6.9 श्रेणीभेदका आधार ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.9 श्रेणीभेदका आधार

मार्क्स कहता है—‘जैसे पशुओं, वनस्पतियों, धातुओंमें श्रेणीभेद है, वैसे मनुष्योंमें भी श्रेणीभेद है और वह आर्थिक आधारपर ही उचित है। जिस उपायसे मनुष्यसमुदाय अपनी रोजी कमाता है, वही उसका प्रधान लक्षण है। वेतन, मजदूरी आदिसे निर्वाह करनेवाले लोग श्रमजीवी वर्गमें आते हैं, पूँजी (जमीन, मकान, कारखाने, खानें) द्वारा कमानेवाले लोग पूँजीपति वर्गमें समझे जाते हैं। यद्यपि मजदूर भी कहीं बैंकमें रुपया रखता है, उससे ब्याज भी पाता है। कोई पूँजीपति भी अपने व्यापारकी देख-भाल करता है और मैनेजरकी हैसियतसे उसे कुछ तनख्वाह भी मिलती है, तथापि श्रमजीवीका खास आधार मजदूरी होता है। पूँजीपतिका खास आधार पूँजी होती है। इन वर्गोंमें भी अवान्तर भेद हो सकते हैं। कुछ बुद्धिजीवियोंको अधिक वेतन मिलता है, कुछको जानवरोंकी तरह मेहनत करके भी पेट भरनेतकको पूरा नहीं पड़ता। पर श्रमके आधारपर ही इन सबकी जीविका चलती है, अत: सभी श्रमजीवी हैं। पैदावारके साधनोंपर अधिकारवाले पूँजीपति हैं।’ मार्क्सका कहना है कि ‘इन दो वर्गोंके बीच गहरा और अमिट विरोध रहता है, जिसके फलस्वरूप वर्ग-कलह उत्पन्न होता है। श्रमजीवी अपने श्रमको ज्यादा-से-ज्यादा कीमतपर बेचना चाहता है, अधिक-से-अधिक मजदूरी प्राप्त करना चाहता है। पूँजीपति इस श्रमको कम-से-कम दाममें खरीदना चाहता है, कम-से-कम मजदूरी देना चाहता है। यह विरोध दूकानदार और ग्राहकों-जैसा नहीं, किंतु सिद्धान्तपर आधारित होता है। कारण, इसमें और खरीदने एवं बेचनेमें बड़ा अन्तर है। श्रमजीवी यदि अपने श्रमको जल्दी न बेचे तो भूखों मरने लगे। इसलिये उसे पूँजीपतिके इच्छानुसार मजदूरी करनेके लिये लाचार होना पड़ता है। इस तरह पूँजीपति श्रमजीवीपर अत्याचार करता है। यह विरोध ही श्रमजीवीको संगठनकी ओर प्रवृत्त करता है और श्रमजीवी संघ मजदूर-सभाओंका जन्म होने लगता है। यही वर्ग-कलहकी पहली सीढ़ी है। निजी सम्पत्तिका सिद्धान्त जबतक रहेगा, तबतक पराधीनता बनी रहेगी। अत: निजी जायदादकी प्रणालीको मिटाकर उत्पत्तिके साधनोंपर समस्त जनताका अधिकार उचित है। इस भावनासे मजदूर-संघटन और उग्र बन जाता है। वर्ग-भेद समझकर वर्ग-विद्वेष, वर्ग-संघर्षके अनन्तर ही वर्ग-विध्वंस क्रान्ति सम्भव है। अत: वर्तमान कष्टोंको दूर करना, मजदूरी बढ़ाना, बोनस-भत्ता बढ़ाना, कामके घंटोंमें कमी करना आदि सब गौण चीजें हैं। मुख्य बात यही है कि निजी सम्पत्तिकी प्रणालीको समूल नष्ट कर दिया जाय। पैदावारके सब साधनोंपर सार्वजनिक अधिकार मान लिया जाय, परंतु जबतक मजूदरोंका दृढ़ संघटन नहीं होता और उन्हें अपने भीतर अपने कष्ट दूर करनेकी शक्तिका विश्वास नहीं होता, तबतक साधारण सुधारोंपर ही सन्तोष कर लेते हैं। कभी उदारहृदय परोपकारी पुरुषोंपर विश्वास करके भी मजदूर-वर्ग शान्त हो जाता है। यह सब श्रमजीवी आन्दोलनमें विघ्न ही हैं। श्रमजीवियोंकी शक्तिहीन दशामें उन्नतचरित्र पुरुष दयालु शासकोंको समझा-बुझाकर न्याय और जनताके हितकी दृष्टिसे साम्यवादी सिद्धान्तानुसार काम करनेके लिये प्रेरित करते हैं और कुछ अंशोंमें दरिद्रता और दुर्गति मिटानेका प्रयत्न करते हैं। किंतु जब उद्योग-धन्धोंकी विशेष वृद्धि होती है और उत्तमोत्तम यन्त्रों, उत्पत्तिके साधन तथा विनिमयकी बहुतायत होती है, एक स्थानमें सैकड़ों मिलों, कारखानों, जहाजों-रेलोंके जंक्शनों, खानोंमें काम करनेवाले मजदूरोंका बड़ा जमघट होने लगता है, तब श्रमजीवियोंकी संख्या, शक्ति, संघटन और वर्गके ज्ञानकी बहुत बड़ी वृद्धि हो जाती है। तब काल्पनिक साम्यवाद या सुधारवादका सर्वथा अन्त हो जाता है।’
‘उत्पत्ति और विनियम साधनोंके एक स्थानमें एकत्रित होनेसे ही यह सब हो सकता है। हो सकता है कि मजदूर वर्ग एक साथ उद्योग-धन्धों और जीवन-निर्वाहके सब कामोंको एक साथ बन्द करके समस्त समाजकोे विश्वास दिला सकें कि श्रमजीवी समुदाय ही समस्त समाजके आर्थिक जीवनका प्राण है।’
उपर्युक्त कथन युक्तिहीन एवं अवैज्ञानिक है। वस्तुत: रोजी, रोजगार या जीविकाके आधारपर होनेवाले मनुष्योंका श्रेणीभेद कृत्रिम एवं गौण है। अतएव जीविका या रोजगारके बदल जानेसे मनुष्योंकी ऐसी श्रेणियाँ मिट जाती हैं। जैसे पशुओं, वनस्पतियोंके श्रेणीभेद अकृत्रिम होते हैं, उनके या दूसरोंके इच्छानुसार उनका श्रेणी-परिवर्तन सरल नहीं है। श्वान, शृगाल, गौ, हस्ति, गर्दभ आदि पशुओं; आम्र, निम्ब आदि वृक्षोंमें श्रेणी-परिवर्तन ऐच्छिक नहीं है। अवश्य ही उनपर देशकाल-भेदके अनुसार भिन्न-भिन्न भौतिक वातावरणके अनुसार भेद उपलब्ध होते हैं, तथापि उनकी विलक्षणता स्वरूपप्रविष्ट असाधारण धर्म-स्वरूप है। वैसे ही मनुष्योंका भी श्रेणीभेद अन्तरंग है। जैसा कि भारतीय धर्ममें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुत्रादि भेद हैं। यहाँ अकृत्रिम श्रेणी-भेदके अनुसार जीविका या रोजी ग्रहण करनेका नियम है। इसीलिये वरणाद् वर्ण:—जीविकाके कारण ब्राह्मणादि वर्ण नाम चलता है। श्रेणीगत असाधारणताके आधारपर ही जीविकाका वरण होता है। जीविकावरणके आधारपर श्रेणी-भेद नहीं होता। यद्यपि अश्व-वृषभ और आम्र-निम्बके तुल्य ब्राह्मण-क्षत्रियादि मनुष्योंमें विलक्षणता या श्रेणी-भेद प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं होता तथापि यह भेद शास्त्रगम्य एवं फलबलकल्प्य है। जैसे नेत्रसे विभिन्न जातीय आम्रोंमें भेद नहीं प्रतीत होते, वृक्ष, शाखा, पत्रादि सबके समान ही होते हैं तो भी फल एवं रस-गन्धादिकी विलक्षणता प्रमाणसिद्ध है। अश्वकी विभिन्न जातियोंमें नेत्रसे भेद परिलक्षित न होनेपर भी गुण-धर्म-भेदसे उनका भेद मान्य होता है। उसी तरह ब्राह्मणादिमें उपरिगत भेद भासित न होनेपर भी शास्त्रप्रमाणगम्य विभिन्न गुण-धर्मों, रक्तोंके भेदसे उनमें भेद मानना अनिवार्य है। जैसे वैध और जारजात अवैध संतानोंमें ऊपरी कुछ भी भेद प्रतीत नहीं होता, तथापि शुद्धि-अशुद्धिका भेद समाजमें मान्य होता है। अनुलोम-प्रतिलोमभेदसे सांकर्यमें ही पर्याप्त भेद है। जारजातके ललाटमें शृंग नहीं होता, कुलप्रसूतके हाथमें कमल खिला नहीं होता; किंतु शास्त्रों और उनके गुणोंके आधारपर उनका परिज्ञान होता है—
न जारजातस्य ललाटशृङ्गं
कुलप्रसूतस्य न पाणिपद्मम्।
यथा यथा मुञ्चति वाक्यजालं
तथा तथा तस्य कुलं प्रमाणम्॥
सामान्यरूपसे नित्य अनेक समवेत धर्म ही जातिपदसे व्यपदिष्ट होता है। अनेक गोव्यक्तियोंमें समवेत नित्य गोत्व धर्म ही जाति है। यह धर्म ही अपने धर्मीको स्वजातीय-विजातीयसे व्यावर्तन भी कर देता है। गोत्व-धर्म विजातीय घटादि और सजातीय अश्व-महिषादिसे गोका व्यावर्तन करता है। बहुधा आकृतिभेदसे जातिभेदकी मान्यता चलती है, परंतु शास्त्रीय दृष्टिसे आकृतिभेद न रहनेपर भी ब्राह्मण-क्षत्रियादि वर्णोंमें जातिभेद मान्य होता है। पाणिनि-व्याकरणकी दृष्टिसे जाति-अर्थमें ब्राह्मण और तद्भिन्न अर्थमें ब्राह्म बनता है। ‘ब्राह्मोऽजातौ’ (६।४।१७३) ब्राह्मणी आदिमें ङीष् प्रत्यय भी जाति अर्थमें ही होता है—
आकृतिग्रहणा जातिर्लिङ्गानां च न सर्वभाक्।
सकृदाख्यातनिर्ग्राह्या गोत्रं च चरणै: सह॥
(महाभाष्य ४।१।६३)
अनुगत संस्थानविशेषसे जातिकी व्यंजना होती है। यहाँ आकृतिको उपदेशका उपलक्षण माना गया है तथा च ईदृश आकारवाली वस्तु गौ है, इस प्रकारके उपदेशसे गोत्व जातिका परिज्ञान होता है। कारिकामें कहा गया है कि जो असर्वलिंगभागी हो और एक बारके उपदेशसे अनुगत-रूपेण ग्राह्य हो, वही जाति है। ‘ब्राह्मण:’ ‘वृषल:’ आदि शब्द पुँल्लिंग, स्त्रीलिंग होनेपर भी नपुंसकलिंग नहीं हैं, इसलिये इनके अनुगत-संस्थान आकृति अनुपलब्ध होनेपर भी जातिका व्यवहार होता है।
संस्थान-व्यंग्य गोत्वादि जाति या उपदेशगम्य ब्राह्मणादि जाति जन्मसे ही होती है। साथ ही जाति यावद्‍द्रव्यभावी असर्वलिंगभागिनी तथा अनेकानुगत होती है—
आविर्भावविनाशाभ्यां सत्त्वस्य युगपद‍्गुणै:।
असर्वलिङ्गां बह्वर्थां तां जातिं कवयो विदु:॥
(व्या० महाभाष्य)
जैसे गुणके बिना द्रव्य नहीं रहता, वैसे ही जातिके बिना भी द्रव्य नहीं रहता और द्रव्यके रहते जैसे गुणका नाश नहीं होता, वैसे ही जातिका भी नाश नहीं होता। इसीलिये मृतहरिणके शरीरको भी हरिण ही कहा जाता है। क्षत्रिय-गुणकर्मवाले परशुराम, द्रोण, कृप, अश्वत्थामा आदिको ब्राह्मण ही कहा गया है तथा ब्राह्मण-गुणकर्मवाले युधिष्ठिरादिको भी क्षत्रिय ही कहा गया है। शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार जैसे शूकर, कूकर, देव, मनुष्यादि जातियाँ प्राप्त होती हैं, वैसे ही शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रियादि जातियाँ प्राप्त होती हैं—
तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वा॥
(छान्दो० उप० ५।१०।७)
कर्मोंके अनुसार जैसे हिरणीसे हरिण उत्पन्न होते हैं, वैसे ही ब्राह्मण-ब्राह्मणीसे ब्राह्मण उत्पन्न होता है। जन्ममूलक वर्ण-व्यवस्था और तन्मूलक कर्म-धर्म व्यवस्था होती है। जन्मना वर्ण और कर्मणा उत्कर्ष यही व्यावहारिक स्थिति है। योनि, विद्या और तप ब्राह्मण्यका कारण होता है। विद्या-तपके बिना भी जाति ब्राह्मण्य होता है। योनि बिना विद्या और तपसे ‘सिंहो माणवक:’ के समान गौण ब्राह्मण्य आता है। सिंह-सिंहीसे जन्म होने और शौर्य न होनेसे जाति सिंहत्वका व्यवहार होता है। पर सिंह-सिंहीसे जन्म न होने तथा शौर्य आदि गुणयोग होनेपर गौण सिंहत्वका व्यवहार होता है। ‘जन्मना प्राप्यते सा जाति:।’
जाति मुख्यरूपसे जन्मना ही होती है, फिर भी कहीं-कहीं देशके नामसे भी जातिका व्यवहार होता है। इसका कारण यह है कि देशके सम्बन्धसे जातिव्यंजक स्थितिमें विशेषता आती है। विभिन्न देशके जलवायु आदिके प्रभावसे रंग-रूप-बनावटमें भेद पड़ता है। व्रीहि आदि अन्नों, आम्रादि फलोंपर भी देशका प्रभाव पड़ता है। इन सब बातोंका प्रभाव मनुष्योंपर भी पड़ता है। इसलिये चीनी, जापानी, बर्मी, इंगलिश, अफ्रीकी मनुष्योंके भी रूप-रंग-बनावटका भेद उपलब्ध होता है। तत्तत्संस्थान भेदसे व्यंग्य होनेके कारण उनमें जाति-भेदकी कल्पना होती है। अधिक क्या, भारतमें भी नैपाली, मैथिल, पंजाबी, द्रविड़, बंगाली, उत्कल, मद्रासी मनुष्योंमें बनावटका भेद उपलब्ध होता है।
यावद्‍द्रव्यभावी होनेके कारण देशादि-जन्य विशेषताओंके कारण जातिभेदकी कल्पना चल सकती है, परंतु ब्राह्मणत्वादि जाति-संस्थान व्यंग्य नहीं है, वह साक्षात् उपदेशगम्य होती है। यही कारण है कि मिथिला, उत्कल, महाराष्ट्र, तैलंगादि भारतके विभिन्न भागोंके मनुष्योंमें बनावटका भेद होनेपर भी ब्राह्मणत्व-क्षत्रियत्वादि सर्वत्र समान माना जाता है।
यदि दैवात् परम्परासे ब्राह्मणत्वादि जातियाँ और वेदशास्त्रानुकूल आचरण अंग्रेजों, जर्मनों और यहूदियोंके भी बने होते तो उनके रूप-रंगके भेद रहनेपर भी ब्राह्मणादि माननेमें कोई आपत्ति न होती। बल्कि अपने मनु आदि स्मृतिकारोंने माना ही यह है कि बहुत-से क्षत्रिय दिग्विजयके लिये बाहर जाकर ब्राह्मणोंके साथ सम्बन्ध और वैदिक आचार-विचार छूट जानेसे म्लेच्छजातिके हो गये—
शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय:।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च॥
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडा: काम्बोजा यवना: शका:।
पारदा: पह्लवाश्चीना: किराता: दरदा खशा:॥
मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहि:।
म्लेच्छवाचश्चार्यवाच: सर्वे ते दस्यव: स्मृता:॥
(मनु० १०।४३—४५)
इस तरह वैदिकोंमें किसी तरह द्वेष या रागसे उत्कर्षापकर्षकी कल्पना नहीं है। तात्त्विक जाति-भेद होनेपर भी किसीका उत्थान ज्ञान उन्हें नहीं खलता। इसलिये धर्मव्याध आदि अन्त्यज, विदुरादि शूद्र, तुलाधार आदि वैश्यों—जैसे यहाँ कितने ही उच्चकोटिके ज्ञानी और सम्मानित धर्मात्मा थे।
कुछ लोगोंका कहना है कि सृष्टिके आदिमें जो मूलभूत ब्राह्मण-क्षत्रियादि उत्पन्न हुए हैं, उनके ब्राह्मणत्वादिका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता; क्योंकि उस समय माता-पिताकी जातिका स्मरणरूप उसका व्यंजक नहीं था। फिर जब उनमें ब्राह्मणत्वादिका प्रत्यक्ष नहीं हुआ, तब उनके पुत्र-पौत्रादिमें ब्राह्मणत्वादिका प्रत्यक्ष होना नितरां दुर्घट है। यदि उनके ब्राह्मणत्वादिका व्यंजक कुछ और है तो वही आधुनिक ब्राह्मणादिकोंके भी ब्राह्मणत्वादिका व्यंजक मानना चाहिये। पर यह सन्देह तो गोत्व-अश्वत्वादि जातियोंके सम्बन्धमें भी होगा; क्योंकि वे भी गो-अश्वादिसे उत्पन्न नहीं हैं। इसपर कहा जा सकता है कि प्रथम गो आदिमें हिरण्यगर्भके उपदेशसे गोत्वादि जातिका निश्चय होता है। हिरण्यगर्भको पूर्वकल्पोंका निश्चय रहता है। फिर गोत्वका प्रत्यक्ष तो पूर्वकल्पके गोव्यक्तिकी गठन (सास्नादि) देखनेसे होता है, पर ब्राह्मणादिके देखनेसे तो यह समाधान नहीं हो सकता; क्योंकि उनका कोई विशिष्ट गठन (अवयव-संस्थान) नहीं है। पर इसका समाधान यह है कि मूल ब्राह्माणादिमें मुखजत्व बाहुजत्वादिका ज्ञान ही उनके ब्राह्मणत्वादि जातिका अभिव्यंजक है।
वैदिकोंके मतसे तो ब्राह्मणत्वादि जातियाँ वृक्षादिकी तरह प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। जो यह शंका की जाती है कि ब्राह्मणमें, सजातीयोंमें अनुगत किसी आकारविशेषकी उपलब्धि नहीं होती, सो ठोक नहीं; क्योंकि आकार या संस्थान जाति नहीं है। ऐसा होनेपर निरवयव ज्ञान, इच्छा आदिमें जातिका होना असम्भव हो जायगा। अत: अनुगत प्रतीतिका विषय ही जाति है। अयं वृक्ष:, अयं महिष:, अयं ब्राह्मण:, इत्यादि अनुगत प्रतीतिका विषय ही ब्राह्मणत्वादि जाति है। फिर भी यहाँ जो शंका की जाती है कि वृक्षत्वजातिका ज्ञान यदि प्रत्यक्ष माना जाय, तब तो उसमें शब्दरूपी सहकारीकी कोई आवश्यकता ही नहीं रहती, वह तो इन्द्रियसे ही हो सकता है, पर ब्राह्मणत्वके कोई भी संस्थान व्यंजक नहीं है। तब वृक्षत्वके समान ब्राह्मणत्वको प्रत्यक्षसिद्ध कैसे माना जाय? पर इसका समाधान स्पष्ट है—‘सब जातियोंके समान व्यंजककी आवश्यकता नहीं होती। वृक्षत्वमें शाखापत्रादि संस्थान व्यंजक हैं। सुवर्णत्व जातिके प्रत्यक्षमें रूप व्यंजक है। इसी प्रकार ब्राह्मणत्व जातिके प्रत्यक्षमें माता-पिताकी जातिका ज्ञान व्यंजक है। जिस प्रकार गान्धर्ववेदके ज्ञाता स्वरोंकी जातियाँ, जौहरी रत्नोंकी जातियाँ पहचान लेते हैं, दूसरे लोग कुछ नहीं जान पाते, इसी प्रकार निपुण लोग ब्राह्मणत्वादिको जान लेते हैं। नारदादिकोंने वाल्मीकिको मिनटोंमें ब्राह्मण जान लिया था। सत्यकाम जाबालके ब्राह्मणत्वको उसके आचार्यने जान लिया था।’
कहा जाता है कि ‘आजकल विशुद्ध रक्तका अभिमान केवल दम्भ है; क्योंकि कोई भी जाति अछूती नहीं बची है। सबका किसी-न-किसी रूपमें मिश्रण हुआ है। रंग-रूपमें भेद ही मिश्रणका प्रमाण है। जैसे काली मुर्गी और श्वेत मुर्गेसे उत्पन्न चार बच्चोंमें एक काला और एक श्वेत है, बाकी दो मिश्रित हैं। दूसरी पीढ़ीमें सोलह बच्चोंमें एक श्वेत, एक काला और चौदह मिश्र रंगके तथा तीसरी पीढ़ीमें चौंसठमें एक काला और एक श्वेत, बाकी सब मिश्र रंगके होते हैं, वैसे ही मनुष्योंमें भी पश्चिमी श्वेत और पीत मंगोलका मिश्रण होनेसे कुछ पश्चिमीय रंगके कुछ मंगोल रंगके होते हैं; पर अधिकांश पारसी, ईरानी ढंगके होते हैं। अत: पारसी जाति इन्हीं दोनोंका मिश्रण है। यही स्थिति उत्तर भारतकी उच्च जातियोंमें है। वहाँ मिश्रण स्पष्ट है।’
पर यह कहना भूल है। कलमी आमोंमें कभी भी मूल आमके समान फल नहीं होते, तो क्या इतनेसे ही वह आम किसी दूसरे आमका बीज मान लिया जाय? जैसे काली, श्वेत मुर्गीमें भी जाति वही रहती है, नील, श्वेत, लाल, सब रंगोंकी गायोंमें गोत्व और पूज्यत्व रहता है; वैसे ही पंजाबी, मैथिल, बंगाली, द्रविड़, उत्कल, तैलंग ब्राह्मणोंके रूप-रंगमें भेद होनेपर भी ब्राह्मणत्व समान रहता है। कभी काले माता-पितासे भी गोरे बच्चे पैदा हो जाते हैं। कभी तो किसी पशुकी आकृतिका बच्चा पैदा हो जाता है। तब क्या उसका पशुके साथ सम्बन्ध माना जाय? आर्योंमें स्त्रियाँ अत्यन्त सुरक्षित रहती हैं। यहाँ अनादिकालसे वेदादिशास्त्रोंके अनुसार स्त्रियाँ परतन्त्र रहती हैं, पातिव्रत्य पालन करती हैं। अत: यहाँ माता-पिताका सम्बन्ध ज्ञान और तदधीन ब्राह्मणत्वादिका प्रत्यक्ष ज्ञान सुलभ है। यही आर्योंकी विशेषता है, जो अन्यत्र बहुत कम मिलेगी। आज मोहवश उसे ही खो देनेके लिये कुशिक्षाके प्रभावसे प्रभावित भारतीय भी व्यग्र हो रहे हैं।
अस्तु, वैज्ञानिक ढंगसे मनुष्योंमें बाह्य एवं आन्तरिक भेदसे जातिभेद ठीक उसी प्रकार स्वीकार्य है, जैसे मनुष्यमें धन एवं बल-बुद्धि आदिमें अनेक प्रकारका तारतम्य होता है। अत: जो किसीकी अपेक्षा शोषित है, वही किसीकी अपेक्षा शोषक सिद्ध होगा। अर्बुदपति, कोटिपति, लक्षपति, सहस्रपति, शतपति आदि सबमें परस्पर सापेक्ष शोषक-शोषित भाव है।
व्यापार आदिके द्वारा निर्वाह करनेवाला शोषक, मजदूरी-नौकरीके आधारपर जीवन चलानेवाला शोषित—यह व्यवस्था भी नहीं चल सकती। कारण, कितने ही ऐसे लोग हैं, जो व्यापारादि भी करते हैं, नौकरी भी। केवल नौकरी करनेवालोंमें भी कुछ लोगोंको हजारों, लाखों रुपये मासिक वेतन मिलता है और हजारों, लाखों वैतनिक उनके नियन्त्रणमें पीसते हैं। क्या मार्क्सवादी उन्हें भी शोषित कहेंगे? बड़े-बड़े इन्जीनियर, बड़े-बड़े एडवोकेट १०-१० मिनटका पारिश्रमिक हजारों रुपये ले लेते हैं। चिकित्सक, डॉक्टरोंकी भी यही हालत है, एक-एक ऑपरेशनमें लाख-लाख रुपये ले लेते हैं। यही स्थिति बड़े फील्डमार्शलों, चीफ जस्टिसों, राष्ट्रपतियों एवं मन्त्रियोंकी भी है। पूँजीपतियोंके परम प्रिय कई ऐसे नौकर हजारोंका वेतन लेते हैं और गरीबों मजदूरोंका पूर्ण शोषण करनेवाले ये ही हैं। क्या वे भी शोषित समझे जा सकते हैं? इस तरह मार्क्सवादी किसी तरह भी वास्तविक वर्गभेदका निर्धारण नहीं कर सकता। अत: इन वर्गभेदोंमें अमिट विरोधकी कल्पना करना व्यर्थ है। अनेक नौकर मालिकोंके अत्यन्त हितैषी होते हैं। उनके नामपर प्राण देना उनके लिये साधारण-सी बात है। आज भी वैतनिक सैनिक अपने सेनापतियोंके आज्ञानुसार प्राण देते ही हैं। हाँ, विद्वेष फैलानेवाले साहित्यिकों तथा प्रचारकोंकी महिमासे मालिक-मजदूरोंमें ही क्यों, पिता-पुत्र, पति-पत्नियों, गुरु-शिष्योंमें भी आज अमिट वैर-विग्रह बढ़ रहा है, छात्रोंका प्रोफेसरों, प्रिन्सिपलों, कुलपतियोंके साथ भी अमिट विरोध बन गया है। प्राचीनकालमें बुद्धिजीवी, श्रमजीवी आदि नौकरों तथा साधनसम्पन्न भूमिसम्पत्तिवाले मालिकोंमें पिता-पुत्र जैसा प्रेम होता था। अनेकों उदाहरण पुराणोंमें मिलते हैं, जिनमें मालिकोंके लिये सेवावृत्तिवाले नौकरोंने अपनी जान लड़ा दी थी, जिसका नमक खाते थे, उसके प्रति कृतज्ञ रहते थे। नमकहरामीको पाप समझते थे। अत: पूँजीपतियों, मालिकों, मजदूरोंमें संघर्ष उत्पन्न की हुई चीज है, न वह स्वाभाविक है और न उनका विरोध ही अमिट है। जहाँ राष्ट्रसेवाकी दृष्टिसे दोनों मिलकर काम करेंगे, वहाँ मालिक स्वयं मजदूरको पुत्रके तुल्य समझकर उसकी प्रत्येक सुविधाका ध्यान रखते हुए उसकी जीविकाका ध्यान रखेगा। वैज्ञानिकों, इन्जीनियरों, डॉक्टरों, वकीलोंको पर्याप्त वेतन दिया ही जाता है। सामान्य मजदूरोंको भी उनकी योग्यता एवं आवश्यकताका ध्यान रखते हुए उचित वेतनकी व्यवस्था की जाती रही है। आज भी अनेक स्थानोंमें मालिकों-मजदूरोंमें परस्पर प्रेम है, संघर्ष नहीं। अवश्य ही अनेक प्रकृतिके लोग होते हैं; अत: बहुत-से मालिकों एवं मजदूरोंमें संघर्ष भी होता ही है। मजदूर भी इस प्रकृतिके होते हैं कि कम-से-कम परिश्रम और ज्यादा-से-ज्यादा मजदूरी लेना चाहते हैं। मालिक भी कम-से-कम दाममें ज्यादा-से-ज्यादा काम लेना चाहते हैं। कहीं-कहीं मजदूरोंमें अधिक भलमनसाहत होती है। कहीं पूँजीपतियोंमें भी भलमनसाहत होती है। पूँजीपतियोंके पास ऐश्वर्यमद होनेसे प्रमाद, विलासिता, निर्दयता, अत्याचार अधिक सम्भव होता है अवश्य; परंतु यह सब दोष किसीमें भी स्वाभाविक एवं अनिवार्यरूपसे नहीं होते। इसीलिये सभी सेठोंमें भी भले-बुरे होते ही हैं। सर्वत्र परिस्थितियों एवं वातावरण-निर्माण और शिक्षादिद्वारा दोष मिटाये भी जा सकते हैं और बढ़ाये भी जा सकते हैं। वर्गवादी खूनी क्रान्ति शीघ्र लानेके लिये संघर्ष बढ़ानेका ही प्रयत्न करते हैं। इसीलिये वे दोनों वर्गमें सद्भावना बढ़ने, यहाँतक कि मजदूरोंके वेतन, भत्ता, मजदूरी आदि बढ़ने एवं कामके घंटोंमें कमी होनेको भी संघर्ष और कम्युनिष्ट राज्य बननेमें बाधक समझते हैं। फिर भी बोनस, भत्ता, वेतन बढ़ाने और कामके घंटोंमें कमी करानेके लिये आन्दोलन करते हैं। इस सम्बन्धमें उनका उद्देश्य यही रहता है कि इसी मार्गसे संघर्ष बढ़ेगा। माँग सफल हो जायगी तो सफलताका श्रेय उन्हें प्राप्त होगा, मजदूर नेताओंपर मजदूरोंका विश्वास बढ़ेगा; आन्दोलनमें भी विश्वास बढ़ेगा और पुन: अधिक संघर्षके साथ और अधिक माँगके लिये आन्दोलन बढ़ायेंगे। माँग पूरी न होनेसे द्वेष और बढ़ेगा। हड़तालों, जुलूसों, सभाओंद्वारा उत्तेजना बढ़ाकर मजदूरोंको तोड़-फोड़के कामोंमें प्रोत्साहित किया जाता है। प्रबन्धकों, शासकोंके द्वारा हस्तक्षेप करने, लाठी चार्ज, गोलीकाण्ड होनेसे वह विद्वेष-वैमनस्य और बढ़ता है। बस, इसी वैमनस्यको बढ़ानेके लिये कम्युनिष्ट तरह-तरहकी माँग उपस्थित करते रहते हैं। रामराज्यवादीकी दृष्टिमें योग्यता, आवश्यकता एवं उत्पादन, लागतखर्च, टैक्स और आयको देखते हुए, काम-दाम-आरामकी व्यवस्था होती है। साम्यवादी शासनको भी इस बातोंका ध्यान रखते हुए ही व्यवस्था करनी पड़ती है। न सभी सब प्रकारका काम ही कर सकते हैं और न सभीको एक-सा पारिश्रमिक ही दिया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्तिको एक-सी सुविधा नहीं मिल सकती। हर व्यक्तिके लिये वायुयान, मोटर आदिकी व्यवस्था होनी कठिन ही है।
जहाँ सद्भावना एवं न्यायकी बुद्धि नहीं है, वहाँ परिस्थितियोंसे लाभ उठानेकी चेष्टा सभी करते हैं। जैसे भूखों मरते हुए मजदूर अल्पमूल्यमें अपना श्रम बेचनेको लाचार होता है। पूँजीपति उस लाचारीका अनुचित लाभ उठाकर उसके श्रमका उचित मूल्य नहीं देता, उसी तरह मजदूर भी संगठित होकर, हड़ताल करके, सब काम ठप करके, पूँजीपतिको भी ज्यादा दाम देनेके लिये लाचार कर देते हैं। इतना ही क्यों? सभी कुछ छीनकर उसे समाप्त भी कर डालते हैं। कुछ ऐश्वर्यमदोन्मत धनिकोंके प्रमादसे, कुछ उनके विरुद्ध किये गये अनुचित प्रचारसे ऐसा वातावरण बन जाता है कि निरपराध, शिष्ट, परोपकारी, धनवान‍्को भी अपमानित होना पड़ता है और कभी शिष्ट ईमानदार मजदूरको भी अत्याचारका शिकार बनना पड़ता है। सड़कोंपर कभी रिक्शा या ताँगासे जब मोटरकारका एक्सीडेण्ट हो जाता है तो भले भी अपराध रिक्शेवालेका ही हो, फिर भी साधारण जनसमूह मोटरवालेको ही अपराधी ठहराता है। वस्तुत: दूकानदार एवं खरीददार-जैसा ही मजदूर तथा मालिकोंका संघर्ष है। जब देहाती किसानोंको टैक्स देने तथा वस्त्रादि आवश्यक वस्तु प्राप्त करनेके लिये रुपयोंकी अत्यधिक अपेक्षा होती है, तब उन्हें गाढ़े पसीनेकी कमाईका गेहूँ, चावल, कपास, गन्ना आदि अल्प मूल्यमें ही देनेके लिये लाचार होना पड़ता है, परंतु जब कभी उन्हें बेचनेकी आवश्यकता नहीं होती, तो वे अपनी वस्तुओंका मनमाना दाम बढ़ा देते हैं और अभाववाले लोग ज्यादा-से-ज्यादा दाम देनेको लाचार होते हैं। असंतुलनके कारण संघर्षसे किसीका लाभ नहीं होता। मजदूर आन्दोलन करके ज्यादा दाम प्राप्त करता है तो मालिक वस्त्रादिपर ज्यादा दाम बढ़ा देता है। उसके लिये किसानोंको ज्यादा दाम देना पड़ता है तो ये अपने अन्नका दाम बढ़ा देते हैं। फलत: मजदूरोंने आन्दोलनोंद्वारा ज्यादा मजदूरी पायी, वह उधर अन्न, वस्त्र खरीदनेमें खतम हो गयी। इधर मध्य श्रेणीके लोगोंका जीवन अधिक संकटपूर्ण हो जाता है। यह कहा जा चुका है कि केवल प्रचारके बलपर निर्माण एवं विध्वंसकार्य होता रहता है। वर्गभेद—वर्गविद्वेष पैदाकर अवश्य वर्गविध्वंस किया जा सकता है, संसारमें दुराचार, व्यभिचार भी होता है, डाकुओंके दल भी संघटित होते हैं, उनको कभी-कभी पर्याप्त सफलता भी मिल जाती है; परंतु एतावता वह धर्म, सदाचार या सिद्धान्त नहीं बन सकता।
पूर्वोक्त युक्तिसे पैदावारके साधनोंपर यदि लोगोंके व्यक्तिगत अधिकार वैध हैं, तब उनका मिटाना या समाज या राष्ट्रके नामपर कुछ तानाशाहोंके हाथमें उत्पादन साधनोंका जाना कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता। यह भी कहा जा चुका है कि केवल मजदूरोंके कारण ही उत्पादन-वृद्धि नहीं होती, किंतु वैज्ञानिकों, नरेशों, पूँजीपतियों एवं प्राकृतिक साधनों, कच्चे माल इत्यादिकोंको ही इसका मुख्य श्रेय है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश एवं सामयिक वृष्टि, विविध प्रकारके लोहा, कोयला, ताँबा, सीसा, पारा तथा सर्वोपरि ईश्वर-निर्मित प्राकृत दिल, दिमाग, मस्तिष्क आदिका भी इन सब विकासोंमें प्रमुख हाथ है। इनके बिना मजदूर कुछ भी नहीं कर सकते। यह मार्क्सवादी भी मानते ही हैं। पूँजीपतियोंके कारण ही हजारों कल कारखानोंका बनना सम्भव हो सका। लाखों मजदूरोंको एकत्र रहकर संघटित होने एवं आन्दोलन करनेकी सुविधा प्राप्त हुई, अन्यथा देहातों, गाँवोंमें अपने खाने-कमानेमें परेशान मजदूरोंके लिये यह कहाँ सम्भव था कि वे दूर-दूरसे चलकर लाखोंकी संख्यामें एकत्र हो सकें।
शास्त्रीय दृष्टिसे इसे उपजीव्य विरोध कहा जाता है। जैसे पितासे उत्पन्न पुत्र पिताका घातक नहीं हो सकता, वैसे ही पूँजीपतियोंके सहारे संघटित एवं बलवान् होनेवाले मजदूर पूँजीपतियोंकी सम्पत्ति छीनकर उन्हें नष्ट कर दें, यह कृतघ्नता समझी जाती है—‘जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥’ अग्निसे उत्पन्न धूम (मेघ)-के द्वारा अग्निका नाश किया जाना ही इसका उदाहरण है—‘धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई।’ इसके अतिरिक्त जिस मजदूरवर्गने वेतन लेकर अपना श्रम बेच डाला, फिर उसे क्या अधिकार है कि वह उत्पादन-साधनों या उत्पन्न हुई वस्तुओंपर अधिकार कर ले? किसीने अपनी कोई चीज किसीके हाथ बेच दी, तो उसमें या उसके द्वारा प्राप्त फलमें उसका कोई भी अधिकार नहीं रहता। शास्त्रानुसार दक्षिणाके द्वारा क्रीत-ऋत्विजोंद्वारा होनेवाले यज्ञोंका फल यजमानको ही मिलता है, ऋत्विजोंको नहीं—‘शास्त्रफलं प्रयोक्तरि तल्लक्षणत्वात्’ (३।७।१८—३।८।५) इत्यादि पूर्व-मीमांसादर्शनमें यह स्पष्ट है। अवश्य ही ईश्वरके तुल्य जो भी अदृष्टोंद्वारा विश्व सृष्टिमें कारण है। अत: विश्वमें सभी प्राणियोंका हिस्सा है। इस दृष्टिसे न केवल मनुष्योंका ही, अपितु प्राणिमात्रका उसमें हिस्सा है। अत: सबको जीवित रहने, विकसित होनेका अधिकार है। अतएव किसीपर अन्याय, अत्याचार होना अनुचित है। पशु, पक्षी, वृक्ष आदिका भी अन्यायपूर्ण संहार तथा शोषण पाप है। इस दृष्टिसे राज्यद्वारा एक सर्वसामान्य जीवन-स्तर निर्धारित होना आवश्यक होता है, जिसमें योग्यता, आवश्यकता तथा उत्पादनके अनुसार काम, दाम, आरामकी व्यवस्था की जाय और सभीको स्वस्थ, शिक्षित एवं विकसित होनेका अवसर मिले। इस दृष्टिसे मजदूरोंके भी वेतनका क्रम उचितरूपमें निर्धारित किया जाय। इस सम्बन्धमें न अत्यन्त समता ही लायी जा सकती है, न अत्यन्त विषमताका ही समर्थन किया जा सकता है। संतुलित समता, संतुलित विषमता ही मान्य हो सकती है। शरीरमें भी हाथ, पाँव, पेट, पीठ आदिमें तथा एक हाथकी ही अँगुलियोंमें भी मोटापन, पतलापन, लम्बाई-चौड़ाई आदि समान नहीं। कोई बड़ी, कोई छोटी, कोई मोटी, कोई पतली है, तथापि उनका एक सन्तुलन भी है। पेट बहुत मोटा हो जाय, हाथ-पैर दुबले हो जायँ तो शरीर स्वस्थ नहीं समझा जा सकता। निष्कर्ष यह है कि सामाजिक, आर्थिक संतुलन रहना बहुत आवश्यक है। इसी असंतुलनको दूर करनेके लिये भारतीय धर्मशास्त्रों, नीतिशास्त्रोंमें अनेक प्रकारके नियम हैं।
शास्त्रानुसार प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरेका मधु अर्थात् मोदहेतु माना गया है। पंच महायज्ञद्वारा विश्वका उपकारक बनता है। यज्ञसे देवताओंका, ब्रह्मयज्ञसे ऋषियोंका, भूतयज्ञसे कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, सभी प्राणियोंका तर्पण किया जाता है, श्वान, काक, प्रेत, पिशाचादि सभी प्राणियोंके तर्पणका प्रयत्न किया जाता है। अर्थात् मनुष्य केवल अपने लिये नहीं उत्पन्न हुआ है, किंतु सम्पूर्ण विश्वके तर्पणके लिये उसका जन्म है। भोजनकालमें जो भी भोजनार्थी आये, उसका नाम, गोत्र पूछे बिना उसे भोजन करानेका नियम है। रन्तिदेव आदि महापुरुषोंने ४८ दिनका निर्जल व्रत करनेके अनन्तर भी भोजन उपस्थित होनेपर नियमानुसार अतिथिकी प्रतीक्षा की। प्राप्त सत्तुक आदि सब कुछ ब्राह्मण, अन्त्यज आदिको प्रदान कर दिया था। जल पीनेके समय भी जब पुल्कसने आकर जल माँगा तो वह जल भी उसे दिया और प्राणान्त होते समय भी परमेश्वरसे यही प्रार्थना की कि ‘प्रभो! मुझे राज्य, स्वर्ग, अपवर्ग कुछ भी नहीं चाहिये, केवल दु:खियोंका दु:ख ही मुझे मिल जाय; जिससे वे सुखी हो जायँ’—
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥
मन्वादिने भी यह नियम रखा है कि जिसके घरमें तीन वर्षोंके लिये भृत्यादि भरणकी सामग्री हो, उसे सोमयज्ञ करके उसीमें अपना धन लगाना चाहिये।
यस्य त्रैवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं भृत्यवृत्तये।
अधिकं वापि विद्येत स सोमं पातुमर्हति॥
(मनु० ११।७)
विविध प्रकारके दानोंका भी उद्देश्य असंतुलन मिटाना ही है। अतिरिक्त आयका पंचधा विभाजन करके राष्ट्रहितमें लगानेकी बात पीछे कही जा चुकी है। मनुने यह भी कहा है कि जो राजा असाधु पुरुषसे धन लेकर साधु-पुरुषोंको प्रदान करता है, वह अपनेको नाव बनाकर उन दोनोंको तार देता है—
योऽसाधुभ्योऽर्थमादाय साधुभ्य: सम्प्रयच्छति।
स कृत्वा प्लवमात्मानं सन्तारयति तावुभौ॥
(मनु० ११।१२)
इसी प्रकार अनुचित ढंगसे चोरबाजारी, चोरी, डाका, घूससे धनवान् बननेवाले असाधुओंसे धन छीनकर साधुओंको देना उचित है। ईमानदार धनवानोंसे भी सहायता लेकर बिना रोजी-रोजगारवालोंकी रोजीका प्रबन्ध करना राजाका कर्तव्य है। भूमिवालोंसे भी भूमि लेकर बेरोजगारी दूर की जा सकती है। हाँ, यह अवश्य है कि जिस कुँएसे पानी लिया जाय, उसको इस योग्य बनाये रखें कि वह आगे भी सहायता देने लायक रहे। किसी अंगसे अस्थि या मांसकी सहायता लेकर दूसरे अंगकी आवश्यकता पूरी की सकती है, परंतु सहायक अंगको मिटा देना—नष्ट कर देना अनुचित है। उसे पुष्ट बनाकर उसकी कमी पूरी करनी ही ठीक है। यही जड़वाद, अध्यात्मवादमें भेद है। अध्यात्मवादी अपनी शक्ति, सम्पत्तिको विश्व-सेवामें समर्पित करनेको लालायित रहता है, भारतीय नीतिके अनुसार दूसरे व्यक्तिकी वस्तु लेनेसे हर प्रकार बचना चाहता है। पर देनेवाला हर प्रकार अपनी वस्तु दूसरेको देना चाहता है। शास्त्र प्रतिग्रहसे बचनेका आदेश भी करते हैं और देनेवालेको हर प्रकारसे देनेका उपदेश भी। प्रतिग्रहसमर्थ पुरुषको भी प्रतिग्रहसे बचना चाहिये—
‘प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसङ्गं तत्र वर्जयेत्।’
(मनु० ४।१८६)
पर देनेवालेको कहते हैं कि—
‘श्रद्धया देयम्, अश्रद्धया देयम्, श्रिया देयम्, ह्रिया देयम्, भिया देयम्।’
(तैत्तिरीय उप० १।११।३)
स्वत: श्रद्धासे दे, दूसरोंकी प्रेरणासे दे, लज्जासे दे, भयसे दे। टोला-पड़ोसके लोग भूखे रहेंगे तो कोई भी धनी अपनी कोठीमें सुखकी नींद सो न सकेगा। चोरी, डाका, लूट, खसोट आदि अवश्य ही मचेगी। इस दृष्टिसे देनेवाला हर तरह देना चाहता है। लेनेवाला बचना चाहता है। अत: लीजिये, लीजिये, नहीं, नहींका घोष सुनायी पड़ता है। आधुनिक साम्यवादियोंमें ठीक इसका उल्टा है। गरीबों-मजदूरोंके नामपर लेनेवाले कहते हैं, ‘लड़कर लेंगे, झगड़कर लेंगे, मरकर-मारकर लेंगे, लेंगे।’ देनेवाले कहते हैं—‘नहीं देंगे, मर जायँगे, मिट जायँगे पर नहीं देंगे।’ इस तरह यहाँ ‘दो-दो, नहीं-नहीं’ का घोष चलता है। अध्यात्मवादमें एक मुख्य उपासना है, जिसमें निर्गुण ब्रह्म जाननेके लिये विराट् हिरण्यगर्भ तथा अव्याकृत ब्रह्मकी उपासना करनी पड़ती है। यह उपासना अहंग्रहरूपसे होती है। उपासकको अपने व्यष्टि स्वरूपको हटाकर समष्टिरूपकी भावना करनी पड़ती है, अर्थात् अपनेको साधारण देह न मानकर महाविराट् मानना पड़ता है। फिर तो द्युलोकको अपना मूर्द्धा, सूर्यको चक्षु, वायुको प्राण, अन्तरिक्षको उदर, समुद्रको बस्ती, पृथ्वीको पैर मानता है। जिसमें अहंता लानी हो, उसमें पहले घनिष्ठ ममता लानी पड़ती है। जिनमें साधारण ममता होती है, उनमें अहंता नहीं होती। देहमें घनिष्ठ ममता होती है, अत: उसमें ही अहंता होती है। इतनी ममता दृढ़ होनेसे ही अहंता उत्पन्न होती है। जब कभी पुत्र-कलत्रमें ममता घनिष्ठ हो जाती है, तब उनमें भी अहंता उत्पन्न होती है। इसीलिये उनके दु:ख-सुखमें दु:खी-सुखी होनेकी बात चलती है। अतएव जैसे प्राणी देहके भोजन-वस्त्र विविध सुखसाधनोंके लिये तथा दु:ख दूर करनेके लिये प्रयत्नशील होता है, वैसे ही जब पुत्र-कलत्रादि भी ममता एवं अहंताके आस्पद होते हैं, तब उनके भी दु:ख-निवृत्ति एवं सुख-प्राप्तिके लिये प्राणी सदा ही तत्पर होता है। यह ममता क्रमेण विकसित होती है। साधारण प्राणी देहमें ही ममता रखता है, पर साधक धीरे-धीरे संकुचित व्यष्टि अभिमानको मिटाकर, उसे कुटुम्ब, ग्राम, मण्डल, राज्य, राष्ट्र एवं विश्वमें विकसित करता है। इसीलिये साधारण प्राणी अपने ही दु:खमें दु:खी और सुखमें सुखी होते हैं। पर उच्च भावनावाले लोग कुटुम्ब, ग्रामके दु:ख-सुखमें दु:खी-सुखी होते हैं और अधिक उच्च लोग सारी पृथ्वीको ही कुटुम्ब मानकर सारे विश्वको अपनी आत्मा मानकर संसारके ही सुख-दु:खमें सुखी-दु:खी होते हैं। इसीलिये अधिकांश अपने दु:ख-सुखमें रोते-हँसते हैं, पर दूसरोंके दु:खमें रोनेवाले और दूसरोंके सुखमें हँसनेवाले महापुरुष होते हैं। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि जैसे सामान्य प्राणी अपने सुख-प्राप्ति, दु:ख-निवृत्तिमें निरन्तर प्रयत्नशील होता है, वैसे ही महापुरुष समष्टि जगत‍्की दु:ख-निवृत्ति और सुख-साधनमें लगे रहते हैं। इस दृष्टिसे राजा-प्रजा सभी समष्टि हित-साधनमें संलग्न रहकर एक इस प्रकारका जीवन निर्धारित करते और कम-से-कम उस स्थितिमें राष्ट्रके प्रत्येक नागरिकको पहुँचानेका प्रयत्न करते हैं। विविध प्रकारकी सहायता तथा बिना सूद-ऋणादिद्वारा रोजी-रोजगार देरकर मजदूरी या नौकरी देकर सभीके लिये उचित रोटी, कपड़ा, औषध, शिक्षा, निवासकी व्यवस्था की जाती है। उसी दृष्टिसे वेतनका भी निर्धारण होता है। योग्यता एवं परिस्थितिके अनुसार किसीको नौकरी, किसीको कोई व्यापार, किसीको कोई उद्योग, किसीको खेती करने आदिकी व्यवस्था करके सबकी ही रोजीकी व्यवस्था की जाती है। इतनेपर भी हानिका डर एवं लाभका प्रलोभन हुए बिना आलस्य-प्रमादका त्यागकर उत्साहके साथ तत्परतापूर्वक परिश्रममें जबतक प्रवृत्ति न होगी, तबतक सफलता सम्भव नहीं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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