6.3 शाश्वत नियम ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.3 शाश्वत नियम

पर सिद्धान्तत: राज्यशक्तिको किसी भी धार्मिक, आध्यात्मिक नियन्त्रणमें ही रहना उचित है, अन्यथा अनियन्त्रित उच्छृंखल राज्यशक्ति राष्ट्रके लिये भीषण सिद्ध हो सकती है। ‘बृहदारण्यक उपनिषद्’ में कहा गया है कि ‘धर्म क्षत्रका भी क्षत्र है’, अर्थात् धर्मपर राजाका शासन नहीं चलता, अपितु राजापर धर्मका शासन चलता है। जैसे बिना नकेलके ऊँट, बिना लगामके घोड़ा, बिना ब्रेकके साइकिल-मोटर आदि खतरनाक होते हैं, वैसे ही बिना नियन्त्रणके निरंकुश राज्यशक्ति देशके लिये अभिशाप सिद्ध हो सकती है। इसीलिये आज भी कुछ शासनके नियम और परम्पराएँ हैं ही तथा शासकोंको उनका नियन्त्रण मानना ही पड़ता है। ऐसी स्थितिमें राज्यशक्तिको धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक परम्परागत नियमोंके उल्लंघन करनेका अधिकार कथमपि नहीं है। भारतीय सभ्यतामें धर्म ब्रह्मके द्रष्टा सांसारिक भावोंसे अतीत होते हैं।
प्रियान्न सम्भवेद् दु:खमप्रियादधिकं भवेत्।
ताभ्यां हि ते वियुज्यन्ते नमस्तेषां महात्मनाम्॥
(वाल्मी० रामा० सुन्दर० २६।४८)
जो प्रिय-अप्रिय दोनोंसे अतीत हैं, उन्हें भी नमनीय महात्मा कहा गया है। वे लोग भी ऋतम्भरा प्रज्ञा एवं अपौरुषेय शास्त्रोंका आदर करते हैं।
कुछ लोगोंका कहना है कि विभिन्न देश-काल और परिस्थितिके अनुसार विभिन्न महापुरुषोंद्वारा राष्ट्रके धारण-पोषणानुकूल निर्धारित नियम-समूह ही शास्त्र है, परंतु यह सर्वथा अनिश्चित एवं अव्यवस्थित है। क्रियामें विकल्प हो सकता है, परंतु वस्तुमें विकल्प नहीं हो सकता। एक वस्तुके विषयमें एक ही ज्ञान यथार्थ होता है, अन्य अयथार्थ होते हैं। जैसे किसीने आत्माका देहादि-भिन्न होना स्वीकार किया, किसीने देह मात्रको ही आत्मा माना, किसीने आत्माको अणुरूप, किसीने मध्यम, किसीने व्यापक माना; किसीने चेतन, किसीने अचेतन, किसीने उभयात्मक माना। यदि महापुरुष सर्वज्ञ हैं तो मतभेद कैसे? कोई सर्वज्ञ, कोई अल्पज्ञ कहा जाय तो भी कैसे? तत्तन्मतानुयायी अपने-अपने तीर्थंकरोंको सर्वज्ञ ही मानते हैं। किसी पुरुषके मतसे प्रभावित जनता, पंचों, विधानसभाओं एवं लोकसभाओंने यदि कोई धर्म या धर्मशास्त्र बना भी लिया, तो भी जबतक कर्म-फलदाता ईश्वर उसे स्वीकार न कर ले, तबतक उसका कोई भी महत्त्व नहीं। लौकिक कर्मों और फलोंके नियम लौकिक पुरुषोंद्वारा बनाये जा सकते हैं, परंतु जिन कर्मोंका दृष्ट फल नहीं है, जिनका केवल परलोकमें फल होता है, उन कार्योंका फल प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विदित नहीं हो सकता। कितने लौकिक नेता या शासक मृत्युके अनन्तर कहाँ गये, उन्हें पिछले किन कर्मोंका क्या फल मिला, यह जानना न तो जनताके लिये सम्भव है और न तो पत्रकारों तथा विधानसभाई, लोकसभाई सदस्योंके लिये ही।
धार्मिकोंका विश्वास है कि सगोत्र, सपिण्ड विवाहसे पाप होता है, परंतु आज सरकार इस शास्त्रीय नियमको तोड़कर उसे धर्म बनाने जा रही है। आज पिता-पुत्री, भ्राता-भगिनी, माता-पुत्रका उद्वाह अधर्म माना जाता है। हो सकता है, कुछ और प्रगतिशील कुछ दिनोंमें इसे भी जायज धर्म माननेका आग्रह करें और इसे भी कानून बना दें। किंतु यदि वस्तुत: ईश्वर है और वह इसे अधर्म समझता है तो जबतक वह इसे धर्म स्वीकार न करे, तबतक ऐसे उद्वाहोंको कोई सरकार धर्म भले ही कह दे, परंतु वह वस्तुत: धर्म नहीं हो सकता। ईश्वरवादीकी दृष्टिसे ईश्वर सनातन है, अत: उसके निर्धारित नियम भी सनातन हैं। वह सर्वज्ञ है, सर्वदेशों, कालों तथा परिस्थितियोंको जानता है तथा तत्तद्देशों, कालों और परिस्थितियोंके अनुसार नियम बनाता है। अल्पज्ञ नेता या सरकार सर्वदेश-काल-परिस्थितियोंसे अनभिज्ञ होते हैं। अत: वे यथाज्ञान नियम बनाते हैं। यदि दूसरी परिस्थितिमें पुराने नियमोंमें अड़चन प्रतीत होती है, तब उन्हें रद्दोबदल करनेकी आवश्यकता प्रतीत होती है। किंतु सर्वज्ञके सम्बन्धमें यह बात नहीं कही जा सकती। वह तो अनन्त देशकाल तथा ब्रह्माण्डोंको जानता है; अनन्त जीवों, उनके अनन्त जन्मों तथा प्रत्येक जन्मके अनन्त कर्मों एवं उनके फलोंको जानता है और फल देनेकी क्षमता भी रखता है। उसी सर्वशास्ता सर्वज्ञका शासनवचन ही शास्त्र है। यदि ईश्वरका विनाश सम्भव हो या ईश्वरकी पराजय सम्भव हो अथवा ईश्वरमें अल्पज्ञता या भ्रान्ति सिद्ध हो सके, तभी ईश्वरमें रद्दोबदल सम्भव है। पर ईश्वरका विनाश, पराजय आदि सर्वथा असम्भव है, अत: उसके धर्ममें भी परिवर्तन करना असम्भव है। हाँ, ईश्वरीय शास्त्रोंने पहलेसे ही देश, काल परिस्थितिके अनुसार जितना नियमोंमें परिवर्तन निश्चित कर रखा है; वह परिवर्तन मान्य है। जैसे सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुगके भेदसे; विपत्ति, सम्पत्तिके भेदसे कुछ परिवर्तन शास्त्र-सम्मत है ही। व्यवहारमें भी जो जिस कार्यमें दक्ष होता है, वह उसी कार्यमें सफल होता है। मिले हुए दूध-पानीको अलग करना हंसके लिये सरल है, पर औरोंके लिये कठिन। मिली हुई बालू और शर्कराको पृथक् करना पिपीलिकाके लिये सरल है, पर दूसरोंके लिये कठिन। विविध पुष्पस्तबकोंसे मधुर रस निकालकर मधु बनाना मधुमक्षिकाके लिये सरल है, औरोंके लिये कठिन। वैद्य, इंजीनियर, वकील, गणक आदि अपने-अपने विषयमें सफल हो सकते हैं, दूसरोंके विषयमें नहीं। दूरवीक्षण, अणुवीक्षण आदि या योगादिजन्य विशेषताओंके उत्पन्न होनेपर भी विषयकी सीमा बनी ही रहती है। योगादिजन्य विशेषतासे श्रोत्र रूपके सम्बन्धमें अथवा नेत्र शब्दके सम्बन्धमें सफल नहीं हो सकता—
यत्राप्यतिशयो दृष्ट: स स्वार्थानतिलङ्घनात्।
दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता॥
यहाँ बहुमतका भी कोई मूल्य नहीं। कहा जा चुका है कि नेत्रविहीन कोटि-कोटि अन्धे भी रूपज्ञानमें सफल नहीं हो सकते। इसी तरह रोगके सम्बन्धमें वैद्यादिकी ही सम्मति मान्य होती है, इंजीनियर या वकीलोंकी नहीं। डॉक्टरों या वकीलोंके बहुमतके आधारपर टूटी घड़ीका पुर्जा ठीक नहीं कराया जा सकता, उसके लिये तो इंजीनियर ही अपेक्षित होगा। इसी तरह शाश्वत नियमोंके सम्बन्धमें उन्हींका मत मान्य हो सकता है, जो उसके जानकार तथा अधिकारी हैं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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