4.14 कर्मविपाक और विकासवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.14 कर्मविपाक और विकासवाद

जड प्रकृतिसे विश्वका विकास माननेपर ईश्वरवाद और कर्मवादसे विरोध बतलाया जाता है। यह पक्ष उचित ही प्रतीत होता है कि जैसे बीज, धरणी, अनिल और जलके संसर्गसे अपने-आप अंकुर, नाल, स्कन्ध, शाखा, उपशाखा, पत्र, पुष्प, फलसमन्वित होता है, वैसे ही प्रकृति अपने आप ही महदादिक्रमेण समस्त प्रपंचाकारेण परिणत होती है। विद्युत्कणों या परमाणुओंसे बहुत-से सूर्यादि ग्रह, फिर पृथ्वी और उसपर घास, फूल, वृक्ष, फिर मांसमय ग्रन्थियाँ, फिर जलजन्तु, पक्षी, वानरादि क्रमसे मनुष्यका प्रादुर्भाव हुआ, परंतु ईश्वरवादी कहता है कि जड प्रकृतिको जब कुछ ज्ञान ही नहीं, तब वह सुव्यवस्थित विचित्र विश्वका निर्माण कैसे कर सकती है? अत: सर्वज्ञ ईश्वर मानना चाहिये। साथ ही विश्ववैचित्र्यका निमित्त कर्मवैचित्र्य भी मानना पड़ेगा। वृक्ष, लता, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, देवता, दानव, मानव आदिकोंमें सुख-दु:खकी विचित्रताके लिये कर्मोंकी विचित्रता मानना ही चाहिये। कर्मोंको बिना माने वस्तुओंका सौष्ठव, असौष्ठव, भोग-सामग्रीकी बहुलता-हीनता आदि कैसे सिद्ध हो सकते हैं? जडवादी सब कुछ ‘प्रकृतिके स्वभाव’ से ही मान लेता है; परंतु ईश्वरवादी, धर्मवादी इसे अनुचित मानते हैं।
विचार करनेसे ईश्वरवादीके कर्मानुसार व्यवस्थामें भी दोष प्रतिभासित होते हैं। ईश्वरवादी कर्मके अनुसार समस्त व्यवस्थाका उपपादन करते हैं, परंतु कर्म यदि समस्त जन्तुओंको कर्मोंका फल माना जाय तो अनन्त तृण, वीरुध, वृक्ष, ज्ञानशून्य प्राणियोंको कर्मका ज्ञान ही नहीं है, फिर उनके किन कर्मोंके अनुसार उनका अग्रिम जन्मादि माना जायगा? साथ ही पशु-पक्षियों, कीट-पतंगोंको धर्माधर्मका ज्ञान ही नहीं, फिर वे कैसे धर्मका अनुष्ठान और अधर्मका परिवर्जन कर सकते हैं? इसके सिवा सर्प, व्याघ्रादि कितने ही स्वभावानुसारी प्राणियोंसे तो पाप ही अधिक बनता है, फिर तो उनके उद्धारका समय ही न आयेगा। पापकर्मसे अधम योनियाँ, अधम योनियोंसे पुनरपि पाप होता ही जायगा, परंतु कहा जाता है कि कर्मका अधिकारी केवल मनुष्य ही है और सब भोगयोनि है। मनुष्यशरीरसे ही प्राणी कर्म करके अनेक योनियोंमें कर्मफलोंको भोगता है। अधम कर्मोंसे अधम योनियोंमें, उत्तम कर्मोंसे देवादि उत्तम योनियोंमें फिर भोगा जाता है। इस कथनके अनुसार यह भी मालूम पड़ता है कि देवता, असुर, राक्षसादिकोंके लिये भी विधि-निषेध नहीं है। वे भी भोग-योनियाँ ही हैं। यहाँतक कि भारतवर्षके ही मनुष्य कर्मके अधिकारी हैं, अतएव उन्हींमें वर्णाश्रमानुसार कर्म एवं तद‍्बोधक वेदादि शास्त्र हैं। तद्भिन्न अष्ट वर्ष, जम्बूद्वीपके और समस्त छ: द्वीप तथा त्रयोदश भुवनके सभी प्राणी केवल कर्मोंके फल ही भोगते हैं। वे कर्मके अधिकारी नहीं, इसलिये विधि-निषेधके भी अधिकारी नहीं हैं। शास्त्रोंसे यह भी प्रमाणित होता है कि इन्द्रादि देवताओं, असुरों एवं राक्षसोंमें भी पुण्य-पाप कुछ माना जाता था, अतएव यज्ञादिकोंका अनुष्ठान उनमें भी सुना जाता है और नहीं तो कुछ माता, दुहिता आदिकोंका सम्भोग आदि पाप और उपासना ज्ञानादि पुण्य तो माने ही जाते थे। इसी तरह सुग्रीव-बालि-जैसे वानरों, जटायु-सम्पाति-जैसे गृध्रादि, गरुड़ादि पक्षियोंमें भी पुण्य-पापकी भावना सुनी जाती है। फिर भी प्रधान सिद्धान्त यही है कि भारतीय मनुष्य ही कर्माधिकारी हैं, अतएव यहींसे भोग, मोक्ष सब कुछ सिद्ध होता है और यहींके समस्त कर्मठ कर्मफलभोगार्थ भिन्न योनियोंमें जाते हैं।
कुछको ईश्वरीय सृष्टिके मूल कर्मको माननेवालोंके इस सिद्धान्तपर भी संशय होता है कि ‘कथंचित् उत्तरकुरु—जैसे देशोंके दिव्य मनुष्योंको भले ही भोगयोनि मान लें, पर भारतके बाहर रहनेवाले मनुष्योंको कर्माधिकारी क्यों नहीं माना गया? कहा जा सकता है कि स्वर्गियोंके समान वे भी कर्मफलोंके भोगार्थ हैं। यदि सर्वत्र कर्म-परम्परा मानते जायँगे, तब तो फिर कर्मोंकी समाप्ति ही न होगी, अत: कहीं कर्मभोग ही मानकर कर्म न माननेसे भोगद्वारा कर्मोंकी समाप्ति सम्भव है, परंतु आजके यूरोपीय, अमरीकन, रूसी, चीनी, अफ्रीकन आदि मनुष्योंमें तो भारतीयोंसे कुछ भी भेद नहीं है, फिर उन्हें कर्मका अधिकारी क्यों न माना जाय और वहाँ ईश्वरीय वेदादि शास्त्रोंका प्रचार क्यों नहीं हुआ? यदि कथंचित् यह सिद्ध किया जाय कि ‘वर्तमान उपलब्ध समस्त पृथ्वी भारतवर्ष ही है, अतएव उपर्युक्त सभी कर्मके अधिकारी हैं, इनमें सर्वत्र वेदका प्रचार भी था, प्रमादवश ही लोग अवैदिक हो गये। ब्राह्मणोंका सम्बन्ध टूटनेसे भक्ष्याभक्ष्यादिके नियम टूट गये, इसीलिये अब भी मानवधर्म, सामान्यधर्म, अहिंसा, सत्यादि नियमों, ईश्वरोपासनादि नियमोंके मनुष्यमात्र अधिकारी हैं,’ तो भी यह प्रश्न होगा कि कितनी ही जंगली, हब्शी आदि अनेक मनुष्य जातियाँ हैं, जिनमें मालूम पड़ता है, कभी भी धर्म-कर्मकी भावना ही नहीं थी। उन्हें पुण्य-पाप होता है या नहीं? यदि नहीं होता, तो क्यों? यदि ‘अज्ञानी होनेसे’, तब तो किसी अंशमें ज्ञानी होना भी अपराध कहा जा सकता है। ज्ञानी होनेसे पुण्यके अनुष्ठानसे स्वर्गादि सुख प्राप्त करना तो अच्छा है, परंतु ज्ञानी होकर पापकर्म करके नरकादि महान् कष्टोंको भोगना तो अनिष्ट ही है। यदि अज्ञानी होनेसे ही वनमानुषादि अनेक जंगली मनुष्य हिंसादि पापोंका फल नहीं भोगते, तब तो हिन्दुओंको पापोंका ज्ञान ही अपराध हुआ। यदि ज्ञान न हो, तो वे भी पापफलसे मुक्त हो जायँगे, इसलिये पापफलसे डरनेवालोंको चाहिये कि वे अपने बच्चोंको ज्ञानी न होने दें। इसके अतिरिक्त, एक ब्राह्मण बालक ज्ञानी होनेके लिये वेदादि शास्त्रोंका अध्ययन न करे, तो यह भी पाप ही समझा जाता है। इसी तरह जंगलियोंका भी ज्ञानके लिये प्रयत्न न करना भी पाप ही समझा जाना चाहिये। फिर जैसे राजकीय कानूनमें अपराधका फल भोगना ही पड़ता है, ‘मैं नहीं जानता था’, यह कहनेसे काम नहीं चल सकता, जैसे विष जाने, बिना जाने अपना फल देता ही है, वैसे ही यदि धर्माधर्म कोई वस्तु हैं, तो वे जाने, बिना जाने, अपना फल देंगे।’
‘कहा जा सकता है कि विज्ञान भी एक तरहका कर्म ही है, अत: इसका होना, न होना भी फलोंमें विशेषता सम्पादन करता है। जैसे हथकड़ी-बेड़ीसे जिस व्यक्तिके हस्त-पादादि जकड़े हैं, जो असमर्थ है, उसके लिये करने, न करनेका विधि-निषेध नहीं हो सकता। समर्थके प्रति ही विधि-निषेध होते हैं, अत: जिनमें जो सामर्थ्य है ही नहीं—(जैसे पशुओंमें किसी ग्रन्थ पढ़नेकी) उन्हें उस सामर्थ्यके सम्पादनका विधान भी नहीं किया जा सकता। अतएव उस विधानके पालन न करनेसे वे अपराधी भी नहीं माने जा सकते। ऐसी स्थितिमें यह आया कि भगवान‍्ने जिनको कर्म करनेके देश-कालमें और कर्म करने एवं तदुपयोगी ज्ञान-सम्पादनमें योग्य—समर्थ बनाया, यदि वे विधि-निषेधका उल्लंघन करते हैं तो वे ही अपराधी माने जाते हैं।’ परंतु इससे यह भी सिद्ध होगा कि जो लोग भारतमें भी आर्यों या अन्य धर्मानुयायियोंमें हैं, उन्हें भी ज्ञान-सम्पादनकी सामग्री न मिली, उचित माता-पिता, उचित संग-सहवास न प्राप्त हुआ; अतएव जिज्ञासा ही न हुई। फिर उनके ज्ञान न सम्पादन करनेमें उनका कोई दोष न होना चाहिये। साथ ही उनको पापादिका फल भी न भोगना चाहिये। इसी तरह जंगलियोंमें भी मनुष्य होनेके कारण यद्यपि ज्ञान-सामर्थ्य है तथापि संग-सहवास आदि ज्ञानकी सामग्री नहीं है अथवा वैदिक धर्म, कर्म, ज्ञानके विपरीत ही सामग्री है। तब शुद्ध ज्ञानके न सम्पादन करनेमें उनका क्या दोष है? फिर यदि वे वेदके विपरीत वेदोंसे निषिद्ध समस्त पातकोंको करें, तो उनका क्या दोष और उनको नरकादि दु:ख क्यों होगा? यदि भावना न होनेसे उनके वेद-निषिद्ध आचरणसे भी कोई दोष न माना जाय, तब तो यह मानना पड़ेगा कि भावना ही धर्माधर्म है, उससे भिन्न कोई धर्माधर्म नामकी वस्तु नहीं है। फिर तो यह भी मानना पड़ेगा कि वैदिक धर्म भी किसीकी दृष्टिसे पुण्य, किसीकी दृष्टिसे पाप होगा। उस दशामें धर्मका कोई निश्चित स्वरूप तथा निश्चित फल न रहा और फिर पशुओं, पक्षियोंके समान ही पर-स्त्री-गमनादिमें या तो मनुष्योंको भी पापादि न होगा या तो पक्षी-पशु आदिकोंको भी होगा ही, क्योंकि कोई-न-कोई भावना सर्वत्र ही है।
‘इनके सिवा भारतीयों या मनुष्यमात्रको भी यदि कर्मयोनि मान लें, तो भी कर्मकी व्यवस्था नहीं बैठती; क्योंकि मनुष्योंकी संख्या प्रतिपरार्ध एक भी नहीं है। फिर इतने मनुष्य कब हुए, जो मनुष्य-शरीरमें कर्म करके उनका फल भोगनेके लिये पशु, पक्षी, कीट, पतंग और तृण-वीरुधोंमें गये? जब मनुष्य उत्पन्न हुए ही नहीं थे, तभी पहलेसे असंख्य तृण, वीरुध, वृक्ष पृथ्वीपर हैं, वे भी जीव ही हैं। यदि वे कर्मफल भोग रहे हैं और कर्मयोनि मनुष्य ही है, तो वे कभी मनुष्य रहे होंगे, यह भी मानना पड़ेगा, परंतु कभी भी इतने मनुष्य रहे होंगे, यह कल्पना भी नहीं हो सकती। समुद्रोंमें अपरिगणित जातिके कीट, टिड्डी, पिपीलिका, पतंग ऐसे अचिन्त्य जीव हैं, जिनकी संख्याका कभी भी पता नहीं लग सकता। यह सब कभी मनुष्य रहे होंगे, यह कल्पना नहीं हो सकती। यदि कहा जाय कि ‘अनादि सृष्टिमें कभी-न-कभी वे सब मनुष्य रहे होंगे,’ तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जब मनुष्य रहे, तब तृणादि तो अवश्य ही रहे होंगे। कम-से-कम भोजनके लिये अन्न रहे होंगे। अन्नकी भी सम्पूर्ण ओषधियाँ जीव ही हैं। वे भी कर्मफल ही भोग रहे हैं। फिर कभी जन्तु न रहे हों, यह नहीं कहा जा सकता। वैज्ञानिक लोग जलोंमें भी अपरिगणित कीटोंको दिखलाते हैं, प्राणियोंके रूपोंको भी कीटमय ही बतलाया जाता है। फिर वे सब जीव, मनुष्य जब कभी भी रहा होगा, तब भी अवश्य ही रहे होंगे। ऐसी स्थितिमें उन सबका कभी मनुष्य होना कैसे सम्भावित हो सकता है? हाँ यदि कतिपय कल्प या कतिपय ब्रह्माण्ड ऐसे माने जायँ, जहाँ केवल मनुष्य ही असंख्येय मात्रामें हों और कोई भी जन्तु या तृणादि वहाँ न हों और वे ही जीव वर्तमान उपलब्ध संसारोंमें तृण, कीटादि रूपमें भोग भोग रहे हैं, तब कुछ समाधान हो सकता है, परंतु इसमें कोई प्रमाण भी तो होना चाहिये। उनके खानेकी चीज क्या थी? तृण, जल, अन्न बिना वे रहते थे, रक्तादि उनके देहमें नहीं थे, कीटोंका भी संसर्ग नहीं था, फिर भी वे पाप करते थे, जिससे यहाँके तृणादि हुए। उस ब्रह्माण्डको इतना बड़ा मानना होगा कि इस ब्रह्माण्डके परमाणु प्रदेशपर भी मरे हुए जीव वहाँ मनुष्य बनकर पाप करें। फिर जब उनको खाना नहीं, रक्त-वीर्य न होनेसे व्यभिचार नहीं, तब पाप ही कैसे और कौन करेंगे? यह सब यदि दृढ़तर प्रमाणसे प्रमाणित हो, तभी कर्मकी व्यवस्था हो सकती है, परंतु कोई भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता।
‘कुछ लोग कहते हैं कि ‘ज्ञानवान् और समर्थ होनेपर ही जीव कर्ममें स्वतन्त्र होते हैं, इसके पहले वे प्राकृतिक कर्मप्रवाहमें ही बहते रहते हैं। अर्थात् प्रकृति स्वभावसे तमोगुणप्रधाना होकर जिस समय जड राज्यकी ओर प्रवाहित होती है, उस समय प्राय: तदन्त:पाती सभी जीव जडताको प्राप्त हो जाते हैं। फिर स्वभावसे ही वही प्रकृति जब रजोगुणक्रमेण सत्त्वगुणकी ओर प्रवाहित होती है, तब स्वभावसे ही जडता मिटती जाती है, चेतनता विकसित होती जाती है। फिर मनुष्य होनेपर जीव स्वतन्त्र कर्म करके उन्नति या अवनतिकी ओर जा सकता है, अन्यथा प्रकृति-प्रवाहके अनुसार ही उसकी देवादिपर्यन्त उन्नति होती है, क्रिया-ज्ञानशक्तिका विकास चलता है, फिर स्वभावसे ही तमोगुणकी ओर प्रवाह बदलनेसे स्थावरान्ता अधोगति होती है। जैसे असमर्थ शिशुका समस्त कार्य माता करती है, वैसे ही जीवोंका समस्त कार्य माया ही करती है।’
परंतु यह पक्ष भी संगत नहीं जँचता; क्योंकि एक तो विकासवादसे भिन्न यह कोई पक्ष ही नहीं है, दूसरे यदि हर एक कर्मोंका भी मूल कर्म ही है, तो प्रकृतिका परिणाम भी किंमूलक है? प्रकृतिकी साम्यावस्था और वैषम्यावस्था क्यों होती है? क्यों जडराज्यकी ओर उसका प्रवाह होता है? क्यों चैतन्यराज्यकी ओर परिणाम होता है? यदि इन सबका मूल कर्म मानें, तो वह किसका? चेतनोंका या अचेतनोंका? यदि चेतन-सम्बन्ध-शून्य जड़ोंका ही कर्म कहा जाय, तो उसका फल भी उसीको होना चाहिये, चेतन उसका फलभागी क्यों होगा? यदि इतना महत्त्वपूर्ण कर्म बिना कर्मसे ही हुआ, तो और भी अपेक्षित शय्या, प्रासादादि भी कर्मके बिना ही सम्पन्न हो सकेंगे। फिर उनमें कर्मकी क्या अपेक्षा और फिर ईश्वर कर्म-सापेक्ष ही प्राणियोंको भिन्न-भिन्न कर्मोंमें प्रवृत्त करता है, इसका क्या अर्थ है?
‘एष एव साधुकर्म कारयति यमेभ्योऽधो निनीषते’,
(कौषीत० उप०)
‘वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्।’
(ब्रह्मसूत्र २।१।३४)
इत्यादि श्रुति-स्मृतियोंका क्या अर्थ है? फिर तो वह विकासवाद ही उचित प्रतीत होता है, जिसमें स्वतन्त्र प्रकृतिसे ही विलक्षण प्रकारके पदार्थोंका विकास होता है।
प्रकृति या परमाणु आदिकोंसे निर्मित ही किसी विलक्षण प्रपंचका प्रादुर्भाव होना भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। जब कोई भी लौकिक शय्या, प्रासाद, यन्त्र, यानादि बिना ज्ञानेच्छाप्रयत्नसम्पन्न चेतनके नहीं बन सकते, तब मन, बुद्धि, इन्द्रिय, मस्तिष्कादिसहित शरीर एवं अनेक विचित्र सुख-दु:ख सामग्रियाँ जीवको यों ही प्राप्त हो गयीं, यह कैसे कहा जा सकता है? फिर यदि चेतन जीव देहादिसे भिन्न नित्य है, तो यह जिज्ञासा बनी ही रहेगी कि आखिर उसे शुभाशुभ शरीरोंकी प्राप्तिमें क्या निमित्त है? अत: ‘अकृताभ्यागम, कृतविप्रणाशादि’ अनेक दोषोंके वारणार्थ देहादिसे भिन्न, नित्य, चेतन जीव और उसके विचित्र सुख-दु:ख, तत्सामग्री आदिकी प्राप्तिके अनुकूल शुभाशुभ कर्म मानना ही चाहिये। देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदिकी चेष्टाओंकी विचित्रतासे लोकमें भी फलकी विचित्रता दृष्ट है। आयुर्वेद, शिल्प, विज्ञान, संग्रामादि लौकिक स्थलोंमें कर्मकी विचित्रतासे फलकी विचित्रता सम्प्रतिपन्न है। अत: सम्पूर्ण विश्व-वैचित्र्यका मूल भी कर्मवैचित्र्य ही होगा, यह बात सरलतासे समझमें आ सकती है। जिन विचित्र कार्योंका हेतुभूत विचित्र कर्म दृष्ट नहीं है, वहाँ भी अनुमान करना चाहिये। तथा च समष्टि-व्यष्टि विश्वकी विचित्रताका मूल समष्टि-व्यष्टि प्राणियोंके विचित्र कर्म ही हैं। किस विचित्र कार्यका हेतु कौन विचित्र कर्म है, यह जाननेके लिये जहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान प्रमाण मिलते हों, वहाँ प्रत्यक्षानुमानसे मानना चाहिये। जहाँ प्रत्यक्षादि प्रमाण न मिलते हों, वहाँ शास्त्रसे जानना चाहिये। देखते ही हैं कि जिन बहुत-से कार्यकारणभावका निर्णय प्राणियोंकी अल्पज्ञ बुद्धि नहीं निर्धारण कर सकती, उनका निर्णय योगियों, महर्षियोंकी बुद्धिसे होता है। कोई भी प्राणी आयुर्वेदोक्त ओषधियोंके गुण-दोषोंका अन्वय-व्यतिरेकादि युक्तियोंसे अनुभव करके सहस्रों जन्मोंमें निर्णय नहीं कर सकता, फिर उन अपरिगणित ओषधियों और उनके अपरिगणित सम्प्रयोग-विप्रयोगसे व्यक्त होनेवाले अपरिगणित गुण-दोषोंका निर्णय कौन कर सकता है? फिर भी उनका प्रत्यक्ष फल देखकर उनके निर्धारयिताओंकी धर्मयोगादिजन्य विशेषता माननी पड़ती है। यही स्थिति मन्त्रोंकी भी है। विभिन्न वर्णोंकी पौर्वापर्यरूप विचित्र आनुपूर्वीका विचित्र सामर्थ्य प्रत्यक्ष दिखायी देता है। मन्त्र एवं आयुर्वेदादि शास्त्रोंकी सत्यता देखकर उनके निर्माताओंकी विशेषता विदित होती है। फिर आयुर्वेदादि निर्माताओंद्वारा वेदादि धर्मशास्त्रोंकी महिमा सुनकर वेदोंकी ईश्वरीयता या अपौरुषेयता विदित होती है और उन्हींके द्वारा देहादिसे भिन्न आत्मा, जगदुत्पत्ति, जगत‍्का वैचित्र्य तथा उसके मूल धर्माधर्मका परिज्ञान होता है। किन कर्मोंसे क्या सुख-दु:ख एवं तत्सामग्री आदि फल प्राप्त होता है, कौन योनि किन भावना और कर्मोंसे प्राप्त होती है, यह सब शास्त्रोंसे ही मालूम पड़ता है।
कुछ कर्म ऐसे हैं, जिनकी समाप्ति फल प्राप्त कराकर ही होती है—जैसे गमन, भोजनादि। कुछ कर्म अपना फल कालान्तरमें देते हैं, जैसे क्षेत्रमें बीज बोना आदि। कुछ वस्तुओंका खाना, छूना आदि भी शनै:-शनै: कालान्तरमें ही फल देता है। इसी तरह किन्हीं कर्मोंका फल कर्मकी ही महिमासे दृष्टानुसार होता है। उदाहरणार्थ आयुर्वेदिक, होमियोपैथिक आदि औषधोंका। जैसे कुछ सेवादि कर्म स्वामी आदिकी प्रसन्नता सम्पादनादिद्वारा फलपर्यवसायी होते हैं, वैसे ही कुछ कर्म इसी देहमें फल देते हैं, कुछ परलोकमें दूसरे देहद्वारा फल देते हैं। समष्टि-व्यष्टि जगत‍्के धारण-पोषण एवं लौकिक-पारलौकिक उत्थानके अनुकूल देहेन्द्रियमनोबुद्धि आदिकोंकी ईश्वरीय शास्त्रादिष्ट हलचल ही धर्म है। विपरीत कर्म अधर्म है। उन सबको जानकर यथावत् फलप्रदान करनेके लिये ही सर्वत्र सर्वशक्तिमान् परमेश्वर भी मान्य होता है। फिर भी असमर्थके लिये विधि-निषेध नहीं हो सकता, अतएव अन्ध, बधिर, उन्मत्त मनुष्य या विवेकशून्य अन्य प्राणियोंके लिये विधि-निषेध सम्भव नहीं है। केवल उनके स्वाभाविक कर्मोंके ही जो सुपरिणाम, दुष्परिणाम होते हैं, वही हो सकते हैं, किंतु मनुष्योंके लिये शास्त्रोक्त कर्म हैं ही। विशेष संस्कारसे जिन सुग्रीव, बालि-जैसे वानरों और जटायु, सम्पाति-जैसे गृध्रों या अन्यान्य खगों, मृगोंको, जिनको धर्माधर्म और अधिकारका ज्ञान है, उन्हें अधिकारानुसार उन कर्मोंका अनुष्ठान करनेसे पुण्य-पाप होता है। देवता, असुर, नाग, गन्धर्व आदिकोंको भी संस्कारवशात् शास्त्रका बोध है। अत: उन्हें भी यद्यपि वर्णाश्रमधर्मके अनुष्ठानका तो अधिकार नहीं है, तथापि उपासनाओं, विद्याओं तथा कुछ कर्मोंमें अधिकार है। दुहितृ-गमनादि निषिद्ध कर्मोंके अनुष्ठानसे पापादि भी होता है। इस तरह बहुत-सी कर्मयोनियाँ हो जाती हैं। उनसे भिन्न कीट, पतंग, वृक्षादि भोग-योनियाँ हो जाती हैं। कर्मयोनि-भोगयोनिका अन्तर माननेसे जीवोंके पुनरुत्थानका अवसर बना रहता है। उच्चकोटिकी योनिमें उत्पन्न प्राणियोंके किये हुए कर्मोंसे इतर योनियोंमें भोग भोगनेके लिये जाना पड़ता है।
वैसे तो कर्मोंसे ही समस्त योनियोंकी प्राप्ति है, परंतु किसीमें नये कर्म भी बनते हैं, कोई केवल भोगके लिये होती हैं। अधिक पुण्य होनेपर स्वर्गीय देवादि योनियोंकी प्राप्ति होती है। किन्हींसे नरक और कीटादि योनियोंकी प्राप्ति होती है। उत्तम, मध्यम, अधमभेदसे त्रिविध-तामस, त्रिविध-राजस, त्रिविध-सात्त्विक योनियाँ होती हैं। सामान्यरूपसे मनुष्यपर कर्तव्याकर्तव्यकी अधिक जिम्मेदारी रहती है। कानून समर्थ लोगोंसे आशा रखता है कि वे उसे जानें और मानें, अतएव वह यह नहीं सुनता कि ‘हम इस नियमको नहीं जानते थे।’ किसी भी तरह प्रमादवश धर्म-कर्मका ज्ञान और अनुष्ठान मनुष्योंसे मिट जाना उनका अक्षम्य अपराध है। धर्म ही एक उनकी विशेषता है। धर्मके बिना तो वे भी पशुओंके ही समान होते हैं—‘धर्मेण हीना: पशुभि: समाना:।’ यद्यपि विशिष्ट-कर्म भारतवर्षके मनुष्योंमें ही हैं, तथापि सामान्यरूपसे पुण्य-पाप सभी द्वीपोंके मनुष्योंको होता है। पुराणोंकी परिभाषाके अनुसार इस समयकी उपलब्ध समस्त भूमि भारतवर्ष ही है। अन्य अदृश्य द्वीपों, वर्षोंके मनुष्यों, नागों, गन्धर्वों तथा अनेक देवभेदों तथा समर्थ अन्यान्य योनिके लोगोंको भी साधारण पुण्य-पाप होते हैं। नागों, देवों आदिकोंकी संख्याका पारावार नहीं है। फिर भी यद्यपि कीट, पतंगादिकोंकी संख्या अधिक है, तथापि संसार अनादि और विचित्र है। ब्रह्माण्ड अनन्त हैं। अत: सभी भोगयोनिके जीवोंको कभी-न-कभी कर्मयोनिमें आना सम्भव है ही। मनुष्य-योनिमें न सही तो भी देव, नाग, गन्धर्व तथा सावधान पशु, पक्षी आदि योनिमें कभी किसी भोगयोनिके प्राणीका जन्म नहीं हुआ, यह कौन कह सकता है? जबकि एक मनुष्यशरीरसे एक दिनके किये हुए कर्मोंसे लाखों युगतक कीटादि जन्म प्राप्त हो सकते हैं, तब मनुष्य-देहके कर्म होनेपर भी अन्य देहोंको मनुष्यदेहकृत कर्मोंका फल कहा जा सकता है। जैसे किसी भवनका मुख्य दरवाजा एक होनेपर भी उसीसे निकलकर अवान्तर हजारों दरवाजोंपर मनुष्योंकी स्थिति हो सकती है, वैसे ही मनुष्यशरीररूप दरवाजाके कम होनेपर भी, उससे निकलकर प्राणी अनेक देहोंमें रह सकते हैं। अपरिगणित जीव मानस कर्मोंके ही बलसे अनेक योनियोंमें आ जाते हैं? साथ ही विचित्र ब्रह्माण्ड और विचित्र लोक ऐसे भी हो सकते हैं, जहाँ सूक्ष्म एवं अपरिगणित ऐसे समर्थ प्राणी हों, जिनके मानस आदि कर्मोंसे अनेक प्रकारकी योनियाँ प्राप्त होती हों। योगसिद्ध योगी कायव्यूह निर्माण करके अपने प्राक्तन शुभाशुभ कर्मोंको भोगकर मुक्तिपदको प्राप्त होते हैं। कायव्यूह निर्माण करके वे सहस्रों शुभ देहोंसे अपने प्राक्तन शुभकर्मोंका भोग करते हैं। ऐसे ही सहस्रों अशुभ देहोंके द्वारा अशुभ कर्मोंका उपभोग करते हैं। यहाँ कर्म कर्ता एक ही जीव होता है, परंतु फल भोगनेके लिये वह लाखों देह धारण कर लेता है। फिर भी सब देहोंमें अभिमानी जीव एक ही होता है।
इसी तरह कोई जीव विशिष्ट कर्मों एवं उपासनाओंके बलसे हिरण्यगर्भ पदको प्राप्त करता है। (समष्टि सूक्ष्म प्रपंचका अन्तर्यामी ईश्वर भी यद्यपि हिरण्यगर्भ शब्दसे बोधित होता है, तथापि प्रकृतिमें ‘पुरा औषत पुरुष:’ श्रुतिके अनुसार जो जीव अन्य हिरण्यगर्भ पदके उम्मीदवारोंको हराकर या दग्ध करके विशिष्ट उपासनादि द्वारा हिरण्यगर्भ हुआ है। वह समष्टि सूक्ष्म प्रपंचाभिमानी जीव ही यहाँ हिरण्यगर्भ शब्दसे अभिप्रेत अर्थ है।) वह हिरण्यगर्भ दिव्य शक्तिसम्पन्न है। वह एक होता हुआ कायव्यूह निर्माण करके अनन्त देहोंको धारण करता है। इस तरह कर्म कर्ताओंके कम होनेपर भी भोक्ताओंकी आनन्त्य प्रतीति संगत हो जाती है।
इसके अतिरिक्त कितने कर्म ऐसे होते हैं, जो जाने, बिना जाने किसी भी तरह हो जानेपर फलजनक होते हैं, जैसे विष; जाने, बिना जाने किसी भी तरह पीनेसे उसका फल होता है। किन्हीं मूषकोंकी शिवमन्दिरमें दीपककी बाती उसका देनेसे, किसी पक्षीकी बाजके भयसे अन्नपूर्णाकी परिक्रमा कर लेनेसे सद‍्गति हुई है? इसी तरह बहुत-से ऐसे जीव हैं, जिनके शरीर सूक्ष्म तन्मात्राओंके ही बने होते हैं। उनके द्वारा बहुत-से मानस कर्म होते हैं। उनकी संख्या भी अपार है। ‘जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।’ एक वटबीजके भीतर वटवृक्ष, उसमें अपरिगणित फल, उससे फिर अगणित बीज और उनमें वृक्ष, इस दृष्टिसे जैसे एक वटबीजमें अनन्तकोटि वटवृक्षोंकी असम्भावना हो सकती है, वैसे ही एक परमाणुके पाँचवें अंश स्पर्शतन्मात्रामें वायु, उसके एक देशमें प्राण और उसके एक देशमें मन तथा मनमें ब्रह्माण्ड होता है। फिर ब्रह्माण्डके अनन्त मनोंमें अनन्त ब्रह्माण्ड होते हैं। एक क्षणके स्वप्नमें अपरिगणित जीव दिखायी देने लगते हैं। फिर उनके कर्मों और भोगोंका सिवा ईश्वरके और किसको पता लग सकता है? फिर विद्वान् तो फल-बलसे कारणकी कल्पना करते हैं। कार्य देखकर कारणकी कल्पना करनी उचित है। अत: भोगयोनिके जीवोंको देखनेसे ही उनका कर्मयोनिमें जन्म सिद्ध हो जाता है। अत: सर्वज्ञ ईश्वर प्राणियोंके शुभाशुभ कर्मानुसार ही विश्वको रचता है। स्वतन्त्र जड प्रकृति या परमाणुओंसे विश्वकी उत्पत्तिकी कल्पना तो सर्वथा ही बेतुकी बात है। प्राणियोंके शुभाशुभ कर्मोंकी वासनाओंसे वासित प्रकृति भी कर्मानुसार ईश्वराधिष्ठित होकर ही अपने प्रवाहमें निपतित जीवोंको चैतन्य-साम्राज्य या जड-साम्राज्यकी ओर प्रवाहित करती है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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