4.6 संधियोनियाँ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.6 संधियोनियाँ

इसी तरह संधियोनियोंके आधारपर भी विकाससिद्धिका प्रयत्न किया जाता है। ‘जो प्राणी बिलकुल दो श्रेणियों-जैसा आकार रखते हैं, वे संधियोनिके हैं—जैसे चमगादड़, डकविल, आर्किओप्टेरिक्स, ओपोसम और कंगारू। जिनके कुछ अंग निकम्मे हो गये हैं, जैसे ह्वेल, मयूर, शुतुर्मुर्ग और पेंग्विन एवं जिनके कई अधिक अंग स्फुटित हो गये हैं, जैसे कई स्तनोंकी स्त्रियाँ, पुच्छवाले मनुष्य।’ पर सिद्धान्तानुसार इनमेंसे किसीसे भी विकासवाद सिद्ध नहीं होता। यह पुनर्जन्मका सिद्धान्त माननेसे ही सिद्ध होता है। उड़नी गिलहरी और चमगादड़, वानर और वनमानुष—इन दोनोंमें एक उन्नत और दूसरा अनुन्नत है। इनमेंसे कोई निम्नश्रेणीसे उच्चश्रेणीमें जा रहा है और कोई उच्चश्रेणीसे निम्नश्रेणीमें उतर रहा है।
विकासवादीका कहना है कि ‘आदिका प्राणी वनस्पति और रेंगनेवाले प्राणियोंके बीचका था।’ परंतु यह भी सत्य नहीं। वस्तुत: पहले वनस्पति हुए, फिर जन्तु। वनस्पति कटकर दो हो जानेपर भी जीवित रहते हैं, पर जन्तु कटनेपर जीवित नहीं रहते। कहा जाता है कि ‘मानेर कृमि और केंचुए कटकर भी जीवित रहते हैं।’ मानेर तो बहुत सूक्ष्म हैं, उन्हें कृमि कहना भी कठिन है, अत: वे वनस्पति ही हैं। केचुए बड़े होते हैं, वे सर्पकी तरह हड्डीवाले नहीं होते। ये वृक्षोंमें लिपटी हुई पीले रंगकी नागवेलके ढंगके होते हैं। इनमें और नागवेलमें चैतन्यका बहुत थोड़ा ही अन्तर है। वे भी वृक्षोंपर रेंगकर फैलते हैं। टुकड़े हो जानेपर दोनों ही जीवित रहते हैं। किंतु नागवेल अंकुर स्थानसे कटनेपर ही जीवित रहती है, हर जगहसे कटनेपर जीवित नहीं रहती। यही स्थिति केंचुएकी भी है। वह भी जगह-जगहसे कटनेपर जीवित नहीं रहता, खास जोड़परसे कटनेपर ही जीवित रहता है। केंचुएके बीचमें एक स्थानपर छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। उन्हीं छिद्रोंमें दूसरा प्राणी उत्पन्न करनेका बीज रहता है। इनमें नर-मादाका भेद नहीं रहता। वे परस्पर लिपटकर उन्हीं बीज छिद्रोंमें बीजकी बदली और पुष्टि-वृद्धि करते हैं। इनको बीचसे काटनेपर यदि बीज-छिद्र पूँछकी ओर रह गया, तो वह भाग भी जानदार हो जाता है। पर यदि बीज-छिद्र पूँछकी ओर न रहा तो वह जीवित नहीं रहता। जैसे मनुष्यके कटे हुए हाथ-पैर जिन्दा नहीं रहते, परंतु सिर एवं धड़का अंश जिन्दा रहता है। वैसे ही केचुएके सिरकी ओरका अंश स्वत: जीवित रहता है, किंतु पूँछकी ओरका अंश कट जानेपर जीवन-बीज-छिद्रोंके कारण जीवित हो जाता है। केचुओंकी वनस्पतिके साथ अधिक तुलना है। वृक्षोंमें कोई फलोंके द्वारा, कोई डालोंके द्वारा और कोई जड़ोंके द्वारा वंश-विस्तार करते हैं। गुलाब आदिके डंठलसे वृक्ष बन जाता है, उसीसे केचुएका मेल मिलता है। जैसे अंकुरहीन गुलाबका डंठल सूख जाता है, वैसे जीवन-बीज-छिद्र-हीन केचुआ भी सूख जाता है। जैसे मनुष्यों और पशुओंके बीचमें बन्दर वनमानुष हैं, जैसे—पशुओं और पक्षियोंके बीचमें उड़नेवाली गिलहरी और चमगादड़ होते हैं; वैसे ही कीड़ों और वनस्पतियोंके बीचमें नागवेल और केचुआ है। केचुआमें कीड़ापन और नागवेलमें वृक्षपन अधिक है। केचुआ नागवेलसे होकर आया है और कृमि बनने जा रहा है। नागवेल केचुआसे होकर आयी है और वनस्पति बनने जा रही है। इस तरह समस्त सन्धियोनियाँ भिन्न-भिन्न योनियोंमें भटकनेके लिये पुलका काम दे रही हैं। इस तरह किसी प्राणीमें दो जातियोंका चिह्न देखकर विकास मानना भ्रम ही है।
इसी तरह अंगोंके ह्रासकी कल्पना भी व्यर्थ है। ह्वेलके पैर और मोरके पंख अब भी काम दे ही रहे हैं, यह पीछे कहा जा चुका है। अंगोंके स्फुटित होनेकी बातोंसे भी विकास सिद्ध नहीं होता, यह भी बतलाया जा चुका है। ‘नवलकिशोर प्रेस’ लखनऊसे प्रकाशित, ‘विश्वकी विचित्रता’ नामक पुस्तकमें लिखा है कि ‘प्रयागकी प्रदर्शनीमें एक मत्स्य स्त्री आयी थी और एक चुकन्दरकी जड़में मनुष्यकी सूरत तथा एक-दूसरे वृक्षमें मनुष्यके हाथकी शकल देखी गयी।’ क्या वृक्षों और मछलियोंके पूर्व भी मनुष्य था? वृक्षों और मछलियोंके पूर्व तो विकासवादी मनुष्यका विकास नहीं मानते। विकासकी विधि और प्रकारके सम्बन्धमें विकासवादी कहते हैं कि ‘आदिसे ही भिन्न-भिन्न प्राणियोंके जोड़े उत्पन्न हुए।’ पर यह युक्ति शून्य है। प्राणियोंकी भिन्नताका कारण परिस्थिति और स्वाभाविक परिवर्तन ही है। यन्त्र निर्माताके अनुकूल बनता है। अन्तिम अवस्थातक पहुँचनेके पूर्व यन्त्रकी कई जातियाँ बन जाती हैं। अन्तमें सर्वश्रेष्ठ रचना स्थिर रहती है। यही प्राणियोंके विकासका दृष्टान्त है। विकासकी विधिमें सबसे प्रथम बात अनुकूलन (एडाप्टेशन) की है अर्थात् परिस्थितिके अनुसार प्राणी बनता है। परिस्थितियोंके अनुसार प्राणियोंमें परिवर्तन होते हैं और संततिमें वे परिवर्तन संक्रान्त होते हैं। परिवर्तन (बेरियेशन)-में भी परिस्थिति, कार्य और पैतृक संस्कार हेतु होते हैं। सर्दी-गर्मी, नदी-नाले, वन-पहाड़में बसनेवालोंमें प्रेम, भय, भूख, प्यास और बीमारी आदि परिस्थितियाँ होती हैं। प्राणी जब ठण्डे देशसे गरम देशमें आता है, तब उसे क्षयकी बीमारी होती है। गरम देशसे ठण्डे देशमें और ठण्डे देशसे गरम देशमें आनेपर फेफड़ेकी बीमारी होती है। अँधेरेमें वृक्षोंके पत्ते पीले पड़ जाते हैं। ठण्डे देशके कुत्ते गरम देशमें जानेपर मर जाते हैं। अवर्षणके साथ वृक्ष सूख जाते हैं और उनमें नाना प्रकारके अवयव फूट पड़ते हैं। कार्य (फंक्शन)-से भी परिवर्तन होते हैं। उदाहरणार्थ लोहारका हाथ कठोर हो जाता है। हाथ ऊँचा रखनेवाले साधुओंका हाथ पतला हो जाता है। इसी तरह पैतृक संस्कारोंसे भी परिवर्तन होता है। जैसे कुष्ठ आदि बीमारियाँ संतानोंमें होती हैं। विलायतमें प्राय: भूरे बाल और काली आँखवाले स्त्री-पुरुषोंसे श्वेत केश और भूरी आँखवाली संतान होती है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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