6.11 राष्ट्रका वशीकरण
यद्यपि समाजका आधार व्यक्ति है, तथापि बिना संघटनके समाज नहीं बनता। संगठित व्यक्तियोंका प्रथम समाज कुटुम्ब ही है। उसके संचालनमें जिन गुणोंकी आवश्यकता होती है, वास्तवमें राष्ट्रके संचालनमें भी उन्हीं गुणोंकी आवश्यकता है। कुटुम्बमें भिन्न स्वार्थोंका संघर्ष है। किसी-न-किसी तरह उसमें सामंजस्य स्थापित करना छोटे, बड़े, बूढ़े, स्त्री, पुत्र, कलत्र सबको सन्तुष्ट रखना, नीतिद्वारा काम निकालना, किसीके साथ अन्याय न होने देना, अनुशासन और स्वतन्त्रताका उचित अनुपातमें मेल मिलाये रखना, सबको स्नेहके सूत्रमें बाँध रखना और घरके भीतर-बाहर शान्ति बनाये रखना जटिल समस्या है। राष्ट्रके संचालनमें भी ऐसी ही समस्याओंका पग-पगपर सामना करना पड़ता है। अत: जिसने कुटुम्ब-संचालनमें सफलता पा ली, वही राष्ट्र-संघटनमें भी सफल हो सकता है। इसीलिये शास्त्रोंमें कुटुम्बकी रक्षापर बड़ा जोर दिया गया है और सहिष्णुता, उदारता, क्षमता, आज्ञापालन, सौहार्द, सौमनस्य आदि गुणोंकी बड़ी आवश्यकता बतलायी गयी है। कुटुम्बमें जो वास्तवमें एक छोटा-मोटा राष्ट्र ही है, जबतक समान-मन, समान-उद्देश्य नहीं बनता एवं जबतक स्नेहसूत्रमें सब बँध नहीं जाते, तबतक किसी प्रकारका अभ्युदय असम्भव है। इन सबको सम्पादन करनेके लिये अथर्ववेदके सांमनस्य सूक्तमें (३।६।३०) एक अनुष्ठान बतलाया गया है। उसके मन्त्रोंका विधिवत् जप, हवन, अभिषेकद्वारा इस लक्ष्यकी सिद्धि होती है।
इन मन्त्रोंके कुछ अंश एवं आशय इस प्रकार हैं—‘सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि व:।’ (३।६।३०।१) अर्थात्—हे विवाद करनेवाले मनुष्यो! मैं तुमलोगोंका वैमनस्य मिटाकर सौमनस्य करता हूँ। (यह उक्ति जापक, होता या अभिषेक करनेवालेकी है।) मैं तुम्हें समान हृदय, समान चित्तवृत्ति एवं सम्यक् प्रीतिसे सख्य भावसे युक्त बनाना चाहता हूँ। जैसे गौ अपने वत्सको चाहती है, वैसे तुमलोग भी एक-दूसरेसे प्रेम करो—‘अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु सम्मना:। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शंतिवाम्।’ (२) पुत्र पिताका अनुगामी हो, माता पुत्रादिकोंके समान मनवाली और भार्या पतिसे सुखयुक्त मधुर वचन बोलनेवाली हो—‘मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।’ (३) एक भाई दूसरेसे द्वेष न करे, एक बहन दूसरेसे द्वेष न करे। सब लोग समान रहन-सहन, ज्ञान, कर्मसम्पन्न होकर कल्याणमयी वाणी बोलें—‘येन देवा न वियन्ति नो च विद्विषते मिथ: तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे। संज्ञातं पुरुषेभ्य:’ (४) जिस मन्त्रके प्रभावसे इन्द्रादि देवताओंका परस्पर विवाद, विद्वेष नहीं होता, उसी एक मत्यापादक सांमनस्य मन्त्रको तुम्हारे गृहमें प्रयुक्त करता हूँ—‘ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वियौष्ट संराधयन्त: सधुराश्चरन्त:। अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्व: संमनसस्कृणोमि।’ (५) तुमलोग ज्येष्ठ, कनिष्ठभावसे परस्पर अनुरक्त हो। समान चित्त होकर समान कार्यके लिये समान प्रयत्नशील हो। परस्पर वियुक्त न हो; एक-दूसरेसे प्रियवाक् बोलते हुए परस्पर मिलो। मैं तुमलोगोंको समान कर्ममें समान मन होकर प्रवृत्त करता हूँ—‘समानी प्रपा सह वोऽन्नभाग: समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि।’ (६) तुमलोगोंकी एक पानीयशाला हो, साथ ही अन्नभाग हो, (एक जगह ही बैठकर अन्नपानादिका भोग करो), मैं तुमलोगोंको एक स्नेहपाशमें बाँधता हूँ। जैसे चारों ओरसे घेरकर अरा नाभी (चक्र)-का आश्रयण करते हैं, वैसे ही समान फलकी आकांक्षासे तुम एक ही अग्निदेवकी उपासना करो—‘सध्रीचीनान् व: संमनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान्। देवा इवामृतं रक्षमाणा: सायंप्रात: सौमनसो वोऽस्तु।’ (३।६।३०।७) मैं तुम्हें एक कार्यके लिये एक चित्तसे सहोद्युक्त बनाता हूँ और एक प्रकार ही तुम्हारी व्याप्ति या मुक्ति हो। इस सांमनस्य वशीकरणसे मैं तुम सबको वशमें करता हूँ। जैसे देवता एक मत होकर अजरामरत्वप्रापक अमृतकी रक्षा करते हुए शोभनमनस्क होते हैं, वैसे ही आपलोग भी सदा शोभनमनस्क हों।
कितनी उच्च और उदार कामनाएँ हैं। जो लोग अथर्ववेदको जादूगरी, टोनाटामरका पिटारा समझते हैं, उनका ध्यान क्या कभी इस ओर भी जाता है? कुटुम्बियों एवं कुटुम्बोंके सौमनस्य, सामनस्यमें सारा राष्ट्र ही नहीं—सारा विश्व स्नेहपाशमें बँधकर एकमत होकर अपने अभीष्टको प्राप्त कर सकता है। सभा, सोसाइटियोंमें केवल प्रस्ताव पास करनेकी वीरता दिखलानेसे कुछ नहीं होता। मनुष्य कितनी ही दृष्टादृष्ट शक्तियोंसे घिरा रहता है, सब बातें उसके वशकी नहीं। इसीलिये लौकिक प्रयत्नोंके साथ पारलौकिक प्रयत्नोंकी भी आवश्यकता रहती है। संकल्पकी शक्ति बड़ी प्रबल होती है। उनका प्रभाव लौकिक स्थितियोंपर भी पड़ता है। आज कुटुम्ब, राष्ट्र तथा विश्वमें विघटन-ही-विघटन है। ‘अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग’ सर्वत्र आज यही दिखलायी दे रहा है। जहाँ देखो, वहीं ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, कलह, संघर्षका साम्राज्य है। इनके प्रशमनके आधुनिक सभी उपाय विफल हो रहे हैं। आज वैज्ञानिक अनुसंधानोंके पीछे लाखों रुपये उड़ते हैं। असफलता होनेपर भी कुछ नवीन बातोंके अनुभव होनेका सन्तोष कर लिया जाता है। फिर क्यों न कभी कुछ दैवी प्रयत्न करके भी देख लिया जाय? यदि हमसे कठिन अनुष्ठान नहीं होते तो क्या इतना भी नहीं बन पड़ता कि प्रतिदिन अपनी श्रद्धानुसार कुछ जप, भजन, प्रार्थना विश्वकल्याणार्थ करके देख लें कि उसका फल क्या होता है?
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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