6. वर्ग-संघर्ष
‘वर्गसंघर्ष’ मार्क्सवादका एक मूल सिद्धान्त है। ऐतिहासिक विवेचनसे वह इसी निष्कर्षपर पहुँचता है कि समाजका विकास वर्गसंघर्षसे प्रभावित होता है। समाजमें दो वर्ग होते हैं—शोषित तथा शोषक। उत्पादनके साधनोंपर जिनका अधिकार होता है, वह शोषक वर्ग है; दूसरा शोषित। प्रत्येक नियम, रीति, रिवाज, दर्शन, कला, इतिहास—सभी वर्ग-संघर्षके विचारोंसे प्रभावित होते हैं। उत्पादनके साधनोंमें परिवर्तनके साथ सामाजिक मान्यताओंमें परिवर्तन होता रहता है। इस स्थितिमें कोई भी नियम ऐसा नहीं, जो शाश्वत कहा जा सके। शाश्वत नियमोंका नारा पूँजीवादी दार्शनिकोंद्वारा व्यक्तिगत सम्पत्तिकी सुरक्षा तथा शोषणको प्रोत्साहित करनेके लिये लगाया गया।
कहा जाता है कि संसारमें सबसे पहले फ्रांसने समानता, स्वतन्त्रता एवं भ्रातृताका नारा बुलन्द किया। मार्क्स उसीसे प्रभावित होकर साम्यवादीकी ओर आकृष्ट हुआ, परंतु उसने देखा कि फ्रांसमें समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताके नारे ही नारे हैं, व्यवहारमें घोर वैषम्य विद्यमान है। कोई तो महाधनवान्, सर्वसाधनसम्पन्न है और कोई महादरिद्र एवं दु:खी है। मार्क्सको इसका कारण ढूँढ़नेसे ज्ञात हुआ कि समाजमें धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, आर्थिक शाश्वत नियमोंपर दृढ़-विश्वास बना हुआ है और समाज उन शाश्वत नियमोंको अपरिहार्य मानता है। फलत: लक्षपति, कोटिपतिका पुत्र स्वभावत: धनवान् होता है; भूमिपति, मकानमालिक आदि सभीकी संतानें सम्पन्न होती हैं। इस तरह समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताकी बातें करते हुए भी कुछ लोगोंकी व्यक्तिगत सम्पत्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। गरीब-गरीब ही बने रहेंगे और व्यावहारिक आर्थिक दृष्टिमें समानता नहीं हो सकेगी। इसलिये आर्थिक असन्तुलन या अर्थवैषम्य दूरकर व्यावहारिक समानता लानेके उद्देश्यसे मार्क्सने अर्थ-सम्बन्धी प्राचीन नियमोंका खण्डन किया, परंतु यह संगत नहीं है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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