6.13 श्रमिकोंका एकाधिपत्य ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.13 श्रमिकोंका एकाधिपत्य

मार्क्सका कहना है कि ‘श्रमजीवियोंके एकाधिकारके सिद्धान्तका जन्मदाता वह स्वयं ही है। उसने १८५२ में अपने एक अमेरिकन मित्रको पत्रमें लिखा था कि वर्ग-कलहका सिद्धान्त यद्यपि पहलेसे ही हुआ था, तथापि वर्गोंके अस्तित्वका सम्बन्ध भौतिक उत्पत्तिकी किसी विशेष अवस्थासे होता है और वर्ग-कलहका अन्तिम परिणाम श्रमजीवियोंका एकाधिपत्य स्थापित होना है। यह श्रमजीवियोंका एकाधिपत्य समस्त वर्गोंके लोप होने और एक स्वाधीनतामूलक समानाधिकारसम्पन्न समाजकी स्थापनाके लिये बीचकी सीढ़ी है। इन बातोंका आविष्कारक मैं ही हूँ।’ उसने यह भी कहा है कि ‘आरम्भमें नये कानूनोंद्वारा जायदादके अधिकार और पूँजीवादियोंके उत्पादनपर जबरदस्ती आक्रमण करना पड़ेगा। तत्पश्चात् सभी प्राचीन प्रणालियोंपर भी आक्रमण करना पड़ेगा।’ पूर्वोक्त युक्तियोंसे सिद्ध है कि कम्युनिष्ट आन्दोलन शुद्ध द्वेष एवं ईर्ष्यापर ही अवलम्बित है। उसमें वास्तविकताका लेश भी नहीं है। इनके मतानुसार समष्टि लोकतन्त्र या लोककी इच्छाका भी कुछ मूल्य नहीं है। पूँजीपतितन्त्रके विपरीत मजदूरतन्त्रकी स्थापना ही इन्हें मान्य है। सहिष्णुता, उदारता, असंकीर्णता, समष्टिलोककल्याणकी कल्पनाका भी इस वादमें कोई स्थान नहीं है।
किंतु सभी आकांक्षाएँ आदरणीय नहीं होतीं, वैध आकांक्षाओंका ही समाजमें आदर होता है। किसीके भी सुन्दर भवन, कलत्र, मोटर आदिकी हथियानेकी आकांक्षा शास्त्रीय, धार्मिक, आध्यात्मिक-संस्कारशून्य लोगोंकी होती ही है। वैधमार्गसे कोई कोटिपति, अर्बुदपति, सर्वभूमिपति बननेकी आकांक्षा और तदनुकूल प्रयत्न करने तथा सफलता पाने आदिमें किसीको कोई आपत्ति नहीं। पर अवैधमार्गसे वैसा प्रयत्न या आकांक्षा सर्वथा अक्षम्य है। अवैधमार्गसे कोई व्यक्ति या समूह साम्यवादी सरकारकी सम्पत्तिपर अधिकार करना चाहे तो क्या साम्यवादी सरकार ही उसे सहन करेगी। वस्तुतस्तु कम्युनिष्टोंकी कोई भी योजना या सिद्धान्त ऐसा नहीं है, जिसका औचित्य सर्वसम्मत युक्तिसे सिद्ध किया जा सके। अविप्रतिपन्न युक्तियोंसे विप्रतिपन्न वस्तुओंकी सिद्धि की जा सकती है; परंतु कम्युनिष्ट जब किसी भी पुराने सिद्धान्त, पुराने न्याय, पुराने सत्य या पुराने नियमको स्थिर नहीं मानते, तब वे किस सर्वसम्मत आधारपर अपनी बातोंको सिद्ध करेंगे।
अद्वैतवादी वेदान्ती यद्यपि ब्रह्मातिरिक्त सभी वस्तुओंका पारमार्थिक बाध करते हैं, तथापि स्वपक्ष-साधन, परपक्ष-बाधनार्थ व्यावहारिक प्रमाण-प्रमेयादि सभी व्यवस्था मानते हैं, परंतु जो कम्युनिष्ट सत्य एवं न्यायको एकरस माननेको तैयार नहीं हैं, उनके औचित्यानौचित्य निर्णयका आधार ही क्या हो सकता है। यह कहा ही जा चुका है कि प्रत्यक्षानुमानागमादि प्रमाणोंके बिना किसी पदार्थकी सिद्धि नहीं हो सकती। इतिहास भी यदि किसी शिष्ट एवं सत्यवादी आप्तद्वारा लिखित होगा, तब तो वह आगमप्रमाण ही ठहरेगा, तद्भिन्न होनेसे सर्वथा प्रलाप ही होगा। इतिहासलेखकोंकी भी शिष्टता, सत्यवादिताका निर्णय किसी प्रमाणसे ही करना होगा। इसके अतिरिक्त अर्वाचीन, प्राचीन सत्यमें भी यदि भेद हो गया है, तब प्राचीन सत्यवादियोंका आधुनिक सत्यके साथ सम्बन्ध भी क्या होगा।
सिद्धान्तरूपसे यह भी कहा जा चुका है कि सत्त्वगुण एवं धर्मके संस्कार दृढ़ होनेसे ही समन्वय एवं सामंजस्यकी भावना सफल होती है। रजोगुण, तमोगुण बढ़नेसे अधर्म, असहिष्णुता आदिकी वृद्धि होती है। वर्गभेद, वर्गकलह ही क्यों, एक वर्गके भीतर भी वर्गभेद उत्पन्न हो जाता है और अन्तमें तो व्यक्ति-व्यक्तिमें भेद, संघर्ष एवं कलहका विकराल रूप प्रकट हो जाता है और फिर उनमें जो प्रबल होता है, उसका आधिपत्य होता है, जो हारता है, वह पिसता है। अनेक बार साधनसम्पन्न साधनविहीनोंपर नियन्त्रण करते हैं, तो कई बार साधनविहीन साधनसम्पन्नोंको नष्ट करनेका प्रयत्न करते हैं। कभी-कभी सफल भी हो जाते हैं, अत: श्रेणी, चेतना तथा मजदूरोंका एकाधिपत्य आदि सिद्धान्त कोई महत्त्व नहीं रखते।
वर्ग-भेद, वर्ग-कलह आदि सब प्रचारमूलक ही हैं। चार-पाँच धूर्तोंने एक बार एक ब्राह्मणसे, जो बकरा लिये जा रहा था, ले लेनेका निश्चय किया। फिर क्या था, एकने कहा—‘पण्डितजी! आप इस श्वानको कहाँ लिये जा रहे हैं।’ ब्राह्मणने कहा, ‘यह तो बकरा है।’ धूर्तने कहा—‘आपने कोई नशा खा लिया है क्या? महाराज! यह तो कुत्ता है।’ ब्राह्मण कई प्रकारकी बातें सोचता चला जा रहा था, तबतक दूसरा धूर्त मिला। वह बोला, ‘अरे महाराज! कहाँ तो आप कुत्ता छूते भी न थे, आज न जाने क्यों, उसे कन्धोंपर ही चढ़ा लिया।’ ब्राह्मण बोला, ‘अरे भाई! यह कुत्ता नहीं, बकरा है।’ धूर्त बोला—‘अरे आज आपके दिमागमें यह क्या हो गया, जो कुत्तेको बकरा कह रहे हैं?’ क्रमश: तीसरे और चौथे धूर्तोंने भी इसी प्रकारकी बातें कहीं और ब्राह्मण सशंक होकर कुत्तेके भ्रममें बकरेको छोड़कर चलता बना। इसी प्रकार वर्गवादियोंके मिथ्या प्रचारसे वर्गभेद, वर्गकलहका सिद्धान्त भी फैलता जा रहा है। असलमें तो यह न कोई सिद्धान्त है और न कोई इसका आधार ही है।
साथ ही समस्त वर्गोंका लोप करके मजदूरोंका एकाधिपत्य स्थापित करने तथा समानाधिकारसम्पन्न समाज स्थापित करनेकी जो बात करते हैं, उन्हें इस बातपर भी विचार करना चाहिये कि भले ही प्रचारकी महिमासे किसी वर्गके प्रति विद्वेष उत्पन्न करके, किसी समूहको उत्तेजित करके एक वर्गका विध्वंस होना सम्भव हो सकता है, पर विरोधीवर्ग समाप्त होते ही विजयीवर्गमें ही वर्गभेद उत्पन्न होते हैं। उदाहरणार्थ भारतीय कांग्रेसका अंग्रेजोंके साथ संघर्ष हुआ। संघर्ष समाप्त होनेपर स्वयं कांग्रेसमें ही फूट पड़ गयी। फलत: समाजवादी, प्रजासमाजवादी, नवीन समाजवादी, कम्युनिष्टपार्टी आदि अनेक पार्टियाँ बन गयीं। रूसमें भी जारशाही समाप्त होते-न-होते कितनी ही पार्टियोंका जन्म हो गया। ट्राटत्स्की-जैसे लोगोंकी हत्या साधारण बात बन गयी। अधिकारारूढ़ दलद्वारा अनेक बार ‘सफाया’ किये जानेपर भी वहाँ तद्भिन्न वर्गका अभाव नहीं है, फिर केवल सामूहिक संघटन, हड़ताल, जुलूस या मार-काटके बलसे बहुत बड़े किसान आदि श्रेणीवर्गको समाप्त करना भी यदि उचित हो सकता है, तब तो शस्त्रबल, धनबल या छलछद्मके बलसे मजदूर-किसान वर्गको पददलित बनाये रखनेको भी उचित कहनेका कोई साहस कर ही सकता है। अन्यायको रोकना उचित ही है, वह चाहे गरीबोंका हो या अमीरोंका—अन्याय तो अन्याय ही ठहरा। गरीबोंका अन्याय भी न्याय है तथा अमीरोंका न्याय भी अन्याय है, यह बात सभ्य समाजमें नहीं चल सकती। गरीबोंपर होनेवाले अन्यायोंको रोकना परम धर्म है तो किसान आदि श्रेणीके लोग आज सर्वाधिक दयनीय हैं। पूँजीपति पूँजीसे काम चला लेता है, मजदूर आन्दोलनोंसे वेतन बढ़ाकर काम चला लेता है, परंतु किसान आदि साधारण श्रेणीका व्यक्ति दोनोंके बीचमें पड़ा हुआ पिसता है। देशमें गरीब, किसानों तथा नमक, तेल, कपड़ा, दाल, चावल आदिकी दुकानोंके द्वारा काम चलानेवाले व्यापारियोंकी संख्या बहुत बड़ी है। गरीबी भी उनकी भीषण है। अपनी उसी गरीबीमें उन्हें दान-पुण्य, श्राद्ध-तर्पण, शादी-ब्याह भी करना पड़ता है। फिर तो उस वर्गकी सहायता करना आवश्यक है। फिर ऐसे वर्गको मिटा देना कहाँतक उचित है? यों तो डाकू भी लूट-खसोटकर दूसरोंको मिटाकर अपने गिरोहमें स्वाधीनतामूलक समानाधिकारसम्पन्न समूह बनाते ही हैं, परंतु क्या यह भी उचित कहा जा सकता है या उनकी समानता भी अन्ततक चलती है। धर्म-नियन्त्रित शासनतन्त्रमें सत्य या न्यायके आधारपर सबका ही हित करना अभीष्ट है। प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक वर्गको विकासकी सुविधा होती है। समष्टिके अविरोधेन, वैध मार्गसे विकसित होनेका सभीको अधिकार रहता है।
विकासके मार्गमें होनेवाली असुविधा दूरकर विकासकी विविध सुविधाओंका उपस्थापन करना राज्यका कर्तव्य है। छीना-झपटी, लूट-खसोटद्वारा समानताकी स्थापना व्यर्थ है। आलस्य, प्रमाद त्यागकर स्वयं पुरुषार्थ न कर केवल छीना-झपटीद्वारा स्थापित समानता टिकाऊ नहीं हो सकती। विशेषत: गतिशील लोगोंका गन्तव्य स्थानपर पहुँचकर सम्पादित समानता ही वास्तविक समानता है। मार्गमें किसी जगह अग्रगामी, पृष्ठगामी लोगोंको रोककर स्थापित समानता निरर्थक होती है। इससे तो उल्टे राष्ट्रकी प्रगति ही रुक जाती है। निर्बल, निर्बुद्धि, निर्धनको बुद्धिमान्, बलवान्, धनवान् बनाकर ही समानताकी स्थापना की जा सकती है। बलवानों, धनवानों, बुद्धिमानोंको निर्धन, निर्बल एवं निर्बुद्धि बनाकर समानताकी स्थापना वैसी ही है, जैसा कि आँखवालोंकी एक या दोनों आँखोंको फोड़कर एकाक्षों या अन्धोंके बराबर बनाकर समानताकी स्थापना करना। जैसे किसीकी आँख फोड़ना सरल है, पर अन्धेको नेत्रवान् बनाना कठिन है, वैसे ही किसी धनीके धनको छीनकर निर्धन बनाना, बलवान‍्को फाका कराकर निर्बल बनाना, किसी बुद्धिमान‍्को मूर्खताकी दवा खिलाकर या क्लोरोफार्म आदि सुँघाकर निर्बुद्धि बनाना सरल है, पर आलस्य-प्रमाद त्यागकर स्वत: प्रयत्नशील हुए बिना बलवान्, बुद्धिमान्, धनवान् बना सकना या बने रहना सम्भव नहीं है। प्रमाद या आलस्यसे कोई समुन्नत नहीं होता। दूसरे लोगोंको भी उसी स्थितिमें बनाये रखनेके लिये प्रयत्नकी अपेक्षा यह कहीं श्रेष्ठ है कि प्रमाद, आलस्य छुड़ाकर अनुन्नत लोगोंको उन्नत बनानेका प्रयत्न किया जाय। अत: वर्ग-लोप करके समानता-स्थापनाकी बात व्यर्थ है। कम्युनिष्टोंका किसीकी जायदादपर बलात् आक्रमण तथा प्राचीन प्रणालियोंपर आक्रमण सिद्ध करता है कि लोकसिद्ध न्याय एवं सत्यके आधारपर वे अभीष्ट-सिद्धि नहीं कर सकते।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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