5. मार्क्सीय द्वन्द्ववाद
‘डायलेक्टिस’ (द्वन्द्ववाद) ग्रीक (यूनानी) भाषाका शब्द है। यह ‘दियालेगो’ से निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है चर्चा या विवाद करना। इसी विवादस्वरूप द्वन्द्ववादके आधारपर प्राचीन-कालमें कोई वक्ता विपक्षीके तर्ककी असंगति दिखलाकर उसका निराकरण कर सत्यसिद्धान्तका प्रतिपादन करता था। उस समयके दार्शनिकोंका ऐसा विश्वास था कि विचारोंमें परस्पर विरोधप्रदर्शनसे अथवा विरोधी मतोंके संघर्ष स्पष्ट कर देनेसे सत्यकी प्रतिष्ठा होती है। सत्य सिद्धान्त प्रतिष्ठित करनेकी सर्वश्रेष्ठ प्रणाली ही द्वन्द्ववाद या ‘डायलेक्टिकल’ है। विचार-क्षेत्रके बाहर प्राकृतिक घटनाओंपर भी इस द्वन्द्वात्मक-प्रणालीको लागू किया जाता है। प्रकृतिकी बूझने-परखनेकी द्वन्द्वात्मक प्रणालीमें ही द्वन्द्ववादका विकास हुआ। इसके अनुसार प्रकृतिके बाह्यरूप सतत गतिशील हैं और उनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। तदनुसार ही प्रकृतिकी शक्तियोंकी परस्पर क्रियाप्रक्रियाको एवं प्रकृतिके असंगतियोंके फलस्वरूप प्रकृतिका विकास हुआ। (जे० स्टालिनका द्वन्द्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद)
वस्तुत: आधुनिक पाश्चात्य दर्शनोंको ‘दर्शन’ कहनेमें ही संकोच होता है; क्योंकि उनकी तत्त्व-दृष्टि सर्वथा धुँधली और अस्पष्ट ही रहती है। इसका मूल कारण यह है कि उनमें प्रमाणोंका स्पष्ट विश्लेषण नहीं होता। उदाहरण या दृष्टान्तको ही ये कभी-कभी प्रमाण मान बैठते हैं, जो कि पौरस्त्यदर्शनमें परार्थानुमानके पञ्चावयवमें केवल एक अंग है। चर्चा या विवाद स्वयं कोई प्रमाण नहीं, जिसके आधारपर स्वयं कोई प्रमेय सिद्ध हो सके—
‘लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धि:।’
—लक्षण और प्रमाणसे वस्तुसिद्धि होती है, केवल चर्चासे नहीं। पौरस्त्यदर्शनोंमें चर्चा वाद, जल्प, वितण्डा-भेदसे तीन प्रकारकी होती है। तत्त्व-निर्णीषा, विजिगीषा, परपक्ष-निराचिकीर्षासे प्रेरित वादी-प्रतिवादियोंद्वारा परस्पर पक्ष-प्रतिपक्षोंका प्रमाणोंद्वारा साधन-बाधन करनेको ‘चर्चा या विवाद’ कहा जा सकता है। प्रामाणिक असंगति और विरोधप्रदर्शन, परपक्षनिराकरण, स्वपक्षसाधनका एक आंशिक साधनमात्र है। अनुमानके अंग, व्याप्तिनिर्णयमें अनुकूल तर्क अपेक्षित होता है। व्याघात-प्रदर्शन करके संशय-निवृत्तिरूप अनुकूल तर्कसे व्याप्तिज्ञान दृढ़ हो जाता है। फलत: निर्दोष अनुमानसे अनुमेय पदार्थोंकी अनुमिति होती है। उसीके एक अंशको ‘वाद’ मानकर उसे विचार-क्षेत्रके बाहर लागू करना असंगत ही है। हाँ, अनुमानोंके आधारपर प्राकृतिक पदार्थोंका गुणस्वभावादि निर्णय करना गुण ही है, फिर इसे कोई खास व्यक्तिका वाद मानना व्यर्थ है।
वेदान्ती अन्य मतोंसे असंगति दिखलाकर सर्वमतखण्डनावधि निराकर्ताके प्रत्यगात्माकी स्वत: सिद्धि मानते हैं। इसी पक्षको लेकर हेगेलने अखण्ड नित्यबोधकी सिद्धिमें उसे प्रयुक्त किया है—
नेति नेतीति नेतीति शेषितं यत् परं पदम्।
निराकर्तुमशक्यत्वात्तदस्मीति सुखी भव॥
नेति नेति नेति—इन तीन निषेधोंसे स्थूल, सूक्ष्म, कारण—इन त्रिविध दृश्योंका निषेध कर देनेपर सर्वनिषेधावधि, निषेधाधिष्ठान, निषेधसाक्षी निराकर्ताका प्रत्यगात्मा ही अवशिष्ट रह जाता है। उसका निषेध अशक्य है, अत: वह स्वत:सिद्ध है। पर इस असंगति-प्रदर्शनमात्रसे किसी गुणधर्मकी सिद्धि शक्य नहीं। किसी भी साध्यकी सिद्धिके लिये प्रमाण अपेक्षित है। मार्क्सवादके अनुसार ‘द्वन्द्वमान’ (Dieletics) में एकके द्वारा तर्ककी उत्थापना होती है, फिर उसका खण्डन होता है, पुन: नये तर्ककी उत्थापना होती है। इस प्रकार एक नीचे दर्जेके सत्यसे ऊँचे दर्जेके सत्यपर पहुँचते हैं। यह क्रमोन्नति प्रक्रिया है। इसमें स्थिरता नहीं, वेग है। यही प्रक्रिया सारी प्रकृतिमें वर्तमान है। मानव-समाज और प्रकृतिके इतिहाससे ही द्वन्द्वमानके नियम निकाले गये हैं। ये नियम व्यापकरूपसे सब प्रकारकी गतिके नियम हैं। यहाँ भी वादी-प्रतिवादियों, तर्क-प्रतितर्कोंद्वारा पक्ष-प्रतिपक्षका साधन-बाधन ही द्वन्द्वमान ठहरता है। ‘वाद’ में भी भारतीय प्रणालीके अनुसार नियम होते हैं। मध्यस्थ और सदस्य उसके नियामक होते हैं। निर्दोष तर्कद्वारा सिद्ध पदार्थका तर्कान्तरसे खण्डन नहीं हो सकता। तर्कशतसे भी पदार्थ-स्वभाव नहीं बदलता। यथार्थ-ज्ञान वस्तुतन्त्र होता है, पुरुषतन्त्र नहीं। केवल तर्क अनवस्थित होता है। उसके आधारपर किसी भी वस्तुकी सिद्धि नहीं हो सकती। कुशल तार्किक तर्कद्वारा जिस वस्तुको सिद्ध करता है, दूसरे तार्किक उसे अन्यथा ही उपपादित कर देते हैं—
यत्नेनानुमितोऽप्यर्थ: कुशलैरनुमातृभि:।
अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते॥
(वार्त्तिकसार)
प्राग्लोप, अविनिगमकत्व, प्रमाणापगम—इन दोषोंसे अनवस्था दोष दुष्ट होती है।
मार्क्सीय द्वन्द्वात्मक प्रणालीके मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं—
अतिभूतवादके प्रतिकूल द्वन्द्ववादके अनुसार प्रकृति ऐसे पदार्थोंका आकस्मिक संघटन नहीं, जो परस्पर स्वतन्त्र, विच्छिन्न और असम्बद्ध हैं। द्वन्द्ववादके अनुसार प्रकृति सम्बद्ध और पूर्ण इकाई है। उसके पदार्थ और बाह्यरूप एक-दूसरेपर निर्भर तथा एक-दूसरेसे सजीवरूपमें सम्बद्ध हैं और परस्पर एक-दूसरेकी रूप-रेखा निश्चित करते हैं। कुछ पदार्थोंका कार्य-कारणभाव अवश्य मान्य है। पर अनेक संनिहित पदार्थ ऐसे भी हैं, जिनका आपसमें कोई सम्बन्ध नहीं; जैसे पशुके दोनों शृंगोंमें आपसमें कोई कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं, इसीलिये यह भी कहना ठीक नहीं कि ‘द्वन्द्वात्मक-प्रणालीका यह सिद्धान्त है कि अपने चारों ओरके संघटनसे अलग करके कोई प्राकृतिक घटना अपने-आपमें समझी नहीं जा सकती। कारण यह है कि उसके चारों ओरकी परिस्थितियोंसे और उनके प्रसंगमें उनका विचार न करके वह घटना प्रकृतिके किसी भी प्रदेशकी घटना हमारे लिये निरर्थक सिद्ध होती है। फलत: हम प्रकृतिकी कोई भी घटना तभी समझ सकते तथा उसकी व्याख्या कर सकते हैं, जब हम उसके चारों ओरके संघटनके अविभाज्यरूपमें उसपर विचार करें और हम यह सोचकर उसकी व्याख्या करें कि उसकी रूपरेखा उसके चारों ओरके संगटनसे निश्चित हुई है।’ इससे भी सभी संनिहित पदार्थों या घटनाओंमें परस्पर कार्य-कारण भाव नहीं होता। कई घटनाएँ और पदार्थ एक साथ उत्पन्न होते हैं, फिर भी उनमें कोई सम्बन्ध नहीं होता। कार्य-कारण निर्णयके लिये अन्वय-व्यतिरेकादि युक्तियाँ अपेक्षित होती हैं। अन्वय-व्यतिरेक दृढ़ होनेपर अव्यवहित पौर्वापर्य होनेपर भी उसे काकतालीय-न्याय कहा जाता है। जैसे काकके बैठते ही ताल-फल गिरनेसे कई अविवेकी काक एवं ताल-पतनका कार्य-कारणभाव मान लेते हैं।
मार्क्सवादी कहते हैं—‘अतिभूतवादीकी तरह द्वन्द्ववादका यह सिद्धान्त नहीं है कि विराम, गतिहीनता एवं अचल जडता और स्थिरताका माप प्रकृति है।’ किंतु इस मतमें प्रकृतिका लक्षण है—‘अविराम गतिशीलता, परिवर्तन एवं नित्य नवोन्मेष-विकास। इस परिवर्तनक्रममें कुछ तत्त्वोंका उन्मेष और विकास होता है, तो कुछका ह्रास और निर्माण होता जाता है। इसलिये द्वन्द्ववाद-प्रणालीके द्वारा प्राकृतिक घटनाओंकी परस्पर निर्भरता और सम्बद्धता ध्यानमें रखकर ही उनपर विचार करना यथेष्ट नहीं। हमें उनको गति, परिवर्तन, विकास तथा उनके निर्माण और निर्वाण ध्यानमें रखकर उनपर विचार करना चाहिये।’
भारतीय दर्शनोंके अनुसार सत्त्व, रज, तमकी साम्यावस्था प्रकृति है। तीनों ही स्वप्रकाश चेतनसे भिन्न होनेसे जड अवश्य हैं; परंतु वृत्तिरूप ज्ञान सत्त्वसे होता है, हलचल या क्रिया रजसे होती है और अवष्टम्भ या रुकावट तमसे। अत: तीनों क्रमसे प्रकाश, हलचल एवं अवष्टम्भ स्वभावके माने गये हैं। तीनों गुणोंकी समता भंग होने और विषमता होनेसे सृष्टि होती है। प्रकृति परिणामशील एवं गतिशील है, अतएव नियमित परिणाम एवं विकास उसका होता है, पर उसका किसी द्वन्द्ववादी सिद्धान्तसे सम्बन्ध नहीं।
द्वन्द्वात्मक प्रणालीके अनुसार ‘मूलत: वह वस्तु महत्त्वपूर्ण नहीं, जो किसी समय स्थायी मालूम पड़ती है, पर जिसका ह्रास तब भी आरम्भ हो चुका है। महत्त्वपूर्ण वस्तु वह है, जिसका अभ्युदय और विकास हो रहा है, चाहे उस समय वह स्थायी ही प्रतीत होती हो; क्योंकि द्वन्द्वात्मक प्रणाली उसीको अजेय मानती है, जिसका अभ्युदय और विकास हो रहा है। एंजिल्सका कहना है कि ‘छोटीसे बड़ीतक वस्तु—बालूसे सूर्यतक, लघुतम जीवकोषसे मनुष्यतक सम्पूर्ण प्रकृति सतत गतिमय और परिवर्तनशील है। उसकी स्थिति-निर्माण और निर्बीजके अविराम प्रवाहमें है।’ (एंजिल्सका प्रकृति-सम्बन्धी द्वन्द्ववाद)
उपर्युक्त बातें आंशिक सत्य हो सकती हैं, पर इनका द्वन्द्वमानसे क्या सम्बन्ध? द्वन्द्वमान भी कोई प्रमाण नहीं, जिससे ये सब बातें सिद्ध हों। उपर्युक्त बातोंके सम्बन्धमें विचार करनेसे विदित होगा कि मार्क्सवादियोंका ‘प्रकृति’ शब्द भी भ्रामक है; क्योंकि वे पृथ्वी, तेज, जल, वायु, भूतसमुदायसे भिन्न किसी प्रकृतिका अस्तित्व नहीं मानते। ठीक इसके विपरीत सांख्यमतानुयायी सत्त्व, रज, तमकी साम्यावस्थाको प्रकृति कहते हैं। सम्पूर्ण विभक्त कार्यवर्गका निर्माण करनेवाली अर्थात् महदादि कार्यवर्गके रूपमें परिणत होनेवाली वस्तु प्रकृति है। प्रकृति शब्द उपादानका वाचक है तथा च विश्वके उपादानको प्रकृति कहा जा सकता है। कहा जा चुका है कि किसी भी कार्यकी उत्पत्तिमें प्रकाश, हलचल और अवष्टम्भ (रुकावट)—ये तीन चीजें अपेक्षित होती हैं। प्रकाश, क्रिया तथा उचित नियन्त्रण बिना कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। इन्हीं तीनोंकी साम्यावस्था प्रकृति है। भूतोत्पत्ति, अहंतत्त्व या महत्तत्त्वकी उत्पत्ति भी इनपर निर्भर है। प्रकृति उपादान है, इसीलिये हर एक विकृतिमें इनका अनुस्यूत होना उचित ही है। ये सब परस्पर सम्बद्ध होते हैं, यह सांख्यका सिद्धान्त ही है—
‘गुणानां सम्भूयार्थक्रियाकारित्वम्।’
गुण मिलकर ही क्रिया कर सकते हैं। गुण चल अर्थात् गतिशील होते हैं। ‘चलं च गुणवृत्तम्’ यह भी सांख्य-सिद्धान्त है। सत्त्व, रज, तम—तीनों ही गुणोंमें अंगांगिभावकी विचित्रतासे ही विचित्र संसार बनता है—
‘गुणानां विमर्दवैचित्र्यात् सर्गवैचित्र्यम्।’
यह सभी पौरस्त्य दार्शनिकोंके निश्चित सिद्धान्त हैं। इनमें मार्क्स या एंजिल्सका कोई भी नया आविष्कार नहीं। उन्होंने जो भी नयी बात कही, वही असंगत तथा अप्रामाणिक है। जैसे ‘प्रकृतिके पदार्थ और बाह्यरूप एक-दूसरेपर निर्भर हैं; एक-दूसरेसे सजीवरूपसे सम्बद्ध हैं,’ इत्यादि अंश अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। यदि सभी सम्बद्ध हों तो सम्बन्धके भावाभावका कोई मूल्य ही नहीं रह जाता। फिर किसका क्या सम्बन्ध है, इस गवेषणाका भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। फिर तो खपुष्प, बन्ध्यापुत्र, शशशृंगको भी सम्बद्ध ही कहना पड़ेगा। इसी तरह ‘एक-दूसरेकी रूप-रेखा निश्चित करते हैं’, यह भी असंगत है। जडभूत घटादिके समान स्वयं अपनेको ही नहीं जानते, फिर वे दूसरेकी रूप-रेखा क्या निश्चित करेंगे? निश्चय आदि चेतनके धर्म हैं—‘ईक्षतेर्नाशब्दम्। (१।१।५) इस ब्रह्मसूत्रमें, जड प्रकृतिमें ईक्षणधर्म अनुपपन्न होनेसे उससे ईक्षणपूर्वक सृष्टिका निषेध किया है। जल, वायु, तेजकी प्रवृत्ति विचारपूर्वक नहीं होती। जैसे अचेतन रथादिकी प्रवृत्ति चेतन सारथि-अश्वादिद्वारा अधिष्ठित होनेसे ही होती है, उसी तरह अचेतन वायु आदि भी स्वाधिष्ठाता चेतन देवतासे अधिष्ठित होनेसे प्रवृत्त होते हैं। किसी कार्यमें अवश्य ही अनेकों पार्श्ववर्त्ती कारण हुआ करते हैं, परंतु सभी पार्श्ववर्त्ती कारण हों, तब तो कार्य-कारणभावकी विशेषता ही नष्ट हो जायगी। अणु-परिमाण, पारिमाण्डल्य आदि किसीके प्रति भी कारण नहीं होते। किसी चोरी या हिंसाके अनेक पार्श्ववर्ती कारण होते हैं, तब केवल हिंसक या चोरको ही क्यों दण्ड दिया जाता है? यह भी विचारणीय है। वस्तुत: शब्दाडम्बरके अतिरिक्त उपर्युक्त मार्क्सीय वादोंमें कोई तत्त्व नहीं। नवनवोन्मेष और विकासपर भी विचार आवश्यक है। उन्मेष या विकास विद्यमान वस्तुका ही होता है। कारण-सामग्री, आवरण, प्रतिबन्धक आदि हटाकर कार्यको व्यक्त कर देती है। जैसे तिलसे तैल, दुग्धसे नवनीत, तन्तुसे पट आदि। बालूसे तेल, आकाशसे तन्तु या पटका साक्षात् विकास कभी भी सम्भव नहीं। इसीलिये परावर द्रष्टाओंके यहाँ केवल विकास ही नहीं। किसी भी कार्यमें ‘जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति—अर्थात् उत्पत्ति, अस्तित्व, वर्द्धन, विक्रिया, अपक्षय तथा विनाश—ये छ: विकार देखे जाते हैं। स्पष्ट ही है कि कोई मनुष्य, पशु या वनस्पति उत्पन्न होता है, अस्तित्वको प्राप्त होकर वृद्धि, अपक्षय तथा विनाशको प्राप्त होता है। वर्षामें उत्पन्न होनेवाले तृण ग्रीष्मतक विनष्ट हो जाते हैं। बहुत-से जीव प्रतिवर्ष तत्तद् ऋतुओंमें व्यक्त होते हैं। वसन्तके पतझड़, आमोंके बौर, कोकिलाकूजन, ग्रीष्मकी उष्मा, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिरकी अपनी-अपनी विशेषताएँ प्रतिवर्ष व्यक्त होती ही हैं। वेद और गीता इसी तरह सृष्टिका पुन: प्रादुर्भाव मानते हैं।—‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्।’ पूर्वसृष्टिके समान ही विधाता उत्तरोत्तर सृष्टिमें सूर्य-चन्द्र आदिका विधान करते हैं। ‘भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८।१९) यह भूतग्राम पुन:-पुन: उत्पन्न होकर प्रलीन होता है।’
इसी तरह निर्माण और निर्वाणकी बात भी कोई नयी नहीं। एक ओर मनुष्य उत्पन्न और विकसित होता है, परंतु एक ओर यदि निर्माण-निर्वाण-परम्परामें अनुस्यूत एक आत्मा मानकर जन्म, कर्मका सुसम्बद्ध कार्य-कारण भाव माना जाय, तो वह अनियन्त्रित, अप्रामाणिक, असम्बद्ध, निर्माण-निर्वाणकी अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ है। जन्मकर्मकी परम्परामें अनुस्यूत एक नित्य वस्तु बिना माने ‘अकृताभ्यागम, कृतविप्रणाश’ दोष अनिवार्यरूपसे उपस्थित होता है। जब लोकमें कारण-वैलक्षण्य बिना कार्य-वैलक्षण्य नहीं हो सकता, तब हेतुकी विलक्षणता बिना जन्मों एवं तत्सम्बन्धी सुख दु:खकी विलक्षणता कैसे हो सकेगी? इसी तरह जब लौकिक कर्मोंका कुछ परिणाम होता है, तब अदृष्टफलवाले कर्म बिना फल दिये कैसे नष्ट हो सकेंगे? अत: कोई नित्य आत्मा है, जो कि पूर्व-पूर्वके शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार उत्तरोत्तर जन्म ग्रहण करता है। ‘अभ्युदयोन्मुख लघु वस्तु भी महत्त्वपूर्ण होती है, पतनोन्मुख महान् वस्तु भी नगण्य होती है’, यह भी कोई नयी बात नहीं। प्रतिपद्का चन्द्र और पूर्ण चन्द्र इसके उदाहरण हैं, पर इतनेमात्रसे किसी सिद्धान्तका पतन, किसी व्यक्ति या समूहका उत्थान या पतन ऐकान्तिकरूपसे नहीं कहा जा सकता। काल-भेदसे एक ही वस्तुके उत्थान और पतनकी स्थिति आती है। सूर्यका ही उदय-अस्त तथा पुन: उदय होता है। चन्द्रमाका ह्रास होता है और पुन: उसीका विकास भी। किसी व्यक्तिका भी जीवनमें कई बार उत्थान और कई बार पतन होता है। जो घटनाएँ व्यष्टिमें होती हैं, वही समष्टिमें होती रहती हैं। काल-भेद हो सकता है।
‘अतिभूतवादकी तरह द्वन्द्ववादका यह सिद्धान्त नहीं है कि विकसित होनेका अर्थ सीधे-सीधे बढ़ना है। जब कि परिमाणमें परिवर्तन होनेसे गुणोंमें परिवर्तन नहीं होता, द्वन्द्ववादके अनुसार विकास-क्रममें हम अदृश्य और अकिंचन परिमाणसम्बन्धी परिवर्तनोंसे स्पष्ट और मौलिक गुणसम्बन्धी परिवर्तनोंतक पहुँच जाते हैं। इस परिवर्तनक्रममें गुणसम्बन्धी परिवर्तन धीरे-धीरे न होकर हठात् एक मंजिलसे दूसरे मंजिलतक छलाँग मारकर शीघ्रतासे होते हैं। ये परिवर्तन आकस्मिक नहीं होते। वे धीरे-धीरे होनेवाले प्राय: अदृश्य परिमाणसम्बन्धी संघटनके स्वाभाविक परिमाण हैं। इसीलिये द्वन्द्वात्मक प्रणालीके अनुसार विकास-क्रमका यह अर्थ नहीं कि पहले जो हो चुका, अब वही सीधे-सीधे दुहराया जा रहा है और न कोल्हूके बैलकी तरह एक ही जगह चक्कर खानेका नाम ही विकास है। विकासकी गति ऊर्ध्वोन्मुख होती है। पहलेकी गुणात्मक स्थितिसे दूसरी गुणात्मक परिस्थितितक संक्रमणका नाम विकास है। विकास साधारणसे संश्लिष्ट और निम्नसे ऊर्ध्वकी ओर होता है।’ एंजिल्सका कहना है कि ‘द्वन्द्ववादकी कसौटी है प्रकृति और आधुनिक विज्ञान।’ प्रकृतिविज्ञानके विषयमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसने इस कसौटीके लिये अत्यन्त मूल्यवान् सामग्री दी है, जो प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस प्रकार अन्ततोगत्वा प्राकृतिक क्रम द्वन्द्वात्मक ही सिद्ध होता है न कि अतिभूतवादी। यह क्रम किसी चिर अपरिवर्तनशील वृत्तमें चक्कर काटनेकी गति नहीं; बल्कि वास्तविक इतिहासके निर्माणकी गति है। यहाँपर सबसे पहले डार्विनका उल्लेख करना चाहिये, जिसने प्रकृतिकी अतिभौतिक कल्पनापर दु:सह प्रहार किया था और सिद्ध किया था कि आजका चराचर वनस्पति जीव और मनुष्य भी उस विकास-क्रमका परिणाम है, जो करोड़ों वर्षसे लगातार होता चला आ रहा है।
उपर्युक्त बातोंमें भी निर्माण-निर्वाण, उत्पत्ति-विनाशसे भिन्न पदार्थ नहीं। कार्य-मात्रका उत्पत्ति-विनाश अनिवार्य होता है। पर इस भूत-प्रकृतिसे अतीत, नित्य कूटस्थ वस्तु नहीं है, यह सिद्ध नहीं होता। बहुत-सी बातें अतिभूतवादियोंके नामसे बेतुकी लिखी गयी हैं। कम-से-कम भारतीय अध्यात्मवादकी दृष्टिमें मार्क्स, एंजिल्सकी दुष्कल्पनाएँ सर्वथा उपहासास्पद हैं। भारतीय अध्यात्मवादी हर एक विकासमें क्रमिक एवं धीरे-धीरे विकसित होनेका सिद्धान्त नहीं मानते। मेघमण्डलसे महाविद्युत्-प्रकाशका विकास अतिशीघ्रतासे मान्य ही है। इसीको एक मंजिलसे दूसरे मंजिलपर छलाँग मारनेकी बात कही जा सकती है। उस विकासमें भी क्रम रहता ही है। तापमानके बढ़ जानेसे जलका भाप बन जाना, ताप-मान घट जानेसे बर्फ बन जाना भी इसी कोटिका विकास है। मार्क्सवादियोंके शब्दोंमें ‘यही प्रकृतिका एक मंजिलसे दूसरी मंजिलपर छलाँग मारना है।’ अध्यात्मवादी आत्म-परमात्म-सम्बन्धमें ही ऐसी बात करते हैं। ये भौतिकवादियोंको सम्मत न हों, पर भौतिक वस्तुओंके सम्बन्धमें प्रत्यक्षानुमानादिसिद्ध जो भी बातें हैं, उन्हें माननी ही है। दुग्धका दधि परिणाम है, जलका बर्फ परिणाम है। इसी प्रकार विरोधी-कारणोंसे कारणमें जलका विलय या शोषण होता है। इसी तरह ‘कोल्हूके बैलके समान चक्कर खानेका नाम विकास नहीं’, यह भी असंगत है। कौन नहीं जानता कि पुन: पुन: दिन-रात, सूर्योदयास्त, चन्द्रमाका ह्रास-विकास तथा ग्रीष्म-वसन्तके आगमनमें पुरानी बातें ही दुहरायी जाती हैं। सदासे ही वैचित्र्य-सादृश्यका ही लक्षण है। जो समझते हैं कि विकासकी गति सदा ऊर्ध्वोन्मुख ही होती है, उनकी दृष्टिमें ऊर्ध्वकी सीमा कोई है या नि:सीम? यदि नि:सीम तो इसमें प्रमाण क्या? पुनश्च जब विकसित वस्तुका भी निर्वाण या विनाश भी मानते ही हैं, तो इस तरह ह्रास-विकासका चक्कर ही परिलक्षित होता है। उदयनाचार्यने ‘न्यायकुसुमांजलि’ की—
जन्मसंस्कारविद्यादे: शक्ते: स्वाध्यायकर्मणो:।
ह्रासदर्शनतो ह्रास: सम्प्रदायस्य मीयताम्॥
(२।३)
—कारिकामें दिखलाया है कि स्वाभाविक रूपसे ह्रास हो रहा है। पूर्वजोंकी बुद्धिशक्तिकी तुलनामें आजकी बुद्धिशक्तिका अत्यन्त ह्रास हो गया है। पहलेके मनुष्य-शरीर तथा आजके मनुष्य-शरीरमें पर्याप्त अन्तर हो गया है। अभी अनेक स्थलोंमें ऐसे भाले और तलवारें मिली हैं, जिसे आजके लोग उठा भी नहीं सकते। चारित्रिक स्तर तो इतने नीचे गिर गये हैं कि उनकी पूर्वजोंके सामने कोई तुलना ही नहीं।
सृष्टिक्रममें देखते हैं कि कारण कार्यकी अपेक्षा व्यापक, स्वच्छ तथा उच्च कोटिका होता है। कार्य व्याप्य, अस्वच्छ तथा निम्न कोटिका होता है। हाँ, कार्यमें गुण एवं विशेषण आदि बढ़ जाते हैं। घट-पट आदिसे जलानयन, अंगप्रावरणादि कार्य सधते हैं; परंतु मृत्तिका, तन्तु आदिसे उक्त कार्य नहीं सधते। फिर भी घटादिकी अपेक्षा मृत्तिका, तेज, जल, वायु आदि कारणोंमें व्यापकता आदि अधिक स्पष्ट हैं। मृत्तिकामें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध—ये पाँच गुण हैं। जलमें गन्धको छोड़ चार, तेजमें शब्दादि तीन, वायुमें दो और आकाशमें केवल एक शब्द ही गुण होता है। व्यापकता, स्वच्छता आकाशमें सर्वाधिक है। इसीलिये परम कारण सर्वापेक्षया स्वच्छ, व्यापक तथा उच्चकोटिका मान्य है। विकासवादियोंका यह कथन कि ‘पूर्वजोंमें क्रिया, ज्ञानशक्तियाँ पूरी विकसित न हुईं,’ सर्वथा भ्रममात्र हैं। तथ्य तो यह है कि पूर्वजोंसे ही आंशिक ज्ञान-क्रियाशक्ति उत्तरोत्तरके लोगोंको प्राप्त होती है, पुस्तकोल्लेखन, शिक्षणालयस्थापन तभी सार्थक होंगे। यदि उत्तरोत्तर लोगोंमें ज्ञान-क्रियाशक्तिका विकास अधिक मानते हैं तो वे किनके लिये पुस्तकोल्लेखादि करते हैं? अल्पज्ञ पूर्वज अतीत हो चुके। उत्तरोत्तर आनेवाली संतान पूर्वजोंकी अपेक्षा बुद्धिमान् होगी ही। उनके लिये ज्ञानोपदेश व्यर्थ ही है। खूब ही हो तो भी पिता, पितामहादिको पुत्रादिकोंके ही छात्र होना चाहिये। पुत्रादिकोंको अध्यापक बनना चाहिये। पर नहीं, अध्यात्मवादकी दृष्टिसे ईश्वर पूर्ण सर्वज्ञ है। उसकी संतानें ब्रह्मा, वशिष्ठादि तदपेक्षया अल्पज्ञ हैं। जिन लोगोंमें कुछ विशेषता व्यक्त हुई, उनमें ईश्वरके अनुग्रहसे ही। आध्यात्मिकोंकी अनभिज्ञता केवल विकासवादियोंको ही सम्मत है, पर विकासवादियोंकी अनभिज्ञता उभयसम्मत है; क्योंकि वे स्वयं ही अपने पुत्रादिकोंकी अपेक्षा अपनेको उसी न्यायसे अनभिज्ञ मानते हैं।
‘परिमाणसम्बन्धी विकाससे गुणसम्बन्धी विकासतकका नाम द्वन्द्वात्मक विकास है।’ इसकी व्याख्या करते हुए एंजिल्सने लिखा है कि ‘भौतिक विज्ञानमें प्रत्येक परिवर्तनका अर्थ है—परिमाणका गुणमें संक्रमण। जो किसी भी वस्तुमें निहित अथवा प्रविष्ट गतिके परिमाणके परिवर्तन होता है, वह भी क्रमसे ही होता है। उदाहरणके लिये पानीके ताप-मानका प्रभाव पहले उसके द्रवगुणपर नहीं पड़ता, परंतु उस द्रवगुणका परिमाण ज्यों-ज्यों चढ़ता या गिरता है, त्यों-त्यों वह क्षण निकट आता-जाता है, जब पानी या तो बर्फ होगा या भाप बनेगा। जलकी द्रवस्थिति ज्यों-की-त्यों नहीं बनी रहती। प्लेटिनमके तारको भी दहकानेके लिये एक अल्पतम विद्युत्प्रवाह आवश्यक होता है। प्रत्येक धातुका एक निश्चित तापमान होता है, जब वह पिघलने लगती है। आवश्यक तापमान पानेके हमारे पास जो साधन हैं, उनका प्रयोग करके द्रवपदार्थके शीतोष्ण दिन निश्चित कर दिये गये हैं, जब कि यथेष्ट शीतोष्ण प्रभावसे वह पदार्थ जमने या खौलने लगता है। अन्तमें प्रत्येक गैसके लिये वह चरम विन्दु निश्चित है, जब यथावश्यक दबाव और शीतसे वह द्रव पदार्थके रूपमें परिवर्तित किया जा सकता है, भौतिक विज्ञानमें जिन्हें हम स्थिर विन्दु कहते हैं, जहाँसे पदार्थकी स्थिति बदलकर दूसरी हो जाती है; वे अधिकतर और कुछ नहीं, क्रान्ति विन्दुओंके ही नाम हैं, जहाँ गतिके परिमाण-सम्बन्धी ह्रास किंवा वृद्धिसे उस पदार्थकी स्थितिमें एक गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। फलत: इन क्रान्ति-विन्दुओंपर परिमाणमें गुणका रूपान्तर हो जाता है।’
इसी प्रकार एंजिल्सने रसायनशास्त्रके विषयमें लिखा है कि ‘पदार्थोंकी अणुबद्ध रचनामें परिवर्तन होनेसे गुणात्मक परिवर्तन सम्भव होते हैं। इन गुणात्मक परिवर्तनोंके विज्ञानको हम ‘रसायनशास्त्र’ कह सकते हैं। हेगलको यह मालूम हो चुका था। उदाहरणके लिये आक्सिजनके अणुमें दो परमाणु होते हैं। इन दोके बदले यदि तीन परमाणु कर दिये जायँ, तो ओजोन बन जाता है, जो गन्ध और प्रतिक्रियामें साधारण आक्सिजनसे नितान्त भिन्न होता है। जब आक्सिजन विभिन्न अनुपातोंमें नाइट्रोजन या गन्धकसे मिलाया जाता है, तब तो उसका कहना ही क्या? हर अनुपातसे ऐसा पदार्थ बनता है, जो गुणात्मक दृष्टिसे दूसरे पदार्थोंसे भिन्न होता है।’
उपर्युक्त दोनों ही प्रघट्टकोंसे यह सिद्ध होता है कि निर्दिष्ट कारणोंसे वस्तुओंकी अवस्थाओंमें परिवर्तन ही सिद्ध होता है। वेदान्त-सिद्धान्तके अनुसार तेजसे ही जल उत्पन्न होता है, शीतके योगसे वह बर्फ बन जाता है। तेजसे जलका शुष्क हो जाना लोकसिद्ध है, परंतु फिर भी इन परिणामोंकी निश्चित सीमा है, अतएव अचेतन चेतन नहीं बन सकता। इस तरह असत्य सत्य, अनित्य नित्य नहीं बन सकते।
स्टालिनका कहना है कि ‘द्वन्द्ववादका सिद्धान्त है कि प्रकृतिके सभी बाह्य रूपों और पदार्थोंमें आन्तरिक असंगतियाँ सहजरूपसे विद्यमान हैं। इन पदार्थों और रूपोंके भाव-पक्ष और अभाव-पक्ष दोनों हैं। उनका अतीत है तो अनागत भी है। एक अंश मरणशील है तो दूसरा विकासोन्मुख। इन दो विरोधी अंशोंका संघर्ष ही विकासक्रमकी आन्तरिक प्रक्रिया है। परिमाण-भेदके गुण-भेदमें परिवर्तित होनेकी यही आन्तरिक प्रक्रिया है। इसलिये द्वन्द्वात्मक प्रणालीके अनुसार निम्नसे ऊर्ध्वकी ओर विकास इस क्रममें नहीं होता कि प्रकृतिके स्तर एकके बाद एक सहज गतिसे खुलते जायँ। इसके प्रतिकूल विकासक्रममें पदार्थों और प्रकृतिके बाह्यरूपोंमें सहजरूपसे विद्यमान असंगतियाँ ही खुलती जाती हैं। इन असंगतियोंके आधारपर जो विरोधी प्रवृत्तियाँ क्रियाशील हैं, उनका संघर्ष ही खुलता जाता है।’ लेनिनके शब्दोंमें ‘वास्तवमें पदार्थोंके सारतत्त्वोंमें ही अन्तर्निहित असंगतियोंके अध्ययनका ही नाम द्वन्द्ववाद है।’ (लेनिनदर्शन-सम्बन्धी नोटबुक रूसी संस्करण, पृ० २६७)। लेनिनने यह भी कहा था कि ‘विरोधी तत्त्वोंका संघर्ष ही विकास है।’ (संक्षिप्त लेनिन ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खण्ड १३, पृष्ठ ३०१)
उपर्युक्त बातोंपर विचार करनेसे विदित होगा कि अंश-भेदसे निर्वाण-निर्माणकी परम्परा चलती है, परंतु अंशभेदसे जब दोनों बातें चलती हैं, तब उनमें संघर्ष क्या? एक व्यक्ति मरता, दूसरा पैदा होता है, इसमें संघर्षकी कोई बात नहीं। क्रमेण वनस्पति, पश्वादि एक ओर उत्पन्न हो रहे हैं तो दूसरी ओर नष्ट हो रहे हैं। हाँ, यदि उसी क्षण उसी अंशमें उसी रूपसे भाव, अभाव, निर्वाण, निर्माण आदि हों, तभी विरोध और संघर्ष हो सकता है। पर यह असम्भव है ही; क्योंकि यदि भाव, अभाव, निर्वाण, निर्माण समान देश, समान कालमें रह जायँ तो संसारमें विरोध ही मिट जायगा। फिर संघर्ष भी क्या रहेगा? यदि रात्रि और दिन समकालमें हों, तभी संघर्ष सम्भव है। दो विरोधी मल्लोंका ही संघर्ष हो सकता है, अतीत-अनागत मल्लोंका संघर्ष क्या होगा? साथ ही यदि सहभाव सम्भव हो जाय तो भी विरोध असम्भव है; क्योंकि स्वानुचित देशकाल-स्थायित्व ही विरोधका कारण होता है। धरणी, अनिल, जलके संघर्ष, बीजके विध्वंससे अंकुरकी उत्पत्ति होती है। कुछ लोग इसी आधारपर असत्कारणवाद सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं, परंतु अभावसे भावकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि ऐसा हो तो कार्यमें कारणका अनुवेध रहनेसे हर कार्यमें कारणका अनुवेध रहना चाहिये, किंतु उपलब्धि इसके विपरीत रहती है। कार्यमात्रमें सत्ताका ही अनुवेध दिखायी देता है। अत: सत्कार्यवाद ही ठीक है। बीजके अंश ही अंकुरादिमें अनुस्यूत रहते हैं। सर्वथापि व्यवहारमें कार्योत्पादनानुकूल सामग्रियाँ ही कार्य-विकासमूल समझी जा सकती हैं, असंगतियाँ विरोध या संघर्ष नहीं। कार्यके प्रतिबन्धकादि दोषका निवारण अवश्य अपेक्षित होनेपर पुरातन या निर्वाण स्वयं विनाशोन्मुख है। अत: उसकी प्रतिबन्धकता असिद्ध है।
स्टालिनका कहना है कि ‘समाजके जीवन और इतिहासके अध्ययन करनेके लिये सामाजिक क्षेत्रके द्वन्द्वात्मक प्रणालीका प्रचार कितना महत्त्वपूर्ण है और समाजके इतिहास तथा सर्वहारावर्गकी पार्टीकी प्रत्यक्ष कार्यवाहीपर उन सिद्धान्तोंका लागू करना क्या महत्त्व रखता है, यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है। यदि संसारमें कोई भी वस्तु विच्छिन्न और एकाकी नहीं है, यदि सभी वस्तुएँ सम्बद्ध और परस्पर निर्भर हैं, तो सिद्ध है कि इतिहासकी किसी भी समाज-व्यवस्था या सामाजिक आन्दोलनका मूल्यांकन हम किसी भी सनातन न्याय अथवा पूर्वकल्पित सिद्धान्तसे नहीं कर सकते। इस प्रकारके मूल्यांकनका इतिहासोंमें नितान्त अभाव नहीं है। यह मूल्यांकन परिस्थितियोंपर विचार करके वे ही कर सकते हैं, जिन्होंने उस समाज-व्यवस्थाके सामाजिक आन्दोलनको जन्म दिया होगा, जिससे वे सम्बद्ध हैं। वर्तमान परिस्थितियोंमें दासप्रथा निरर्थक, अस्वाभाविक और मूर्खतापूर्ण होगी। पर जब पंचायती-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही थी, तब दासप्रथाका होना समझमें आ सकता था। तबकी परिस्थितिमें वह एक स्वाभाविक घटना थी; क्योंकि प्राचीन समाजकी पंचायती व्यवस्थाको देखते हुए वह उन्नत व्यवस्था थी। जब जारशाही और पूँजीवादी व्यवस्था विद्यमान थी, तब उदाहरणके लिये १९०५ के रूसमें एक पूँजीवादी जनवादी प्रजातन्त्रकी माँग अच्छी तरहसे समझमें आ सकती थी। वह उचित और क्रान्तिकारी माँग थी; क्योंकि उस समय इनकी प्राप्तिका अर्थ होता ‘प्रगतिकी राहपर एक कदम आगे बढ़ना।’ पर अब सोवियतसंघकी परिस्थितियोंमें पूँजीवादी जनवादी प्रजातन्त्रकी माँग एक अर्थहीन और क्रान्तिविरोधी माँग होगी; क्योंकि सोवियत प्रजातन्त्रकी तुलनामें पूँजीवादी प्रजातन्त्र निकृष्ट है। यह तो पिछली मंजिलकी ओर लौटना होगा। देशकाल-परिस्थितियोंके अनुसार ही प्रगति और प्रतिक्रियाका निर्णय हो सकता है, यह स्पष्ट है। सामाजिक घटनाओंके प्रति इस ऐतिहासिक दृष्टिकोणके बिना ऐतिहासिक विज्ञानका अस्तित्व और विकास असम्भव है। इतिहास विज्ञान-तारतम्य-हीन घटनाओंकी सूची और क्षुद्रतम भ्रान्तियोंका संकलन न बने, यह इस दृष्टिकोणद्वारा ही सम्भव है।’
उपर्युक्त बातोंकी समालोचनामें सबसे पहली बात यह है कि जिस इतिहासके आधारपर द्वन्द्ववादकी कल्पना खड़ी की जाती है, वह इतिहास स्वयं किसी सिद्धान्तका साधक या बाधक नहीं हो सकता। इतिवृत्त, ऐतिह्य, इतिहासादि शब्द पुरानी घटनाओंके लिये प्रयुक्त होते हैं। ‘इति ह आस’—ऐसा था, ऐसी प्रसिद्धि ही इतिहास कहलाता है। वह प्रामाणिक, अप्रामाणिक दोनों ही प्रकारका होता है। इतिहास यदि प्रत्यक्षानुमानमूलक हो या शब्दमूलक हो तो प्रमाणके निर्दुष्ट होनेसे ही निर्दुष्ट हो सकता है। प्रमाण दुष्ट है तो इतिहास भी दुष्ट ही होता है। प्राय: आजकलके इतिहास दुरभिसन्धि एवं भ्रान्तिपूर्ण होते हैं। इस सम्बन्धमें अनेक पाश्चात्य विद्वानोंकी सम्मतियाँ ‘भारतमें अंग्रेजी राज्य’ पुस्तकमें उद्धृत हैं। किसी सिक्के या खण्डहर आदिके आधारपर ऐतिहासिक कल्पनाओंका महल खड़ा कर दिया जाता है। चतुर लोग अपने विभिन्न उद्देश्योंकी पूर्तिके लिये मनगढ़न्त इतिहासका निर्माण कर देते हैं। आँखों देखी घटनाओंके सम्बन्धमें विभिन्न संवाददाताओंकी विभिन्न रायें होती हैं। तार, टेलीप्रिन्टर, रेडियो, अखबारोंतक पहुँचते-पहुँचते उनके अनेक रूप बन जाते हैं। फिर इनके आधारपर किसी सत्य घटनाका निर्णय कैसे किया जा सकता है? ऋतम्भरा-प्रज्ञायुक्त ऋषियोंके इतिहास अवश्य प्रामाणिक कहे जा सकते हैं। वे समाधिके द्वारा संनिकृष्ट, विप्रकृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म वस्तुओंका साक्षात्कार कर सकते हैं, परंतु उनकी दृष्टिसे पुरानी घटनाओंका दुहराना मात्र, ‘इतिहास’ गड़े मुर्दोंको उखाड़नेके अतिरिक्त और कुछ नहीं। सत्य ऐतिहासिक घटनाओंमें भी समीचीन, असमीचीन, इष्ट, अनिष्ट, उचित, अनुचित कई तरहकी घटनाएँ होती हैं। इसीलिये व्यवहारमें इतिहास प्रमाण नहीं होता, अपितु विधान प्रमाण होता है। इसीलिये रामायण, भारतसे यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि रामादिवत् आचरण करना चाहिये, न कि रावणादिवत्। यही इतिहासका प्रयोजन है। जिन घटनाओंसे राष्ट्र या विश्वको धार्मिक, आर्थिक, चारित्रिक उन्नतिमें सहायता मिलती हो, उन्हीं घटनाओंका इतिहासमें उल्लेख होना उचित है। आज भी विशिष्ट पुरुषोंका ही इतिहासमें उल्लेख होता है। मार्क्स, लेनिन-जैसा अन्य कम्युनिष्टोंका इतिहासमें महत्त्व नहीं। म्युनिसिपालिटीके दफ्तरमें मनुष्यके जन्म-मरणका उल्लेख होता है। कीट-पतंगोंका नहीं; क्योंकि उनका महत्त्व नहीं है। सारांश यह है कि इतिवृत्तमात्रसे कोई सिद्धान्त नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि इतिवृत्तकी घटनाएँ उचित-अनुचित—दोनों ही ढंगकी हो सकती हैं। विधानमें औचित्य-निर्णयके अनन्तर ही कोई ऐतिहासिक घटना स्थान पा सकती है। यदि सूर्योदय-सूर्यास्त, चन्द्रमाका ह्रास-विकास, समुद्रके ज्वार-भाटादिके नियम सनातन हैं तो कोई सनातन न्याय या सिद्धान्त भी हो ही सकता है, पर व्यक्तिविशेष या परिस्थितिविशेषसे कुछ क्रियाओंमें अन्तर पड़ सकता है। सनातन न्याय एवं सिद्धान्तोंपर इनका कुछ भी असर नहीं पड़ सकता। उष्णता अग्निका स्वभाव है, वह व्यक्ति या परिस्थितिविशेषसे बदल नहीं सकता।
दासप्रथाको कितना भी निरर्थक अस्वाभाविक या मूर्खतापूर्ण क्यों न कहा जाय; परंतु किसी-न-किसी रूपमें उसका अस्तित्व सर्वत्र है और रहेगा। हाँ, नाममें भेद हो सकता है। कौन नहीं जानता कि ‘सोवियतसंघ’ में सरकारसे मतभेद रखनेवाले लोगोंके साथ दासोंकी अपेक्षा भी बुरा बर्ताव किया जाता है? विरुद्ध व्यक्तियोंको शासनारूढ़ व्यक्तियों या संघोंके नियन्त्रणमें दासोंसे भी निकृष्ट बनकर जीवन बिताना पड़ता है। शासन, न्याय, शिक्षा, सेना आदि सभी विभागोंमें उच्च कर्मचारियों और निम्न कर्मचारियोंमें अंगांगिभाव या शेष-शेषिभाव अनिवार्य रहता है। ‘एक व्यक्ति दूसरेका हुक्म माननेके लिये बाध्य हो, न माननेपर दण्डित हो’, यही दास-प्रथाका नमूना है। इसका कब अभाव हो सकता है। धर्मनियन्त्रित राज्यमें ही शासन एवं शासित आदिका अभाव कहा जा सकता है। वहाँ भी धर्ममूलक नियम्य-नियामकभाव, गुरु-शिष्य, अग्रज-अनुज, पिता-पुत्र, पति-पत्नीका नियम्य-नियामकभाव रहता ही है। सोवियत प्रजातन्त्रकी तुलनामें पूँजीवादी, जनवादी प्रजातन्त्रको निकृष्ट कहना भी स्वगोष्ठीनिष्ठ सिद्धान्त है। इस सम्बन्धमें उत्तरोत्तर ऐतिहासिक प्रगतिकी बात करना निराधार है। आजके प्रजातन्त्र, गणतन्त्र सबकी अपेक्षा दो हजार वर्ष पहलेके अशोकके साम्राज्यकी सुख-समृद्धि कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थी। उसमें सभी अपनेको सुखी और समृद्ध अनुभव करते थे। पाँच हजार वर्ष पहले युधिष्ठिरके शासनमें तो धर्मराज्य था ही। लाखों वर्ष पहले होनेवाले रामराज्यका मुकाबला करनेवाला कोई भी शासन न कभी हुआ और न भविष्यमें ही होनेकी आशा है। आजके पण्डितम्मन्य बड़े गर्वसे कहते हैं कि ‘यह बीसवीं शताब्दी है, पुराना जमाना लद गया। दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी। पुरानी धर्म-कर्मकी सड़ी-गली बातें अब नहीं चल सकतीं। उनका समय बीत गया, परंतु वे यह नहीं देखते कि यदि धर्म और सभ्यताका समय बीत गया तो सुख, शान्ति एवं समृद्धिका भी समय बीत गया। यदि सुख-शान्तिके बीते दिनोंको लौटाना है तो धर्म, सभ्यता एवं सुव्यवस्थाओंके दिनोंको भी लौटाना ही पड़ेगा।’
कुछ लोग अपने दृष्टिकोणके अनुसार तोड़-मरोड़कर इतिहासका भी दृष्टिकोण बना लें, परंतु इतने मात्रसे ऐतिहासिक घटनाओंका सर्वसिद्धरूप मिटाया नहीं जा सकता। ह्रास-विकासका चक्र ही संसार है। विकारी पुरानी चीजका क्षय, नवीनका अभ्युदय होता है सही; परंतु आत्मा-काल आदि कुछ पुरातन ऐसी भी तो वस्तुएँ होती हैं, जो नित्य हैं, जिनका कभी क्षय नहीं होता। इसी तरह व्यक्तियोंके अनित्य होनेपर भी प्रवाह नित्य होता है। जैसे गंगादि प्रवाहकी अपेक्षा दीपशिखादि प्रवाह अधिक अस्थिर है। सत्त्व, रज, तमके अनुसार संसारका प्रवाह अनुकूल-प्रतिकूल चलता है। कभी काम-क्रोधका तो कभी शम-दमका प्रवाह चलता है। अविवेकी कामादि-प्रवाहमें बहते हैं। विवेकी उन्हें रोककर शान्त्यादिका प्रवाह चलाता है। महापुरुष कभी प्रवाहमें नहीं बहते, वे उसे रोककर धर्मनियन्त्रित बनाते हैं। अत: कभी नास्तिक भौतिकवादियोंका बाहुल्य होता है, फिर आस्तिकपक्ष उठता है। सत्य-अनृत, आसुर-दैव दोनों पक्षोंका कालानुसार उद्भव, अभिभवादि होता रहता है। फिर भी ‘सत्यं जयति नानृतम्’ के अनुसार अन्तमें सत्य ही जीतता है, भले ही पहले अनृतका बोल-बाला फैल गया हो। इसी तरह धर्मकी ही विजय होती है, अधर्मकी नहीं। इसलिये चिरन्तन शाश्वत सत्य सिद्धान्तका अवलम्बन करनेसे ही अनृत अधर्मका अतिक्रमण किया जा सकता है। एतावता यह कहना सर्वथा असंगत है कि ‘संसार निरन्तर गतिशील है, पुरातनका विनाश और नवीनका उदय होता रहता है; पुरातन व्यवस्थाएँ चिरन्तन नहीं हो सकतीं।’ कोई वस्तु स्थायी रहनेपर ही स्थायी कही जा सकती है।
स्टालिनका यह कहना भी ठीक नहीं कि ‘शोषण और व्यक्तिगत सम्पत्तिके सिद्धान्त शाश्वत सत्य नहीं हो सकते। किसानपर जमीनदारके, मजदूरपर पूँजीपतिके प्रभुत्वका सिद्धान्त त्रिकालाबाध्य नहीं हो सकता; क्योंकि यह एक साधारण वस्तुका अतिरंजित बीभत्स वर्णनमात्र है।’ व्यक्तिगत सम्पत्तिके सिद्धान्तको शोषणका सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता। (आगे चलकर तर्कके आधारपर व्यक्तिगत सम्पत्तिका सिद्धान्त निरूपित किया जायगा)। कम्युनिष्टकी दृष्टिमें तो किसी गिरहकट व्यक्तिको रोका नहीं जा सकता और न तो उसका पुनरुत्थान ही सम्भव है। इसलिये उसे और धक्का दे देना चाहिये, जिससे वह शीघ्र ही नष्ट हो जाय।’ इस तरह वे सर्वदा अभ्युदयोन्मुख वर्गके साथी होते हैं। ‘बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय’ बहुमतका सिद्धान्त वहाँ असम्भव है।
स्टालिनका कहना है कि ‘१९वीं शतीके नवें दशकमें जब मार्क्सवादियों तथा लोकवादियोंमें संग्राम चल रहा था, रूसी सर्वहारावर्ग साधारण जनताका एक झुंड—अल्प भाग था, इसके विपरीत खेतिहर किसान जनताका बहुसंख्यक भाग था। पर सर्वहारावर्ग एक विकासमान वर्ग था, जबकि वर्गके रूपमें किसान छिन्न-भिन्न हो रहे थे। पर चूँकि सर्वहारावर्ग एक विकासमान वर्ग था, अत: मार्क्सवादियोंने इसीके आधारपर अपनी नीति निर्धारित—स्थापित की। उनकी यह धारणा भ्रान्त न थी। अतएव आगे चलकर यही वर्ग एक क्षुद्र शक्तिसे विकसित होकर उच्च कोटिका ऐतिहासिक और राजनीतिक शक्ति बन गया।’ (जे० स्टालिनका द्वन्द्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद) पर यह कहना ठीक नहीं। उत्थान-पतन संसारका धर्म है। जो सूर्य कभी अस्त होता है, वही उदय होता है। जीवनमें भी ग्रहदशाके अनुसार कभी पतन, कभी उत्थान भी होता है—
‘नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।’
(मेघदूत २।५२)
खेतिहर किसान वर्गको शोषक भी नहीं कहा जा सकता। उसकी कमाई सबको खानेको मिलती है। अत: ‘बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय’ उसकी दशा सुधारना क्या उचित न था? फिर जब कम्युनिष्ट शोषितका ही पक्ष लेता है, तब यह भी कहना होगा कि ‘जो सर्वाधिक शोषित हो, उसीका पक्ष लेकर शोषकोंका मुकाबला करना चाहिये।’ इस दृष्टिसे भी सर्वाधिक बहुसंख्यक समाजके हितार्थ प्रयत्न आवश्यक है। फिर केवल सर्वहारा मजदूर समाजका ही पक्षपात क्यों? पुनश्च, यदि परिणाम सम्बन्धी, क्रमिक-परिवर्तन और अकस्मात् एवं शीघ्रतासे होनेवाले गुण-सम्बन्धी परिवर्तन विकासके नियम हैं तो जैसे सर्वहारा-वर्गद्वारा की गयी क्रान्ति स्वाभाविक अनिवार्य घटना हो सकती है, वैसे ही खेतिहर वर्गद्वारा भी की गयी क्रान्ति महत्त्वपूर्ण क्यों न होगी? फिर यदि द्वन्द्वमानके अनुसार निर्माण और निर्वाणका क्रम चलता ही रहेगा तो किसी दिन साम्यवादकी कल्पना भी पुरानी होगी और फिर इसे भी मिटानेके लिये कम्युनिष्टको प्रयत्नशील होना पड़ेगा।
आजकल जो ‘सुधारवाद’ चलता है, जिसका उद्देश्य प्राचीन वस्तुओंका एकाएक विनाश नहीं, किंतु दोषोंको दूर कर उन्हें अच्छा बनाना होता है, स्टालिन आदिने उसे नगण्य बताया है। समाजवादकी मुख्य तीन प्रवृत्तियाँ हैं—सुधारवाद, अराजकतावाद और मार्क्सवाद। सुधारवाद—(बर्न्सवीक आदिकी विचारधारा) समाजवादको बहुत दूरकी बात समझता है। उससे आगे कुछ है ही नहीं। सुधारवाद समाजवादी क्रान्तिको नहीं मानता और शान्तिपूर्ण उपायोंसे समाजवाद कायम करना चाहता है। सुधारवाद वर्गसंघर्षको न मानकर वर्गसहयोगका प्रतिपादन करता है। स्टालिनकी दृष्टिमें ‘यह सुधारवाद दिन-प्रति-दिन सड़ता ही जा रहा है। समाजवाद और सुधारवादकी सारी समानता दिन-प्रति-दिन खत्म होती जा रही है, अत: सुधारवादपर विचार करना ही व्यर्थ है।’ सुधारवादके सम्बन्धमें मार्क्सवादियोंकी यह धारणा है। प्राचीनतावादी सुधारवादियोंको सर्वथा हेय बताते हैं। भारतमें कांग्रेस, हिन्दूसभा, जनसंघ आदि सुधारवादी संस्थाएँ हैं। ये एक तरफ भारतीयता, संस्कृतिकी बातें करतीं और सुधार भी चाहती हैं। उधर, कम्युनिष्ट, सोशलिष्ट आदि अराजकतावादी पार्टियाँ सर्वथा परिवर्तनकर महाक्रान्ति चाहती हैं। रामराज्यादि पार्टियाँ शास्त्रों और परम्पराके अनुसार सनातन संस्कृति, धर्म एवं राजनीतिमें सिद्धान्तत: तिलभर परिवर्तन नहीं चाहतीं। इनमें सुधारवादी किसी सिद्धान्तपर स्थिर नहीं हैं। रामराज्यवादी ईश्वर एवं धर्म आत्माको ही आधारभित्ति मानकर चलते हैं। अपौरुषेय वेद एवं तन्मूलक आर्षशास्त्र तथा तदविरुद्ध तर्कके आधारपर तत्त्वका निर्णय करते हैं। भौतिकवादी आत्मधर्मशास्त्रादिनिरपेक्ष, तर्क, प्रत्यक्ष एवं विज्ञानके आधारपर तत्त्व-निर्णय करते हैं। पर सुधारवादी बीच-बीचमें रहना चाहते हैं। फलत: वे दोनों पक्षोंसे ही उपेक्षित रहते हैं। उनमेंसे कुछको अन्तमें भौतिकवादकी ओर जाना पड़ता है और कुछको अध्यात्मकी ओर। अराजकतावादीका कहना है कि ‘जबतक व्यक्तिको स्वतन्त्रता नहीं मिलती तबतक जनताको स्वतन्त्रता नहीं मिल सकती। अत: सब कुछ व्यक्तिके लिये होना चाहिये।’ मार्क्सवादी कहता है कि ‘जनताकी स्वतन्त्रतासे ही व्यक्तिको स्वतन्त्रता मिलती है। अत: सब कुछ जनताके लिये ही होना चाहिये।’ पर रामराज्यवादीकी दृष्टिमें व्यक्ति और समाज दोनोंका समन्वय ही ठीक है। समष्टिकी सुख-समृद्धि और स्वतन्त्रतासे व्यक्तिके अभ्युदयमें सुविधा होती है। अनुकूल साधन और वातावरणसे आदमी उन्नतिके मार्गमें अग्रसर हो सकता है।
इसके साथ ही जैसे एक-एक वृक्ष कट जानेसे वन कट जाता है, एक-एक सैनिक कट जानेसे सेना कट जाती है, वैसे ही एक-एक व्यक्तिके धनवान्, बलवान् बन जानेसे समष्टि बलवान्, धनवान् बन जाता है। व्यक्तियोंके निर्धन, अयोग्य हो जानेसे समष्टि निर्धन एवं अयोग्य हो जाता है। जहाँ व्यष्टि-समष्टिके हितोंमें विरोध हो, वहाँ समष्टिके अविरुद्ध ही व्यष्टिको आत्महित-साधनमें प्रवृत्त होना अनिवार्य होगा। व्यक्तिको समाजहितका, समाजको राष्ट्रहितका, राष्ट्रको विश्वहितका ध्यान रखना अनिवार्य होगा। समष्टिको हानि पहुँचाकर आत्महित साधना निन्द्य समझा जायगा। मार्क्सवादियोंके मतानुसार ‘सुधारवादी न होकर क्रान्तिवादी होना चाहिये। विकासका क्रम आन्तरिक असंगतियोंके खुलनेसे आगे बढ़ता है। इन असंगतियोंपर विजय पानेके लिये इन्हींके आधारपर विरोधी शक्तियोंसे संघर्ष होता है। अत: मजदूरोंका वर्ग-संघर्ष स्वाभाविक तथा अनिवार्य घटना है। इसीलिये पूँजीवादी असंगतियोंपर पर्दा न डालकर उन्हें खुलासा करना चाहिये। वर्ग-संघर्ष रोकनेका प्रयत्न न कर उसे उसके अन्तिम परिणामतक ले जानेका प्रयत्न करना चाहिये। अत: बिना मुलाहिजेकी सर्वहारा श्रेणी वर्गनीतिका पालन आवश्यक है।’ सर्वहारा और पूँजीवादियोंके हित-सामंजस्य करते ही सुधारवादी नीति या पूँजीवादके समाजवादमें विकसित होनेकी समझौतावादी नीतिका अनुसरण उचित नहीं है। इसे ही समाजके जीवन एवं इतिहासपर लागू की जानेवाली द्वन्द्वात्मक प्रणाली कही जाती है। रामराज्यवादी सर्वत्र अनिन्दित व्यक्ति या वर्गोंमें सामंजस्यके साथ अभ्युदयोन्मुखी प्रगतिको श्रेयस्कर समझते हैं। वर्गसंघर्ष दुष्प्रचारमूलक ही होता है। मन्थराने राम और भरतमें फूट डालकर संघर्ष डालना चाहा, पर सफल न हुई। इसी तरह अच्छे लोगोंमें वर्गवाद सफल नहीं होता।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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