4.7 प्राकृतिक चुनाव ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.7 प्राकृतिक चुनाव

विकासकी दूसरी विधि डार्विनके प्राकृतिक चुनावकी है, जिसके पाँच तत्त्व हैं—(१) सर्वत्र विद्यमान परिवर्तन है, (२) अत्युत्पादन, (३) जीवन संग्राम, (४) अयोग्योंका नाश और योग्योंकी रक्षा तथा (५) योग्यताओंका संततिमें संक्रमण। परिवर्तनका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक प्राणीकी संततिमें भी भेद होता है। इस भेदका भी नियम है। इंग्लैण्डमें सबसे अधिक संख्या उन लोगोंकी है, जो ५ फुट ८ इंचसे ९ इंचतक लम्बे होते हैं। इनसे कम वे हैं, जिनकी लम्बाई ५ फुट ७ इंचसे ८ इंचतक और ५ फुट ९ इंचसे १० इंचतक है। इनसे भी कम वे हैं, जिनकी लम्बाई ५ फुट ५ इंचसे ६ इंचतक और ५ फुट १० इंचसे ११ इंचतक है। इन सबसे कम वे हैं, जिनकी लम्बाई इनसे भी कम या ज्यादा होती है। इससे यह नियम बनता है कि यदि पर्याप्त संख्यामें औसत लम्बाई ५ फुट ८ इंच ज्ञात है और उससे अमुक न्यून लम्बाईवालोंकी संख्या भी ज्ञात है, तो अधिक लम्बाईवालोंकी संख्या बतलायी जा सकती है। यह परिवर्तनके निश्चित नियमका उदाहरण है। ‘अत्युत्पादन’ का अभिप्राय यह है कि १५ वर्षमें चिड़ीके जोड़ेसे २ अरबसे कुछ अधिक संतति उत्पन्न होती है। पेटका एक कीड़ा ३० करोड़ अण्डे देता है। इनमेंसे कई कीड़े ऐसे हैं, जो २४ घण्टेमें १ १/२ करोड़ ७० लाख कीड़े उत्पन्न करते हैं। यदि सुख-शान्ति हो तो २५ वर्षमें मनुष्य-संख्या भी दूनी हो जाती है। एक जोड़े हाथीसे ८०० वर्षोंमें २ करोड़के करीब संतति होती है, ‘जीवन-संग्राम’ का तात्पर्य यह है कि सृष्टिमें हर जगह संग्राम हो रहे हैं। चींटियोंमें ही युद्धके कारण करोड़ोंकी मृत्यु होती है। कई मछलियाँ एक ऋतुमें १ करोड़तक अण्डे देती हैं, परंतु उनके सिरपर बैठे हुए शत्रु उन्हें नष्ट कर देते हैं। एक ऋतुतक रहनेवाले पौधोंसे २० वर्षकी अवधिमें १० लाख पौधे पैदा होते हैं, पर उनके सब बीज अच्छी भूमिमें नहीं पड़ते, इससे संततिका नाश हो जाता है। वर्षा, तूफान, भूकम्प, सिंह, व्याघ्र, सर्प आदिसे और स्वजातियोंसे सर्वदा असंख्य प्राणियोंका नाश हुआ करता है। इसी तरह नाना प्रकारकी बीमारियाँ भी करोड़ों प्राणियोंका नाश किया करती हैं, यही जीवन-संग्राम है। इन संग्रामोंमें वही बचते हैं, जो दूसरोंसे योग्य होते हैं और वे ही मरते हैं, जो निर्बल एवं अयोग्य होते हैं। प्राकृतिक चुनावकी प्रवृत्ति रक्षाकी अपेक्षा नाश करनेकी ओर अधिक है। एक ही जातिके भिन्न-भिन्न प्रकारके लाखों व्यक्तियोंको उत्पन्न करनेमें प्रकृतिका यही हेतु प्रतीत होता है कि यदि इनमेंसे दो-चार या दस-पाँच भी परिस्थितिके अनुकूल होकर बच जायँ तो उनसे उस जातिका अस्तित्व बना रहेगा। यही योग्यताओंका संततिमें संक्रमण होनेका ढंग है। यही डार्विनकी विकास-विधि है।
तीसरी विधि लामार्ककी है। उसके अनुसार ‘कार्यसे प्राप्त हुआ परिवर्तन संततिमें आता है। जिराफ नामके पशुने पत्तोंके लिये गरदन उठायी, उसकी संततिने भी प्रयत्न किया। परिणाम यह हुआ कि गर्दन आगे बढ़ गयी। अगली संततिने और प्रयत्न किया, गर्दन और अधिक बढ़ायी। इस तरह प्रयत्न करनेसे उसकी गर्दन बहुत अधिक बढ़ गयी।’
‘विकासकी एक और विधि कृत्रिम और प्राकृतिक चुनावकी भी है। पशुओंके पालनेवाले कृत्रिम चुनावसे ही अच्छे बैल और घोड़े उत्पन्न करते हैं। किसान अच्छे बीजसे ही अच्छी फसल पैदा करते हैं। इस कृत्रिम चुनावसे ही कबूतर अनेक प्रकारके बनाये जाते हैं। जापानके मुर्गोंकी पूँछ बीस-बीस फुटतक लम्बी कर दी गयी है। यह कृत्रिम चुनावकी विधि है। आस्ट्रेलियाके शशकोंमें पहले वृक्षपर चलनेलायक नाखून नहीं थे, पर अब वैसे ही नाखून निकल रहे हैं, यह प्राकृतिक चुनावका नमूना है। विकासमें कार्य-कारण-भाव देखा जाता है। इंग्लैण्डकी गायें विधवा स्त्रियोंके अधीन जीती हैं। वहाँ एक ‘क्लवर’ नामकी वनस्पति होती है, जिसकी वृद्धि मक्खियोंपर निर्भर है। जब चूहे मक्खियोंके अण्डे खा जाते हैं, तब घासकी वृद्धि मारी जाती है। इंग्लैण्डकी विधवा स्त्रियाँ बिल्ली पालती हैं। बिल्लियाँ चूहोंको खा जाती हैं, तब मक्खियोंकी खूब वृद्धि होती है। इन मक्खियोंके पंखोंमें केसर पराग उस घासमें संयुक्त होता है, जिससे क्लवरकी खूब वृद्धि होती है और गाएँ आनन्दसे खाती हैं एवं च उनकी वंश-वृद्धि होती है। इस तरह गायोंका विधवाओंके साथ कार्य-कारण-भाव देखा जाता है। भारतमें भी जहाँ बिल्लियाँ होती हैं, वहाँ चूहे नहीं होते और जहाँ चूहे नहीं होते, वहाँ प्लेग भी नहीं होता। यह भी कार्य-कारण-भावका नमूना है।’
आनुवंश परम्परापर डार्विनकी राय है कि ‘शरीरके प्रत्येक अवयवके प्रत्येक कोष्ठसे उस-उस कोष्ठके गुणधारी बहुत सूक्ष्म भाग उत्पन्न होते हैं। ये सूक्ष्म शरीरमें संतति-उत्पादक रज:कणोंमें इकट्ठे हो जाते हैं। इनमें उसी प्रकारके शरीर उत्पन्न करनेकी शक्ति होती है, जिस प्रकारके शरीरमें ये बनते हैं। ये शरीरकी प्रकृतियाँ ही हैं। इन्हींसे शरीर उत्पन्न होते हैं। इसपर वाइजमैनकी राय है कि शरीरके प्रत्येक कोष्ठमें क्रोमेटिन रहता है। इसीमें आनुवंशिक गुण रहते हैं। इसमें माता और पिताके समान गुण विद्यमान रहते हैं। गर्भ-वृद्धिके साथ-साथ यह भी बढ़ता है। इसकी धारा संतति, अनुसंततितक लगातार बहती चली जाती है। यदि बीचमें कोई परिवर्तन उद‍्भूत होता है तो वह संततिमें संक्रान्त नहीं होता। यह सूक्ष्म-वीक्षण-यन्त्रसे देखा गया है। वैज्ञानिक पहले इसे नहीं मानते थे, किंतु अब मानने लगे हैं। इससे डार्विनका सिद्धान्त पुष्ट होता है।’ विद्वान् मेण्डलने यह भी निश्चय किया है कि ‘पुत्रका पिताकी अपेक्षा पितामहके साथ अधिक मेल दिखायी पड़ता है।’ डॉ० ह्वाइजका कहना है कि ‘नयी-नयी जातियाँ कभी-कभी एकदम बिना किन्हीं पूर्व चिह्नोंके उत्पन्न हो जाती हैं।’ इन्हें वह ‘स्वयं परिवर्तित जाति कहता है।’ ओसबोर्न बार्ल्डविन तथा लायडमार्गनका कहना है कि ‘डार्विन और लामार्कका मत मिला देनेसे प्राणियोंका विकास अधिक अच्छे प्रकारसे सिद्ध किया जा सकता है।’ नेगेली तथा ऐमरके सिद्धान्तपर कइयोंको अधिक विश्वास है। अज्ञात तथा अज्ञेय शक्ति तथा आकस्मिक घटना और हेतुवादपर भी अनेकोंका विश्वास होने लगा है। सम्भव है इससे विकास-विधिका अधिक स्पष्ट विवेचन हो सके।
परंतु इससे भी विकास सिद्ध नहीं होता। विकासवाद माननेवाले अनेक विद्वानोंने यह स्वीकार कर लिया है कि ‘बहुत-से प्राणी अलग-अलग पैदा होते हैं और बहुत-से बिना रूप बदले आदि कालसे अबतक वैसे ही बने हुए हैं।’ यह हक्सलेने अपने ‘एनिवर्सरी एड्रेस’ में कहा है कि प्रत्येक प्राणी और वनस्पतिकी महान् जातियोंमें विशेष व्यक्तियाँ ऐसी होती हैं, जिनको मैं ‘परसिस्टेन्ट टाइप’ (स्थिर आकृति)-का नाम देता हूँ। इनके स्वरूपमें आदि सृष्टिसे लेकर वर्तमान कालतक कोई ऐसा विकार नहीं हुआ, जो प्रतीत हो सके। डी० ह्वाइजने भी कहा है कि ‘नयी जातियाँ बिना किन्हीं पूर्व चिह्नोंके उत्पन्न हो जाती हैं।’ टी० एल्० स्ट्रेंज महोदयका अपनी पुस्तकमें कहना है कि ‘जल-कृमियोंमें बहुत प्रकारके भिन्न-भिन्न स्वरूपोंवाले जलजन्तु प्रतिदिन पैदा होते रहते हैं। ये एक ही जन्तुसे विकृत या विकसित होकर पैदा नहीं होते, किंतु बिलकुल स्वतन्त्ररूपसे बिना दूसरेकी अपेक्षाके एक ही समयमें भिन्न-भिन्न शरीरोंमें उत्पन्न होते हैं। इन बातोंसे यह सिद्ध होता है कि विभिन्न प्राणियोंके अलग-अलग जोड़े ही उत्पन्न होते हैं। इसीलिये आज भी अलग-अलग प्राणी अपने-अपने जोड़ोंके साथ नये-नये रूपमें उत्पन्न होते देखे जाते हैं। अत: यह आवश्यक नहीं कि एक प्राणी दूसरे प्राणीसे विकसित होकर बने। लाखों प्राणी सृष्टिसे लेकर आजतक एक ही आकारमें बने हुए हैं। अमीबा स्वयं उसी आकारमें अबतक बना है, जिसमें वह उत्पन्न हुआ था।’
प्राणियोंकी उत्पत्तिमें यन्त्रका दृष्टान्त भी व्यर्थ-सा ही है। यन्त्र अपने या दूसरोंके लिये बनाया जाता है, यन्त्रके लिये नहीं। परंतु यह शरीर, शरीर बनानेवालेके लिये नहीं बनाया जाता, प्रत्युत वह अन्य शरीरोंके लिये ही बनाया जाता है। कोई साइकिल उसी साइकिलके लिये नहीं बनायी जाती। अत: शरीरकी यन्त्रसे तुलना करना ठीक नहीं। यह पीछे कहा जा चुका है कि यन्त्र उत्तरोत्तर टिकाऊ बनते हैं, पर यहाँ तो सर्प और कछुआ १५० वर्ष जीते हैं, उनसे आगे बननेवाले दूसरे प्राणी उनसे कम जीते हैं। विकासवादके अनुसार पक्षियोंके बाद मनुष्यका विकास हुआ है। पक्षीमें उड़नेकी शक्ति थी, वह मनुष्यमें नष्ट हो गयी। मनुष्य आज वायुयान बनानेमें सिर मार रहा है। ‘इसी तरह अनुकूलनसे परिवर्तन और परिवर्तनका संततिमें संक्रमण बतलाया जाता है।’ विकासवादका यही मौलिक सिद्धान्त है। अनुकूलन, परिवर्तन और संक्रमण—ये तीनों शब्द महत्त्वके हैं। जब जैसा देश, काल और परिस्थिति आये, तब उन्हें सहन कर लेना और उनके अनुसार हो जाना ‘अनुकूलन’ कहा जाता है। गर्मीके दिनोंकी खालसे सर्दीके दिनोंकी खालमें बड़ा अन्तर होता है। कसरत करनेवाले और न करनेवालेके शरीरमें अन्तर पड़ता है। इसी तरह परिवर्तनोंका संततिमें संक्रमण भी होता है। यह बातें ठीक हो सकती हैं, परंतु इतनेसे यह तो सिद्ध नहीं होता कि साँपसे भैंस बन जाती है। यदि प्रश्न किया जाय कि ‘पशुओंके शरीरपर बाल क्यों होते हैं?’ तो उत्तर यही हो सकता है कि ‘सर्दीसे बचनेके लिये।’ टेराडेल्फिगोके निवासी सर्दीके कारण इतने ठिगने हो गये कि डार्विनको उन्हें मनुष्य समझनेमें भी शंका हो गयी। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि अनुकूलनके लिये उनके शरीरोंपर बड़े-बड़े बाल क्यों नहीं निकले? विकासवादियोंके पास इसका कोई उत्तर नहीं है, परंतु एक आस्तिक तो यही कह सकता है कि उनकी देहपर रीछोंकी तरह बड़े-बड़े बाल हो जाने या अन्य अवयवोंमें हेर-फेर हो जानेसे उनके साथ समान-प्रसव नहीं रह जाता और उनकी एक अलग ही जाति हो जाती है, परंतु परमेश्वरको एक जातिसे दूसरी जाति बनाना मंजूर नहीं; अत: अनुकूलन उतना ही होता है, जितना उस प्राणीकी रक्षासे सम्बन्ध रखता है। यह नहीं कि कुछ-का-कुछ हो जाय। अतएव टेराडेल्फिगोके मनुष्योंमें अनुकूलनसे जितना परिवर्तन होना अनिवार्य था, उतना ही हुआ। यन्त्रके उदाहरणसे तो कह सकते हैं कि यह छोटे शरीरकी मशीन पहली मशीनसे खराब ही बनी। कोई मनुष्य किसी देशमें जाकर छोटा या दुबला हो जाय तो उसे अनुकूलनके बदले प्रतिकूलन ही कहना ठीक है।
उसी प्रकार परिवर्तनका संततिमें संक्रमण भी स्पष्ट दिखायी पड़ रहा है। टेराडेल्फिगोके मनुष्योंने परिवर्तित होकर जितना परिवर्तन अपनी संततिको दिया, उतना ही आज कायम है। जितने ठिगने वे हजारों वर्ष पूर्व थे, उतने ही अब भी हैं, यह नहीं कि प्रतिवर्ष अधिकाधिक ठिगने होते जाते हों। यही गुणोंका संक्रमण है। अत: पिता, पितामहकी भाँति बन जाना, कुछ-का-कुछ हो जाना संक्रमण है। हजारों वर्षोंसे बन्दरों, मनुष्यों तथा अन्य पशुओंमें किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं दिखायी दे रहा है। यदि परिवर्तन स्वाभाविक होता तो इनमें भी कुछ-न-कुछ परिवर्तन अवश्य लक्षित होना चाहिये था। विकासवादके मतानुसार पैतृक-संस्कारका प्रश्न बड़े महत्त्वका है। इसपर अभी पूरा विचार नहीं हुआ। विद्वान् बेकन परिस्थितिको महत्त्व देता है। उसके अनुसार ‘गर्मदेशमें रहनेसे शरीर काला हो जाता है और वह रंग उसकी संततिमें आता है।’ पर लामार्क इसका कारण कार्यको बतलाता है। लोहारका दाहिना हाथ कार्यके कारण अधिक मजबूत होता है। यह बात उसके लड़केमें जन्मसे ही होती है, परंतु डार्विन इन दोनोंके विरुद्ध प्राकृतिक चुनावको ही महत्त्व देता है। वह प्राकृतिक चुनावको ही संक्रमणका कारण मानता है। यद्यपि विकासवादियोंमें भी मतभेद है तथापि परिवर्तन सभी मानते हैं और वह परिवर्तन आस्तिकको भी मान्य ही है। एक ही घरमें भिन्न-भिन्न आकृति, बल और बुद्धिके मनुष्य हैं, देश-देशान्तरोंके भी मनुष्योंमें अन्तर होता है, पर तो भी वे सब-के-सब हैं मनुष्य ही।
डार्विनके प्राकृतिक चुनावमें सबसे पहली बात है ‘परिवर्तनका सर्वत्र विद्यमान होना।’ किंतु हम देखते हैं कि प्रकृतिमें सर्वत्र परिवर्तन विद्यमान नहीं है। जैसा कि पीछे कहा जा चुका है, अमीबा, हाइड्रा तथा लाखों अन्य प्राणी जैसे पहले थे, वैसे अब भी हैं। यही विकासवाद और आस्तिकवादमें भेद है। विकासवादी सब जगह अव्याहत गतिसे परिवर्तनका जारी रहना मानते हैं। आस्तिकवादमें वस्तुमें आयुके अनुसार परिवर्तन होता है। अनेकों प्राणी बालकसे युवा हो रहे हैं और अनेकों युवा वृद्ध हो रहे हैं। इसे ही ह्रास-वृद्धि भी कहा जा सकता है, परंतु आस्तिकवादी ऐसा परिवर्तन नहीं मानते कि पृथ्वी धीरे-धीरे रेल बन रही है और समुद्र धीरे-धीरे पुच्छल तारा हो रहा है। इसी तरह कबूतर भालू नहीं बन रहा है, घोड़ा साँप और गधा बिच्छू नहीं बन रहे हैं। जल, वायु, माता-पिता और पूर्व संस्कारोंके कारण जो परस्पर भिन्नता दिखायी पड़ती है, उतना ही परिवर्तन है। यह समझना कि ‘आगे चलकर किसी देशके आदमी हरे रंगके हो जायँगे, किसी देशके ऊँटोंके सिरपर सींग निकल आयेंगे, ठीक नहीं है। जो प्रदेश आज समुद्रमें है, यद्यपि अभी उनके जलवायुका पता नहीं, यदि वहाँ भूमि निकल आये और उसपर मनुष्य बस जायँ, तो लाखों वर्षोंमें वे किस प्रकारके हो जायँगे, यह कहा भले कठिन हो, पर इतना तो निश्चय है कि जो रूप, रंग और आकार इस समय संसारमें प्रस्तुत हैं, इन्हींमें थोड़े-बहुत हेर-फेरके साथ वहाँ भी रूप-रंग और आकार-प्रकार होगा। यह नहीं कहा जा सकता कि अटलान्टिक समुद्र सूख जानेपर वहाँके निवासी ८५ हजार वर्षोंमें बैंगनी रंगके हो जायँगे और उनके कान बढ़कर पैरतक आ जायँगे, जिनसे कि वे लोग पक्षीके पंखोंका काम ले सकेंगे।
परिवर्तनका एक नमूना अमेरिकामें तैयार हो रहा है। यूरोपसे जो लोग अमेरिकामें जाकर बसे हैं, उनका आकार-प्रकार अमेरिकाके मूल निवासी लाल भारतीयों (रेडइण्डियन)-जैसा हो रहा है। अंग्रेजोंको इंग्लैण्डसे अमेरिका गये हुए अभी ४०० वर्ष ही हो रहे हैं, परंतु इतने ही थोड़े समयमें इंग्लैण्डवाले रेडइण्डियनोंके रूपके होते जा रहे हैं। इससे मालूम पड़ता है कि रेडइण्डियनोंका परिवर्तन बन्द है अन्यथा अंग्रेज यदि रेडइण्डियनोंके समान हो गये तो रेडइण्डियन अबतक कुछ और ही तरहके हो गये होते। किंतु वहाँके जलवायुने जितना कुछ परिवर्तन उनमें करना था, उतना लाखों वर्ष पूर्व ही कर डाला। इस बातसे भी विकासवादकी निरन्तर परिवर्तनवाली बात कमजोर हो जाती है। पूर्वोक्त टेराडेल्फिगो और अमेरिकाके उदाहरणोंसे यह सिद्ध होता है कि परिवर्तन सीमित ही होता है, नि:सीम नहीं। अत: इस मर्यादित परिवर्तनसे डार्विनका अमर्यादित परिवर्तन सिद्ध नहीं होता।’
दूसरी बात अत्युत्पादनकी है। अत्युत्पादन और उत्पादनमें बहुत अन्तर है। उत्पादन ईश्वरीय एवं प्राकृतिक तथा अत्युत्पादन अस्वाभाविक होता है। ईश्वरीय, शास्त्रीय नियमोंके पालनसे नियमित उत्पादन होता है। अशास्त्रीय, अस्वाभाविक, अनाचारों, पापोंके बढ़नेपर अत्युत्पादनका क्रम चलता है। जन्म, मरण तथा विविध सुख-दु:खोंका अनुभव पाप-पुण्यादि कर्मोंका ही फल है। जन्म-मरण आदिमें भी दु:ख ही होता है, यह अधिकांश पापोंका फल है। तत्त्वज्ञानसे मोक्ष होता है। कर्म एवं उपासनाके समुच्चयसे ब्रह्मान्त देवलोकोंकी और केवल कर्मकाण्डसे पितृलोककी प्राप्ति होती है। जो लोग कर्म एवं उपासना दोनोंसे ही भ्रष्ट हैं, पाशविक काम, कर्म, ज्ञानमें निरत हैं, उन्हींके लिये कीट-पतंगादि योनियोंमें जन्म कहा गया है—‘जायस्व म्रियस्व इत्येतत् तृतीयं स्थानम्।’ इनमें जन्म-मरणादि कष्ट ही अधिकांश भोगना पड़ता है। इनके जन्ममें पंचाग्नि, द्युलोक, पर्जन्य, भूमि, पिता, माता आदि अपेक्षित नहीं होते। कई ढंगके प्राणी वृष्टिसे, कई सड़ी लकड़ियोंसे, कई गोबरसे, कई गीले बालोंसे, कई विविध मलोंसे और कई तो मक्षिकाओंके विष्ठारूप (एक मक्षिका जो कण-कणमें विष्ठारूपसे सैकड़ों सूक्ष्म कीड़े उत्पन्न करती है) उत्पन्न होते हैं। ये सभी कर्मोंके ही फल हैं। मनुष्ययोनिके अतिरिक्त प्राय: अन्य सब भोगयोनियाँ हैं, भले ही हनुमान्, अंगद, बालि, सुग्रीव, जाम्बवान्, जटायु, संपाति, गरुड, अरुण आदि कुछ विशिष्ट जातिके विशिष्ट प्राणी विशिष्ट ज्ञानोपासनादिसम्पन्न हों। इसी तरह राक्षस, दानव और शेष, वासुकि आदि विशिष्ट नागोंमें भले ही विशिष्ट ज्ञान-उपासनादिकी बातें हों, परंतु व्यापकरूपसे मनुष्य ही कर्मयोनि है, अन्य सब भोगयोनियाँ हैं। सृष्टिकी विचित्रता कर्मोंकी विचित्रतासे होती है। इसी आधारपर सर्वज्ञ महर्षियोंको अनुभूत कुछ विचित्र ढंग, विशिष्ट परिमाणके भी मनुष्य, पशु, पक्षी, नाग आदिका वर्णन वाल्मीकि-रामायण, महाभारत आदिमें मिलता है। कृत, त्रेतादि युगोंमें सत्त्वगुणकी अधिकता होती है, इसलिये सदाचार, सद्विचार एवं नियमित धार्मिक प्रवृत्तिका ही बाहुल्य होता है, अत: प्राणियोंको क्षुद्र जन्तुओंकी योनियोंमें जानेकी नौबत कम ही आती है। द्वापर, कलियुगोंमें रजोगुण, तमोगुणके विस्तार, पाप प्रवृत्तिकी बहुलता आदिसे क्षुद्र जन्तुओंकी बहुतायत होती है। हिंसा, भूख, युद्ध एवं प्राकृतिक विप्लवोंसे अकालमृत्यु भी बढ़ती है। अन्तिम लक्ष्य सभीका यही है कि सदाचारी, भक्त, ज्ञानी बनकर, मुक्त होकर भगवत्पदको प्राप्त करना। स्वाभाविक, प्राकृतिक नियमोंका उल्लंघन करने, जंगल काट डालने, विविध प्रकारके कल कारखाने तैयार करने और यथेष्ट चेष्टादिसे सृष्टिमें बहुत उथल-पुथल हुए हैं, मेघ, विद्युत् एवं भूगर्भमें इन कारणोंसे अनेक अस्वाभाविक परिवर्तन हुए हैं, अत: प्राणियोंमें अल्पायु, अल्पशक्ति आदि अनेक कृत्रिम परिवर्तन हुए हैं। ईश्वरीय, शास्त्रीय प्रवृत्तिके अनुसार मनुष्य बहुत कुछ अनुकूल परिवर्तन कर सकता है।
डार्विनके मतानुसार ‘जीवन-संग्राममें प्रकृति योग्योंका ही चुनाव करती है’ यह बात सत्य नहीं है। इंग्लैण्डके मनुष्योंकी ऊँचाईका जो नियम पीछे कहा गया है, तदनुसार अधिक संख्या मध्यमें लम्बाईवाले मनुष्योंकी ही है, बहुत नाटे और बहुत लम्बे लोगोंकी संख्या कम ही है। ‘योग्योंके चुनाव’ का सिद्धान्त यदि ठीक हो तो लम्बे लोगोंकी ही संख्या अधिक होनी चाहिये। अमीबा सबसे छोटा और निर्बल जन्तु है, पर उसकी संख्या सबसे अधिक पायी जाती है, अन्य कीट-पतंगोंकी भी संख्या सर्वाधिक ही है। सबसे योग्य मनुष्योंकी संख्या तो कीट पतंगादिकी अपेक्षा नगण्य ही है। मनुष्यको बलमें हाथी, सिंह, घोड़ा ऊँट आदि पराजित कर देते हैं। दीर्घ जीवनमें साँप और कछुआ मनुष्यसे बढ़े हुए हैं। बुद्धिमें चींटी; परिश्रम, संचय, प्रबन्ध, कारीगरीमें मधुमक्खी सर्वश्रेष्ठ है। ये सब अपनेसे उत्तरवर्त्तियोंकी अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ हैं। ‘फिर योग्योंका चुनाव होता है’ यह कैसे कहा जा सकता है? पक्षियोंके पंख, चींटियोंकी बुद्धि, कछुओंकी आयु कुछ कम योग्यताकी बात नहीं है। चींटीसे कनखजूरेके विकासमें कौन-सी योग्यता बढ़ी? उड़ना, दीर्घजीवी होना, बुद्धिमान् होना उत्तरोत्तर महत्त्वकी बातें हैं। चींटीकी बुद्धि, कछुएकी आयु और पक्षीकी उड़नेकी शक्तिको छोड़कर स्तनधारी प्राणियोंमें क्या योग्यता हुई? मनुष्यमें अवश्य योग्यता है, परंतु अन्य स्तनधारियोंमें पूर्वोक्त जन्तुओंसे कोई योग्यता नहीं दिखलायी पड़ती, अत: योग्यताका संततिमें ‘संक्रमणका सिद्धान्त’ भी असंगत ही है। संसारमें अयोग्योंकी ही संख्या अधिक है। निर्बल, निर्धन और निर्बुद्धियोंकी बहुतायत स्पष्ट ही है। यदि मनुष्य अपनी संतानोंको योग्य बनानेका यत्न न करे तो संतानोंमें ज्ञानका संक्रमण अपने आप नहीं होता। ‘अयोग्योंके मरनेका सिद्धान्त’ भी ठीक नहीं है। क्या युद्धों, बीमारियोंमें अयोग्य ही मरते हैं? देखा तो यह जाता है कि संसारमें योग्योंकी अपेक्षा अयोग्योंकी ही संख्या अधिक है। वस्तुत: विकासवादियोंको अबतक भी इस सम्बन्धका कार्य-कारण निश्चित नहीं है। इसलिये उनका कहना है कि ‘नयी उपजातियोंकी उत्पत्ति करनेमें परिस्थिति, कार्य या पैतृक-संस्कार, इनमेंसे कौन अधिक कार्यकर है और कौन कम, इसका अबतक पूर्णतया निश्चय नहीं हुआ।’ ‘आस्ट्रेलियाके शशकोंमें वृक्षोंपर चढ़नेलायक नाखून निकल रहे हैं।’ यदि यह सत्य भी हो तो भी इतने मात्रसे वह नयी जाति नहीं है। जैसे मनुष्य होनेपर भी हब्शी, चीनीमें कुछ भेद होता है, वैसा ही सामान्य भेद यहाँ भी समझ लेना चाहिये और यदि किसी नये अंगविशेषका अकस्मात् नया विकास दिखलायी पड़ता है तो सृष्टिमें उसका भी उदाहरण है ही। जैसे, दीमकोंमें पंख लग जाते हैं, किंतु पर लगते ही उड़-उड़कर वे प्राय: मर ही जाते हैं। उनकी इस नयी जातिकी पीढ़ी नहीं चलती। कभी देश-कालके अनुसार यदि कुछ हेर-फेर होता है तो वह भी शीघ्र ही स्थिर हो जाता है, जैसे कि अमेरिकाके रेडइण्डियनोंका।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Exit mobile version