6.5 आर्थिक असंतुलन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.5 आर्थिक असंतुलन

आर्थिक असंतुलन मिटानेके लिये ही शास्त्रोंमें दानका महत्त्व कहा गया है। अपनी श्रद्धासे, दूसरोंके उपदेशसे, लज्जासे, भयसे किसी तरह भी देना परम कल्याणकारी है। शास्त्रोंमें यह भी कहा गया है कि जो धनी होकर दानी नहीं और निर्धन होकर तपस्वी नहीं, ऐसे लोग गलेमें पत्थर बाँधकर समुद्रमें डुबा देने योग्य होते हैं—
द्वावम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम्॥
(महाभारत उद्योग० ३३।६०)
रामराज्यकी अर्थनीतिमें उपार्जन और उपयोग दोनों ही धर्मनियन्त्रित होते हैं। पर्वत खनन जैसे अति क्लेशसे होनेवाले स्वल्प लाभको तथा धर्मातिक्रमणजन्य लाभको एवं शत्रुचरणचुम्बनसे होनेवाले लाभको हेय समझना ही उचित है—
अतिक्लेशेन येऽर्था: स्युर्धर्मस्यातिक्रमेण वा।
अरेर्वा प्रणिपातेन मा स्म तेषु मन: कृथा:॥
(महा० उद्योग० ३९।७५)
दूसरोंकी बिना संताप पहुँचाये, सद्धर्मका अतिक्रमण बिना किये, खलोंके द्वारोंपर बिना घुटना टेके मिलनेवाले स्वल्प लाभको भी बहुत समझना चाहिये।
अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलमन्दिरम्।
अनुल्लङ्घॺ सतां वर्त्म यत्स्वल्पमपि तद‍्बहु॥
(शार्ङ्ग० पद्ध० स० १)
ईमानदारीकी कमाईसे सुख-शान्ति एवं समृद्धि होती है। प्रसिद्ध है कि ईमानदारीका धन पानीमें नहीं डूबता, आगमें नहीं जलता और चोरके पेटमें नहीं हजम होता। उसीसे बरक्‍कत भी होती है। वंश-वृद्धि भी उसीसे होती है। बेईमानीसे भले ही तत्काल बड़ा लाभ हो, पर वह टिकाऊ नहीं होता। उलटे सुख-समृद्धि लेकर चला जाता है। वंशवृद्धिके अनुकूल भी नहीं होता। न्यायार्जित धनमें भी टैक्स आदिका खर्च निकालकर अतिरिक्त आयमें पंचधा विभाग करके ही यथोचित उपयोग करना ठीक होता है। प्रथम विभाग धर्मार्थ राष्ट्रके हितमें व्यय किया जाय, द्वितीय भाग यशके लिये राष्ट्रमें व्यय किया जाय; तृतीय भाग अर्थार्जन या मूल सम्पत्ति-रक्षणके काममें लाया जाय और चतुर्थ भाग अपने काममें लगाया जाय। पाँचवाँ भाग कुटुम्बी, नौकर, मजदूर आदि स्वजनोंके काममें लगाया जाय। पाँच हिस्सामें एक हिस्सा अपने काममें लगानेकी अनुमति है, परंतु उसमें भी नियन्त्रण है कि जितनेमें पेट भरे, तन ढके, उतनेमें ही ममत्व उचित है। अधिकमें ममत्व करना चौर्य है, उसे दण्ड मिलना चाहिये। इस तरह पाँच हिस्सेमें चार हिस्सा राष्ट्रहितके काममें आता ही है। एक हिस्सेमें भी यथावश्यक अपने उपयोगमें लगाना उचित है।
तथाकथित राष्ट्रीकरणमें राष्ट्रकी भूमि, सम्पत्ति, कल-कारखानों, उद्योग-धन्धोंका सरकारीकरण हो जाता है। व्यक्ति शासनयन्त्रका नगण्य कल-पुर्जा बन जाता है। शासनयन्त्र किसी दल या दलके तानाशाहोंके हाथका कठपुतला बन जाता है। ऐसी तथाकथित सरकारें बिना नकेलके ऊँट, बिना लगामके घोड़े, बिना ब्रेकके मोटर अथवा बिना ड्राइवरके स्टार्ट की हुई मोटरके समान खतरनाक हो जाती हैं। सब वस्तुओंका राष्ट्रीकरण शास्त्र और धर्मसे विरुद्ध तो है ही, लौकिक दृष्टिसे भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता नष्ट हो जानेसे व्यक्तिगत विकास रुक जाता है। व्यक्तियोंका समुदाय ही कुटुम्ब, नगर, राष्ट्र तथा विश्व होता है। जैसे एक-एक वृक्षोंके कट जानेपर वन कट जाता है, एक-एक सैनिकोंके नष्ट हो जानेपर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक-एक व्यक्तियोंके परतन्त्र, अशिक्षित, निर्धन, निर्बल हो जानेपर राष्ट्र एवं विश्व भी वैसा ही हो जाता है। एक-एक व्यक्तियोंके हृष्ट-पुष्ट, बलवान् तथा बुद्धिमान् होनेपर राष्ट्र तथा विश्व भी हृष्ट-पुुष्ट, बलवान् तथा बुद्धिमान् हो जाता है। व्यक्तिगत सम्पत्ति-शक्ति नष्ट हो जानेपर शासन निरंकुश हो जाता है, उसे हरा सकनेकी शक्ति जनताके पास नहीं रहती। नोटिस, पोस्टर, अखबार, सभा, आन्दोलन आदि सभी कामोंमें द्रव्यकी अपेक्षा होती है। सब चीज सरकारके हाथमें रहनेसे व्यक्ति एवं तत्समुदाय जनता कुछ न कर सकेगी। अत: जनतामें शक्ति भी रहना आवश्यक है।
वस्तुत: अतिसमता और अतिविषमता दोनों ही दोष प्रतीत होते हैं। हाथकी अंगुलियाँ भी यदि अति विषम हों तो भी, अति सम हों तो भी, बेढंगी लगेंगी। पेट, पैर, हाथ सम हों तो भी ठीक नहीं और यदि पेट बहुत मोटा, पैर-हाथ बहुत पतले हों तो भी रोग ही समझा जायगा। इस तरह आवश्यक है कि योग्यता-आवश्यकताके अनुसार सभीके काम, दाम, आरामकी व्यवस्था हो। भले ही चींटीको कनभर, हाथीको मनभरके अनुसार योग्यता और आवश्यकताका ध्यान रखा जाय, परंतु आरामकी कमी नहीं होनी चाहिये। केन्द्रीकरण या राष्ट्रीकरणकी अपेक्षा विकेन्द्रीकरण सदा ही सर्वश्रेष्ठ है। इसमें एक तो सम्पत्तिसम्बन्धी परम्परागत ईश्वरीय नियमका रक्षण होता है, ‘सप्तवित्तागमा धर्म्या:’ के अनुसार दाय, जय, क्रय, पुरस्कारादिमें प्राप्त सम्पत्ति वैध मानी जायगी, पितृ, पितामहकी सम्पत्तिमें पुत्र, पौत्र, प्रपौत्रका जन्मना स्वत्व स्वीकृत होगा तथा जय, क्रयादिद्वारा भी व्यक्तिगत विकासका अवकाश रहेगा। अतिरिक्त आयका पंचधा विभागद्वारा धार्मिक दृष्टिसे कर्तव्य-बुद्धिसे राष्ट्रके हितार्थ अधिकांश आयका व्यय होगा। मूल सम्पत्तिका भी अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, संग्राम आदि असाधारण परिस्थितिमें, जैसे सरकारी खजानेकी सम्पत्तिका राष्ट्रहितार्थ विनियोग होता है, वैसे ही व्यक्तिगत मूल सुरक्षित धन भी काममें आ सकेगा। इस तरह धर्मनियन्त्रित नीतिमें आर्थिक असंतुलन भी नहीं होता। व्यक्तिगत विकासका अवकाश बना रहता है। पितृ-पितामहादि-परम्पराप्राप्त दायाधिकार भी बना रहता है। दाम, आरामकी विशेषताके लिये ही काममें विशेषता-सम्पादनकी प्रवृत्ति होती है। तभी विविध प्रतियोगिताएँ भी सार्थक होती हैं। लौकिक कहावत है कि ‘हानिका डर एवं लाभका लोभ ही प्राणीको प्रगतिशील बनाता है।’ भय और लोभके बिना आमतौरपर प्राणी निरुत्साह रहता है। सब वस्तुओंके राष्ट्रियकरणसे मनुष्य भी यन्त्रवत् काम करता है, ममत्व न होनेसे तत्परता और सावधानीसे काम नहीं होता। जिस नौकरशाहीकी पहले निन्दा की जाती थी, वही नौकरशाही सिरपर आ जाती है। यही कारण है कि नौकरोंकी देख-रेख रखते हुए भी गोदामोंमें लाखों टन अन्न सड़ जाते हैं। उपार्जन करनेवालोंको जितनी ममता अपनी छोटी अन्नराशिमें होती है और जितनी तत्परतासे वह उसकी रक्षा करता है, सरकारी नौकरोंमें न उतनी ममता ही होती है और न तो रक्षणका ही ध्यान रहता है। यही स्थिति बड़े-बड़े कामोंकी है। कागजी घोड़े दौड़ानेमें करोड़ों खर्च हो जाते हैं, काम कुछ नहीं हो पाता। दामोदरघाटी, हीराकुण्ड आदिके कामोंमें कितना व्यय और कितनी असफलता हुई, यह स्पष्ट ही है। पंजाबके बाँध और विद्युत‍्केन्द्र-निर्माणमें भी यही हालत है।
अस्तु! अभिप्राय यह है कि जब विकेन्द्रीकरणके पक्षमें अनेक अच्छाइयाँ हैं तो आस्तिकोंको उसे व्यवहारमें लानेका प्रयत्न करना चाहिये। सबसे पहले तो प्रत्येक नागरिक यह नियम बनाये कि उसके ग्राम, नगर, पड़ोसमें कोई व्यक्ति भूखा, नंगा नहीं रहने पायेगा। बिना भूखेको खिलाये न खायँगे। रोगीका इलाज-प्रबन्ध बिना किये विश्राम न करेंगे। विशेषत: शासक तो कुटुम्बपतिके तुल्य होता है। जैसे कुटुम्बके भोजन, वस्त्रका प्रबन्ध कर लेनेके बाद ही कुटुम्बपति भोजन, वस्त्र ग्रहण करता है, उसी तरह राष्ट्रके भोजन, वस्त्रादिका प्रबन्ध करा लेनेके बाद ही शासकोंको भोजन, वस्त्रादि ग्रहण करना चाहिये। इतना ही क्यों, भगवान् शिवके समान कुटुम्बपति अमृत कुटुम्बके अन्य सदस्योंको बाँट देता है और स्वयं विषको ही ग्रहण कर लेता है। कौस्तुभ, लक्ष्मी, ऐरावत, उच्चै:श्रवा, अमृत आदि अन्य सभी रत्न देवताओंके हिस्सेमें पड़े, विष शंकरके हिस्सेमें। विषको भी शिवजीने पेटमें रखकर न तो पेटको ही विषैला बनाया और न मुखमें रखकर मुखको ही जहरीला बनाया; बल्कि उसे कण्ठमें ही रख लिया। ठीक ऐसे ही कुटुम्ब या राष्ट्रके मालिक पुरुखाको कठिनाइयोंको विषके घूँटके तुल्य स्वयं सहना पड़ता है। वह उसकी कटुतासे न पेटको, न मुखको ही कड़वा बनने देता है। पेटका विषैलापन या मुखका विषैलापन दोनों ही संघटनको छिन्न-भिन्न कर देते हैं, परंतु जब कोई अच्छी वस्तु, अच्छे वस्त्र, भूषण, भोजनादि मिलें तो घरका कोई मालिक अपने बच्चोंकी और अपनी परवा न कर कुटुम्बके अन्य सदस्योंको ही बाँट देता है। तभी उसके नियन्त्रणमें कुटुम्बका संचालन ठीक चलता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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