6.17 लाभ और श्रमिक ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.17 लाभ और श्रमिक

मार्क्सके पहले रिकार्डो आदिने भी इसी ढंगका कुछ विरोध प्रकट किया था। उसके अनुसार ‘वस्तुके मूल्यमें दो भाग होते हैं—एक मजदूरी दूसरा नफा। दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। मजदूरी बढ़ती है तो नफा घटता है, नफा बढ़ता है तो मजदूरी घटती है। जीवन-निर्वाहार्थ जिससे निश्चित परिमाणमें सामग्री मिले, वही मजदूरी है। जब जीवन-निर्वाहकी सामग्रीका दाम बढ़ जाता है तो मजदूरी भी बढ़ जाती है। पूँजीके द्वारा सभ्यताकी वृद्धि हो रही है। उससे कारबार और जन-संख्याकी वृद्धि होती है। इससे जीवन-निर्वाहकी सामग्रीकी माँग बढ़ती है। इसके लिये खेतीकी आवश्यकता बढ़ जाती है। खेतीकी जमीन नपी-तुली है। सब जमीनमें एक-सी पैदावार भी नहीं होती। घटिया जमीनमें श्रम बहुत अपेक्षित है, उत्पत्ति बहुत कम होती है। लगान भी बढ़ जाता है, मजदूरी भी बढ़ जाती है। फलत: व्यापारियोंका नफा घट जाता है। खेतीसे उत्पन्न चीजोंका दाम बढ़ता है। तब कारीगरीसे पैदा होनेवाली चीजोंका दाम घटता रहता है; क्योंकि नयी मशीनोंके आविष्कार तथा मजदूरोंके उत्तम प्रबन्धसे चीजोंके बननेमें लागत कम बैठती है। इस स्थितिका फल यह होता है कि पूँजीपर नफा घटता है, पूँजी कम होती जाती है, मजदूरी बढ़ती जाती है। पर मजदूरोंको उससे कोई लाभ नहीं; क्योंकि भोजन-सामग्रीका मूल्य बढ़ता जाता है। उस समय नफा जमींदारों, जमीन तथा मकानमालिकोंके हिस्सेमें ही आता है, जो कि समाजकी उन्नतिके लिये कुछ भी नहीं करते।’
माँग और पूर्तिका नैसर्गिक नियम जिस प्रकार व्यक्तिवादी अर्थशास्त्रियोंने उपस्थित किया है, वह सामान्य स्थितिमें उपयुक्त होते हुए भी जब शोषणका कारण बनने लगे तो उसपर राज्यका नियन्त्रण अनिवार्य है। पक्षपातविहीन ईमानदार शासनका यही काम है कि वह उत्पन्न विरोधको दूरकर समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करे। दण्डॺको दण्ड दे, अनुग्राह्यपर अनुग्रह करे, मात्स्य-न्याय मिटाये; यही राज्यका लक्ष्य होना चाहिये। विरोध बढ़ाना, उत्तेजना फैलाना, विनाशके दृश्यकी उत्सुकतासे प्रतीक्षा करना, किसी सरकार या दलके लिये शोभाकी बात नहीं है। विरोध या संघर्ष कोई सिद्धान्त नहीं है। काम, क्रोध, लोभ, मार-काट, छीना-झपटी स्वाभाविकतया ही अधिक होते हैं। निग्रहानुग्रहद्वारा मात्स्य-न्याय दूर करना एक बात है और सबका स्वामी स्वयं बन जाना दूसरी बात। कल-कारखानोंद्वारा उत्पादन बढ़नेसे दोष बढ़ते हैं, वे केवल मालिक बदल जानेसे घट न जायँगे और न गुण ही हो जायँगे। दूसरा मालिक जिस प्रकार उन दोषोंको मिटा सकता है, उसी प्रकार पहला मालिक भी। केवल अपेक्षित है—ईमानदारीसे राष्ट्र-हितकी भावना। इसके बिना मजदूर सरकार भी कभी दोष नहीं मिटा सकती। उसीके सहारे कोई भी सरकार इन दोषोंको मिटा सकती है। वस्तुत: यह संघर्ष भी मुट्ठीभर लोगोंका ही है। मिल-मालिक, पूँजीपतियोंकी संख्या नगण्य है। मजदूरोंकी संख्या भी सीमित ही है। भारत-जैसे देशमें मिल-मालिक मजदूरोंसे आठगुणी अधिक संख्या उन लोगोंकी है, जो न मजदूर हैं, न पूँजीपति और न जिनका इन संघर्षोंसे कोई प्रयोजन ही है। वे खेती करनेवाले, साधारणरूपमें व्यापार करनेवाले, पलटन, पुलिस, क्लर्क या अन्य ढंगके पेशेवाले हैं। उन सबके हितों तथा मतोंकी उपेक्षा करके मजदूरतन्त्र शासन स्थापित करनेका प्रयत्न सर्वथा अलोकतान्त्रिक है। जो कहते हैं कि कई उद्योगप्रधान देशोंमें ५० प्रतिशतसे भी अधिक मजदूरोंकी संख्या है, वे मतगणनाके मार्गसे मजदूरोंकी सरकार स्थापित क्यों नहीं कर लेते? फिर वर्ग-संघर्ष, वर्ग-विद्वेष, वर्ग-विध्वंसके मार्ग अपनानेकी क्या आवश्यकता? किं च जिस प्रकार कहा जाता है कि ‘पूँजीवादी-प्रणालीसे ही पूँजीवादके विनाशका बीज उत्पन्न होता है, क्या यही बात मजदूरोंके सम्बन्धमें नहीं कही जा सकती? जैसे पूँजीपतियोंने अपने ही प्रयत्नसे अपनेको संकटमें डाल लिया, उत्पादन बढ़ाकर मजदूरोंको एक स्थानमें एकत्र होनेका अवसर उपस्थित कर अपना मार्ग अवरुद्ध कर लिया, ठीक वैसी ही बात मजदूरोंके लिये भी है। असलमें मार्क्सके मतानुसार वैज्ञानिक आविष्कारक भी बुद्धिजीवी श्रमिक ही हैं। उन्हीं लोगोंने नये-नये यन्त्र, कारखानोंका आविष्कार किया है। उन्हीं लोगोंने उत्पादन बढ़ाया। उत्पादन बढ़नेसे ही सौदेमें मन्दी आयी। मन्दी आनेसे वेतनोंमें कमी हुई। उत्तरोत्तर अच्छी मशीनोंकी पैदाइशसे मजदूरोंकी आवश्यकता घटी, जिससे मजदूरोंकी बेकारी बढ़ी। फलत: तत्काल मजदूरोंकी बेकारीमें श्रमजीविवैज्ञानिक ही कारण हुए। इस तरह भलाईके साथ-साथ सर्वत्र बुराई भी लगी रहती है। बिजलीसे प्रकाशादि भी होता है, मृत्यु भी हो सकती है। इसलिये उपाय-अपाय दोनोंपर ध्यान रखना बुद्धिमानी है। हर जगह बेकार लोग असंतुष्ट होकर संघटित हो वर्ग-संघर्ष, वर्ग-विध्वंसद्वारा राज्यकी स्थापना नहीं कर पाते।’
हर स्थानोंमें यह वर्ग-संघर्ष भी नहीं होता। मार्क्सकी भविष्यवाणीके अनुसार औद्योगी-देश ब्रिटेनमें क्रान्ति होनी चाहिये थी; किंतु कृषि-अधीन रूस तथा चीनमें क्रान्ति हुई, वह भी किसानोंके द्वारा। इंगलैंड, फ्रांस, अमेरिका आदिमें कल-कारखाने कम नहीं हैं। फिर भी वहाँ वर्गसंघर्ष नहीं हुआ। विशेषतया अमेरिकामें मजदूरोंकी संख्या अधिक है और वहाँ मतगणनाके आधारपर सरकारें भी बनती हैं। कम्युनिष्ट कहते हैं कि प्रत्येक देशमें ९५ प्रतिशत मजदूर हैं, फिर भी वहाँ मजदूरोंकी सरकार न बन पायी। इससे स्पष्ट है कि वहाँके मजदूरोंको वर्ग-विध्वंसादिमें कोई रुचि नहीं है! बेकारोंको अपने जीवन चलानेकी पड़ी रहती है। राज्यस्थापनाके लिये उनमें प्रेरणा उत्पन्न होना सरल नहीं है।
प्राचीन राम-राज्यमें समृद्धि पराकाष्ठाको पहुँची हुई थी। फिर भी उस समयके वर्ग-संघर्षका कोई इतिहास नहीं मिलता। अत: ‘पूँजीवादी शोषक होते हैं, सबके सर्वस्वका अपहरण करनेवाले होते हैं, एक दिन उनका भी सर्वस्व सदाके लिये छिन जाता है आदि’ सब अतिरंजित कल्पना है। यह कह चुके हैं कि खलकी सम्पत्ति, शक्ति दूसरोंको सतानेके काममें आती है तथा सज्जनोंकी सम्पत्ति, शक्ति विश्वके हितार्थ ही होती है। शिवि, दिलीप, रन्तिदेव आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। न सब पूँजीपति दूसरेका ही सर्वस्व हरण करते हैं, न सब पूँजीपतियोंका सदाके लिये सर्वस्व ही अपहृत होता है। अनेक स्थानोंमें दुष्प्रचारकोंके दुष्प्रचार व्यर्थ होते हैं और वहाँसे मार खाकर सर्वस्व गँवाकर भागना पड़ता है, जैसा जर्मनी आदि देशोंमें हुआ।
उपर्युक्त वर्णनसे भी इसी निष्कर्षपर पहुँचना पड़ता है कि व्यष्टि-समष्टिके सामंजस्यसम्पादनसे ही काम चलेगा। पहले लिख आये हैं कि मजदूर वेतन, बोनस, भक्ता बढ़ानेका आन्दोलन करके सफल भी हो जायँ, तो भी पूँजीपति उसके बदले सौदेपर दाम बढ़ायेगा। फिर उसे खरीदनेके लिये किसानको अधिक रुपयेकी जरूरत होगी। तदर्थ वह भी गेहूँ, चावलका दाम बढ़ायेगा। मजदूर भी बढ़ायी हुई मजदूरी महँगे गेहूँ, चावल, कपड़े खरीदनेमें खर्च कर देगा। अत: उत्पादनसाधनों, उत्पादकों एवं उत्पन्न होनेवाली सामग्रियोंको ध्यानमें रखते हुए ही उपयोगी नियम आवश्यक हैं। उसके बिना मजदूर राज्यके छू-मन्तरसे भी समस्याका हल होना असम्भव है।
वस्तुत: सभी विचारक इस बातको मान गये हैं कि मार्क्सवादमें बुद्धिजीवियोंका महत्त्व नहीं-जैसा ही है। सन् १९३६ के पूर्वतक साम्यवादी रूसमें उन्हें मत देनेका भी अधिकार नहीं था। अन्वेषक, आविष्कारक, वैज्ञानिकोंका वर्तमान विकासमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी तरह लाखों मजदूरोंसे काम लेनेवाले प्रबन्धकोंका भी (जिनके बिना लाखों मजदूर अकिंचित्कर हो जाता है) महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी तरह टूटे-फूटे, रद्दी टीन, लोहा आदि संगृहीत करके उनका सदुपयोग करके उनसे करोड़ोंकी आमदनी कर लेनेवाले विशेषज्ञोंका भी स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन सबोंको मजदूरोंके तुल्य शोषित भी नहीं कहा जा सकता और न पूँजीपतियोंके तुल्य शोषक ही कहा जा सकता है। इसी तरह किसानों एवं साधारण कामचलाऊ व्यापारियोंको अबके समाजवादी शोषित मजदूरकोटिमें गिनने लगे हैं। पहले किसान आदिकोंका मजदूरश्रेणीमें बिलकुल स्थान न था। बल्कि प्राकृतिक साधनोंसे उपार्जित करके जीविका चलानेवालोंको शोषककोटिमें ही गिना जाता रहा है। उनकी संख्याकी बृहत्ताका ध्यान न देकर बड़े घमण्डके साथ लेनिनने मजदूरोंकी तानाशाहीकी घोषणा की थी।
सन् १९१७ की किसान-मजदूर-क्रान्तिके बाद रूसी-क्रान्तिके नेता लेनिनने (जो कि मार्क्सवादका सबसे बड़ा ज्ञाता समझा जाता था) मजदूरोंकी तानाशाहीका समर्थन किया था। उस समयके स्थापित समाजवादी शासनको अभिमानपूर्वक तानाशाहीका नाम दिया गया था। इस सम्बन्धमें यद्यपि कई आधुनिक समाजवादी लीपा-पोती करते हुए कहते हैं कि ‘यदि स्वयं मेहनत करनेवाले मजदूरोंका वर्ग शासन करेगा तो मेहनत करनेवालोंका शोषण हो ही नहीं सकता। जो लोग पैदा नहीं करते, उनका शोषण किया जा सकता है? हाँ, मजदूर-शासनमें कुछ लोगोंका दमन हो सकता है, उन्हें नागरिक अधिकारोंसे वंचित किया जा सकता है।’ पर ये लोग कौन हैं, इनकी संख्या कितनी है, इनका भी दमन क्यों होगा?
‘मजदूर-राज्यमें प्रत्येक व्यक्ति मजदूर भी होगा और शासक भी। जब पूँजीवादी देशोंमें भी उनकी संख्या ९२ या ९९ प्रतिशत है तो फिर मजदूर-राज्यमें तो उनकी संख्या शत-प्रतिशत होगी। काम न करनेवालोंकी संख्या हजारोंमें एक होगी। ऐसे लोग यदि समाजकी रायसे स्थापित शासनको उखाड़कर स्वार्थानुकूल शासन करना चाहें तो ऐसा करनेकी उन्हें स्वतन्त्रता देना प्रजातन्त्रके कहाँतक अनुकूल होगा? हाँ, मजदूर-शासनमें यदि कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो सम्पूर्ण जनताके लाभार्थ समाजकी व्यवस्थामें परिवर्तन लाना चाहते हैं तो एक मजदूर होनेके नाते अपने विचार प्रकट करनेकी उन्हें उतनी ही स्वतन्त्रता है, जितनी किसी दूसरे मजदूरको; क्योंकि मजदूरतन्त्रमें नागरिकोंके साधन और अधिकार समान होते हैं।’
उपर्युक्त कथन सर्वथा सत्यका अपलापमात्र है। क्या किसानोंकी भूमि-सम्पत्ति गरीब व्यापारियोंके व्यापार-साधनोंको छीन लेना शोषण नहीं है? भारतके काश्तकार आज भी अपनी काश्तकारी बचानेका आन्दोलन कर रहे हैं। यत्र-तत्र भू-स्वामी-संघ काश्तकार-संघ बन रहे हैं। वे भूमि एवं सम्पत्तिके अपहरणको घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं और समष्टि या समाजके नामपर मुट्ठीभर तानाशाहोंके हाथमें अपनी भूमि-सम्पत्ति देकर, शासनयन्त्रका नगण्य कल-पुर्जा नहीं बनना चाहते। वस्तुत: मजदूरोंपर भी बलात्कारसे जड़वादी तानाशाही शासन लादा ही जाता है। प्राय: गरीब मजदूर ईश्वरवादी धार्मिक होते हैं। भारतके शत-प्रतिशत मजदूर आस्तिक और धार्मिक हैं। वे रामायण, भागवत, गीताका सम्मान करते हैं, सत्यनारायणकी कथा सुनते, कीर्तन करते हैं। केवल बोनस, वेतन, भत्ताका प्रलोभन देकर कम्युनिष्ट उन्हें अपने आन्दोलनोंमें शामिल करते हैं। यदि वे समझ जायँ कि कम्युनिष्ट ईश्वर, धर्म एवं शास्त्र नहीं मानते तो वे भूलकर भी उनके डाँड़े न जायँ। हाँ, उनकी अपेक्षित माँगमें कोई ईश्वरवादी-दल सहायक हो तो वे सोलह आने उसीका साथ देंगे। हरेक मजदूर भी स्वतन्त्रता चाहता है। दान-पुण्य करना चाहता है। अपनी सम्पत्ति अपने बेटे-पोतोंके लिये छोड़ना चाहता है। यदि वह जान ले कि कम्युनिष्ट-राज्यमें बाप-दादेकी कमाई बेटे-पोतेकी बपौती मिलकियत नहीं समझी जाती तो वह कभी भी कम्युनिष्टोंमें शामिल न होगा। यदि वह जान ले कि काम न करनेवाले वृद्ध माता, पिताको एवं वृद्ध होनेपर उसे भी कम्युनिष्ट-राज्यमें कोई स्थान नहीं है, तो अवश्य ही उसे घबड़ाहट होगी। इसके अतिरिक्त यह भी हम कह आये हैं कि यदि पूँजीवादी शासनमें ९९ मजदूर हैं, तो वहाँ मजदूर-सरकार क्यों नहीं बन जाती? क्योंकि वहाँ तो मतगणनाके आधारपर सरकारें बनती हैं। अत: मजदूरोंकी उक्त संख्या मिथ्या एवं भ्रामक है। इसी तरह यह भी झूठ है कि किसी भी श्रम करनेवाले मजदूरको अपने विचार व्यक्त करनेकी स्वतन्त्रता है। जहाँ कोई स्वतन्त्र प्रेस या पत्र नहीं हो सकता, नागरिक स्वतन्त्रतापूर्वक किसी दूसरे देशके विचार नहीं पढ़ सकते, रेडियो सुन नहीं सकते, अपने देशमें भी स्वतन्त्रतासे अपने मतका प्रचार नहीं कर सकते, वहाँ भी प्रजातन्त्र एवं प्रजाहितकी बात करना सर्वथा उपहासास्पद है।
वस्तुत: जो सम्पूर्ण जड़-प्रपंचको निरीश्वर मानते हैं, कोई शाश्वत नियम नहीं मानते, व्यक्तिगत शासन नहीं मानते, उन्हें कोई शासन बनानेका अधिकार भी कैसे है? व्यक्तिका समुदाय ही समष्टि है। व्यक्तिमें जो गुण नहीं, वह समष्टिमें भी न आयेगा। लाल सूतोंसे ही लाल कपड़ा बनता है। सफेद सूतोंमें लालिमा नहीं है, अत: उनसे लाल कपड़ा नहीं बन सकता। यदि व्यष्टि शासन अमान्य है तो समष्टिके नामपर भी शासन नहीं बन सकता, फिर तो अराजकताका ही समर्थन श्रेष्ठ है। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरेका शासन क्यों मानेगा? जो कोई सत्य, नियम या सिद्धान्त नहीं मानता, वह किस आधारपर नये सिद्धान्तोंकी स्थापना कर सकेगा? गत दिनों (१९५४ में) किसी ब्रिटिश मन्त्रीने विचार-स्वातन्त्र्यके सम्बन्धमें एक लेख ‘प्रवदा’ (रूसी-पत्र) में भेजा था। जिसमें उन्होंने अखबारों, रेडियो तथा साम्यवादी विचारोंके विरुद्ध रूसी प्रतिबन्धकी चर्चा करते हुए रूसमें विचार-स्वातन्त्र्यका अभाव बतलानेका प्रयत्न किया था। ‘प्रवदा’ ने उसी अंकमें उसका उत्तर भी छापा था। उत्तरका सार यही था कि राष्ट्रियता-विरोधी भावोंको न पनपने देना भूषण है, दूषण नहीं। पर क्या कोई पूछ सकता है कि राष्ट्रिय-विचार क्या शासनारूढ़ दलका विचार है? वस्तुत: यदि स्वतन्त्रताके साथ विश्वकी मतगणना हो, तभी राष्ट्रिय विचारका पता लग सकता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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