6.2 व्यक्तिगत सम्पत्ति
भारतीय धार्मिक, राजनीतिक शास्त्रोंने व्यक्तिगत सम्पत्तियोंको वैध माना है। मन्वादि धर्मशास्त्र, मिताक्षरा आदि निबन्धग्रन्थमें कहा गया है कि पितृपितामहादिकी सम्पत्तियोंमें पुत्रपौत्रादिका जन्मना स्वत्व है। गर्भस्थ शिशुका भी पिता-पितामहादिकी सम्पत्तिमें स्वत्व मान्य है। अतएव दायके रूपमें प्राप्त चल, अचल धन पुत्रादिका वैध धन है। इसी प्रकार निधि लाभ, मित्रोंसे मिली, विजयसे प्राप्त, गाढ़े पसीनेकी कमाईसे खरीदी हुई सम्पत्ति, पुरस्कार तथा दानमें प्राप्त एवं उद्योग, कृषि, व्यापारादि तथा उचित सूद आदिद्वारा प्राप्त सम्पत्ति वैध-सम्पत्ति समझी जाती है—
सप्त वित्तागमा धर्म्या दायो लाभ: क्रयो जय:।
प्रयोग: कर्मयोगश्च सत्प्रतिग्रह एव च॥
(मनु० १०।११५)
प्राय: आज भी सभी देशोंमें सम्पत्ति-सम्बन्धी नियम ऐसे ही हैं। किसीकी व्यक्तिगत सम्पत्ति, भूमि, मकान आदिपर उनके उत्तराधिकारियोंका अधिकार रहता है, सरकार भी अगर किसीकी कोई वस्तु सार्वजनिक हितकी दृष्टिसे लेती है तो उसे मुआविजा देती है। भारतमें भी जमींदारी, जागीरदारीका मुआविजा दिया गया है; राजाओंसे राज्य लेकर उन्हें कुछ सालाना दिया जा रहा है। इससे सिद्धान्तत: भारत-सरकारने बाप-दादाकी सम्पत्तिको बेटे-पोतेकी बपौती-मिलकियत होनेका सिद्धान्त मान लिया, तभी मुआविजा और सालाना देनेकी बातकी संगति लगती है, अन्यथा मुआविजा आदि देनेकी कोई संगति नहीं लग सकती। हाँ, यह बात अवश्य है कि जब राज्य या जागीरें राजाओं या जागीरदारोंकी वैधानिक मिलकियत है, वैध धन है, तब उन्हें उचित मूल्य बिना दिये और उन्हें बिना सन्तुष्ट किये मनमानी कुछ देकर अपहरण करना एक प्रकारका स्तेय ही है। आजकल कुछ लोग भूमिस्वामी कहनेमें हिचकिचाते हैं। परंतु वस्तुत: यदि कोई अपने सिरकी टोपीका स्वामी हो सकता है, अपनी झोपड़ी और पत्नीका पति हो सकता है, तो भूस्वामी होना भी कोई अनहोनी घटना नहीं। यदि दृढ़तासे अपनी टोपीकी रक्षा न की जायगी, तो गुंडे टोपी भी छीन लेंगे, अपनी थालीकी रोटीको भी उठा ले जायँगे, झोपड़ी और पत्नी भी छिन जायगी। इसलिये कुछ पुराने साम्यवादियोंका भी मत था कि मौजूदा राज्य-शासनसे अलग रहकर ही स्वतन्त्ररूपसे साम्यवादी पंचायती शासन कायम किये जाने चाहिये। नैतिक, आर्थिक भावनाओंके कारण किसीकी व्यक्तिगत सम्पत्तिमें हाथ डालना ये लोग अनुचित समझते थे।
परंतु मार्क्सके मतानुसार ‘राज्यशक्तिको ही सामाजिक क्रान्तिका एक प्रबल अस्त्र बनाया जा सकता है।’ मार्क्सने सबसे पहले इन विश्वासोंका खण्डन करना उचित समझा। तदनुसार ही उसने द्वन्द्वात्मक भौतिकवादकी स्थापना की। जिसके अनुसार आध्यात्मिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक नियमों और सिद्धान्तोंकी शाश्वतिकता और नित्यताका खण्डन किया जाता है। प्रसंगानुसार उसे आत्मा, परमात्मा एवं धार्मिक नियमोंकी अनावश्यकता सिद्ध करनेका भी प्रयत्न करना पड़ता है। इन लोगोंके मतानुसार भूत या परमाणु अथवा कुछ विद्युत्कणों अथवा प्रकृतिके हलचलसे ही प्रपंच निर्माण होता है।
‘डार्विन’ का विकासवाद तथा वैज्ञानिक आविष्कार आदि ही इनकी विचारधाराकी आधार-भित्ति है। विकासवादकी आलोचना पिछले अध्यायमें पूर्णरूपसे की जा चुकी है। यहाँ उसे दुहरानेकी आवश्यकता नहीं।
मार्क्सके मतानुसार जब मानवसमाजमें खेती आदि आरम्भ हो गयी, कुछ नियम बनने लगे और विवाह आदि चल पड़े, तब पंचायतों और मुखियोंका निर्माण हुआ; धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि अनेक प्रकारके नियम बनाये गये। इसी बीच खेतों तथा फलवान् वृक्षोंपर अधिकार प्राप्त करनेके लिये दो दलोंमें संग्राम होने लगे। संग्राममें जो लोग जीत गये, वे मालिक बन बैठे और जो हार गये, वे गुलाम बने। उसी समयसे मालिक और गुलामका जन्म हुआ और उनमें भेद, संघर्ष तथा विद्वेष उत्पन्न होने लगा। निजी सम्पत्तिकी प्रथा जबसे चली है, तभीसे दो दल तथा वर्ग परस्पर विरुद्ध रहने लगे थे। तबसे ही मनुष्यजातिका इतिहास वर्ग-कलहका इतिहास है। यह दूसरी बात है कि यह वर्गकलह कभी प्रत्यक्ष रहता है, कभी अप्रत्यक्ष। इसके फलसे या तो नवीन सामाजिक प्रणाली, नवीन स्वामित्व प्रथा, नवीन आर्थिक नियमोंका जन्म होता है या दोनों वर्गोंका लड़ते-लड़ते नाश हो जाता है। ये दोनों दल भिन्न-भिन्न स्वार्थ स्वामित्वकी प्रथा, आदर्श तथा सभ्यताके समर्थक होते हैं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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