6.4 शोषक-शोषित ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.4 शोषक-शोषित

भूमि आदिके लिये युद्ध, संघर्ष होने; मालिक-गुलाम, शोषक-शोषित, उत्पीड़क-उत्पीड़ित आदिकी कल्पना तो ह्रासकालकी बात है। सृष्टिके प्रारम्भकालमें सम्पूर्ण प्रजा धर्म-नियन्त्रित थी। उस समय सत्त्वगुणका पूर्ण विस्तार था। सभी समझते थे कि सभी प्राणी अमृतके पुत्र हैं—‘अमृतस्य पुत्रा:।’ सभी प्राणियोंकी सहज समानता, स्वतन्त्रता एवं भ्रातृताकी मूल आधार भित्तिको समझते थे। व्यवहारमें सब एक दूसरेके पोषक ही थे, शोषक नहीं, सब परस्पर एक-दूसरेके रक्षक ही थे, भक्षक नहीं। उत्पीड़क-उत्पीड़ितका भेद सर्वथा ही न था। महाभारतमें उस अवस्थाका वर्णन मिलता है—
न वै राज्यं न राजासीन्न च दण्डो न दाण्डिक:।
धर्मेणैव प्रजा: सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्॥
(महा० शां० प० ५९।१४)
अर्थात् प्रथम राज्य-राजा, दण्ड-दाण्डिक कोई भी भेद नहीं था। सभी धर्म-नियन्त्रित हो परस्पर एक-दूसरेका पालन करते थे। अपौरुषेय नित्य वेदोंके द्वारा भी आदर्श शासनका रूप दिखलाया गया है—
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यप:।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुत:॥
(छान्दो० उप० ५।११।५)
मेरे राज्यमें कोई चोर नहीं, कोई कृपण नहीं, कोई मद्यप नहीं और कोई अधिकारी होकर अनाहिताग्नि नहीं; अर्थात् कोई अस्वधर्मनिष्ठ नहीं, किंतु सभी स्वधर्मनिष्ठ हैं। मेरे राज्यमें कोई दुराचारी पुरुष नहीं, फिर दुराचारिणी स्त्री तो हो ही कैसे सकती है? आजके सभ्य कहे जानेवाले किसी भी शासनमें क्या ऐसा धार्मिक स्तर दृष्टिगोचर होता है? व्यवहारत: जहाँ शिवि, दिलीप, रन्तिदेव आदि पशु, पक्षी एवं साधारण मनुष्योंके लिये आत्मोत्सर्गतक कर देते थे, वहाँ शोषक-शोषित, उत्पीड़क-उत्पीड़ितोंके वर्ग-भेदको स्वाभाविक कहना कितना भ्रामक है, यह स्पष्ट है।
कहा जाता है कि ‘प्राचीनकालमें यूरोपके नगरोंमें निवास करनेवाले व्यापारी, कारीगर तथा मध्यमश्रेणीके लोगोंका जमींदारों-सरदारोंसे इसलिये लड़ाई हुई थी कि उनको कारीगरी एवं व्यापारकी स्वाधीनता तथा निजी सम्पत्तिको इच्छानुसार खर्च करनेकी स्वतन्त्रता मिले एवं एक राष्ट्रिय सरकार कायम हो। वही व्यापारी आदि आगे चलकर विजयी होकर पूँजीपति हो गये। उनसे भिन्न श्रमजीवी सम्पत्तिविहीन हो गये। अपने देशकी सम्पत्तिमें उनका कुछ भी हिस्सा नहीं है। दूसरी ओर पूँजीकी उत्पत्ति दिन-पर-दिन पारस्परिक सहयोगपर निर्भर होती जा रही है और पूँजी एक सम्मिलित वस्तु बनती चली जाती है। इस कारण श्रमजीवी दल अब सम्पत्तिको व्यक्तिगत बनानेके लिये न झगड़कर इसलिये झगड़ता है कि समाज जो भी माल पैदा करता है, उसको उपयोगमें लाने या बाँटनेका अधिकार भी समाजको ही हो। इस प्रकार मध्य श्रेणीद्वारा ही एक दल ऐसा पैदा हुआ, जिसका उद्देश्य है वर्ग-विशेषके उद्देश्यको नष्ट कर सार्वजनिक स्वामित्वकी प्रथा प्रचलित करना। अन्ताराष्ट्रियसंघकी बड़ी सभा सितम्बर १८६७ में स्विटजरलैंडके लोसान नामक नगरमें हुई। उसमें एक प्रस्ताव पास किया गया कि रेलोंको राष्ट्रिय सम्पत्ति बना लिया जाय। तीसरी महासभा सितम्बर १८६८ में ब्रूसेल्स (बेलजियम)-में हुई, इसमें युद्धोंका विरोध किया गया और यह भी प्रस्ताव स्वीकृत किया गया कि रेलों, खानों, जंगलों और खेतीके लायक तमाम जमीनोंको राष्ट्रिय सम्पत्ति बना लिया जाय। चौथी सभा १८६९ में हीवाल (स्विटजरलैंड) में हुई। उसमें घोर वाद-विवादके पश्चात् यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ कि उत्तराधिकारके प्रचलित सभी नियम सर्वथा निन्दनीय हैं; अत: निजी सम्पत्तिकी प्रथाको सर्वथा उठा देना चाहिये।’
विस्तृत मन्वन्तरों, युगों, कल्पों आदि महाकालको देखते हुए हजार, पाँच सौ वर्षोंका कोई महत्त्व नहीं रहता। इसलिये इस बीचके व्यक्तियों या किंचित् व्यक्ति-समूहोंसे सम्बन्धित घटनाओंका कुछ भी महत्त्व नहीं रहता। अत: कुछ व्यक्तियों या कुछ सभाओंके प्रस्तावोंके आधारपर शाश्वतिक सिद्धान्तोंमें रद्दोबदल नहीं हो सकता। इतिहासके आधारपर सिद्धान्तका निर्णय नहीं हो सकता। आये दिन अनाचार, दुराचार, पापाचारोंकी घटनाएँ घटती ही रहती हैं, फिर भी वे उपादेय नहीं समझी जातीं। डाका, चोरी, व्यभिचार, अग्निकाण्ड, हत्याकाण्डकी घटनाएँ घटती ही रहती हैं, परंतु इसीसे वे सब कर्म सिद्धान्त-कोटिमें नहीं आते। जब पूर्वोक्त युक्तिसे दाय, जय, क्रयादिद्वारा प्राप्त भूमि, सम्पत्ति आदिपर व्यक्तिगत अधिकार मान्य है, तब कुछ लोगोंके प्रस्तावों या व्यवहारोंसे उनका रद्दोबदल कैसे हो सकता है?
संसारमें प्रमाद, पुरुषार्थके भेदसे फलमें भेद होना अनिवार्य ही है। अत: दाम, आराममें विशेषता प्राप्त करनेके लिये ही प्राणी गुण, कर्ममें विशेषता लानेका प्रयत्न करता है। यदि दाम, आराममें विशेषताकी सम्भावना न हो तो कोई भी गुण, कर्ममें विशेषता लानेका प्रयत्न ही न करेगा। कुछ विद्यार्थी खिलाड़ी होते हैं, कुछ खर्राटा लेते रातभर सोते हैं, कुछ सावधान होकर रात-रात जागकर पढ़ते हैं। एक ही पिताके चार पुत्र होते हैं; पिताकी सम्पत्तिके वे चारों हिस्सेदार होते हैं। उनमेंसे कोई परिश्रमसे अपनी सम्पत्ति बढ़ा लेता है, कोई प्रमाद एवं विलासितामें फँसकर थोड़े ही दिनोंमें फूँक-ताप लेता है। पुन:-पुन: समाज या समष्टिके नामपर सब सम्पत्तिका राष्ट्रियकरण एवं वितरणकी व्यवस्था उस गुणकर्मकी विशेषताका अपलाप करना है।
जैसे निम्नस्थलकी ओर जलका बहना स्वभाव है, वैसे ही बहिर्मुख प्राणियोंकी पशुवत् प्रवृत्ति स्वाभाविक है। भोग-विलास, छीना-झपटी, बिना परिश्रम किये उत्तमोत्तम भोग-विलास एवं सामग्रीका पाना उन्हें अभीष्ट होता है। ईश्वर-बुद्धि, धर्म-बुद्धि ही इसमें रुकावट डालती है। इसलिये ऐसे लोग ईश्वर एवं धर्मको पहले समाप्त करना चाहते हैं। अपनेसे प्रबल धनवान्, बुद्धिमान‍्को देखकर ईर्ष्या, उसे मिटा देनेकी इच्छा—यह पाशविक स्वाभाविक भावना होती है। तमोगुण, रजोगुणकी अधिकता और सत्त्वगुणकी कमी संसारमें होती ही है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि गुण समष्टिके लिये अत्यावश्यकरूपसे प्राय: सर्वमान्य हैं तथापि उनकी कमी होती है। इस दृष्टिसे सामन्त जागीरदार, जमीनदार, बादशाहों, राजाओंकी समाप्ति चाहते, व्यापारी अपनी सुविधाकी दृष्टिसे सामन्तादिकोंकी समाप्ति चाहते तथा किसान-मजदूर उनका भी खात्मा चाहते हैं। यदि उनसे भी अधिक अपकृष्ट कोई वर्ग हो, तो वह किसानोंका भी विनाश चाहेगा। इन्हीं स्वाभाविक, पाशविक प्रवृत्तियोंको रोकनेके लिये ही सदाचार, धर्म आदिकी भावना फैलानेका महापुरुष लोग प्रयत्न करते आ रहे हैं। अमीर-गरीब सभी दुष्ट एवं शोषक हो सकते हैं। वे ही पोषक एवं सज्जन भी हो सकते हैं। अधिकांशरूपमें अभावसे पीड़ित होकर गरीब ही चोरी, डाका, व्यभिचार आदिमें पकड़े जाते हैं। अमीरोंके पास वस्तुओंकी कमी न होनेसे उन्हें डाका, चोरी आदिकी आवश्यकता बहुत कम पड़ती है। बहुत-से गरीब भी सदाचारी, संत होते हैं। वैसे ही धनवान् भी सदाचारी होते हैं।
वस्तुतस्तु विद्वान्, बलवान्, धनवान्, शक्तिमान‍्की विद्या, बल, धन, शक्ति स्वत: न अच्छे ही होते हैं और न बुरे। दुष्ट पुरुषोंकी विद्या विवादके लिये, धन घमण्डके लिये, शक्ति दूसरोंको उत्पीड़ित करनेके लिये होती है, परंतु सत्पुरुषोंकी विद्या ज्ञान फैलाने, उनका धन दान देने तथा दूसरोंकी सहायता पहुँचानेके काममें आता है और उनकी शक्ति दीनों, दु:खियों और आर्तोंके रक्षणके काममें आती है। इसलिये ‘धनवान्, बलवान्, शक्तिमान् सब शोषक होते हैं,’ यह सिद्धान्त ही गलत है। मजदूर भी अधिनायकतन्त्र स्थापित कर अपने विरोधियोंका शोषण ही नहीं खात्मातक कर देते हैं। साधारण लोग अपने-खाने-कमानेके काममें लगे रहते हैं। न उनमें शोषक होनेकी ही भावना है और न शोषित ही होनेकी। अत: यह विभाजन ही गलत है। हाँ, धर्म-भावना कम होने, सत्त्वगुण घटने, आध्यात्मिकता मिटने और भौतिकता बढ़नेसे ‘मात्स्यन्याय’ अवश्य फैल जाता है; जिसका अभिप्राय होता है कि जैसे जलमें बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियोंको खा लेती हैं, अरण्यनिवासी प्रबल जानवर दूसरे छोटे जन्तुओंको भक्षण कर लेते हैं; उसी प्रकार समाजके बलवान् मनुष्य भी दुर्बलोंके भक्षक बन जाते हैं। मूषकका मार्जार, मार्जारका श्वान, श्वानका व्याघ्र भक्षक बनता है। व्याघ्रका सिंह और सिंहका भी शार्दूल भक्षक होता है। सर्पके मुखमें पड़ा हुआ मेढक भी आसपासके उड़ते हुए मच्छरोंको खानेके लिये मुख फैलाता है। यहाँ सर्प, मेढक, मच्छर सभी अपेक्षाकृत शोषक भी हैं और शोषित भी। मत्स्योंमें भी सहस्रों मनकी मछली (तिमि आदि) सैकड़ों मनकी मछलीका भक्षण कर लेती हैं। मनोंकी मछली सेरोंकी मछलीका, सेरोंकी मछली छँटाककी मछलीका और वह भी तोलोंकी मछलीका भक्षण करती है। यहाँ सभीमें शोषक-शोषित भाव है। इसी तरह धनमें भी तारतम्य है। कोटिपतिकी अपेक्षा अर्बुदपति प्रबल है; तब अर्बुदपतिको शोषक और कोटिपतिको शोषित कहना पड़ेगा। इसी तरह कोटिपति को शोषक एवं लक्षपतिको शोषित कहना पड़ेगा। लक्षपतिकी अपेक्षा सहस्रपति, उसकी अपेक्षा शतपति आदिकोंको शोषित कहा जायगा। फिर तो रुप्यकपति और वराटिका (कौड़ी) पतिमें भी शोषक-शोषितकी कल्पना करनी पड़ेगी।
यदि वर्ग-विध्वंसके सिद्धान्तानुसार शोषककी समाप्ति अभीष्ट है, तब तो आरण्यक व्याघ्र, सिंह, शार्दूल आदिको समाप्त करके केवल मच्छरोंका ही साम्राज्य स्थापित करना पडे़गा। इसी प्रकार बड़ी मछलियोंको समाप्त करके केवल रत्ती-रत्तीकी मछलियोंको ही रखना पड़ेगा। इसी तरह समाजके बलवान्, धनवान्, विद्वानोंको समाप्त करके केवल अति निर्बल, निर्बुद्धि, निर्धनोंका ही राज्य बनाना होगा, परंतु यह क्या है? राष्ट्रका उत्थान है या पतन? आदर्श शासनोंका कभी भी ऐसा लक्ष्य न था। राष्ट्रके सिंह, शार्दूल समाप्त हो जायँ, केवल शृगाल, मच्छर आदि रह जायँ—यह आदर्श नहीं। सिंह-व्याघ्र भी रहें, श्वान-शृगाल भी रहें, अपने-अपने कर्मोंके अनुसार प्रबल-निर्बल, बुद्धिमान्-निर्बुद्धि-सभी रहें; पर एक-दूसरेके पोषक हों, शोषक नहीं। इसीलिये रामराज्यमें बाघ-बकरे एक घाटपर पानी पीते थे; गज-पंचानन साथ-साथ रहते थे। सर्प-नकुल, चूहा-बिल्ली सब एक-दूसरेके रक्षक थे, भक्षक नहीं, यही आदर्श शासन है।
वस्तुत: मात्स्य-न्याय मिटानेके लिये ही राजा एवं राज्यकी व्यवस्था हुई थी। धर्मस्थापनके द्वारा सत्त्व विस्तार करके अहिंसाकी भावना दृढ़ करके ही राजा मात्स्यन्याय मिटाता था। वह सबको एक-दूसरेका पूरक बनाता था, वैर मिटाकर, सौहार्द-उत्पन्न कर शासन, शोषण एवं उत्पीड़नका अन्त करता था—
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
बयरु न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप बिषमता खोई॥
फूलहिं फलहिं सदा तरु कानन।
रहहिं एक सँग गज पंचानन॥
चूहे-बिल्ली भी एक-एक दूसरेके हित-चिन्तक, उपकारक तथा पोषक बने हुए थे। ‘अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।’ (योगदर्शन २।३५) मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसाकी प्रतिष्ठा होनेपर अहिंसकके समीपमें परस्पर विरोधी हिंस्र प्राणियोंके भी वैर छूट जाते हैं। रामायणके निशाकर या चन्द्रमा मुनिके आश्रममें यह आदर्श प्रत्यक्ष उपलब्ध होता था। रामराज्यमें तो यह आदर्श था ही। हाँ, जिनमें रज, तमकी मात्रा अधिक होती थी, धार्मिकताका संस्कार आनेमें विलम्ब होता था, उन्हें उग्र दण्ड देकर शोषणसे विरत किया जाता था। इसीलिये नीति-शास्त्रोंमें दण्ड-विधान भी है। सरकस आदिमें देखा ही जाता है कि एक बकरी शेरके सिरपर चढ़कर हरी पत्ती खाती है, विद्युत्सृणि (बिजलीके हंटर) के डरसे शेर चुप रहता है, बकरीको नहीं मारता। इसलिये वर्गसंघर्ष वर्ग-विद्वेष फैलाकर वर्ग-विध्वंसका प्रयत्न कभी भी आदर्श वस्तु नहीं है।
आधुनिक यन्त्रीकरण युगमें भी उत्पादनमें पूँजी और श्रम दोनों कारण है। पूँजी बिना श्रमजीवी कुछ नहीं कर सकते। श्रमजीवी बिना पूँजी भी कुछ नहीं कर सकती। फिर भी श्रमजीवीको जीवनके लिये धन चाहिये। पूँजीपतिको उत्पादनके लिये श्रम चाहिये, अत: पूँजीपति धनसे श्रम खरीदता है। इसीलिये वह मजदूरको निश्चित मजदूरी देकर आयका भागी होता है। कम्यूनिज्ममें भी पूँजीवाद चलता है। भेद इतना ही है कि पूँजीवादमें अनेक पूँजीपति होते हैं, साम्यवादमें सरकारी पदाधिरूढ़ लोगोंका एक गिरोह ही पूँजीपति होता है और इसके लिये तोड़-फोड़की परम्परा चलती रहती है। यदि वस्तुत: शासन-परिषद् और मजदूर अधिनायकोंमें साधारण मजदूरोंसे कोई विशेषता न हो तो फिर संघर्ष क्यों? फिर ट्राटस्की, वेरिया आदिका सफाया क्यों? विरोधी व्यक्ति या समूहको समाप्तकर कुछ लोगोंके ही धाक जमानेका क्या अर्थ है?
भारतीय शास्त्रोंके अनुसार यद्यपि सब वस्तु सबकी नहीं होती, इसीलिये भूपति, भूपाल सब नहीं होते। भूमि, सोना, लोहा, ताँबा, पेट्रोल आदिकी खानें भी सबकी नहीं होतीं, अबतक भी सबकी नहीं मानी जातीं। प्राकृतिक वस्तु सबकी होती है, यह पक्ष मान्य होनेपर पुत्री-पत्नी आदिमें सबका हिस्सा मानना उपस्थित हो जाता है। अतएव प्रसिद्ध पितृ-पितामहादिकी सम्पत्तिमें ही प्राणियोंका अधिकार होता है। उसमें भी अधिकारके साथ कर्तव्य लगे हैं; ‘पिण्डं दत्त्वा धनं हरेत्’ पिण्ड दानादिक श्राद्ध करनेका जो अधिकारी है, वही पितृपितामहादिके दायका अधिकारी होता है। उनमें भी राजा आदिके प्रथम पुत्र ही मुख्य अधिकारी होते हैं। अन्य पुत्रोंको पोषण—गुजारा मिलता है। पिता पुत्रको ‘त्वं यज्ञस्त्वं लोकस्त्वं ब्रह्म’ इत्यादि वाक्योंद्वारा अपने अकृत या अर्धकृत वेदाध्ययन, धर्मानुष्ठान, लोक-साधनादिके सम्पादनका उत्तरदायित्व देता है और पुत्र ‘अहं यज्ञ:, अहं लोक:, अहं ब्रह्म’ इत्यादि शब्दोंद्वारा उस उत्तरदायित्वको अंगीकार करता है। तभी वह सम्पत्तिका भी उत्तराधिकारी होता है। जो सम्पत्ति तो ले लेता है, परंतु कर्तव्यपालन नहीं करता; स्वाध्यायाध्ययन, धर्मानुष्ठान, लोकार्जनादि कर्तव्योंसे पराङ्मुख होता है, उस असाधुसे धन छीनकर कर्तव्यपालनमें तत्पर किंतु अर्थपीड़ित साधुपुरुषको प्रदान करनेका राजाको अधिकार है—
योऽसाधुभ्योऽर्थमादाय साधुभ्य: सम्प्रयच्छति।
स कृत्वा प्लवमात्मानं सन्तारयति तावुभौ॥
(मनु० ११।१९)
अतएव पुत्रके रहते हुए पुत्री (कन्या)-को श्राद्धादिका अधिकार नहीं है। इसीलिये पुत्रके रहते हुए भारतीय धर्मशास्त्रानुसार पुत्रीको दायाधिकार भी नहीं है, परंतु पुत्र न होनेपर पुत्रीको पिण्डदानका अधिकार है और पुत्राभावमें पुत्री दायाधिकारिणी भी मानी जाती है। इस तरह ‘सबमें सबका अधिकार है’, यह सिद्धान्त गलत है। फिर भी विश्वप्रपंचकी सृष्टिमें जैसे ईश्वर कारण है, वैसे ही शुभाशुभ कर्मोंद्वारा जीव भी विश्वसृष्टिमें कारण है। जीवोंके कर्म-वैचित्र्यसे ही सृष्टिमें वैचित्र्य है। इस दृष्टिसे विश्वप्रपंचमें जीवोंका भी अधिकार है; अत: विश्वके आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवीके उपयोग करनेका अधिकार सबको ही है। इसीलिये योग्यता एवं आवश्यकताके अनुसार चींटीको कणभर, हाथीको मनभरके अनुसार काम, दाम, आराम सबको ही मिलना चाहिये। इस रूपसे विशिष्ट भूमिसम्पत्ति आदिके अधिकारी विशिष्ट लोगोंको मान, आवास, स्थान एवं रोजी, रोजगार, उन्नतिका खुला रास्ता सबको ही मिलना चाहिये।
द्वादशलक्षणी पूर्वमीमांसामें एक विचार चला है ‘सर्वस्वदक्षिण याग’ का, जिसमें सर्वस्व दक्षिणाकी चर्चा है। ‘सर्वस्व’ क्या है, माता-पिता भी सर्वस्वमें आते हैं या नहीं, उनका भी दान हो सकता है या नहीं, इत्यादि, इसपर उत्तर दिया गया है कि सर्वस्वमें माता-पिता अवश्य हैं, पर उनका दान नहीं हो सकता; क्योंकि स्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वक परस्वत्वोत्पादन ही दान है। माता-पिताका स्वत्व इस प्रकारका नहीं है, जिसकी निवृत्ति हो सके। पुन: विचार चला कि समग्र भूमिका दान हो सकता है या नहीं। यह विचार खण्ड भूमिके लिये नहीं है; क्योंकि खण्ड भूमिका तो दान होता ही है। इसीलिये शबरस्वामीने विचार करते हुए कहा कि ‘अखण्डभूमि किसके पास हो सकती है? हो सकती है सार्वभौम सम्राट्के पास, सर्वस्वदक्षिणमें अखण्डभूमिका दान प्रसक्त है, इसपर जैमिनिका सूत्र है’—
‘न भूमिर्देया स्यात् सर्वान् प्रत्यविशिष्टत्वात्।’
(मीमांसादर्शन ६।७।२।३)
अर्थात् राजमार्ग, चत्वर, देवादि स्थानसहित अखण्डभूमिका दान नहीं हो सकता; क्योंकि वह सबकी है। यद्यपि यहाँ कुछ लोगोंने इसी आधारपर यह भी सिद्ध किया है कि भूमि किसी व्यक्तिकी नहीं होती, किंतु वह समाजकी होती है, इसीमें उसका दान नहीं हो सकता, किंतु पूर्वापर देखनेसे यह गलत सिद्ध होता है। उसका अभिप्राय इतना ही है कि चत्वर, राजमार्गादिसहित भूमिका दान नहीं हो सकता; क्योंकि हो सकता है कि प्रतिगृहीता राजमार्गमें ही खेत, उद्यान बनाये और दूसरोंको चलनेसे रोके। अत: अखण्ड भूमण्डलका दान नहीं हो सकता। हाँ, देवस्थान, चत्वर, राजमार्गादि छोड़कर समस्त भूमिका दान शतपथ, ऐतरेय आदिमें स्पष्ट वर्णित है। ‘श्रीमद्भागवत’ में ही आता है कि होता आदि ऋत्विजोंके लिये प्राची आदि सभी दिशाओंका दान श्रीरामचन्द्रने किया था, जिससे समस्त राज्यका दान सुस्पष्ट प्रतीत होता है।
सार यही है कि विशिष्ट वस्तुओंमें विशिष्ट लोगोंका अधिकार होनेपर भी सर्वसाधारणको भी उचित विकासका अवकाश मिलना चाहिये। इसीलिये खेती, व्यापार-उद्योग या सेवा-सर्विस आदि द्वारा सबके ही निर्वाहका उपाय होना चाहिये। भले ही उसे किसी व्यक्तिकी सेवा न कहकर राष्ट्रकी सेवा कहा जाय। पारिश्रमिकको मजदूरी या वेतन न कहकर हिस्सा कहा जाय। आजकल नौकरी, मजदूरी, गुलामी आदि शब्दोंसे बड़ी घृणा है, पर चल रहा है नामान्तरसे वही। वैसे सिद्धान्त है ‘समानमें अंगांगीभाव, शेष-शेषी भाव नहीं होता।’ इसीको सेव्य-सेवकभाव, उपकार्योपकारक तथा भृत्य एवं स्वामीका भाव भी कहा जाता है। चेतन-चेतन समान हैं। उनमें शेष-शेषीभाव न होना जो उचित मानते हैं, उनके यहाँ भी शेष-शेषीभाव अवश्य चलता है। राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, फील्डमार्शलकी रुचिके अनुसार चलनेवाले, उनकी आज्ञा माननेवाले, सभी उनके शेष या अंग ही हैं, चाहे उनका नाम जो रखा जाय।
वस्तुत: प्राणिमात्र अपनी सीमित सत्ताको अपरिमित, अनन्त सत्ता बनाना चाहता है। सीमित ज्ञान आनन्द एवं परिमित स्वतन्त्रता एवं सीमित शासन ‘हुकूमत’ को नि:सीम बनाना चाहता है। शब्दोंका भेद अवश्य रहता है; छोटोंसे हुकूमत स्वीकार कराना चाहता है। माता, पिता, गुरुओंसे अपना अनुरोध या प्रार्थना स्वीकार कराना चाहता है। फल दोनोंका एक ही है। उसकी रुचिके अनुसार छोटे-बड़े सभी काम करें। शब्दोंका ही हेरफेर है। पहले बिना पारिश्रमिक दिये काम करानेको वेगार कहा जाता था, आजकल बिना पारिश्रमिक दिये बड़े-बड़े लोगोंसे भी काम कराया जाता है, उसे बेगार न कहकर ‘श्रमदान’ कहा जाता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दबाओंसे यह श्रमदान सबको करना पड़ रहा है। रामराज्यके अनुसार यद्यपि पूँजी, भूमि, खान आदि सबका नहीं है, जिन्हें पितृ-पितामहादि परम्परासे प्राप्त है अथवा जिन्होंने जय, क्रय, पुरस्कार आदिके रूपमें पाया है, उनका है। उनसे होनेवाली आय मालिकको ही मिलनी चाहिये, साथ ही श्रमकी उचित कीमत उन्हें देनी पड़ती है। श्रमके मूल्य-निर्णयमें आवश्यकतानुसार आर्थिक असंतुलन दूर करनेकी नीतिसे एवं उचित रूपसे सबका ही जीवनस्तर उन्नत बनानेकी दृष्टिसे राज्योंका भी हस्तक्षेप हो सकता है। उधर मालिकोंके घरमें भी—
धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च।
पञ्चधा विभजन् वित्तमिहामुत्र च मोदते॥
(श्रीमद्भा० ८।१९।३७)
—के अनुसार अतिरिक्त आयका पंचधा विभाजन कहकर समन्वयकी व्यवस्था की गयी है।
रामराज्यका यह आदर्श था कि कोई किसीका शोषक, भक्षक या अनिष्टचिन्तक न बने। एक-दूसरेके पोषक, रक्षक, शुभचिन्तक बनें। कारण सब वेदादिशास्त्रोंके अनुसार अपने धर्मपर ही चलते थे, कोई किसीसे वैर नहीं करता। परस्परकी विषमता दूर हो चुकी थी। जाति, सम्प्रदाय, पार्टी आदि बिना सबके साथ सुन्दर व्यवहार होता था। दैहिक, दैविक, भौतिक किसी प्रकारका ताप किसीको नहीं होने पाता था। निरपराध श्वानको भी मारनेवाला दण्डका भागी होता था, चाहे वह विद्वान्, बलवान्, धनवान्, ब्राह्मण हो या और कोई। यों तो योग्यता एवं आवश्यकताके अनुसार काम, दाम और आराममें तारतम्य हो सकता था; किंतु काम, दाम और आरामकी कमी किसीको न होती थी। दरिद्र, हीन, दु:खी या मूर्ख कोई न था—
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥
रामराज्यके आदर्श चाहनेवालोंके द्वारा आज भी विविध वैषम्य और आर्थिक असंतुलन दूर करनेका प्रयत्न होना ही चाहिये। सदाका नियम है—जब किसी अंगमें रक्त, मांस, अस्थिकी कमी होती है तो आवश्यकतानुसार दूसरे अंगसे उसकी पूर्ति कर ली जाती है। इसीलिये सब अंग परस्पर पोषक माने जाते हैं, शोषक नहीं। एकको कष्ट होनेसे सभी कष्ट मानते हैं। सब सहायताके लिये तत्पर रहते हैं। चरणमें काँटा लगता है तो नेत्र देखनेमें हाथ काँटा निकालनेमें, मुख फूत्कारद्वारा दर्द दूर करनेमें लग जाते हैं। इसीलिये किसी अंगमें दर्द या दोष आनेपर दर्द और दोष मिटानेका प्रयत्न किया जाता है, अंगच्छेदके लिये नहीं, किंतु लाखों खर्च करके भी एक अंगुलीके दर्दको दूर करनेका यत्न किया जाता है। अंग भंग करनेसे सर्व शरीरको बचाया जाता है। इसीलिये कहा जाता है, नासिकापर हुई फोड़ा-फुंसियोंको दूर करना उचित है, नाक काटना उचित नहीं। सिर-दर्द दूर करनेके लिये सिर काटना उचित नहीं। सिर बना रहे दर्द दूर हो, यही चिकित्सा है। रोगी मिटाकर रोग मिटाना बुद्धिमानी नहीं। रोगीका रोग मिटाना उचित है। रोगीको मिटाना चिकित्साका उद्देश्य नहीं है। जहाँ अनिवार्य होता है, एक अंग-छेद बिना अंगीके विकृत होनेका भय रहता है, वहीं अंग-छेद या ऑपरेशनकी अनुमति होती है। इसीलिये यहाँ यज्ञ, दान आदिकी पद्धति थी। इसके द्वारा आर्थिक असंतुलन दूर होता रहता था। एक सम्राट् भी सर्वस्वदक्षिण याग करनेके पश्चात् सामान्य मृन्मय पात्रसे ही अपना काम चलाता था। साम्राज्ञीके भी अंगमें मांगल्य सूत्र-मात्र भूषण रह जाता था। यज्ञोंमें सदा सेवानिरत शूद्रसे सेवा लेकर, व्यापारनिरत वैश्यसे वस्तुएँ खरीदकर, क्षत्रियपर रक्षाका भार देकर, ब्राह्मणको याजनका कार्यभार देकर सभीको द्रव्य समर्पण किया जाता था। याचक अयाचक हो जाते थे। प्राय: सब देनेकी बात सोचते थे, लेनेकी नहीं। देनेवाले हर ढंगसे देनेका रास्ता खोजते थे। दूसरे लोग न लेनेका मार्ग खोजते रहते थे। गाढ़ी कमाईके स्वल्प धनसे भी गुजारा करना ठीक समझा जाता था। प्रतिग्रहको निन्द्य समझा जाता था। मुफ्तखोरी, हरामखोरीसे सभी भरसक बचनेका प्रयत्न करते थे। लूट, खसोट, चोरीकी तो बात कोई सोचता ही न था। दूसरेकी सम्पत्ति, हीरा, रत्न, मणि, अन्नादि रास्तेमें पड़े हों या अपने घरमें ही कोई क्यों न डाल गया हो, आवश्यकता होनेपर भी विधिपूर्वक बिना पाये लेना अनुचित समझा जाता था—
परान्नं परद्रव्यं वा पथि वा यदि वा गृहे।
अदत्तं नैव गृह्णीयादेतद् ब्राह्मणलक्षणम्॥
इधर भौतिकवादमें लेनेवाले हर प्रकारसे मरकर, मारकर भी लेना चाहते हैं। देनेवाले मर जाना मंजूर करते हैं, पर देना नहीं चाहते। जिसके घरमें तीन वर्षके लिये कुटुम्ब-पोषणकी सामग्री होती थी, वह शेष धन सोमयज्ञमें अवश्य खर्च कर देता था। साधारण दीन प्राणी भी अतिथि-सत्कारके लिये सदा लालायित रहता था। रन्तिदेव आदि तो ४८ दिनके निर्जल व्रतके बाद भी स्वल्प प्राप्त सामग्रीद्वारा सर्वप्रथम अतिथि-पूजा आवश्यक मानकर प्रवृत्त हुए; ब्राह्मण, अन्त्यज, पुल्कसको सब कुछ देकर सत्कार किया। मरते-दमतक ईश्वरसे यही चाहा कि ‘मुझे स्वर्ग, अपवर्ग, राज्य आदि कुछ भी न चाहिये। केवल दु:खी प्राणियोंका दु:ख ही मुझे मिले। मेरे शुभकर्मोंसे प्राणियोंको सन्तोष हो।’ धर्मभावनाकी प्रधानताके कारण ही राजा शिविने कपोतकी रक्षाके लिये अपने शरीरका मांस और अन्तमें अपने-आपको देकर कपोतकी रक्षा करनी चाही थी। राजा दिलीपने नन्दिनीकी रक्षाके लिये अपनेको सिंहका ग्रास बनानेका निश्चय कर लिया। इस भावनामें शोषण, उत्पीड़न, विताड़नाकी कल्पना भी नहीं हो सकती।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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