10.11 द्वन्द्वन्याय और विकास मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘जगत् परिवर्तनशील है। विकास परिवर्तनका ही एक प्रकार है। इस परिवर्तनको देखनेके विभिन्न दृष्टिकोण हैं। अतिभौतिकवादी और नैसर्गिकवादीका दृष्टिकोण एक है और द्वन्द्वात्मक भौतिकवादीका दृष्टिकोण और है। लेनिनकी व्याख्यासे इसपर काफी प्रकाश पड़ता है। विकास विरोधियोंका संघर्ष है। विकासकी दो ऐतिहासिक धाराएँ हैं। पहली विकासवृद्धि और ह्रास… Continue reading 10.11 द्वन्द्वन्याय और विकास ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
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9.11 समाज—विकासकी कुंजी ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
9.11 समाज—विकासकी कुंजी ‘सोशलिज्म’ का अर्थ है ‘समाजवाद’ और साम्यवादका अर्थ है समाजमें समानता लाना। समाजवादका अभिप्राय यह है कि ‘समाज ही उत्पादन-साधनोंका स्वामी हो। व्यक्तिके स्थानपर समाजका शासन होना ही समाजवाद है।’ फ्रांसके सेंट साइमन और इंग्लैण्डके राबर्ट्स ओबेनने (जिनका जन्म क्रमश: १७६० और १७७१ में हुआ था) पहले-पहल साम्यवादी विचारधारा फैलायी। उनके विचार… Continue reading 9.11 समाज—विकासकी कुंजी ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
7.18 आर्थिक संकट ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
7.18 आर्थिक संकट मार्क्सवादके दृष्टिकोणसे ‘पूँजीवादी समाजमें पैदावारका काम समाजके सभी लोग मिलकर करते हैं, परंतु प्रत्येक पूँजीवादी अपने ही लाभको सामने रखता है। इसलिये सम्मिलित तौरपर समाजकी आवश्यकताओंका न तो सही अनुमान ही हो सकता है और न उसके उपयुक्त पैदावार ही। पूँजीवादी समाजमें उत्पादक अपने व्यवहारके लिये नहीं, बल्कि उसे बेचकर मुनाफा कमाननेके… Continue reading 7.18 आर्थिक संकट ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
7.6 लाभ या मुनाफा ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
7.6 लाभ या मुनाफा कहा जाता है कि ‘बिक्रीके लिये माल या सौदा तैयार करनेवाला मनुष्य माल बनानेके लिये कुछ सामान खरीदता है। खरीदे हुए सामानको अपनी मेहनतसे बिक्रीयोग्य माल या सौदा तैयार करके उसे बाजारमें बेचनेसे जो दाम मिलता है, उसमेंसे खरीदे हुए सामानका दाम निकाल देनेपर बाकी बचा हुआ दाम लाभ या मुनाफा… Continue reading 7.6 लाभ या मुनाफा ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
6.17 लाभ और श्रमिक ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
6.17 लाभ और श्रमिक मार्क्सके पहले रिकार्डो आदिने भी इसी ढंगका कुछ विरोध प्रकट किया था। उसके अनुसार ‘वस्तुके मूल्यमें दो भाग होते हैं—एक मजदूरी दूसरा नफा। दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। मजदूरी बढ़ती है तो नफा घटता है, नफा बढ़ता है तो मजदूरी घटती है। जीवन-निर्वाहार्थ जिससे निश्चित परिमाणमें सामग्री मिले, वही मजदूरी है। जब… Continue reading 6.17 लाभ और श्रमिक ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
6.8 वास्तविक पूँजीवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
6.8 वास्तविक पूँजीवाद कहा जाता है कि ‘पूँजीवादी समाज भी प्राचीन वर्गोंके समान ही उसी वर्गकलहपर एक दलके द्वारा दूसरे दलके रक्तशोषणपर ही स्थिर है। साथ ही उसी पूँजीवादके द्वारा ही मनुष्यको वह उत्पादन-शक्ति भी प्राप्त होती है, जिसके द्वारा भौतिक बन्धनों और प्राकृतिक गुलामीसे मनुष्यको छुटकारा मिलता है और वह वर्गकलहको त्यागकर बौद्धिक सभ्यता… Continue reading 6.8 वास्तविक पूँजीवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
6.6 उत्पादन और नियम ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
6.6 उत्पादन और नियम उत्पत्तिके पुराने साधनों एवं पद्धतियोंमें रद्दोबदल होनेसे उत्पादनमें विस्तार अवश्य हो जाता है, उत्पन्न वस्तुओंमें सस्तापन भी आता है तथा आमदनीमें भी वृद्धि हो जाती है। पर माल खपतके लिये बाजारोंकी आवश्यकता, माल भेजने तथा कारखानोंके लिये कोयले, पेट्रोलके खानोंकी आवश्यकता, बाजारों एवं कोयले-पेट्रोल आदिके लिये संघर्ष एवं बेकारीकी समस्या अवश्य… Continue reading 6.6 उत्पादन और नियम ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
6.5 आर्थिक असंतुलन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
6.5 आर्थिक असंतुलन आर्थिक असंतुलन मिटानेके लिये ही शास्त्रोंमें दानका महत्त्व कहा गया है। अपनी श्रद्धासे, दूसरोंके उपदेशसे, लज्जासे, भयसे किसी तरह भी देना परम कल्याणकारी है। शास्त्रोंमें यह भी कहा गया है कि जो धनी होकर दानी नहीं और निर्धन होकर तपस्वी नहीं, ऐसे लोग गलेमें पत्थर बाँधकर समुद्रमें डुबा देने योग्य होते हैं—… Continue reading 6.5 आर्थिक असंतुलन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.14 कर्मविपाक और विकासवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.14 कर्मविपाक और विकासवाद जड प्रकृतिसे विश्वका विकास माननेपर ईश्वरवाद और कर्मवादसे विरोध बतलाया जाता है। यह पक्ष उचित ही प्रतीत होता है कि जैसे बीज, धरणी, अनिल और जलके संसर्गसे अपने-आप अंकुर, नाल, स्कन्ध, शाखा, उपशाखा, पत्र, पुष्प, फलसमन्वित होता है, वैसे ही प्रकृति अपने आप ही महदादिक्रमेण समस्त प्रपंचाकारेण परिणत होती है। विद्युत्कणों… Continue reading 4.14 कर्मविपाक और विकासवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.13 विकासवाद और जाति ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.13 विकासवाद और जाति जल, वायु एवं देशोंके प्रभावसे रंगमें परिवर्तन होना प्रत्यक्ष अनुमान एवं शास्त्रसे भी सिद्ध है। कफ, वात, पित्तकी प्रधानता-अप्रधानतासे भी रंग, रूप, स्वभावमें भेद होना शास्त्रसिद्ध है। जैसे संकल्पों, विचारों एवं वातावरणोंसे रजस्वला स्त्री प्रभावित हो, स्त्री-पुरुष जैसे देश, काल, वातावरणसे प्रभावित होकर गर्भाधान करते हैं, वैसे ही संतानका प्रादुर्भाव होता… Continue reading 4.13 विकासवाद और जाति ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज