6.14 कम्युनिष्टोंकी कूटनीति ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.14 कम्युनिष्टोंकी कूटनीति

‘कम्युनिष्टोंके हाथ शासनसूत्र न जाकर प्रजातन्त्रवादियोंके हाथमें आनेपर’ मार्क्सकी रायमें ‘कम्युनिष्टोंको उससे अलग ही रहकर उनके कामोंमें अड़ंगा डालते रहना चाहिये। उनके सामने ऐसी शर्तें पेश करनी चाहिये, जिनका मानना असम्भव हो। क्रान्तिके अवसरपर श्रमजीवियोंको चाहिये कि मध्यम श्रेणीवालोंके साथ किसी प्रकारके समझौतेका विरोध करें। प्रजातन्त्रवादियोंको अत्याचार करनेके लिये बाध्य कर दें। उनके अत्याचारोंका उदाहरण देकर लोगोंमें जोश बढ़ाना चाहिये। क्रान्तिके आरम्भ और मध्यमें प्रजातन्त्रवादियोंके साथ अपनी माँग भी पेश करते रहना चाहिये। यदि प्रजातन्त्रवादियोंको सफलता मिली तो श्रमजीवियोंकी सुरक्षाकी गारण्टी माँगनी चाहिये। अधिकाधिक सुधारों और अधिकारोंकी माँग करनी चाहिये। सरकारपर खुले आम अविश्वास प्रकट करना चाहिये, जिससे उनका विजयका गर्व ठंढा हो जाय। शासनके मुकाबिले अपनी मजदूर-पंचायतोंकी स्थापना करनी चाहिये। शासनके सामने कई अड़चनें खड़ी होंगी और सम्पूर्ण मजदूर-शक्तिके साथ सरकारको लोहा लेना पड़ेगा। क्रान्तिके अनन्तर श्रमजीवियोंको पराजित शत्रुकी निन्दा न करके पुराने साथी, प्रजातन्त्रवादियोंके प्रति अविश्वास प्रकट करें। श्रमजीवियोंको सशस्त्र और संघटित रहना चाहिये। इससे मजदूरोंका विश्वास जागरूक होता है। बन सके तो सरकारी सेनाके संघटनमें बाधा डाली जाय। यदि यह न हो सके तो अपनी सेना बनानी चाहिये। सेनापति, अफसर आदि ऐसे ही लोग हों, जो मजदूर-कमेटीकी आज्ञाका पालन कर सकें। सरकारी सेनाके भी सशस्त्र श्रमजीवियोंको अपने पक्षमें कर लेना चाहिये। मध्यम श्रेणीके प्रजातन्त्रवादियोंके प्रभावसे श्रमजीवियोंको मुक्त करना और उनका स्वतन्त्र सशस्त्र संघटन करना परमावश्यक होता है। तरह-तरहके अड़ंगे डालकर शासन चलाना असम्भव करना श्रमजीवियोंका प्रोग्राम होना चाहिये।’
उपर्युक्त कम्युनिष्ट-नीतिसे उनकी ईमानदारी एवं सद्भावनाका भंडाफोड़ होता है। इससे स्पष्ट है कि कम्युनिष्ट अपने न्यायपूर्ण तर्क, युक्ति एवं सिद्धान्तोंके द्वारा लोकको प्रभावित कर बहुमत प्राप्त करनेकी आशा नहीं रखते। साथ ही जाल-फरेब बिना किये अपने पुराने साथियों तथा उपकारियोंको बिना धोखा दिये, उनको बिना समाप्त किये भी सफलताकी आशा नहीं रखते। यह सामान्य न्याय है कि अत्याचार करनेवाला उतना अपराधी नहीं माना जाता, जितना कि अत्याचार करनेके लिये किसीको बाध्य करनेवाला। किसी सुशासनमें अड़ंगा डालना या उसके सामने ऐसी शर्तें उपस्थित करना जिनका मानना असम्भव हो, स्पष्ट ही बेईमानी है। यहाँ लोकहितकी तो कोई भावना ही नहीं है। केवल जिस किसी तरह शासनसत्ता हथियानेके लिये ही सब प्रकारका अत्याचार करना, बेईमानी अपनाना उन्हें मंजूर है। इसी तरह उत्तेजना फैलाकर उत्तेजित करके युद्ध कराना अलग बात है और उत्तेजित करके न्यायको अन्याय एवं उचितको अनुचित समझनेके लिये बाध्य करना अलग बात है। यह सर्वसम्मत है कि वस्तुस्थिति समझनेमें किसी प्रकारकी भावुकता या उत्तेजना बाधक होती है। इसी तरह मध्यम श्रेणीके लोगोंसे किसी प्रकारके समझौतेका विरोध करना भी विचित्र बात है। यदि उचित आधारपर समझौता सम्भव हो और समझौता लोक-कल्याणकारी हो, तो भी उसका विरोध क्यों करना? क्या अपना उल्लू सीधा करनेके लिये? यदि ऐसा ही है तो फिर कम्युनिष्ट दूसरोंकी ऐसी भावनाओंका किस मुँहसे विरोध कर सकता है? इसी तरह पुराने निन्दनीय साथियोंकी निन्दा न कर प्रशंसा करना वर्तमान योग्य एवं उचित शासनके प्रति अविश्वास प्रकट करना भी सद्भावनाका सूचक नहीं।
कम्युनिष्टोंके प्रोग्रामोंको समझकर यदि शासनरूढ़ प्रजातन्त्रवादी भी उनके अनुसार ही सत्य, न्यायकी चिन्ता न कर बदला चुकानेपर उतर आयें तो फिर कम्युनिष्ट तथा उनके छिट-पुट सैनिक संघटनको अन्त करनेमें कितना विलम्ब होगा? बल्कि लोकहितकर तथा शास्त्रसम्मत तो यही है—
यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्य-
स्तस्मिन् तथा वर्तितव्यं स धर्म:।
मायाचारो मायया वाधितव्य:
साध्वाचार: साधुना प्रत्युपेय:॥
(महा० शां० प० १०९।३०)
मायावीके साथ मायासे तथा साधुके साथ साधुतासे व्यवहार करना उचित ही है।
मार्क्स आगे कहता है—‘प्रजातन्त्रवादियोंको प्राचीन सामाजिक प्रणालीपर जितना ही आक्रमण करनेके लिये लाचार किया जाय, निश्चित कार्यक्रममें बाधा डाली जाय तथा पैदावार और माल ढोनेके साधनोंको राज्यके अधिकारमें लानेका आग्रह किया जाय। निजी जायदादपर आक्रमण करनेवाले प्रस्तावोंको बार-बार लाना चाहिये। यदि सरकार रेलों, कारखानोंको खरीदनेका प्रस्ताव करे तो बिना हरजाना, बिना मुआवजा दिये ही उसे राज्यकी सम्पत्ति बना लेनेका प्रस्ताव होना चाहिये। सम्पत्ति-वृद्धिपर इतना बड़ा टैक्स लगानेका प्रस्ताव पेश होना चाहिये, जिससे बड़ी जायदादवालोंका दिवाला ही निकल जाय। प्रजातन्त्रवादियोंद्वारा लाये गये राज्यके कर्ज चुकाने आदि प्रस्ताव आनेपर राज्यके दिवालिया होनेका प्रस्ताव लाना चाहिये। प्रजातन्त्रवादी स्थानीय, स्वाधीनता, स्वभाग्य-निर्णय आदिके नामपर देशको अनेक भागोंमें बाँटनेका प्रयत्न कर सकते हैं। श्रमजीवियोंको इन सब बातोंका विरोधकर संयुक्त शासनपर ही जोर देना चाहिये।’ उपर्युक्त मार्क्सीय कार्यक्रमोंके अनुसार ही कम्युनिष्टोंकी अड़ंगेबाजी चलती रहती है। उन्हें केवल विरोधके लिये विरोध करना है, अन्य किसी सार्वजनिक हितकी दृष्टिसे नहीं। अनैतिकता तथा उच्छृंखलताका स्वयं विस्तार करना अथवा सरकारको वैसा करनेके लिये बाध्य करना घोर अराजकता एवं उद्दण्डताका विस्तार करना है। व्यक्तिगत छोटे-बड़े किसी भी व्यापार या उद्योग-धन्धों, पैदावार या माल ढोनेवाले साधनोंका अपहरण चौर्य ही हो सकता है। कभी चोर भले बिना दण्ड पाये ही छूट जायँ; परंतु ऐसे लोगोंको तो चोरसे भी उग्र दण्ड मिलना ही चाहिये।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Exit mobile version