज्म) या ऐतिहासिक भौतिकवाद (हिस्टॉरिकल मेटेरियलिज्म) भी कहा जाता है। यह द्वन्द्वात्मक दृष्टिसे प्राकृतिक घटनाओंकी परख और पहचान करता है। भौतिकवादी दृष्टिसे प्राकृतिक घटनाओंकी व्याख्या, कल्पना तथा सिद्धान्तकी विवेचना करता है। स्टालिनके मतानुसार ‘मार्क्सवाद अन्धश्रद्धा नहीं है।’ अत: उसकी व्याख्या समयानुसार बदलती रहती है। साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियुगमें लेनिनने उसकी पुन: व्याख्या की थी। इसीलिये लेनिनवादको प्रधानरूपसे सर्वहाराके अधिनायकत्वका दर्शन कहा जाता है। इतिहास और समाजकी आर्थिक व्याख्या, मूल्य तथा अतिरिक्त मूल्यका सिद्धान्त वर्ग संघर्ष तथा सर्वहाराका अधिनायकत्व उसके दर्शनके मुख्य विषय हैं।
मार्क्सने निम्नलिखित वस्तुओंको सिद्ध किया—
१. वर्गोंका अस्तित्व उत्पादन व्यवस्थाके अनुकूल होता है। दासताके युगमें वर्गोंका अस्तित्व और संघर्ष उस युगकी उत्पादन व्यवस्थाके अनुकूल था। इसी तरह सामन्तशाही एवं पूँजीवादी युगोंमें इनका अस्तित्व तथा संघर्ष इन युगोंके उत्पादनके अनुकूल था।
२. वर्ग-संघर्ष अनिवार्य रूपसे सर्वहारा दलके अधिनायकत्वका मार्ग प्रशस्त करता है।
३. यह अधिनायकत्व संक्रमणकालिक होगा। इसके बाद वर्गोंका अन्त हो जायगा और एक वर्गविहीन समाजका जन्म होगा।
हीगेलका द्वन्द्ववाद, ब्रिटेनका अर्थशास्त्र, फ्रांसका समाजवादी दर्शनके अध्ययनद्वारा द्वन्द्वात्मक भौतिकवादके नामसे उसने नये दर्शनका आविर्भाव किया। हीगेलके द्वन्द्ववादमें विचारका प्रमुख स्थान है। उसके मतानुसार ‘बाह्य जगत् आन्तरिक विचारोंका ही प्रतिबिम्ब है, परंतु मार्क्सने भौतिक संसारकी ही सत्ता मानी है और उसे आन्तरिक विचारोंका जनक माना है। इस प्रकार दोनोंके द्वन्द्वात्मक प्रणालीमें भेद है। प्राय: इतिहासकार मनुष्यको ही सर्वश्रेष्ठ स्थान देते आये हैं। इतिहासमें परिवर्तन अपूर्व बुद्धि मनुष्योंद्वारा ही मानते आये हैं, परंतु मार्क्सवादके अनुसार इतिहासकी प्रगतिमें सर्वप्रधान है अर्थव्यवस्था। आर्थिक ढाँचेपर ही एक युगका सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ढाँचा आश्रित होता है। उत्पादनके साधन और उत्पादनके सम्बन्ध ही आर्थिक ढाँचा हैं। इतिहासके परिवर्तनमें मनुष्यका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है, परंतु वह परिस्थितियोंका दास होता है। उसके विचार भी उन्हीं परिस्थितियोंपर आश्रित रहते हैं। एक व्यक्ति नेता तभी बन सकता है, जब उसकी योजनाएँ तत्कालीन परिस्थितियोंके अनुसार होती हैं।’
अपनी परिस्थिति, अपनी सम्पत्ति, विपत्तिकी प्रतिक्रिया ही आधुनिक दार्शनिकोंका दर्शन होता है। वे अपने सुख-दु:ख, राग-द्वेषके संस्कारोंसे घिरे हुए होते हैं। अत: जैसे लाल-पीले चश्मेवालोंको सारा जगत् ही लाल-पीला दिखायी देता है, उसी प्रकार अपनी परिस्थितियों तथा भावनाओंके अनुसार ही उनकी प्रतिक्रियास्वरूप तर्क तथा सिद्धान्तोंका आविष्कार होता है। कामुकके लिये संसार कान्तामय ही उपलब्ध होता है। परिस्थितियोंसे ऊँचे उठे हुए तत्त्वज्ञोंको संसार ब्रह्ममय दिखायी देता है। गरीबीकी हालतमें आर्थिक कष्टसे पीड़ित मार्क्सके मस्तिष्कमें जैसी प्रतिक्रिया हुई, वैसा ही मार्क्सीय दर्शन हुआ। आर्थिक कष्टपीड़ित मनुष्य ही अर्थका महत्त्व समझता है। प्यासा पानीका, भूखा भोजनका महत्त्व समझता है। इस दृष्टिसे मार्क्सको संसारमें सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु अर्थ ही प्रतीत हुआ। ब्रह्म, चेतन आत्मा, श्रेष्ठ मनुष्य, धार्मिक, सामाजिक, शाश्वत नियम—सभी महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ उसे अर्थके सामने नगण्य जँचीं।
यद्यपि—
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवा:।
यस्यार्था: स पुमाँल्लोके यस्यार्था: स च पण्डित:॥
(महा० शां० प० ८।१९)
यस्यास्ति वित्तं स नर: कुलीन:
स पण्डित: स श्रुतवान् गुणज्ञ:।
स एव वक्ता स च दर्शनीय: सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ति॥
(नीतिशतक ४१)
अर्थेभ्योऽथ प्रवृद्धेभ्य: संवृत्तेभ्यस्ततस्तत:।
क्रिया: सर्वा: प्रवर्तन्ते पर्वतेभ्य इवापगा:॥
(वाल्मीकिरामायण ६।८३।३२)
इत्यादि शब्दोंद्वारा शास्त्रोंमें धनका बड़ा महत्त्व बतलाया गया है और यह ठीक भी है; परंतु ‘अर्थसे अधिक कुछ है ही नहीं। धार्मिक, आध्यात्मिक नैतिक उन्नतियाँ तथा तदनुकूल सभी नियम, सबकी आधारभित्ति अर्थ ही है, वही सर्वश्रेष्ठ है’—यह समझना तथा अर्थके लिये सनातन सत्य, शाश्वत न्याय, नित्य आत्मा परमात्मा तथा धार्मिक नियमोंका भी परित्याग कर देना तो गरीबी एवं दरिद्रताकी ही शुद्ध प्रक्रिया है। गरीबीमें धनवान्से ईर्ष्या-द्वेष भी होता है। उन्हें मिटा देनेकी इच्छा भी होती है, फिर तदनुकूल कुछ युक्तियाँ तथा तर्क भी ढूँढ़ लिये जाते हैं। इस तरह अधिकांश पाश्चात्य दर्शन विशेषत: मार्क्सदर्शन प्रतिक्रियावादी दर्शन है। कोई भी वस्तु भोक्ताद्वारा माँग होनेपर ही मूल्यवान् होती है। भोक्ताकी माँग न होनेपर उसका कुछ भी मूल्य नहीं होता। चेतन पुरुष ही अर्थका उत्पादक, वर्धक एवं रक्षक भी है। फिर भोक्ता या चेतन मनुष्यका महत्त्व कम आँकना, उसे आर्थिक व्यवस्थाओंका दास बनाना कहाँतक संगत है? अवश्य ही सामान्य स्थिति यह है कि बड़े-से-बड़े लोग भी अर्थके दास होते हैं—‘अर्थस्य पुरुषो दास:।’ सामान्य मनुष्य मनका दास, परिस्थितियोंका गुलाम, इन्द्रियोंका किंकर एवं विषयोंका कीड़ा होता है, परंतु विशिष्ट जितेन्द्रिय संयमी प्राणी निश्चय ही मन, इन्द्रिय, भोग, परिस्थिति सबको अपना दास बनाकर उनका स्वामी हो जाता है। अनेक राजाओं, धनवानोंने परोपकारके लिये, पुण्यके लिये, अध्यात्मनिष्ठाके लिये धन ही नहीं, शरीर एवं प्राणतक दे दिये हैं। रामचन्द्र, हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, शिवि, दिलीप आदि इसीके उदाहरण हैं।’ रन्तिदेवने कहा था—
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥
(महा०)
‘मुझे राज्य, स्वर्ग, मोक्ष कुछ न चाहिये, केवल प्राणियोंकी दु:ख-निवृत्ति ही मुझे इष्ट है।’ रामचन्द्र, हरिश्चन्द्रका राज्यत्याग तथा दिलीप एवं रन्तिदेवका सर्वस्व त्याग प्रसिद्ध है। समर्थ विद्वान्, महातपा, महात्यागी पुरुष तो इतिहासकी धारा ही बदल सकते हैं, यह प्रत्यक्ष सत्य है। जो तर्कसे इस प्रत्यक्षको मिथ्या सिद्ध कर सकते हैं, वे प्रत्यक्ष सूर्यको भी अपनी बुद्धि-वैभवसे अन्धकार बतला सकते हैं। परिस्थितियाँ तथा अवसरके प्रवाहमें बह जाना वैसा ही है, जैसे मुर्देका नदीप्रवाहमें बहना। बुद्धिमान साहसी महापुरुष प्रवाहको चीरकर बाहर निकलते हैं और प्रवाहको भी वैसे ही बदल देते हैं, जैसे नदी-प्रवाहमें पड़ा व्यक्ति प्रवाहको काटकर निकलता है और बाँध-बाँधकर, नहर निकालकर, प्रवाहका मुँह भी मोड़ देता है। ईर्ष्या-द्वेषकी स्थिति भी सामान्य स्थिति है। उत्तम स्थिति तो यही है कि अपने पुरुषार्थसे अपनी गाढ़ी कमाईके कुछ पैसोंसे ही सन्तुष्ट रहे। लूटकर, दूसरोंको मारकर धनवान् बनना अच्छा नहीं है। ये संस्कार अभीतक ग्रामीणों, नागरिकों सभीके हृदयोंमें बद्धमूल हैं। ईर्ष्या-द्वेष आदि मनुष्यके दोष हैं, गुण नहीं। मार्क्सवादी इन्हीं विकारोंको उत्तेजित करके उनके द्वारा राजनीतिक समस्या सुलझाना चाहते हैं। स्वार्थ-साधनमें भी नैतिकताका कुछ ध्यान रखा जाता है, परापहरण आदि निन्द्य समझा जाता है। पर मार्क्सके मतसे परकीय वस्तुका अपहरण न्याय ही है; अन्याय नहीं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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