4. विकासवाद
(प्राणिशास्त्र, शरीर-रचना)
आजकल धर्म, संस्कृति, राजनीति, भाषाविज्ञान, इतिहास सभी क्षेत्रोंमें विकासवाद सिद्धान्त लागू किया जा रहा है। आधुनिक विज्ञान तथा जड-भौतिकवादका एक प्रकारसे यही मूल हो रहा है। बहुत-से भारतीय विद्वान् भी इसे ही मानकर भारतीय विषयोंकी व्याख्या करते हैं। मार्क्सवादके सिद्धान्तोंका आधार भी बहुत कुछ विकासवाद ही है। अत: विकासवादका सिद्धान्त और उसके समर्थनमें जो तर्क रखे जाते हैं, उनपर भी विचार करना बहुत आवश्यक है।
चार्ल्स डार्विन विकासवादके ‘प्रवर्तक’ माने जाते हैं। उन्होंने जहाजद्वारा यथासम्भव संसारभरकी यात्रा की। दूर-दूरके टापुओंमें जाकर विविध जातिके जन्तुओंका अवलोकन किया। एक-एक जातिके प्राणियोंमें उन्होंने अगणित भेद पाये। उन्हें इन भेदों, अन्तरोंसे आश्चर्य हुआ। इसीलिये मालथसके प्राणिसंख्या-वृद्धि-विचारको पढ़कर उन्होंने यह भी देखा कि ‘जीवधारियोंकी संख्या १, २, ४, ८, १६ के हिसाबसे ज्यामितिक रेखागणितके अनुसार बढ़ रही है और खाद्यकी संख्या १, २, ३, ४ के क्रमसे अंकगणितके अनुसार बढ़ती है। लड़ाइयों, बीमारियों तथा अन्य विविध विप्लवोंद्वारा होनेवाले संहारोंसे ही जनसंख्या नियमित है (आजकल यह मत मान्य नहीं है)। डार्विनने यह निश्चित किया कि प्रतिद्वन्द्विता एवं संघर्ष स्वाभाविक है। इसमें जो योग्यतम होता है, वही बच सकता है। किसी कारण-विशिष्ट शारीरिक रचना एवं विशिष्ट शक्तिसे ही विशेष प्रदेशोंमें प्राणियोंको प्राण बचानेकी सुविधा होती है। इस तरह जो विशेष निवास-स्थानके योग्य शरीरवाले होते हैं, उन्हींकी संतानें भी बढ़ती हैं। औरोंकी जातियाँ या तो नष्ट हो जाती हैं अथवा सुविधाके अनुकूल कहीं अन्यत्र जाकर उन्हें प्राण बचाना पड़ता है। प्रकृति योग्यतमका चुनावकर उसकी ही रक्षा करती तथा औरोंकी उपेक्षा करती है। अत: वे नष्ट हो जाते हैं। डार्विनके मतानुसार प्रतिद्वन्द्विता प्राकृतिक, शाश्वत एवं सार्वत्रिक नियम है। प्राणियोंकी अभिवृद्धिसे यह स्पष्ट होता है कि यही जीवन-संग्रामका भी मूल है। बलवान् निर्बलोंको नष्ट करके अपनेको सुरक्षित रखते हैं, जिनमें अपने आपको परिस्थितिके अनुसार बना सकनेकी क्षमता होती है, उसीकी संतानवृद्धि भी चलती है। इस जीवन-संघर्षसे विभिन्न गुणों, विभिन्न परिस्थितियोंके अनुसार भेद होते हैं और परम्परानुगत होनेसे वे और भी पुष्ट होते हैं। इसी अवस्थानुरूप परिवर्तनके कारण ही विभिन्न जातियोंका प्राकटॺ हुआ। यह भिन्न या स्वतन्त्र सृष्टि नहीं।’
इस तरह निरीक्षण, अनुमान एवं परीक्षणद्वारा डार्विनने विकास सिद्धान्त स्थिर किया। यात्राद्वारा अनेकविध प्राणियोंका निरीक्षण किया एवं प्राणि-संख्या-वृद्धिका सिद्धान्त देखकर प्रतिद्वन्द्विता एवं उसमें योग्यतमके ही रक्षणका अनुमान किया। पश्चात् उसने परीक्षा आरम्भ की। उन्होंने देखा कि घोड़े एवं भेड़ पालनेवाले लोग बहुतोंको छाँटकर अपने मतलबके जानवरोंका संग्रह कर लेते हैं और उनमें इच्छानुरूप विभिन्नता उत्पन्न करते हैं। इसके अतिरिक्त, पशु-पक्षियोंकी बहुत-सी जो जातियाँ नष्ट हो गयीं, उनका वर्तमान जातियोंसे बहुत कुछ सादृश्य उपलब्ध होता है। भेद इतना ही है कि पहली जातियाँ वर्तमान जातियों-जैसी उत्तमताको प्राप्त नहीं हुई थीं। पृथ्वीकी वर्तमान जातियोंका सादृश्य भी तीसरा प्रमाण है। इससे निश्चय किया जाता है कि किसी समय छोटे जन्तुओंकी एक ही जाति रही होगी। उनके ही सूक्ष्म अण्डे या बीज जल, वायु आदिके प्रवाहसे समस्त भूमण्डलमें फैले। उन्हींमेंसे विकासक्रमसे वर्तमान जातियाँ निकलीं। विकासका चौथा एक यह भी कारण है कि ‘गर्भावस्थामें सभी प्राणी एक-से ही देख पड़ते हैं। अनेक जन्तुओंमें कितनी ही आरम्भिक इन्द्रियाँ गर्भावस्थामें पायी जाती हैं, जिनका पूर्ण विकास नहीं होता। इससे भी प्राकृतिक चुनाव एवं योग्यतम रक्षाका सिद्धान्त सिद्ध होता है।’ फिर डार्विनने यह माना कि ‘मेरी यह कल्पना तभी सिद्धान्तित होगी, जब चिरकाल बीतनेपर भी वैज्ञानिक परीक्षामें इसके विरुद्ध कोई बात न मिले।’
अध्यात्मवादी सिद्धान्तकी दृष्टिसे डार्विनकी इस कल्पनामें कोई अपूर्व बात नहीं। वेदान्तियोंका ब्रह्म, सांख्योंकी प्रकृति अनन्त प्रपंचका भण्डार है। उसमें शक्तिरूपसे सभी वस्तुएँ रहती हैं। प्रथम कारणावस्थामें कार्य-शक्तियाँ अव्यक्त रहती हैं, क्रमेण सहकारी सापेक्ष होकर व्यक्त होती हैं। धरतीमें ही अनगिनत बीज रहते हैं। विशिष्ट जल-वायुके योगसे अंकुरित, पुष्पित, फलित होनेपर उनके भेद दृष्टिगोचर होते हैं। मिट्टीके विभिन्न बर्तनों, सुवर्णके अनेक भूषणोंकी कारणावस्था तो एक-सी होती है। सहकारी मिलनेपर कुलाल एवं सुवर्णकारके इच्छानुसार कार्यावस्थामें उनके अनेक रूप व्यक्त होते हैं। सारूप्य-वैरूप्य ही तो जगत्की विचित्रताका रूप है। नैयायिकोंने भी पदार्थोंके साधर्म्य-वैधर्म्यका विश्लेषण किया है। एक-एक अवान्तर कारणावस्था या मूल कारणावस्थासे भिन्न-भिन्न चेतनाचेतन वस्तुओंका विकास या प्रादुर्भाव हुआ है। ये सब बातें अध्यात्मवादमें हजम हो जाती हैं। संघर्ष भी प्राणियोंमें दृष्ट ही है। कई लोगोंने यह भी दृष्टान्त रखा है कि एक पात्रमें एक सेर किशमिश या मुनक्का रख दें, तो कुछ दिनोंमें इसमें एक ढंगके कीट उत्पन्न हो जाते हैं। पहले उनकी संख्या खूब बढ़ती है, पुनश्च ज्यों-ज्यों वे बढ़ते हैं, एक-दूसरेका भक्षण करते हैं। प्रबल दुर्बलका भक्षण करते हैं। अन्तमें एक मोटा-सा कीड़ा उस पात्रमें दिखायी देता है। पानी एवं जंगलके जानवरोंमें यह भक्ष्य-भक्षक-भाव ‘मात्स्यन्याय’ नामसे प्रसिद्ध है ही। भारतीय शास्त्रोंने लिखा है कि हस्तहीनोंको हस्तवाले, अपदोंको पदवाले तथा छोटोंको बड़े जीव खा जाते हैं। इस तरह जीव ही जीवोंका जीवन है—
अहस्तानि सहस्तानामपदानि चतुष्पदाम्।
फल्गूनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम्॥
(श्रीमद्भा० १।१३।४७)
फिर भी यह स्वाभाविक नहीं, किंतु क्षुधाका ही यह सब उपद्रव है। क्षुधा बिना कोई किसी का भक्षक नहीं बनता। क्षुधा ही मृत्यु है—‘अशनाया वै मृत्यु:’ (उपनिषद्)। स्वभावसे सभी प्राणी ‘अमृतस्य पुत्रा:’ परमेश्वरके पुत्र हैं। अत: सबमें समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृता ही स्वाभाविक है। अनादि, अविद्या, काम, कर्मके कारण ही देहादि तादात्म्याध्यासके कारण क्षुधा-पिपासा एवं मृत्युका उपद्रव उपस्थित होता है।
विकासके सम्बन्धमें आधुनिक लोगोंको भी कई दोष प्रतीत होते हैं। जिन भिन्न प्रकारके व्यक्तियोंमेंसे देशकालोपयुक्त व्यक्तियाँ योग्यतमरूपसे प्रकृतिद्वारा चुनी जाकर रक्षित, परिवर्तित होती हैं और तदनुसार नाना प्रकारके जन्तुओंका विकास होता है, उन व्यक्तियोंमें प्रथम भेद कहाँसे आया? जन्तुओंको जाति-भेदका मूल बतलानेवाली विकास-कल्पना अन्तिम व्यक्तिभेदपर जब पहुँचती है, तब उसे रुकना ही पड़ता है। डार्विनने अवस्थाभेदसे, इन्द्रियों और शक्तियोंके उपयोग-अनुपयोगसे भी व्यक्तियोंमें प्रथम भेद माना है। सर्दी-गर्मी आदि अवस्थाओंके भेदसे व्यक्तियोंमें भेद होता है। जिस शक्ति या इन्द्रियका उपयोग होता है, वह सुरक्षित होती है। जिसका उपयोग नहीं होता, वह नष्ट हो जाती है। इन कारणों या अन्य कारणोंसे होनेवाले भेदोंकी रक्षा और वृद्धि कैसे होती है, यही दिखलाना डार्विनके विकास-सिद्धान्तका लक्ष्य है।
अध्यात्मवादमें तत्तत् अनन्त विचित्र कार्योंके अनुगुण उन-उन कारणोंमें शक्तियाँ ही होती हैं। सूक्ष्म वट-बीजमें अंकुर, नाल, स्कन्ध, शाखा, उपशाखा, पत्र, पुष्प, फलादि विचित्र रूप, रस एवं गन्धयुक्त विभिन्न पदार्थोंकी शक्ति होती है, वही कार्यरूप फलके बलसे अनुमेय होती है। सर्वथा असत्का विकास कभी भी हो नहीं सकता। इस दृष्टिसे तो प्रथम भेद या अन्तिम भेद, सबका ही मूल कारण शक्तिभेद है। विभिन्न चेतन जीवोंका उनसे सम्पर्क कर्मानुसार है, यह भी स्पष्ट है।
डार्विनके मतानुसार—‘मनुष्यकी बुद्धि एवं शरीरकी पशुओंकी बुद्धि एवं शरीरमें समानता मिलती है, अत: जैसे मछलियोंसे कछुआ, पक्षी आदि क्रमसे बन्दरोंका आविर्भाव हुआ, वैसे ही बन्दरोंसे मनुष्योंका आविर्भाव हुआ।’ डार्विनके मतानुसार ‘बन्दर यदि मनुष्यके पूर्वज नहीं तो उनके चचेरे भाई अवश्य हैं अर्थात् दोनोंके पूर्वज अवश्य एक हैं। पशुओंमें स्मृति, सौन्दर्य, ज्ञान, सहानुभूति आदि गुण मनुष्यके समान ही होते हैं। घोड़ों, कुत्तों आदिको शिक्षित किया जाता है। अत: उनमें विवेक भी रहता है। सामान्य कीटोंसे लेकर मनुष्यतक क्रमेण विकास मानना ही उचित है। बीचकी श्रेणियोंको छोड़कर कीड़ों एवं मनुष्योंका भेद बहुत भारी मालूम पड़ता है, किंतु क्रमानुगत रूपसे देखें तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं लगती। इसी तरह मनुष्यकृत यन्त्रों एवं ग्रह आदि अन्य पदार्थोंका इतिहास देखें तो अन्तिम और आदिम अवस्थामें आकाश-पातालका अन्तर प्रतीत होता है; परंतु क्रमोन्नति देखनेपर कोई आश्चर्य प्रतीत नहीं होता।’
अध्यात्मवादियोंके मतानुसार मूल कारणसे विभिन्न विचित्र ढंगकी सृष्टि शक्ति-वैचित्र्य, कर्म-वैचित्र्यसे संगत होती है। अवान्तर कार्यों एवं कारणोंकी भी परम्परा ठीक ही है। कुछ कार्य-कारणोंमें प्रकृति-विकृति भाव भी मान्य है। जैसे मूल-प्रकृतिसे महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे अहंतत्त्व, अहंसे आकाश, आकाशसे वायु, वायुसे तेज, उससे जल एवं जलसे पृथ्वी और उससे विभिन्न पार्थिव जगत् उत्पन्न हुआ, परंतु जैसे सीधे मुकुटसे कुण्डल, कुण्डलसे कटक उत्पन्न नहीं होता, भले ही किसी अंशमें समानता भी हो, वैसे ही रूप शब्द नहीं बनता, शब्द सीधे गन्ध नहीं बनता। निम्ब, आम्र, पनस, कदम्ब—ये सब एक-दूसरेसे उत्पन्न नहीं होते, ठीक वैसे ही मछलीसे बन्दर एवं बन्दरसे या उसके पूर्वजसे मनुष्यके बननेकी कल्पना भी निराधार ही है। अवश्य देश, काल और जलवायुकी विशेषताओंके कारण उनके गुणों, आकृतियोंमें कुछ ह्रास-विकास होते हैं, परंतु वह एक सीमाके भीतर ही। किसी-न-किसी रूपमें सभी वृक्षों, फलों तथा पुष्पोंमें समानता है, परंतु इतनेहीसे यह नहीं कहा जा सकता कि किसी एक मूलके ही ये क्रमिक विकास हैं। यदि विभिन्नताओं एवं विचित्रताओंकी सूक्ष्म शक्तियाँ कहीं माननीय हैं तो कारणोंमें ही मानना उचित है। बीचसे यदि अंकुरका विकास होता है, तो बीजसे दूसरे ढंगका विकास नहीं होता; पुष्पसे फलका विकास होता है तो पुष्पसे पुष्पका विकास नहीं होता। उसी तरह यदि मछलीसे क्रमेण बन्दर आदि बने और बन्दरसे मनुष्य बन गये, तो पुन: मछलीसे मछली ही बननेकी परम्परा क्यों विद्यमान है? ऐसे ही बन्दरसे बन्दर बननेकी परम्परा क्यों कायम है? जैसे प्राचीन कालमें बीजसे अंकुर उत्पन्न होते थे, वैसे ही आज भी हो रहे हैं। इस न्यायसे पहलेके समान आज भी बन्दरोंसे मनुष्योंकी सृष्टि क्यों नहीं हो रही है? इस तरह मनुष्येतरसे मनुष्योंकी उत्पत्तिका न दिखायी देना, मछली एवं बन्दर आदिसे आज भी मछली एवं बन्दरोंकी उत्पत्तिका दिखायी देना विकासके विरुद्ध ही है।
डार्विनके मतानुसार ‘प्रतिद्वन्द्विता एवं संघर्ष ही शाश्वत और सार्वत्रिक है। सहानुभूति, परोपकार, दया आदि भी स्वार्थके लिये ही हैं। कभी मनुष्य मनुष्यका बर्बर संहारक हो जाता है, कभी बन्दर भी अपने मालिकके लिये प्राणतक दे देता है। प्रशंसा-योग्य कर्मोंमें प्राणियोंकी प्रवृत्ति होती है, निन्दित कामोंसे मनुष्यकी निवृत्ति होती है, धीरे-धीरे अभ्यास हो जाता है। परार्थ-प्रवृत्ति एवं सहानुभूतिके कार्योंमें प्रवृत्ति होने लगती है। इससे प्रतिद्वन्द्विता सिद्धान्तमें कोई बाधा नहीं पड़ती।’ अध्यात्मवादी ठीक इसके विपरीत कहते हैं कि स्वाभाविक अभिन्नता, समानता एवं सहानुभूति है। द्वैत, भेद, कलह, प्रतिद्वन्द्विता, क्षुधा, स्वार्थ आदि ही अविद्या, काम, कर्मके अनुसार आदत पड़ जानेसे स्वाभाविकसे प्रतीत होते हैं।
ईश्वरके सम्बन्धमें डार्विनने कुछ नहीं कहा, परंतु लोगोंके दु:ख देखकर उसे कभी-कभी यह सन्देह अवश्य होता था कि ‘यदि कोई परमकारुणिक, सर्वज्ञ जगत्का निर्माता या शासक है तो उसे अपने उत्कृष्ट ज्ञानद्वारा दु:खरहित ही संसार बनाना चाहिये था।’ परंतु ईश्वरवादी तो ईश्वरके समान ही उसके अंशभूत चेतन जीवों एवं अविद्याको भी अनादि मानते हैं और अविद्यावान् जीवोंके कर्मानुसार ही सृष्टि होती है। अत: सुख-दु:ख एवं तत्तत्साधनोंसे पूर्ण जगत्की विचित्रता मान्य होती है। विवेक, वैराग्य, तत्त्वसाक्षात्कारके लिये सुखकी अपेक्षा दु:ख अधिक उपकारक है, अत: संसारमें दु:खका भी अस्तित्व ईश्वरको अभीष्ट है। जैसे लौकिक शासक अपराधीकी आत्मशुद्धिके लिये कभी-कभी दण्ड-विधान आवश्यक समझते हैं, वैसे ही ईश्वर भी।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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