7.2 मूल्य और श्रम ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

7.2 मूल्य और श्रम

कहा जाता है, ‘मशीनोंके नये आविष्कारों एवं उत्पादनके कामोंमें दक्षता आनेसे कम श्रममें वस्तु उत्पन्न होने लगती है। इसीलिये वस्तुका दाम कम हो जाता है। अत: सिद्ध है कि श्रम ही विनिमय-मूल्यका आधार है।’ पर यह बात ठीक नहीं जँचती। कारण, दूसरा पक्ष यह कह सकता है कि मालकी अधिकताके कारण ही माँग घटी और माँग घटनेसे विनिमय-मूल्य घटा। माल बढ़ानेके कारण मशीनें भी हैं ही। आवश्यकतासे अधिक सौदा तैयार हो जानेपर मार्क्सवादी श्रमको निरर्थक मानते हैं। वस्तुत: उपयोग-मूल्य और विनिमय-मूल्य, यह विभाजन ही व्यर्थ है। उद्देश्यभेदसे वस्तुभेद नहीं होता। अग्नि अपने लिये जलायी जाती है, वह दूसरोंके काममें भी आती है। अग्निहोत्रके उद्देश्यसे अग्निमन्थन करके अग्नि प्रकट की जाती है, फिर वही भोजन बनानेके काममें आती है। कभी उसीसे यज्ञशाला भी जल जाती है, पर इतनेसे ही अग्नि दो नहीं हो जाती। भारतीय दृष्टिसे तो कोई वस्तु केवल अपने लिये पैदा ही नहीं की जाती। यज्ञ, दान, देवता, पितर तथा पड़ोसीका हित भी उद्देश्य रहता है। फिर जब अन्य वस्तुएँ तथा रुपये भी अपने काममें आते हैं, तब बेचनेके लिये तैयार किया हुआ माल भी तो प्रकारान्तरसे आत्मार्थ ही हुआ। यदि वस्त्रादि पदार्थ या रुपयादि अपेक्षित न हों तो क्यों श्रमसे वस्तु-निर्माण करें और निर्मित वस्तुको दूसरोंको क्यों दें? अत: निष्पक्षरूपसे सर्व-हितकारी रामराज्य है।
यह ठीक है कि श्रम बिना कच्चा माल तथा मशीनें व्यर्थ हैं, पर श्रम भी प्राकृतिक साधनों (कच्चे माल)-के अभावमें निरर्थक ही है। अतएव श्रमको केवल सहकारी कारण माना जा सकता है। जैसे घटका कारण मृत्तिका है, पर जल सहकारी कारण है; क्योंकि जलके बिना घटका निर्माण नहीं हो सकता, तो भी घटके कारणोंमें मृत्तिकाकी प्रधानताका खण्डन नहीं हो सकता, पर सहकारी कारण होनेसे जलकी तरह श्रम भी अवश्य महत्त्वपूर्ण है। साथ ही प्राकृतिक साधन तो श्रमानपेक्ष भी कुछ मूल्य रखते हैं, पर अन्य साधनोंके अभावमें श्रमकी कोई कीमत नहीं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Exit mobile version