6.12 समाजवादमें लोकतन्त्र
‘सोवियट कम्युनिज्म’ (रूसी साम्यवाद) नामक पुस्तकमें फेबियन वेव दम्पतिने लिखा है कि ‘जहाँ अमेरिका, ब्रिटेनमें ६० प्रतिशत जनता चुनावमें भाग लेती है, वहाँ सोवियत रूसमें ८० प्रतिशत जनता भाग लेती है। इस आधारपर मार्क्सवादी सर्वहाराका अधिनायकत्व ही वास्तविक जनतन्त्र है। ब्रिटेन, अमेरिकाका जनतन्त्र तो ढोंगमात्र है।’ परंतु दूसरी पार्टीको प्रेस, पत्र, प्रचार आदिका जहाँ अवकाश ही न हो, दूसरे दलको स्वतन्त्ररूपसे निर्वाचनमें भाग लेनेका अधिकार ही न हो, जहाँ अधिनायकके आदेशानुसार जनताको वोट देना ही पड़े, वहाँ अस्सी प्रतिशत ही क्या शत-प्रतिशत वोट पड़ें तो भी क्या आश्चर्य है? परंतु क्या इसे स्वतन्त्र जनमत कहा जा सकता है? यह तो केवल दूसरेकी आँखोंमें धूल झोंकनेके लिये शुद्ध नाटकमात्र है।
कहा जाता है कि ‘रूसमें मजदूर-वर्गको छोड़कर दूसरा कोई वर्ग ही नहीं, अत: दूसरी पार्टीकी वहाँ आवश्यकता नहीं। पूँजीवादी राष्ट्रोंमें विभिन्न वर्ग हैं, अत: उन वर्गोंका प्रतिनिधित्व करनेवाली पार्टियाँ वहाँ आवश्यक होती हैं। इसलिये रूसमें दूसरी पार्टियोंका न होना गुण ही है, दोष नहीं।’ परंतु दूसरा वर्ग है या नहीं, इसका पता तो तब चले, जबकि दूसरोंको मुँह खोलने दिया जाय। दूसरे लोगोंको लेखन, भाषण एवं प्रेस-पत्रकी, सम्पत्ति रखनेकी, निर्वाचन लड़नेकी स्वाधीनता मिल जाय—तभी मालूम हो सकता है कि लोग क्या चाहते हैं? यों तो रूसी पत्रोंद्वारा सरकारी मतको ही जनताका मत बतलाया जाता है। सरकारी मतके विपरीत मतको राष्ट्रविरोधी, जनविरोधी, मानवताविरोधी और न जाने क्या-क्या कहा जाता है। जहाँ कुछ अंशोंमें भी विचार-स्वातन्त्र्य है, वहाँ तो समाजवादी-विचारधारावालोंमें भी पार्टीभेद होता है। जैसे भारतमें ही कम्युनिष्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, क्रान्तिकारी कम्युनिष्ट पार्टी आदिका भेद है। फिर यदि रूसमें मतभेद नहीं है, वर्गभेद नहीं है, तो प्रबल पुलिस एवं प्रबलतम गुप्तचर विभाग किसलिये है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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