4.2 स्पेंसरकी मीमांसा
हर्बर्ट स्पेंसर, हेमिल्टन एवं माइन्सेल आदि विकासानुयायियोंने ईश्वर माननेमें कई आपत्तियाँ उपस्थित की हैं, जैसे यदि ‘स्वतन्त्र जगत्-कारण ईश्वर जगत् बाह्य है, तो उसका जगत्से कोई सम्बन्ध ही नहीं। बिना सम्बन्धके कोई ज्ञान ही होना कठिन है। यदि जगत्से सम्बन्ध हुआ, तो स्वतन्त्रता कैसे रह सकती है’ इत्यादि। परंतु ईश्वरवादियोंकी दृष्टिमें इन तर्कोंका कोई महत्त्व नहीं है। कारण, ईश्वर जगत्के भीतर रहता हुआ भी कमल-पत्रवत् निर्लेप रहता है, अत: सबको जानता हुआ भी स्वतन्त्र रहता है। शासक भी कारागारमें जाता है, किंतु दण्ड भोगने नहीं अपितु सुव्यवस्थाके लिये। वस्तुत: सर्वद्रष्टा, सर्वशक्तिमान्, स्वतन्त्र परमेश्वरसे ही नियमित विकास भी बन सकता है। अचेतन प्रकृति या अन्य कोई भी जडतत्त्व नियमित क्रमिक विकास करनेमें सर्वथा ही असमर्थ ठहरते हैं। लोकमें विकासकी नियमित योजनाका निर्माण एवं उसका संचालन चेतनोंद्वारा ही होता है। अत: प्राकृतिक विकासके प्रोग्राममें चेतन ईश्वरका हाथ होना अनिवार्य है। अतएव प्राय: संसारका मूल कुछ रहस्यमय या अप्रमेय है। उसका सम्पूर्णरूपसे कोई भी वर्णन नहीं कर सकता, ऐसा विकासवादी भी मानते हैं।
इन लोगोंका कहना है ‘दिक्, काल, द्रव्य, धृति, शक्ति, चित्त, आत्मा, परमात्मा आदि प्रत्यय हैं। उनका मूल एवं स्वभाव दुर्बोध एवं अनिर्वचनीय है।’ अवश्य ही केवल प्रत्यक्ष प्रामाण्यवादीके लिये उक्त वस्तुओंका निर्णय कठिन है, परंतु अनुमान, आगम आदिद्वारा तो कोई भी वस्तु अज्ञेय नहीं है। हर्बर्ट स्पेन्सर तो सभी मतोंका आधार प्रत्यक्ष ही मानता था। इसलिये उसके मतानुसार ‘न कोई मत अत्यन्त सत्य है, न अत्यन्त असत्य ही। अत: सभी मतोंका सामान्यांश ग्रहण करना ठीक है।’ इसी आधारपर वह उक्त पदार्थोंको ‘अज्ञेय’ मानता है। उसके मतानुसार विशेष वस्तुओंको सामान्यमें और सामान्यको पुन: उच्च सामान्यमें ले आना चाहिये। अन्तमें उस परासत्तामें ही स्थिरता होनी चाहिये। जिसका किसीमें अन्तर्भाव नहीं होता, उसे ‘अनिर्वचनीय’ कहा जाता है। उसके मतानुसार ‘ज्ञान सम्बन्ध ग्रहण-स्वरूप होता है, अत: एक वस्तुका वस्त्वन्तरसे भेद सादृश्यादिके बिना नहीं हो सकता। अप्रमेयमें भेद-सादृश्य आदिका ग्रहण होना असम्भव है।’ स्पेंसरके मतानुसार ‘ईश्वरका स्वरूप क्या है, यह नहीं जाना जा सकता। किंतु सत्ता मानी जाती है। सम्बन्ध ग्रहण सापेक्षबोध ईश्वरमें नहीं पहुँचता, अत: सम्बन्धातीत अप्रमेय कारणशक्ति मान्य होनी चाहिये।’
वस्तुत: स्पेंसरके इस तर्कसे तो किसी भी वस्तुका बोध नहीं हो सकता; क्योंकि एक वस्तुसे भिन्न सभी वस्तुओंसे उसका किसी-न-किसी ढंगका सम्बन्ध रहता ही है। फिर एक अल्पज्ञ व्यक्तिको सब वस्तुओंका ज्ञान सम्भव नहीं और न सबके साथ उसके सम्बन्धका ही ज्ञान हो सकता है। इस तरह सभी ज्ञान भ्रमात्मक ही ठहरेंगे। अत: ‘सप्रकारक, निष्प्रकारक, दोनों ही प्रकारके ज्ञान होते हैं।’ यही सिद्धान्त मानना पड़ेगा। भले ही द्रव्यका गुण क्रिया-समन्वितरूपसे ही ग्रहण हो, फिर भी वस्तु-स्वरूपका भी ग्रहण होता ही है। रूप, सम्बन्ध आदि पदार्थोंका स्वरूप-ज्ञान भी होता है। एतावता ईश्वर, काल आदि भी, अप्रमेय, अज्ञेय नहीं कहे जा सकते। हाँ, सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्टा दृश्य या ज्ञेय नहीं हो सकता; क्योंकि एक ही स्वयं ज्ञाता और ज्ञेय दोनों नहीं हो सकता। ऐसा होनेसे कर्म-कर्तृ-विरोध होता है। वही कर्त्ता अपनी क्रियाका कर्म नहीं बन सकता। द्रष्टाका भी द्रष्टा यदि अन्य माना जाय, तो फिर उसका द्रष्टा और फिर उसका भी द्रष्टा ढूँढ़ना पड़ेगा। इस तरह अनवस्था-प्रसंग होगा। सर्वद्रष्टा जिससे दृश्य होगा, उसका द्रष्टा नहीं हो सकेगा; क्योंकि कोई भी दृश्य अपने द्रष्टाका द्रष्टा नहीं हो सकता। ऐसी स्थितिमें उसको सर्वद्रष्टा नहीं कहा जा सकता। अत: प्रमाण व्यापारसे अज्ञाननिवृत्ति तथा स्वप्रकाशरूपसे आत्माका बोध मानना उचित है। इसी तरह प्रत्यक्ष, अनुमान, आगमादि प्रमाणोंके आधारपर काल आदिका भी ज्ञान होता ही है। कुछ भी हो, अज्ञेयरूपसे भी तो विद्यमान वस्तुका एक ज्ञान मानना पड़ता है। इसीलिये स्पेंसर आत्मा-अनात्मा, जड-चेतनको शक्तिका ही रूपान्तर मानता है, परंतु विचार करनेपर यह भी सत्य नहीं ठहरता। आत्मा तो मूल पदार्थ है, शक्ति उसका अंश है। जैसे वह्निमें दाहिका शक्ति होती है, वैसे ही आत्मामें प्रपंचोत्पादिनी शक्ति मान्य होती है। सांख्य-मतानुसार भी आत्मा एक स्वतन्त्र पदार्थ माना जाता है।
स्पेंसरके मतानुसार ‘शक्तिकी सार्वकालिक सत्ता ही मूल परमार्थ है। उसीसे द्रव्यकी अनश्वरता, गतिका सातत्त्य, शक्तियोंके सम्बन्धकी नित्यता अर्थात् नियमोंकी एकरूपता, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, शक्तियोंका परिणाम एवं तुल्यपरिवर्तिता, गतिका दिग्नियम अर्थात् उसकी अल्पतमावरोध, रेखानुसारिता, गुरुत्वाकर्षणानुसारिता, इन दोनोंका योग और गतिका अविच्छिन्न प्रवाह आदि निकलते हैं। उसी शक्तिके नियम सब प्रमेय पदार्थोंमें लगे हुए हैं। इन नियमोंमें सबसे व्यापी नियम विकासका नियम है। इसके अनुसार द्रव्यका सदा ही आन्तर परिवर्तन होता रहता है। संसारका प्रत्येक अवयव और समस्त संसार सदा ही ‘विकास’ एवं ‘विच्छेद’ इन दो व्यापारोंमें लगा है। विकासावस्थामें द्रव्यका संघीभाव और विच्छेदावस्थामें शिथिलीभाव होता है।’ वस्तुत: यह अंश सांख्योंके मतसे मिलता-जुलता है। वे भी प्रकृतिको ही आत्म-भिन्न सब व्यक्त प्रपंचका मूल मानते हैं। ‘चलञ्च गुणवृत्तम्’ के अनुसार व्यक्त-अव्यक्त सभीको गतिशील मानते हैं—
‘क्षणपरिणामिनो हि भावा ऋते चितिशक्ते:।’
चितिशक्तिको छोड़कर सभी भावोंको वे क्षणपरिणामी मानते हैं। उनके असंगचेतन व्यापक पुरुष स्वतन्त्र माने जाते हैं। सांख्यके सद्वादका ही प्रत्यभिज्ञान इस मतमें भी होता है। सांख्यानुसार सत्का विनाश एवं असत्की उत्पत्ति नहीं होती। केवल अवयवोंके संघीभावसे आविर्भाव या विकास होता है एवं अवयव-विच्छेदसे तिरोभाव होनेसे ही नाशका व्यवहार होता है। प्रकृतिके स्वभावका उसके परिणामोंमें अनुवृत्त होना भी उन्हें मान्य है। प्रकृति सुख-दु:ख-मोहात्मक है, अचेतन है। इसीलिये उसका परिणाम प्रपंच भी सुख-दु:ख-मोहात्मक एवं अचेतन है।
स्पेंसर इस विकासकी तीन श्रेणियाँ मानता है—(१) ‘शक्तिका केन्द्रस्थ होना, जैसा कि बादलोंके इकट्ठा होनेमें प्रारम्भिक बदलीका और कीटाणुओंके जीवन-केन्द्रोंमें देखा जाता है। (२) भेदीकरण—मूलका बहिरावेष्टनसे अलग होकर उसमें आन्तरिक भेद होना और (३) स्पष्टीकरण—अर्थात् भेदोंका निश्चितरूप एवं आपसमें सम्बन्धित होकर एक सुव्यवस्थित पूर्णरूप धारण करना। विकास और विच्छेदका भेद यही है कि विकासमें भेदके साथ संघटन है और विच्छेदमें संघटनका अभाव है। विकासकी गति अनिश्चित सम्बन्ध और व्यवस्थारहित एकरूपतासे निश्चित सम्बन्ध और व्यवस्थापूर्ण अनेकरूपताकी ओर होती है। उदाहरणार्थ निम्नश्रेणीके जीवोंमें विशेष इन्द्रियभेद नहीं होता, कहीं-कहीं लिंगभेद भी नहीं होता। एक (स्पर्श) इन्द्रियसे ही सब इन्द्रियोंका कार्य चलता है, परंतु जैसे-जैसे जन्तु विकासकी श्रेणीमें बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे उनमें इन्द्रियभेद बढ़ता जाता है और साथ ही विभिन्न इन्द्रियोंमें सम्बन्ध भी स्थापित होता जाता है। मनुष्यमें सब इन्द्रियाँ स्पष्ट होती हैं और तभी अपने-अपने सम्बन्धसे मनुष्य-शरीरकी रक्षा एवं वृद्धिमें योग देती हैं!’ स्पेंसरके मतानुसार ‘विकासका यह नियम सभी विषयोंमें लगता है।’ सांख्यानुसार कारणगत प्रकाश, हलचल एवं अवष्टम्भ आदि गुणोंके अंगांगीभावरूप वैषम्यके अनन्तर ही तिरोधायक आवरणसे बहिर्भूत होकर कार्यकी स्पष्टता होती है। बीज और मृत्पिण्डके विघटनपूर्वक अंकुर एवं घटादिके आविर्भावानुकूल संघटनक्रियासे ही अंकुर एवं घटकी अभिव्यक्ति होती है। अनेकता एवं व्यवस्था भी सांख्यानुसार घटके समान अभिव्यक्त ही होती है। अपूर्वकी उत्पत्ति नहीं होती। चेतना एवं इन्द्रियाँ भी विद्यमान ही थीं, केवल उनकी अभिव्यक्ति ही होती है। अभिव्यक्तिमें ही क्रम मान्य है। अत्यन्त अविद्यमानका बालूसे तेलके समान कभी भी आविर्भाव नहीं होता। उसी तरह सत्का नाश भी नहीं होता।
विकासमें ‘भूतपदार्थका एकीकरण और गतिका वितरण होता है, विच्छेदमें गतिका तिरोभाव और भूत पदार्थका अनेकीकरण या वितरण होता है। यह विकास और विच्छेदका नियम विश्वके लिये एक साथ ही प्रयुक्त नहीं होता, किंतु एक भागमें विकास तो दूसरे भागमें विच्छेदका आरम्भ होता है।’ सांख्यमतानुसार ‘गति तो हर समय ही रहती है, किंतु एक कारणमें अनेक कार्य युगपत् नहीं हो सकते। अत: कार्यान्तरके आविर्भावके लिये प्रथम कार्यका तिरोभाव आवश्यक होता है, जैसा कि घटके आविर्भावके लिये पिण्डावस्थाका तिरोभाव अपेक्षित होता है।’ इसीलिये विकास-विच्छेदका क्रम भी संगत हो जाता है। स्पेंसरने जीवशास्त्रका तत्त्व बतलाते हुए कहा है कि आन्तर सम्बन्धोंके साथ अविच्छिन्न मिलावट ही जीवनतत्त्व है। जैसे-जैसे बाह्य एवं आन्तरिक सम्बन्धोंका साम्य होता है, वैसे-वैसे इन्द्रिय एवं शरीरसम्बन्धी विकासके क्रममें उच्चता होती है। मनस्तत्त्वके सम्बन्धमें उसने कहा है कि ‘मनस्तत्त्व विज्ञानगम्य नहीं है। जिन अवस्थाओंमें वह प्रकाशित होता है, केवल उन अवस्थाओंकी अभिव्यक्ति ही विज्ञानाधीन होती है।’ उसके मतानुसार ‘स्नायुनिष्ठ आघातसे ही संवित्की अभिव्यक्ति होती है, संवेदन और उसके सम्बन्धोंसे ही चित्त बनता है। संवेदनोंके स्मरण, परस्पर सम्बन्ध और संघीभावसे समस्त संवित्का बनना वह मानता है। इसीलिये चित्तकी भिन्न वृत्तियोंमें परस्पर अत्यन्त भेद नहीं होता। चित्त व्यापारमें प्रतिफलन, स्वाभाविक क्रिया, स्मरण और विवेक ये क्रम हैं। संवित्के जो आकार व्यक्तियोंमें स्वाभाविक और सहज हैं, वे भी जातिमें किसी-न-किसी समय अनुभवसे ही प्राप्त माने जाते हैं। पीछेसे स्नायुजालमें जमकर वे परम्परागत हो जाते हैं।’
स्पेंसरने इसी प्रकार अनुभववाद और सहजज्ञानवादका साम्य स्थापित किया। किंतु यहाँ भी यह प्रश्न बना ही रहता है कि प्रारम्भिक मनुष्योंमें ऐसे ज्ञानकी नींव किस प्रकार पड़ी? प्रारम्भकालमें अनुभव किस प्रकार स्वतन्त्र हो सकता है? वस्तुत: स्नायुके आघात अथवा विषयेन्द्रिय-संनिकर्ष, शब्द-प्रमाण या व्याप्तिज्ञानसे सात्त्विक मनकी ही विषयाकाराकारित वृत्ति उत्पन्न होती है। उसी वृत्तिपर अभिव्यक्त आत्मचैतन्यसे ही वस्तुका प्रकाश होता है। जैसे पार्थिव होनेपर भी सामान्य पाषाणोंपर सूर्यका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता, परंतु स्फटिकपर प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे ही सामान्य जड पदार्थोंपर आत्मचैतन्यका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता, परंतु सात्त्विक अन्त:करण-परिणामरूप वृत्तियोंपर आत्मचैतन्यका प्रतिबिम्ब पड़ता है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि एक ही वस्तुके अवस्थाभेद हैं। वेदान्तसिद्धान्तानुसार अन्त:करण सूक्ष्म पञ्च महाभूतोंके समष्टि सात्त्विक अंशका परिणाम है। ग्राह्य-ग्राहकभाव सजातीयमें ही दृष्ट है। पार्थिव घ्राणेन्द्रियसे पार्थिव गन्धका ग्रहण होता है। तैजस चक्षुरिन्द्रियसे तैजस रूपका ग्रहण होता है। इसी तरह आकाशीय श्रोत्रेन्द्रियसे आकाशीय शब्दका, वायवीय त्वगिन्द्रियसे वायवीय स्पर्शका और जलीय रसनेन्द्रियसे जलीय रसका ग्रहण होता है। मनसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध—इन पाँचों ही विषयोंका ग्रहण होता है। अत: उसे सूक्ष्म पंचमहाभूतोंके समष्टि सात्त्विक अंशका परिणाम मानना प्रामाणिक है। छान्दोग्य उपनिषद्में तो स्पष्ट ही अन्वय-व्यतिरेकसे मनस्तत्त्वको अन्नमय सिद्ध किया गया है। अन्नके अभावमें मनकी कलाएँ घटती हैं और अन्नके अस्तित्वमें उसकी कलाएँ उपोद्वलित होती हैं—‘अन्नमयं हि सौम्य मन:।’ संकल्प, विकल्प, स्मरण, निश्चय, अभिमान आदि सब इस चित्त या मनके ही परिणाम हैं। अभिव्यक्ति चिदंश ही ‘संवित्’ शब्दसे कहा जाता है और उच्च वेदान्त-सिद्धान्तानुसार तो अखण्ड, अनन्त बोधस्वरूप ब्रह्मात्मा ही मननीशक्तिविशिष्ट होकर मनस्तत्त्वरूपमें विवर्तित होता है। अखण्ड बोध ब्रह्म एवं साक्षीस्वरूप आत्माका अंशभूतसे जो भी ज्ञान होता है, वह प्रमाणके द्वारा प्रमात्मक होता है और सदोष प्रमाणोंसे भ्रमात्मक ज्ञान होते हैं।
स्पेंसरके मतानुसार ‘बाह्यशरीरके द्वारा स्नायु तन्तुओंपर आघात होता है। उससे ज्ञान उत्पन्न होता है। चित्त एवं शरीर दोनों ही अप्रेमयके रूपान्तर हैं। संवित्के एकीभाव और विभागका प्रवाहरूप चित्त है। इसके अनुसार वास्तविक सत्ताके अस्तित्वका ज्ञान उसके दृश्योंद्वारा होता है। यह दृश्य उसकी प्रतिलिपि नहीं, किंतु उसके संकेत हैं। जैसे वर्णोंका संकेत लिपिद्वारा होता है, उच्चरित एवं लिखित शब्दोंमें समानता नहीं होती। वैसे ही वास्तविक सत्ता तथा उसके दृश्योंमें समानता नहीं है। यही ‘रूपान्तरित सद्वाद’ है। वस्तुवादमें बाहरी सत्ताको माना जाता है। इस विषयपर विचार करनेसे विदित होता है कि यह व्यावहारिक सत्ता ही पारमार्थिक सत्तारूपसे कही जाती है। व्यवहारकालमें जिसका बाध न हो, वह व्यावहारिक सत्ता है। अत्यन्ताबाध्य वस्तु ही पारमार्थिक सत्तावाली होती है।’
जी० एच० ल्यू विकासवादके सिद्धान्तको मानता हुआ भी रूपान्तरित वस्तुवादका विरोध करता है। उसका कहना है कि ‘जो अनुभवमें आनेवाला है, वही सत्य और वास्तविक है। उसे संकेत मानकर उसके अतिरिक्त वास्तविक सत्ताकी खोज करना मानो रोशनीके पीछे रोशनीकी खोज करना है।’ वह लिखता है कि ‘यदि रूपान्तरितवादका भ्रम दूर करना है, तो मेरा युक्तियुक्त वस्तुवाद बुद्धिके भ्रमको दूर करता है। निद्रा, स्वप्न, मूर्च्छा, मृत्यु आदिको देखकर प्राचीन मनुष्योंका ऐसा विश्वास हुआ कि चित्त कोई शरीरसे भिन्न वस्तु है। मरनेके बाद यह चित्त या आत्मा कहीं रहता है, ऐसा विश्वास रखकर ही लोग जादू, प्रार्थना तथा पितृपूजा आदि करते थे। जैसे अन्य विषयोंमें विकास हुआ, वैसे ही धर्मके सम्बन्धमें भी विकास हुआ। प्रेत-पिशाचकी कल्पना ही परिष्कृत होकर देवताओंकी कल्पना बनी और देवताओंकी कल्पना ईश्वरकी कल्पना बनी। वही अब अप्रमेय कल्पनाके रूपमें व्यक्त हुई है।’
उपर्युक्त विचार भी असंगत हैं; क्योंकि शरीरातिरिक्त आत्माका अस्तित्व, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तिकी व्यावृत्ति एवं साक्षीकी अनुवृत्ति आदिसे सिद्ध होता है। आत्मा एवं परमेश्वरका निर्णय प्रामाणिक है, कल्पना नहीं। इसपर आगे विचार किया जायगा। फलीभूत सुखके आधारपर आचारका निर्णय होता है। जिससे अधिक सुख हो, वही आचार श्रेष्ठ है। यदि सुख कम मिले तो आचार बुरा है। स्वार्थ, परार्थ दोनों पृथक् होनेके कारण अनर्थकारक हैं। दोनोंमें मेल होनेसे आचारकी उन्नति होती है। स्वार्थसे परार्थ एवं परार्थसे स्वार्थ साधन होता है। सर्वप्रथम स्वार्थप्रयुक्त कलह होता है; फिर प्रत्येकका स्वार्थ परस्पर अधीन देखकर मनुष्य प्रेममय जीवन पसन्द करते हैं। सामाजिक आचारोंमें न्याय और उपकार मुख्य हैं। प्रत्येक व्यक्ति दूसरोंके स्वातन्त्र्यका विरोध न कर जितना और जो चाहे कर सकता है। यही न्यायका नियम है।
स्पेंसरके मतानुसार ‘समाज और व्यक्तिका अवयवावयवीभाव है। अवयव अवयवीसे पृथक् नहीं हो सकता। जो कार्य समाजके लाभका है, उससे व्यक्तिका भी लाभ होता है। जिस कार्यसे समाजको हानि होती है, उससे व्यक्तिकी भी हानि होती है, यही परार्थका आधार है। परस्पर विरोधके कारण समाजमें राज्य-शासनकी आवश्यकता पड़ी। प्रजामें परस्पर आन्तर भेदको बचाना, प्रजाकी बाहरी शत्रुओंसे रक्षा करना राज्यका कार्य है।’ व्यक्तिके कार्योंमें राज्यका हस्तक्षेप उसे अमान्य है।
सापेक्षतावादी हेमिल्टनका कहना है कि ‘हमारी मानसिक शक्तियोंमें ही सब ज्ञान होते हैं, निरपेक्ष ज्ञान नहीं होता।’ परंतु निरपेक्ष पदार्थ भी असम्भव या असत् नहीं। केवल दृश्य ही प्राणीको दिखायी पड़ते हैं। वे द्रष्टाकी अपेक्षा रखते हैं। यह दृश्य, यह गुण, अवश्य किसी पदार्थके दृश्य होंगे, परंतु वह पदार्थ अज्ञेय रहता है। दृश्य शृंखलाकी भिन्नतासे मूल द्रव्यमें भेद भी समझा जा सकता है।
डीन मैन्सलका कहना है ‘दार्शनिकोंके निश्चित ज्ञानतक न पहुँचनेके आधारपर ही धर्मकी पुष्टि की गयी है।’ बुद्धिवादी लोग धर्ममें जो कठिनाइयाँ देखते हैं, वही तो विज्ञानमें भी कठिनाइयाँ हैं। फिर धर्ममें ही आपत्ति क्यों उठायी जाय? जब एक और अनेकके दुर्भेद्य रहस्यके आगे दार्शनिक मूक हैं और सभी चीजोंकी उत्पत्तिका रहस्य नहीं जान सकते, तब ईश्वरकृत अद्भुत चमत्कारोंको न समझ पाना तो सर्वथा स्वाभाविक है।
हक्सलेके मतानुसार ‘अपनी रुचि एवं इच्छाओंको सत्यके निर्णयमें बिलकुल स्थान न देना चाहिये। स्वर्ग, अमरत्व आदि यद्यपि इच्छाओंके अनुकूल हैं तथापि जबतक वैज्ञानिक प्रत्यक्ष प्रमाण न मिले, तबतक उनपर विश्वास नहीं करना चाहिये। प्रयोगात्मक जाँचमें जो ठीक उतरे, वही सत्य है। अनुमानमात्र पर्याप्त नहीं है। जो बातें अनुभवमें नहीं आतीं, उनके सम्बन्धमें वैज्ञानिकको चुप रहना चाहिये।’ वैज्ञानिक लोग जो एक मूल द्रव्यको सबका कारण मान लेते हैं, यह अपने अधिकारसे आगे जाना है। यद्यपि उन्होंने प्रत्ययवादियोंके संवित्को बड़ा महत्त्व दिया है, फिर भी ये कहते हैं कि ‘भूतवादकी कल्पना अधिक पट सकती है।’ इस तरह वे संवित्का आधार भी मानते हैं और यह भी कहते हैं कि ‘संवित्के बाहर कोई वस्तु नहीं हो सकती।’ इस तरह भूत या आत्माके सम्बन्धमें ह्यूमके समान यह भी अज्ञेयवादी हैं। इनका कहना है कि भौतिकवादके सम्बन्धमें जहाँतक व्याख्या हो, ठीक ही है, परंतु हमें तो व्यवहारके लिये प्राकृतिक नियमोंका ज्ञान भी पर्याप्त है। हमें आम खानेसे काम है, पेड़ गिननेसे क्या लाभ? अज्ञेय पदार्थ एक हो या अनेक, इसके बारेमें कुछ निश्चय कहा नहीं जा सकता। कर्तव्यके सम्बन्धमें उसका कहना है कि ‘हमें प्रकृतिसे ऊँचे उठना चाहिये, उसका अनुकरण नहीं करना चाहिये।’
क्लीफोर्डके अनुसार ‘सर्व मानसद्रव्य ही सर्वत्र संसारमें फैला है। यही द्रव्यविकासद्वारा ऐन्द्रियक शरीरोंमें इकट्ठा होकर चेतना हो जाता है। मेरे मनसे भिन्न अन्य मनके द्वारा भी जो वस्तु उपलब्ध होती है, वही वस्तुकी वस्तुता है।’ विलियम रीडका कहना है कि ‘मनुष्यजाति एक व्यक्ति है। वह पूर्णताकी ओर जा रही है, वही ईश्वर है।’ विकासवादियोंके मतानुसार ‘विकासकी पराकाष्ठामें जब मनुष्यमें सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता होगी, तभी ईश्वर कल्पनाकी बात पूरी होगी।’
कहना न होगा कि ‘इन जडवादियोंकी कल्पनाओंमें भी परस्पर महान् मतभेद है।’ अनेकों ऐसे पदार्थोंको ‘अज्ञेय’ कहकर ही वे सन्तोष कर लेते हैं। डीन मैन्सलके अनुसार ‘जब भूतद्रव्यके ही समझनेमें वैज्ञानिकोंको कठिनाई है, तब आध्यात्मिक द्रव्यमें कठिनाई होनेमात्रसे उसमें अविश्वास क्यों किया जाय? जब किसी पदार्थके अस्तित्वके लिये प्रमाण अपेक्षित होता है। तब उसके अभावके लिये भी तो प्रमाण चाहिये ही। यह तो निश्चय ही है कि आधिभौतिक शास्त्रज्ञ भी एक अव्यक्त प्रकृतिको किसी-न-किसी नामसे स्वीकार करते हैं और उसीसे अनेक प्रकारकी सृष्टि मानते हैं।’
इस सम्बन्धमें लोकमान्य तिलकने ‘गीता-रहस्य’ में लिखा है—‘हेकलकी विश्वकी पहेली’ (Riddle of the universe)-के अनुसार आधुनिक पदार्थ विज्ञानवादीकी दृष्टिमें कार्यके कोई भी गुण कारणके बाहरके गुणोंसे उत्पन्न नहीं होते। जब कारणको कार्यका स्वरूप प्राप्त होता है, तब उस कार्यमें रहनेवाले द्रव्यांश एवं कर्मशक्तिका कुछ भी नाश नहीं होता। पदार्थकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओंके द्रव्यांश और कर्मशक्तिके जोड़का वजन भी सदैव एक-सा ही रहता है। न वह घटता है, न बढ़ता है। यह बात प्रत्यक्ष प्रयोगसे सिद्ध है। ‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २।१६)-का ठीक यही अर्थ है। प्रथम अर्वाचीन रसायनशास्त्रज्ञ प्रपंच सृष्टिके ९२ मूलतत्त्व मानते थे। परंतु अब उन्होंने यह माना कि ‘यह मूलतत्त्व स्वयंसिद्ध नहीं। इनकी जड़में कोई एक ही तत्त्व है, उसीसे सूर्य, चन्द्र, तारागण, पृथ्वी आदि सृष्टि उत्पन्न हुई है। उस एक पदार्थको सांख्यानुसार ‘प्रकृति’ कहा जाता है। ‘इन्द्रियोंके अगोचर, अव्यक्त, सूक्ष्म, अखण्डित एक ही निरवयव मूल द्रव्यसे व्यक्तकी सृष्टि होती है, इस सांख्यमतको ही पाश्चात्य भौतिकवादी भी मान गये हैं। हाँ, वे यह भी कहते हैं कि ‘इस मूल द्रव्यकी शक्तिका क्रमश: विकास हो रहा है। पूर्वापर-क्रम छोड़कर अचानक निरर्थक कुछ भी निर्माण नहीं होता।’ इसी मतको ‘उत्क्रान्तिवाद’ या ‘विकासवाद’ कहा जाता है। तदनुसार सूर्यमालामें पहले कुछ एक ही सूक्ष्म द्रव्य था, उसकी गति अथवा उष्णता परिमाण घटता गया। तब उक्त द्रव्यका अधिकाधिक संकोच होने लगा और पृथ्वीसमेत सब ग्रह क्रमश: उत्पन्न हुए। अन्तमें जो शेष अंश बचा, वही सूर्य है। पृथ्वीका भी सूर्यके सदृश पहले एक उष्ण गोला था। ज्यों-ज्यों उष्णता कम होती गयी, त्यों-त्यों मूल द्रव्योंमेंसे ही कुछ द्रव्य पतले और कुछ घने हो गये। इस प्रकार पृथ्वीके ऊपरका भाग हवा और पानी तथा उसके नीचेका पृथ्वीका जड़ गोला—ये तीन पदार्थ बन गये। इन तीनोंके मिश्रण अथवा संयोगसे सब सजीव एवं निर्जीव सृष्टि उत्पन्न हुई। डार्विन आदिकोंके अनुसार ‘छोटे कीड़ोंसे ही विकास होते-होते मनुष्य बन गया।’ यह पीछे कहा जा चुका है कि ‘इन लोगोंने चेतनाको भी जडका ही परिणाम माना है।’ परंतु काण्ट आदिका कथन है कि ‘सृष्टिका ज्ञान आत्माके एकीकरण व्यापारका फल है। इसलिये आत्माको स्वतन्त्र पदार्थ मानना ही चाहिये।’ बाह्य सृष्टिके ज्ञाता आत्माको स्वयं भी बाह्य सृष्टिका एक भाग मानना वैसा ही असंगत है, जैसा कि किसीका अपने कन्धेपर स्वयं ही बैठ सकना। सांख्योंके सत्त्व, रज, तमके स्थानमें भौतिकवादी गति, उष्णता और आकर्षणशक्ति मानते हैं। पदार्थ एक होनेपर भी उसमें गुणभेदके बिना विचित्र सृष्टि उपपन्न नहीं हो सकती, अत: उस प्रकृतिमें सत्त्व, रज, तम गुण माने जाते हैं।
हेकलका कहना है कि ‘मन, बुद्धि, आत्मा आदि शरीरके ही धर्म हैं। अतएव जब मनुष्यका मस्तिष्क बिगड़ जाता है, तब उसकी स्मरण-शक्ति नष्ट हो जाती है और वह पागल हो जाता है। सिरपर चोट लगनेसे जब मस्तिष्कका कोई भाग बिगड़ जाता है, तब भी मानसिक शक्ति नष्ट हो जाती है। मस्तिष्कके साथ ही मनोधर्म और आत्मा भी शामिल हैं। इस दृष्टिसे फिर केवल जड अव्यक्त ही रह जाता है। मूल प्रकृतिकी शक्ति ही धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। उसीमें चैतन्य या आत्माका स्वरूप व्यक्त होता है।’ सत्कार्यवादके समान ही इस प्रकृतिके भी कुछ नियम हैं। उन्हीं नियमोंके अनुसार जड जगत् और मनुष्य भी उत्पन्न होते हैं। प्रकृति जैसा कराती है, वैसा ही सबको करना पड़ता है। संसार एक कारागार है, सब प्राणी उसके कैदी हैं और पदार्थोंके गुण-धर्म ही बेड़ियाँ हैं। उनका तोड़ना असम्भव है। इसलिये, हेकलके मतानुसार ‘एक अव्यक्त प्रकृति ही सब कुछ है।’ यही उसका ‘जडाद्वैतवाद’ है। सांख्य-मतानुसार ‘प्रकृतिका कार्य जड प्रपंच ही है, चेतन प्रकृतिसे भिन्न है।’
जड सामग्रीसे ही सब वस्तुओंकी उत्पत्ति हो जाती है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सांख्यवादी भी स्वतन्त्र, व्यापक, असंग, चेतन, आत्मा और प्रकृतिके समन्वयसे ही सृष्टिप्रपंच मानते हैं। इसी सम्बन्धमें सांख्योंका ‘पंगु-अन्धन्याय’* प्रसिद्ध है।
* देखिये सांख्यदर्शन (१।५५)।
जैसे पंगु चल नहीं सकता और अन्धा देख नहीं सकता, दोनोंका जब मेल होता है, पंगुको कन्धेपर चढ़ाकर जब अन्धेके पैर और पंगुके आँखका सहयोग मिलता है, तब गमनादि क्रिया सम्पन्न होती है। वैसे ही अन्धके तुल्य अचेतन प्रकृति और पंगुके तुल्य गति-शक्तिरहित चेतन पुरुष, इन दोनोंके सम्बन्धसे सृष्टि-प्रपंच चलता है। व्यवहारमें अचेतन रथादिकी प्रवृत्ति चेतन अश्वके आधारपर ही होती है। यान्त्रिक प्रवृत्तियोंके भी मूलमें संयोजक होता है। एकत्रित सामग्री कर्ता नहीं बन जाती। संघात या समुदायमात्रमें कर्तृत्व नहीं हो सकता। क्षेत्ररूपी कारखानेमें मनुष्य बुद्धि, मन आदि नौकरोंसे काम करानेवाला कौन है? एकत्रिक सामग्रियाँ भी विलग न हो जायँ, एतदर्थ उन्हें धागासे बाँधना भी पड़ता है अन्यथा वे कभी भी अलग हो जायँगी, अत: कोई नियामक चेतन परमावश्यक है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि ‘समुच्चयका गुण चैतन्य है’; क्योंकि जिसमें जो वस्तु असत् है, वह कभी भी सत् नहीं हो सकती—‘नासतो विद्यते भाव:’ फिर भी समुच्चयोत्पन्न गुणकी अपेक्षा भौतिकवादी समुच्चयको हो चेतन आत्मा मानते हैं, परंतु जब अग्निके बदले लकड़ी, विद्युत्के स्थानपर मेघ और आकर्षणशक्तिके बदले पृथ्वी आदि नहीं ग्रहण किये जाते, तब यह क्यों न माना जाय कि देहादि संघातका, मन, बुद्धि आदिका व्यवस्थापूर्वक काम चलता रहे, एतदर्थ संघातसे भिन्न किसी शक्तिका अंगीकार करना आवश्यक है। भले ही उस शक्तिका अधिष्ठान अगम्य हो, परंतु उसका अपलाप नहीं किया जा सकता। ‘संघातका ज्ञान स्वयं संघात ही कर लेता है।’ यह कहना तो सर्वथा असंगत ही है। अत: संघात जिसके लिये प्रवृत्ति होता है, जो संघातका ज्ञाता या प्रवर्तक होता है, उसे मानना आवश्यक है।
काण्टका कहना है ‘बुद्धिके व्यापारोंका सूक्ष्म निरीक्षण करनेपर मालूम होता है कि मन, बुद्धि, अहंकार, चेतना ये सभी शरीर-क्षेत्रके गुण हैं। उनका प्रवर्त्तक आत्मा इनसे भिन्न स्वतन्त्र और इनसे परे है। किसी भी जीवशास्त्रके तर्क या विज्ञान अथवा यान्त्रिक साधनोंसे इसके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं मिलता। विकासवादी अधिक-से-अधिक आत्मा या परमेश्वरको अज्ञेय कहते हैं। वेदान्तशास्त्र भी समाधि-सम्पन्न ऋतम्भरा प्रज्ञाके बिना सर्वसाधारणके लिये आत्माको अज्ञेय कहा गया है। दृश्यका प्रकाश द्रष्टासे होता है। दृश्यसे द्रष्टाका प्रकाश नहीं होता। इसीलिये देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि सभी प्रपंचका भासक सर्वद्रष्टा आत्मा है। इन दृश्योंके द्वारा उसका प्रकाश नहीं हो सकता, इसीलिये उसे अदृश्य, अग्राह्य, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य माना जाता है। फिर भी वही सबका अधिष्ठान एवं सबका भासक, स्वयंप्रकाश है। अत: उसके सम्बन्धमें संशय, भ्रम एवं अज्ञान हो ही नहीं सकते; क्योंकि जिसके द्वारा संशय, भ्रम तथा अज्ञानका भी भान होता है, उसकी सत्ताका अपलाप कौन कर सकता है?’—
‘येनेदॸ सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात्।’
(बृहदा० उप० २।४।१४)
—अर्थात् जिसके द्वारा सब वस्तुओंको जाना जाता है, उसे किससे जाना जाय। नियमपूर्वक प्रवृत्तिके लिये ही प्रकृतिका प्रथम परिणाम महत्तत्त्व माना जाता है। समष्टिबुद्धि ही महत्तत्त्व है, परंतु चैतन्य-सम्पर्कके बिना जड प्रकृतिके परिणाम बुद्धितत्त्व या महत्तत्त्वसे भी नियमित-प्रवृत्तिका उपपादन नहीं हो सकता।
ईश्वर एवं आत्माके सम्बन्धमें विकासवादियोंका मत अस्पष्ट, अधूरा एवं भ्रान्तिपूर्ण है। ‘संघर्ष एवं स्वार्थ ही जीवनका सार है। परोपकारका भी अन्तिम लक्ष्य स्वार्थ ही है’ यह मत भी विकासवादियोंका असंगत ही है। कहा जा चुका है कि कितने ही लोग परोपकारको ही स्वार्थ समझते हैं। व्याघ्र-जैसे हिंस्र प्राणी भी अपने बच्चोंके लिये प्राणतक देते देखे जाते हैं।
डॉक्टर गेडोके मतानुसार ‘पानीकी मछलियोंका मनुष्यतक विकास होनेमें ५३७५००० पीढ़ियाँ बीत गयीं।’ कई लोग इससे भी अधिक संख्याका अनुमान लगाते हैं। मछलियोंसे पहलेकी संख्या यदि गिनी जाय, तब तो पीढ़ियोंकी संख्या भी बढ़ जाती है। सूक्ष्म जन्तुओंका ही मछलियों, कछुओं, पक्षियों, बन्दरों तथा मनुष्योंके रूपमें परिणाम बतलानेवाले दार्शनिक अनेक चित्रों और फोटो आदिद्वारा विकासक्रमको प्रत्यक्ष-सा दिखला देते हैं, परंतु यदि यह विकासक्रम वास्तविक है, तो फिर बन्दरोंसे बन्दरोंकी, मनुष्योंसे मनुष्योंकी, पक्षियोंसे पक्षियोंकी और मछलियोंसे मछलियोंकी उत्पत्तिका नियम क्यों उपलब्ध हो रहा है? आज भी बन्दरोंकी परम्परासे मनुष्योंका जन्म होता हुआ दिखायी क्यों नहीं देता? किंचिन्मात्र सादृश्यसे अन्यत्र अन्य रूपमें परिणाम नहीं सिद्ध किया जा सकता। कितने ही पौधे समान ढंगके होते हुए भी गुणोंमें भिन्न हैं। कोई जहर है तो कोई अमृत है। समान घोड़ोंमें भी हय, अश्व, अर्वा आदिमें जातिभेद माना जाता है। मनुष्योंमें भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि जातिभेद मान्य होता है। वृक्षों, पशुओं तथा जलचर जन्तुओंमें अवान्तर बहुत अधिक समानता होनेपर भी उनमें जाति, गुण आदिका भेद होता है। शुभ-अशुभ कर्मोंके अनुसार ही जातिभेद शास्त्रीय दृष्टिसे मान्य है। जाति, आयु, भोगका आरम्भक कर्म ही प्रारब्धकर्म माना जाता है। कार्यकी विलक्षणता कारणकी विलक्षणतासे ही सम्भव होती है। अत: कर्म-वैचित्र्यसे जाति-वैचित्र्यकी मान्यता संगत है। विभिन्न ढंगके बीजोंसे विभिन्न ढंगके अंकुरोंकी उत्पत्ति होती है। विभिन्न प्राणियोंके सजातीय शुक्र-शोणितोंसे सजातीय प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है। विजातीय प्राणियोंसे विजातीयोंकी उत्पत्ति अदृष्टचर है। विजातीय शुक्र-शोणितोंसे भी संतानोत्पत्तिमें बाधा पड़ती है। फिर इस दृष्ट कार्य-कारण-भावको छोड़कर अदृष्टकी कल्पना सर्वथा अपार्थक है। जब भिन्न-भिन्न परम्पराएँ उपलब्ध हैं ही, तब बीजरूपसे तथा शक्तिरूपसे उन्हें स्वतन्त्र ही क्यों न माना जाय? निम्बसे आम्रकी उत्पत्ति नहीं होती, बालूसे तैल नहीं निकलता तथा अश्वसे महिषकी उत्पत्ति नहीं होती; क्योंकि निम्ब आदिमें आम्र आदिका शक्तिरूपसे अस्तित्व नहीं है। ‘असत्की उत्पत्ति और सत्का विनाश नहीं होता,’ यह सिद्धान्त दृढ़ है। इसीलिये बन्दरोंसे मनुष्योंकी उत्पत्ति दृष्ट नहीं होती। इस तरह एक मूल प्रकृति या कारणब्रह्मसे ही समस्त प्रपंचकी उत्पत्ति होती है। सर्वकार्यानुगुण शक्तियाँ कारणमें रहती हैं।
राजनीतिके सम्बन्धमें भी विकासवादियोंकी ऐसी ही कल्पनाएँ हैं। स्पेंसरका यह भी कहना है कि ‘गरीबी एवं निर्बलता भी प्राकृतिक है। जो योग्य होता है, वही जीवित रहता है। जो परिस्थितिके अनुकूल अपने-आपको नहीं बना सकते, ऐसे प्राणी मर जाते हैं। इसी तरह जो व्यक्ति वैज्ञानिक परिवर्तनके साथ अपनेको परिवर्तित नहीं कर सकता और विपरीत परिस्थितिमें नहीं रख सकता, वही गरीब होता है। उसके सुधारमें शासनको हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।’ इसके मतानुसार ‘यदि कोई अध्यापक उष्णता न सह सकनेके कारण मूर्च्छित हो गया हो तो विद्यार्थियोंको उसे वैसे ही मूर्च्छित छोड़कर चल देना चाहिये और उसे स्वयं परिस्थितिसे मुकाबला करनेके लिये छोड़ देना चाहिये।’
विज्ञान या साइंसमें भी पर्याप्त मतभेद है। डार्विन, हेकल आदिके समयके प्राचीन साइंसने आत्मा, ईश्वर, पुनर्जन्म आदिके सम्बन्धमें बहुत-सी उलटी बातें कहीं, परंतु सत्यकी खोज करनेवाले वैज्ञानिकोंकी खोज निरन्तर चल ही रही है। लगभग अर्धशताब्दीसे तो विज्ञानने ही प्राणिविज्ञान-सिद्धान्तमें पर्याप्त रद्दो-बदल कर दिया। विकासवाद तो वस्तुत: खण्डित ही हो गया, किंतु स्वेच्छाचारियोंके लिये आत्मा, ईश्वर, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि जहरके समान कड़ुए प्रतीत होते हैं। अत: वे लोग अब भी उसी जडवाद विकासवादकी रट लगा रहे हैं; क्योंकि विकासवादमें ईश्वर, धर्म आदिसे छुट्टी मिल जाती है। अत: जो वस्तु वैज्ञानिकोंकी दृष्टिसे गलत, सिद्ध हो चुकी, उसी विकासवाद— जडवादके पीछे उच्छृंखल लोग पड़े हुए हैं।
‘साइंस ऐण्ड रिलीजन’ (धर्म एवं विज्ञान) पुस्तकमें सर ओलिवर जोजेफ लाज एफ्० आर० एस०, डी० एस-सी०, एल-एल० डी०, प्रो० जॉन एम्बोज, प्रो० डब्ल्यू० बी० बाट्मली, प्रो० एडवर्ड हल, जॉन एलन हार्कर, प्रो० जर्मन सिम्स उडहेड तथा प्रो० सिलवेनिस फिलिप्स थॉम्पसन—इन सात प्रसिद्ध वैज्ञानिकोंके मन्तव्योंका उल्लेख है। इस पुस्तकमें ईश्वर, जीव, धर्म एवं विकासके सम्बन्धमें डार्विन आदिके मतका खण्डनकर आस्तिक पक्षका समर्थन किया गया है। वर्तमान वैज्ञानिक प्राचीन वैज्ञानिकोंको ‘पुराना’ कहकर उनके मतकी उपेक्षा करते हैं। प्रो० बाट्मली कहते हैं कि ‘हेकलका प्राचीन भौतिकवाद वर्तमान युगसे बिलकुल दूर है। हेकलकी ‘दि रिड्ल ऑफ युनिवर्स’ का उत्तर ‘रद्दी विचार एवं नूतन उत्तर’ (दि ओल्ड रिड्ल एण्ड न्यूएस्ट आंसर) पुस्तकमें दिया गया है। उस पुस्तकमें यह भी कहा गया है कि ‘नवीन वैज्ञानिक पहलेकी अन्धी प्रकृतिके हाथमें न रहकर प्रकृतिको अपने हाथमें रखनेकी शिक्षा देते हैं। विकासको मनमाना नहीं, प्रत्युत नियमबद्ध होकर कार्य करनेवाला बतलाते हैं। विकासके द्वारा परमात्माका दर्शन करते हैं। डार्विन, हक्सले, हेकल आदिके समयका संसार केवल प्राकृतिक था; परंतु अबके वैज्ञानिकोंको सर्वज्ञ परमेश्वर भी स्वीकृत है। डार्विनकी प्रकृति भी अब ईश्वरसे नियन्त्रित है। साइकोलॉजी (मनोविज्ञान), फ्रीनालोजी (मस्तिष्कशास्त्र) और स्पिरिचुअलिज्म (आधुनिक परलोकवाद)-के पण्डित जीवका अस्तित्व एवं उसका जन्मान्तर भी स्वीकृत करते हैं।’
इस तरह कर्मोंद्वारा जीवोंकी अवस्था बदलती है। मनमानी प्रकृति मक्खीसे चिड़िया और चिड़ियासे साँप नहीं बना सकती। सर ओलिवर लाजका कहना है कि ‘विकास तो कुड्मल (कलिका)-से पुष्प एवं बीजसे अंकुर बनानेवाला निश्चित नियम है। नवीन विज्ञानके अनुसार कई प्राणी ऐसे पाये गये हैं, जिन्होंने अपने आदि जन्मसे लेकर अबतक अपना रूप बिलकुल नहीं बदला। यही ‘स्थिर शरीरवाले’ कहे जाते हैं। हेकल आदिके अनुसार मनुष्यको हुए ८ लाख २० हजार वर्ष हुए। इसी बीच उसने अपनी उन्नति की। पर मि० जॉन् टी० रोडको नेवादामें एक ६० लाख वर्षका पुराना जूतेका तल्ला पत्थरकी दशामें मिला, तबसे तो विकासवाद सर्वथा ही धराशायी हो गया। पृथ्वीकी आयु अबतक जितने भी प्रकारोंसे सिद्ध की गयी, उनमेंसे कोई भी प्रकार इस जूतेके कारण विकासवादकी सब कड़ियोंको उपपन्न करनेमें समर्थ नहीं है। अमीबासे लेकर मनुष्यतक न जाने कितनी कड़ियाँ हैं, यदि एक-एक कड़ी करोड़ वर्ष ले, तो ज्यादा-से-ज्यादा पृथ्वी कितनी पुरानी हो सकती है, इसका अन्दाजा लगाना भी कठिन है। अभी हालमें यह सिद्धान्त स्थिर हुआ कि ‘मनुष्योंका विकास बन्दरोंसे नहीं हुआ, प्रत्युत बन्दरोंका जन्म मनुष्योंसे हुआ है।’ इन वैज्ञानिकोंका कहना है कि ‘पूर्वकालके मनुष्योंने ज्ञानविज्ञानमें बहुत उन्नति की थी; इसलिये उनके सिर कमजोर हो गये थे। कुछ दिनोंके बाद वे असभ्य जंगली हो गये। उनमेंसे कुछ वनमानुष और कुछ बन्दर बन गये।’ ये नवीन वैज्ञानिक पुराने वैज्ञानिकोंसे कहीं अधिक सूक्ष्मदर्शी हैं। इन्होंने अपने तजुर्बेसे पुराने ज्ञानोंमें अधिक वृद्धि की है। अत: परिस्थिति संयोग या इत्तिफाकके अनुसार नहीं, किंतु कर्मोंके अनुसार ईश्वराज्ञानुसार ही प्रकृति जीवोंके शरीरोंको विकसित करती है। जैसे बीजसे वृक्ष, कलीसे फूलका विकास होता है, वैसे ईश्वरीय नियमानुसार ही सब विकास ठीक हैं।’
विकासवादियोंके मतानुसार—‘प्राकृतिक पदार्थोंका मूल कारण ‘ईथर’ है। उसीकी कल्पना और तरंगावलीसे विद्युत्, प्रकाश, शब्द और गर्मी उत्पन्न होते हैं। उसीके अति सूक्ष्म कणोंको ‘इलैक्ट्रोन’ कहते हैं। इनके ही संघातसे विद्युत् बनती है। यही शक्तिके रूपसे स्थूल आकारमें ‘मैटर’ कहलाती है। मैटरकी विरलदशाको ‘गैस’, तरल दशाको ‘लिक्विड’ तथा ठोस दशाको ‘सॉलिड’ कहते हैं। ईथरसे उत्पन्न ये पदार्थ घनीभूत होकर और आकर्षण-विकर्षणके नियमसे चक्राकारगतिमें हो जाते हैं। कुछ समयके बाद वही चक्र सूर्य बन जाता है। सूर्यमें गर्मी तथा गतिके कारण चक्कर पड़ जाते हैं। उसके कुछ अंश अलग होकर दूसरे ग्रह बन जाते हैं। उन ग्रहोंसे उपग्रह बनते हैं। इसी प्रकारके ग्रहोंमेंसे हमारी पृथ्वी एक ग्रह है। यह पहले गर्म थी, फिर धीरे-धीरे ठण्डी हुई। उसीसे भाप, बादल, पानी, समुद्र, भूमि एवं जीव पैदा हुए। वनस्पति एवं जन्तुओंके भी पहले चेतनता उत्पन्न हुई। उसीकी एक शाखा एक कोष्ठधारी ‘अमीबा’ बन गयी। अमीबा इतने बढ़े कि उन्हें खाने-पीनेकी वस्तुओंकी दिक्कत होने लगी। उन्हींकी वे संतानें, जो शारीरिक प्रयत्न तथा मानसिक अभ्यासमें बलवान् थीं, जीवन-संग्राममें बच गयीं। वे फिर बढ़ीं और भोजनके लिये संग्राम जारी रहा। योग्य बचे, अयोग्य मारे गये। बचे हुए अमीबा पहलोंसे कुछ भिन्न प्रकारके थे। इनमें भी वही संघर्ष चला। मरते-बचते परिस्थितिके अनुसार आकार-प्रकार बदलते-बदलते मछली, मेढक, साँप, पक्षी, गाय, बैल, बन्दर, वनमानुष और मनुष्यकी उत्पत्ति हुई।’
‘सब प्राणियोंका एक ही तत्त्वसे बनना, सबमें जीवन और संतति धारण करनेवाले समान अवयवोंका होना सिद्ध करता है कि सब एक ही मूलयन्त्रके उसी प्रकार सुधरे हुए रूप हैं, जिस प्रकार आरम्भकी साइकिल भद्दे ढंगकी थी, उसमें सुधार होते-होते आजकी साइकिल बन गयी। अबतककी सभी साइकिलोंको एक कतारमें रखें तो पता लगेगा कि एकके ही ये सब सुधरे हुए रूप हैं। उसी प्रकार सभी प्राणी ‘अमीबा’ के सुधरे हुए रूप हैं। जैसे तीन पहिये और दो पहियेकी मोटर दो वस्तुएँ नहीं, वैसे ही बिना पैरका साँप और सैकड़ों पैरवाला कनखजूरा कोई दो वस्तु नहीं। पहलेका सुधारा हुआ रूप ही दूसरा है। पहले सादी फिर संकीर्ण, पहले बिना हड्डीवाली फिर हड्डीवाली, पहले जोड़ोंवाली फिर सपाट रचनाका क्रम यान्त्रिक ही है। जमीन खोदनेसे भी यही क्रम मिलता है। सादी रचनावाले नीचेकी तहोंमें और क्लिष्ट रचनावाले हड्डीवाले ऊपरकी तहोंमें मिलते हैं। मनुष्य गर्भ पहले अमीबाकी तरह एक कोष्ठवाला, फिर मछलीके आकारका, फिर क्रमश: मण्डूक, सर्प एवं पक्षीके आकारका होता है। फिर बन्दरकी शकलका होकर मनुष्य होता है। इस तरहसे भूगोलके प्राणियोंकी शरीर-रचना, यत्र-तत्र प्राप्त हड्डियोंकी रचना तथा विभिन्न देशोंमें स्थित प्राणियोंकी शरीर-रचनाकी तुलना करनेसे यही प्रतीत होता है कि सब एक ही मौलिक यन्त्रके परिशोधित एवं परिवर्धित स्वरूप हैं। कई स्त्रियोंके चार या आठ स्तन होते हैं, कई मनुष्योंके पूँछ होती है। इससे मालूम होता है कि मनुष्य भी उन योनियोंसे होकर आया है, जिनमें अधिक स्तन एवं पूँछ होते हैं। कान हिला सकने और आँत उतरनेकी बीमारीसे प्रतीत होती है कि मनुष्यके ये अंग शक्तिहीन हो गये। कहीं एक ही प्राणीमें इन दो प्रकारके प्राणियों-जैसे अंग पाये जाते हैं। चमगादड़, उड़ती गिलहरी, लुप्त कड़ियोंके उत्तम निदर्शक और विकासके प्रमाण हैं।’
इस सम्बन्धमें कहना यह है कि यन्त्रोंका विकास जैसे किसी चेतनकी बुद्धिका परिणाम है, वैसे ही विश्वका विकास भी किसी चेतन ईश्वरसे ही सम्भव है। भले साइकिलें एक ही यन्त्रके विकास हों, फिर भी मोटर, रेल, वायुयान तथा कारखानोंके यन्त्र, सब साइकिलके ही विकास नहीं। इसी तरह साँपोंके अवान्तर भेद साँपोंके विकास भले ही हों, परंतु कनखजूरा, बड़ी गिजाया और छोटी गिजाई आदिका स्वतन्त्र ही अस्तित्व क्यों न माना जाय? निराकार जीव कर्मवश विभिन्न योनियोंसे होता हुआ मनुष्य-योनिमें आया, इसमें कोई मतभेद नहीं। किंतु अमुक जीवित देहसे ही सब प्रकारके जीवित देह बने, यह कल्पना सर्वथा निराधार है। कहा जाता है कि ‘सम्पूर्ण संसार परिवर्तनका फल है।’ किंतु परिवर्तन या गति जड पदार्थका स्वाभाविक धर्म नहीं हो सकती। व्यवहारमें देखते हैं कि घड़ीमें गतिका परिवर्तन घड़ीका स्वाभाविक धर्म नहीं, बन्दूकद्वारा चलनेवाली गोलीकी गति स्वाभाविक नहीं है, घड़ी और गोली पहले गतिहीन थीं, अन्तमें भी गतिहीन होनेवाली हैं। बीचमें किसी चेतनद्वारा ही उनमें गति मिलती है। इस तरह संसारमें तेज, जल, किरण, वायु आदि सभी पदार्थोंमें गति या परिवर्तन किसी चेतनसे ही मिलना चाहिये। घड़ी और गोलीकी गतिके तुल्य ही संसारकी गति भी न पहले थी, न अन्तमें रहेगी। उसे गति देनेवाला चेतन ईश्वर ही है।
‘साइंस एण्ड रिलीजन’ में प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० जे० एम० फ्लेमिंगका कहना है कि ‘साइंसके स्वाध्यायसे हमें इस प्राकृतिक जगत्में तरकीब, योजना, धारणा और विचार दिखलायी पड़ते हैं। ये बातें इत्तिफाकसे अचानक नहीं आ गयीं। ये विचार चैतन्यकी सूचना देते हैं। यह संसार बिना विचारवान्के कभी नहीं बन सकता। महर्षिव्यासने भी उपनिषदोंके आधारपर शारीरक सूत्रमें कहा ही है कि जड प्रकृतिमें ईक्षण नहीं बन सकता, किंतु यह संसार ईक्षणपूर्वक ही हो सकता है—‘ईक्षतेर्नाशब्दम्।’ (ब्रह्मसूत्र १।१।५)
कुछ विकासवादियोंकी कल्पना है कि ‘पृथ्वीपर गिरनेवाली तारिकाओंके द्वारा जीवनका बीज हमारे यहाँ पहुँचा।’ परंतु इसमें शंका यह होती है कि क्या प्रोटोप्लॉज्ममें इतनी शक्ति है कि तारिकाओंसे पृथ्वीपर पहुँचनेतक उनमें जीवन अवशिष्ट रह सकता होगा? दूसरी कल्पना यह है कि ‘असंख्य वर्षोंके पहले अनुकूल स्थिति पानेपर जीवनका एकदम प्रादुर्भाव हुआ।’ परंतु इसपर विकासवादी ही कहते हैं कि ‘जीवनका आरम्भ कब हुआ, कैसे हुआ—इसपर वैज्ञानिकोंको अबतक कुछ ज्ञात नहीं। इससे स्पष्ट है कि ‘चैतन्य कैसे बनता है,’ यह वैज्ञानिकोंको मालूम नहीं, परंतु उनका विश्वास है कि ‘वह है प्राकृतिक,’ क्योंकि उनके मतमें चेतन प्रोटोप्लॉज्म ही है। प्रोटोप्लॉज्म, जो शहदकी भाँति तरल पदार्थ है, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस आदि बारह भौतिक पदार्थोंसे बना है, जो कि जड ही हैं। ये भौतिक पदार्थ ‘इलेक्ट्रॉनों’ के न्यूनाधिक मेलसे बनते हैं। इलेक्ट्रॉन खण्ड-खण्ड है, अर्थात् ये सब पदार्थ परमाणुओंसे बने हैं, जीव भी प्राकृतिक परमाणुओंसे ही बना है।’ हक्सलेके मतानुसार ‘चेतन’ पदार्थ दीपज्योति अथवा पानीके भँवरके तुल्य नित्य प्रतीत होनेपर भी प्रतिक्षण बदलनेवाली व्यक्तियाँ ही हैं। नये-नये परमाणु मिलते जाते हैं, पुराने अलग होते रहते हैं, यह धारा निरन्तर बहती रहती है, इसलिये ज्ञान एवं चैतन्यका सिलसिला नहीं टूटता।
नवीन विज्ञानके अनुसार ‘प्रत्येक परमाणु कई इलेक्ट्रानोंसे बना होता है। इलेक्ट्रॉन एक-दूसरेसे चिपकते नहीं, प्रत्युत दूर-दूर रहते हैं। जिस प्रकार तारका-समूह दूर-दूर रहकर भी एक तारापिण्ड या सौर जगत् कहलाता है, उसी प्रकार अनेकों इलेक्ट्रानोंसे बना हुआ ‘ऐटम’ भी है। इसी ऐटमसे उपर्युक्त बारह पदार्थ बनते हैं। इन्हीं बारह पदार्थोंसे ज्ञान, चैतन्य या आत्मा बना है। अत: वह भी परिवर्तनशील है।’ वैज्ञानिकोंके अनुसार परमाणुओंकी गति प्रति सेकेण्ड एक लाख मील है। यहाँ विचारणीय यह है कि जुदा-जुदा रहकर इतने वेगसे चलनेवाले परमाणु किस प्रकार अपना ज्ञान दूसरे परमाणुमें डालते हैं अथवा किस प्रकार ज्ञान एक परमाणुसे उड़कर दूसरे परमाणुमें जाता है और चैतन्य स्थिर रहता है? बीसों वर्ष पढ़ानेपर भी विद्यार्थी भूल जाता है, परंतु बिना किसी साधनके दूर-दूर स्थित परमाणु इतने वेगसे दौड़ते हुए अपना ज्ञान दूसरेमें फेंककर चले जाते हैं और दूसरे उस ज्ञानको ले लेते हैं। यह कितनी आश्चर्यजनक और कितनी असंगत बात है?
दिसम्बर सन् १९२३ के ‘चिल्ड्रेन्स न्यूज’ पत्रमें प्रो० रिचर्ड की ‘थर्टी इयर्स ऑफ साइकिकल रिसर्च’ नामक पुस्तकका विज्ञापन छपा है। उसीमें पुस्तकका एक उद्धरण है कि ‘पचास वर्ष पूर्व भौतिक विज्ञानका यही रुख था कि जो बात भौतिक विज्ञानसे सिद्ध न हो, उसका अस्तित्व ही नहीं, वह ढोंग है। किंतु आज ऐसे भी प्रमाण मिल रहे हैं कि भौतिक विज्ञानकी पहुँचके बाहर भी पदार्थोंका अस्तित्व है। ऐसे पदार्थोंको ‘साइकिकल’ कहते हैं। यह शब्द जीवके लिये व्यवहृत होता है। जीवात्माको अब कोई भी भौतिक नहीं कहता।’ डार्विनके सुपुत्र प्रो० जार्ज डार्विनने—१६ अगस्त, सन् १९०५ को दक्षिण अफ्रीकामें ब्रिटिश एशोसियेशनके प्रधानकी हैसियतसे कहा है कि ‘जीवनका रहस्य अब भी उतना ही गूढ है, जितना कि पहले था।’ प्रो० गेडिस कहते हैं कि ‘कुछ प्रामाणिक विज्ञानवेत्ता, जो जीवके एक लोकसे दूसरे लोकमें आगमनकी कल्पनाको संतोषजनक मानते हैं, ऐसा भी मानते हैं कि जीव प्रकृतिकी भाँति अनादि है।’ एक दूसरे विद्वान्का कहना है कि ‘चेतनके प्रभावके बिना जड पदार्थोंमें चेतना आ ही नहीं सकती।’ विज्ञानका यह नियम पृथ्वीके आकर्षण-नियमके समान अटल प्रतीत होता है। जबसे मनोविज्ञान, मस्तिष्कशास्त्र एवं आत्मविद्याका अन्वेषण हुआ, तबसे जीव-सम्बन्धी सभी शंकाएँ निवृत्त हो गयीं।
मनोविज्ञानके एक विद्वान्का कहना है कि ‘किसी भी जीवनकार्यकी संगति भौतिक नियमोंसे स्पष्ट नहीं होती। आँसू या पसीना निकलनेके नियमोंका भी स्पष्टीकरण अभीतक नहीं हो सका।’ मस्तिष्क-शास्त्रके जन्मदाता गॉलका कहना है कि ‘मेरी रायमें एक ही निरवयव वस्तु है, जो देखती, सुनती, स्पर्श करती है; प्रेम, विचार एवं स्मरण करती है; पर अपना कार्य करनेके लिये वह मस्तिष्कमें अनेक भौतिक साधन चाहती है।’ इससे वेदान्तके द्रष्टा, स्रष्टा, श्रोता, घ्राता आत्माका ही वर्णन मिलता-जुलता है। आत्मविद्याके प्रसिद्ध पण्डित सर ऑलिवर लॉज लिखते हैं कि ‘एक बार आप इस बातको देखें कि अन्त:करण बड़ी वस्तु है। वह इस मशीन (शरीर)-से बाहरकी वस्तु है। ऐसा नहीं कि जब शरीर नष्ट होता है, तब वह अपना अस्तित्व खो देती है। हम जितने दिनोंतक पृथ्वीपर रहते हैं, उतने ही दिनोंके लिये हमारा अस्तित्व परिमित नहीं। हम बिना शरीरके भी रह सकते हैं। हमारा अस्तित्व बना ही रहेगा। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? इसलिये कि ये सब बातें विज्ञानके आधारपर स्थित हैं। बहुतोंने अभी इसका अनुभव नहीं किया, पर यदि कोई तीस-चालीस वर्षतक अपनी आयु इस विषयमें लगाये, तभी वह यह कह सकनेका अधिकारी होगा कि अब मैं किसी स्थितिमें पहुँचा हूँ।’ इन बातोंसे ज्ञात होगा कि जीवका स्वतन्त्र अस्तित्व विज्ञानसम्मत है। अब ईश्वरनियन्त्रित प्रकृतिसे विकास उसी प्रकार मान्य है, जिस प्रकार कलीसे फूलका विकास होता है। जैसे कलीसे फूल ही होगा, भ्रमर नहीं; बीजसे वृक्ष ही होगा, मूँगा नहीं, वैसे ही ईश्वरीय नियमानुसार पदार्थोंका विकास होगा। यह टी० एच० हक्सलेके ‘एनीवर्सरी ऐड्रेस’ के इन वाक्योंसे स्पष्ट है कि ‘प्रत्येक पशु और वनस्पतिकी सभी जातियोंमें कुछ विशेष प्राणी ऐसे होते हैं, जिनको मैं ‘स्थिर आकृति’ नाम देता हूँ; उनमें सृष्टिसे लेकर अबतक कोई विकार नहीं हुआ।’
मद्रास हाईकोर्टके जज टी० एल० स्टेजका कहना है कि ‘जल-कृमियोंमें बहुत प्रकारके भिन्न-भिन्न रूपवाले जन्तु प्रतिदिन उत्पन्न होते हैं। इनके लिये यह आवश्यक नहीं कि वे एक-दूसरेसे विकृत होकर उत्पन्न हों, प्रत्युत वे तो एक-दूसरेसे अपेक्षारहित होकर एक ही समयमें अलग-अलग आकारके साथ उत्पन्न होते हैं। इससे क्रम-विकासका स्पष्टतया खण्डन हो जाता है। अनुभव भी यही है कि सिरमें मैल जमनेसे जुएँ साक्षात् उत्पन्न होती हैं। वे अनेक अन्य देह धारण करनेके बाद जुएँ नहीं बनतीं। खाटका खटमल मलिनतासे ज्यों-का-त्यों उत्पन्न होता है। मूत्रके कीड़े संसारके समस्त देशोंमें एक ही आकारके उत्पन्न होते हैं।’ इन घटनाओंसे सिद्ध होता है कि अमुक आकार प्राप्त करनेके लिये अनेक आकारोंका चक्कर लगाना आवश्यक नहीं। जिस ईश्वरके द्वारा चन्द्र-सूर्य बनते हैं, जिससे अमीबा बनते हैं, उसीसे स्वतन्त्र अन्य शरीर भी बन सकते हैं।
इसीलिये एक आधुनिक वैज्ञानिक अपनी ‘प्रिंसिपल्स ऑफ जूलोजी’ (प्राणिविज्ञानके सिद्धान्त) पुस्तकमें लिखता है कि ‘पृथ्वीपर उत्पन्न बिना हड्डीके जन्तुओं और मनुष्यादि हड्डीवाले प्राणियोंमें एक समान ही उन्नति देखी जाती है, परंतु इस समानताका यह अर्थ नहीं कि एक प्रकारके प्राणीसे दूसरे प्रकारके प्राणी विकसित हुए हैं। आदिम मत्स्य ही सर्पणशील प्राणियोंका पूर्वज नहीं और न मनुष्य ही अन्य स्तनधारियोंसे विकसित हुआ है। प्राणियोंकी शृंखला किसी अभौतिक तत्त्वसे सम्बन्ध रखती है, जिसने पृथ्वीपर अनेक प्रकारके प्राणियोंकी सृष्टि करके अन्तमें मनुष्यको बनाया है—‘ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:।’ (श्रीमद्भा० ११।९।२८) इसके अतिरिक्त परमेश्वरका अस्तित्व माननेपर प्रकृतिकी स्वतन्त्रताका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। फिर तो अनादिसिद्ध जीवोंके शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार उनके सुख-दु:खादि फल-भोगार्थ ही देहका निर्माण अपेक्षित होता है। सुख-दु:खकी न्यूनता-अधिकता देहकी बनावटपर निर्भर है। इस दशामें जिन प्राणियोंको उनके कर्मानुसार जैसा सुख-दु:ख देना है, सीधे तदुपयोगी ही शरीरका निर्माण आवश्यक है। व्यर्थ असंख्य शरीरोंमें घुमा-फिराकर जीवको उस शरीरमें लाना परमात्माके लिये उचित नहीं। कर्मफलोंको भोगानेके लिये यदि किसी अपराधीको तीन मासकी कालकोठरीकी सजा देनी है, तो पुलिस उस व्यक्तिको वर्षों इधर-उधरकी हवालातोंमें भटकाती फिरे, यह न्याय नहीं। अत: ईश्वर एवं जीव-तत्त्व मान लेनेपर फिर क्रम-विकासका कोई भी स्थान नहीं रह जाता।’
विकास-सिद्धान्तकी मान्यता है कि ‘चेतनकोष्ठसे प्राणी बनता है। इन्हीं चेतनकोष्ठोंसे समस्त प्राणियोंकी रचना हुई।’ इन सब जीवित प्राणियोंमें तीन सामान्य बातें हैं—(१) सब प्राणियोंके शरीर एक ही सरल पदार्थोंसे बने हैं। पशु-पक्षियोंके शारीरिक तत्त्वोंमें कोई अन्तर नहीं। (२) सब प्राणी अपनी क्षीण शक्ति फिरसे प्राप्त कर लेते हैं। प्रतिदिन काम करके श्रान्त होते हैं, विश्रामके अनन्तर पुन: ताजे हो जाते हैं। (३)यन्त्रोंकी भाँति सुधरते-सुधरते एक शरीरसे अन्य शरीरवाले होते हैं। सब प्राणियोंके आठ स्थान होते हैं—(१) पोषण—बाहरसे पदार्थ लेना, पचाना और सारे शरीरमें पहुँचाना, (२) श्वासोच्छ्वास, (३) मलत्याग, (४) रक्तप्रसार, (५) प्रेरणा, (६) आधारस्थान (जिससे शरीर सधा रहता है), (७) ज्ञानतन्तु (जिससे समस्त शरीरका हाल मालूम होता है) और (८) प्रसव। इस तरह सब प्राणियोंके तत्त्व एक-से हैं और आठ स्थान भी एक-से होते हैं। किंतु ये सब बातें भारतके लिये कोई नयी खोज नहीं हैं। यहाँका एक गँवार भी जानता है कि ‘पंच रचित अति अधम सरीरा।’ जो जीते, खाते, काम करते तथा संतति उत्पन्न करते हैं, उनमें आठ संस्थान होने ही चाहिये। क्या कोई ऐसा भी मूर्ख होगा, जो समझेगा कि ‘भोजन किया जाता है और मलत्याग न किया जायगा?’ नालेके पानीकी तरह रक्तका बहना, संतति उत्पन्न करना सभी दुनियाँको अवगत है। हाँ, विचारणीय यह है कि जिस प्रकार यन्त्र धीरे-धीरे सुधरता है, क्या उसी प्रकार प्राणी और-से-और हो जाता है। वस्तुत: यन्त्र मनुष्यकी परिमित बुद्धिसे बनता है, उसमें अनुभवके आधारपर कुशलता होती है; इसलिये आरम्भिक और अन्तिम रूपमें अन्तर पड़ जाता है; परंतु सर्वज्ञ परमेश्वरकी बुद्धिकी रचना मनुष्य-बुद्धि-जैसी नहीं हो सकती।
प्राणियोंके कर्मफलभोगार्थ परमेश्वर तदुचित देह बनाते हैं। जिसके जैसे कर्म, उसे वैसा ही सुख-दु:ख भोगना पड़ता है। उसके लिये उसी प्रकारका देह-निर्माण आवश्यक है। शरीरका बनाना यदि स्वतन्त्र प्रकृति या जीवके अधीन माना जाय, तो यन्त्रका दृष्टान्त ठीक हो सकता है। पर यहाँ तो कर्मानुसार शरीर प्रदान करनेवाला ईश्वर है। अत: यन्त्रका दृष्टान्त व्यर्थ है। विकासवादीका कहना है कि ‘वैज्ञानिकोंने अबतक कोई ऐसी रीति आविष्कृत नहीं की, जिससे इन परिवर्तनोंको वे परीक्षणोंद्वारा सिद्ध कर सकें और न उनको अबतक यही ज्ञात हो सका कि इस प्रकारके परिवर्तनके नियम क्या हैं? वैज्ञानिकोंको परिवर्तन नियम मालूम नहीं। यह भी मालूम नहीं कि परिवर्तन कैसे होता है? परिवर्तन होते हुए भी किसीने नहीं देखा। अमुक प्राणीका अमुक प्राणी बन गया, इसे किसीने नहीं देखा। आज किसीको भी बन्दरसे मनुष्य बनते नहीं देखा जाता और मनुष्यके बाद मनुष्यसे दूसरा भी कोई प्राणी उत्पन्न होते नहीं दिखायी देता। ऐसी स्थितिमें परिवर्तन सिवा कल्पनाके और कुछ भी सिद्ध नहीं होता। विज्ञानके प्रखर पण्डित भी यही कहते हैं कि ‘जीवकी श्रेणियों एवं जातियोंकी उत्पत्तिका रहस्य हमको ज्ञात नहीं।’ थाम्पसनका कहना है कि ‘हम नहीं जानते कि ‘पृथ्वीपर जीवधारीकी उत्पत्ति कबसे हुई?’ दूसरा एक विद्वान् भी कहता है कि ‘इस उजाड़ पृथ्वीपर प्राणीकी उत्पत्ति कैसे हुई, यह हम नहीं जानते।’ कुछ तीसरे लोग डार्विनके ही शब्दोंमें स्वीकार करते हैं कि ‘एक जातिसे दूसरी उपजातिकी भिन्नताके नियमोंके सम्बन्धमें हमलोग कुछ नहीं जानते।’
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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