7.3 मजदूरी
कहा जाता है, ‘यद्यपि मालूम पड़ता है, मजदूरको उसके श्रमके बदले पूरी मजदूरी मिल रही है, परंतु उसको घोड़ाको दाना देनेके तुल्य केवल उतनी ही मजदूरी दी जाती है, जितनेमें वह जीवन-निर्वाह कर सके और उसमें काम करनेकी शक्ति बनी रहे। जब कभी वस्तुओंकी दर घट जाती है, तो मजदूरीका परिमाण ज्यों-का-त्यों बना रहनेपर भी मजदूर जीवन-निर्वाहकी अधिक सामग्री पा सकते हैं। वस्तुओंके दर बढ़नेपर कम सामग्री मिलने लगती है। इस दृष्टिसे मजदूरोंके वेतनके रुपयोंकी संख्या ज्यों-की-त्यों बनी रहनेपर भी वास्तवमें उनकी मजदूरी घटती-बढ़ती रहती है। पूँजीवादी अर्थशास्त्रकार इस नियमको स्पष्ट और न्याययुक्त मानते हैं। पर मार्क्स इससे सन्तुष्ट नहीं। उसका कहना है कि कोई पूँजीपति उसी नौकरको रखता है, जो उसे दी जानेवाली मजदूरीसे अधिक माल तैयार करता है। यदि अपने जीवन-निर्वाहके लायक सामग्री पानेके लिये मजदूरको प्रतिदिन ५ घंटा काम करना पर्याप्त हो, तो उसे ५ घंटे पूँजीपतिके लिये भी काम करना आवश्यक होता है। अत: मार्क्सके मतानुसार मजदूरके अपने लिये किये गये श्रमको आवश्यक श्रम और पूँजीपतिके लिये किये गये श्रमको अतिरिक्त श्रम कहा जाता है। मार्क्स अतिरिक्त श्रमको बिना मूल्यका श्रम कहता है। इस तरह बदलेमें बिना कुछ दिये ही पूँजीपति मजदूरकी कमाई हजम करता रहता है।’
मजदूरोंको उनके कामके अनुसार मजदूरी मिलनी परमावश्यक है। निष्पक्ष सरकार, जनता अथवा उभयपक्षीय विशेषज्ञ विद्वान् उचित मजदूरीकी दर निश्चित कर सकते हैं। समष्टि-हितकी दृष्टिसे सरकारको उस निश्चयको मान्यता देनी चाहिये। उचित भोजन-वस्त्र, औषध, आवास-स्थान एवं शिक्षाकी व्यवस्था सबके लिये होनी परमावश्यक है। उसके ऊपर भी योग्यता एवं कामके अनुसार मजदूरको अधिकाधिक विकसित सुखी तथा साधनसम्पन्न होने, अपने श्रम न करनेलायक माता-पिता तथा बालक एवं अपनी अगली पीढ़ीके लिये धन-संग्रह करनेका अधिकार होना चाहिये। यह सामान्य बात है कि दूसरोंकी वस्तु छीनना किसीको बुरा नहीं लगता; परंतु जब अपनी वस्तु छिनने लगती है, तब अवश्य पीड़ा प्रतीत होती है। मजदूरोंके भी कुटुम्ब होते हैं। वे भी अपने कुटुम्बके भविष्यकी दृष्टिसे अनेक वस्तुओंका संग्रह करते हैं। जब उनका संग्रह छिनने लगता है, तब उन्हें भी यह नहीं जँचता। कोई भी व्यापार, धन्धा, उद्योग अपने फायदेके लिये किया जाता है। मजदूर भी फायदेके लिये नौकरी करता है। कोई आदमी अपनी खेती करके भी जीवन चला सकता है। फिर भी वह नौकरी करनेके लिये शहरोंमें जाता है, वहाँ देहातोंकी अपेक्षा कम परिश्रममें ही अधिक लाभ दिखायी देता है। तब फिर यह स्वाभाविक है कि पूँजीपति भी मजदूरी देकर मजदूरोंसे लाभ उठाये। शास्त्रोंके अनुसार भी ऋत्विक् आदिको जितनी दक्षिणा देकर यज्ञ किया जाता है, उससे लाखों गुणा अधिक फल यजमानको मिलता है। इसी तरह मजदूरोंकी उचित वेतन दे देनेपर उनके द्वारा मालिकको अधिक लाभ होता हो तो उससे मजदूरका कुछ भी नुकसान नहीं होता। यदि उत्पादनमें श्रम ही सब कुछ होता, प्राकृतिक साधनों, मशीनोंका महत्त्व न होता, मजदूर मजदूरी न लेता; तब अवश्य ही सब कुछ मजदूरका ही होना चाहिये था, परंतु जब अन्य साधन भी प्रधानरूपसे अपेक्षित होते हैं, मजदूर मजदूरी लेता है, तो उत्पादनसे पूँजीपतिका लाभ अनुचित नहीं कहा जा सकता। अपने निर्वाहलायक ही काम करना तब उचित होता, जब दूसरेसे कोई प्रयोजन नहीं होता। अर्थात् जब वह अपनी पूँजीसे कच्चा माल लेकर उसे स्वयं पक्का बनाकर बाजारमें ले जाता है और पूँजीसे अधिक मूल्य प्राप्त करता है, तब वह अधिक मूल्यको श्रम-फल मानता है। लेकिन जब कोई दूसरा पूँजी देता है, तब उस लाभमें पूँजीवाला भी भागीदार बनेगा। इस अवस्थामें श्रमसे ही लाभ हुआ, यह नहीं कहा जा सकता। बिना लाभमें भाग पाये पूँजीवाला पूँजी देना स्वीकार भी न करेगा। दूसरा जब दाम देकर काम लेता है तो वह अवश्य चाहेगा कि इस कमाईसे मजदूरकी मजदूरी निकल आये और हमें भी कुछ मिल जाय। मजदूर सरकारको भी सरकारी काम चलानेके लिये लाभ चाहिये। यदि मजदूर अपने ही निर्वाह या लाभके लिये काम करे, संचालक सरकारके लिये कुछ न करे तो सरकारी खर्च कैसे चलेगा? गुप्तचर, पुलिस, पलटन, शस्त्रास्त्र तथा वैज्ञानिकों, अन्वेषकों और विभिन्न आविष्कारोंके लिये अरबोंका लाभ आवश्यक है। लाभ बिना पूँजीपति दिवालिया हो जायगा। अकाल, दुष्काल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, शलभ, मूषक, भूकम्प तथा अन्य उत्पातोंके कारण नुकसान या घाटा होनेपर पूँजीपतिको कारखानों, मजदूरों एवं अपना भी काम चलाना ही पड़ेगा। यदि लाभ न हो तो यह सब काम कैसे चलेगा? पूँजी या लाभ बिना किसी भी राष्ट्र या सरकारका काम ही नहीं चल सकता। यह बात अलग है कि पूँजी एवं लाभ व्यक्तिके पास न जाकर मजदूर-सरकारके पास जाय, जो पूँजी एवं लाभ एक जगह दोष था, वही दूसरी जगह जाकर गुण हो जाय, यह भी कम्युनिष्टोंकी विचित्र बात है। अतएव मालिक सीधे-सीधे घंटों और महीनोंके हिसाबसे श्रमको खरीदते हैं। कभी-कभी उससे लाभ न होनेपर भी उन्हें दाम देना पड़ता है। कभी कुछ लाभ मिलता है, कभी ज्यादा लाभ भी मिलता है। कोई सौदा भी खरीदनेमें यही बात होती है। कभी घाटा, कभी लाभ प्राप्त होता है। इसमें बिना कुछ दिये हजम कर जानेका प्रश्न ही नहीं उठता। अत: अतिरिक्त श्रम और अतिरिक्त मूल्यकी कल्पना इस दृष्टिसे सर्वथा व्यर्थ हो जाती है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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