7.10 पूँजी और श्रम ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

7.10 पूँजी और श्रम

अतिरिक्त श्रमके दरके सम्बन्धमें मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘पूँजी या पैदावारके साधनोंको हम इस प्रकार बाँट सकते हैं। एक वे साधन, जो एक हदतक स्थायी हैं, उदाहरणत: इमारतें और मशीनें, दूसरा कच्चा माल, तीसरे मजदूरको मजदूरी देनेके लिये पूँजी। पूँजीका जो भाग पैदावारके स्थायी साधनोंपर खर्च होता है, वह एक निश्चित समयमें पन्द्रह या बीस वर्षमें वसूल हो सकता है। इन साधनोंके दामपर सूद और घिसाई पूँजीपति आमदनीमेंसे लगातार निकालता जाता है। कच्चे मालपर जो पूँजी खर्च होती है, वह भी तैयार किये गये सौदेके बिकते ही वसूल हो जाती है। पैदावारके इन साधनोंपर जो रुपया लगता है, पूँजीपति उसे सौदेके मूल्यसे वसूल कर लेता है, परंतु उसपर मुनाफा वसूल नहीं किया जा सकता, वह घटता-बढ़ता नहीं। परिश्रमकी शक्ति इन साधनोंपर लगाये बिना कुछ लाभ नहीं हो सकता। पैदावारमें लगाये गये पूँजीपतिके धनका तीसरा भाग परिश्रमकी शक्तिके खरीदनेमें लगता है। पूँजीपतिका मुनाफा उसकी पूँजीके इस भागसे आता है।’
‘परिश्रम करनेकी शक्ति जिस दामपर खरीदी जाती है, परिश्रमके फलका दाम उससे अधिक होता है। सौदेके दाममेंसे परिश्रमकी शक्ति या दाम निकाल देनेपर ‘अतिरिक्त दाम’ बच जाता है। अतिरिक्त दाम बढ़ानेका सीधा तरीका यह है कि परिश्रमकी शक्तिके दाम मजदूरीको घटाया जाय, उदाहरणत: यदि मजदूरद्वारा कराये गये दस घंटे परिश्रमका दाम एक रुपया है और उसमेंसे मजदूरको उसकी परिश्रमकी शक्तिका मूल्य आठ आने दे दिया जाता है तो अतिरिक्त मूल्य आठ आने प्रति मजदूर बच जाता है। परिश्रमके मूल्य एक रुपयेमेंसे यदि मजदूरी घटा दी जाय तो अतिरिक्त मूल्यका मुनाफा बढ़ जायगा। दूसरा उपाय मशीनोंका प्रयोग बढ़ाकर पैदावार बढ़ाना है। जिसमें परिश्रमकी शक्तिके कम खर्च होनेसे उसके लिये कम दाम देना पड़े और मालिकके पास अतिरिक्त दाम या मुनाफा अधिक बच जाय। अतिरिक्त श्रमको बढ़ानेका तीसरा उपाय यह है कि परिश्रमकी शक्तिका मूल्य तो न बढ़े, परंतु परिश्रम अधिक दामका अधिक समयतक कराया जाय ताकि अतिरिक्त मूल्यका भाग बढ़ जाय। इसके लिये मजदूरोंसे बजाय दस घंटेके बारह घंटे काम कराया जाय। दस घंटे काम करानेसे पाँच घंटेमें तो मजदूर अपने परिश्रमकी शक्तिका दाम पैदा करता है, जो उसे मालिकसे मिलता है और पाँच घंटेमें मालिकके लिये अतिरिक्त दाम। अब काम बारह घंटे कराये जानेपर और परिश्रमकी शक्तिका दाम मजदूरी न बढ़ानेपर अतिरिक्त श्रम बजाय पाँच घंटेके सात घंटे होने लगेगा। इसीलिये जब मशीनोंद्वारा थोड़े समयमें अधिक काम हो सकता है, तब भी मालिक लोग कामके घंटे घटानेके लिये तैयार नहीं होते।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि मुनाफा कमानेकी पूँजीवादी प्रणालीमें मशीनोंका प्रयोग बढ़ने, पैदावार बढ़ने आदि सभी प्रकारकी उन्नतिसे मजदूरोंको नुकसान और पूँजीपतियोंको लाभ होता है; क्योंकि इन सब वस्तुओंका व्यवहार समाजकी आवश्यकताओंको पूरा न कर मुनाफा कमानेके उद्देश्यसे किया जाता है। पैदावारके सब साधनोंके मौजूद होते हुए भी पैदावार उस समयतक नहीं हो सकती, जबकि मेहनतकी शक्तिको व्यवहारमें न लाया जाय। पूँजीवादी समाजमें मजदूरोंसे मेहनतकी शक्ति आती है। मजदूरोंकी मेहनतकी शक्तिको मजदूरी या वेतनद्वारा खरीदकर पैदावारके साधनोंको चलाया जाता है। मजदूरी पूँजीवादी समाजका विशेष महत्त्वपूर्ण अंग है; क्योंकि मजदूरीद्वारा ही पूँजीपति मजदूरकी मेहनतसे मुनाफा उठाता है।
‘अपने लाभके विचारसे पूँजीपति मजदूरोंकी मजदूरी अर्थात् परिश्रम करनेकी शक्तिका दाम सदा ही घटानेकी कोशिश करते रहते हैं। परिश्रमकी शक्तिके मूल्य और परिश्रमके मूल्यपर विचार करते समय यह कहा गया है कि पूँजीपतिके व्यवसायमें परिश्रम करनेवाले मजदूरके परिश्रमके दो भाग होते हैं। मजदूरके परिश्रमका एक वह भाग होता है, जो उसके परिश्रमकी शक्तिके मूल्यमें उसे दे दिया जाता है और उसके परिश्रमका दूसरा भाग वह होता है, जिसका उसे कोई फल नहीं मिलता, अर्थात् अतिरिक्त श्रम। मजदूर इस रहस्यको नहीं जानता। उसे यही समझाया जाता है कि ‘जितने दामका परिश्रम उसने किया है, उतना दाम उसे मिल गया है’ मजदूरको कहा जाता है कि ‘तुम्हारे परिश्रमका जो दाम एक पूँजीपति तुम्हें देता है, उसे यदि तुम कम समझते हो तो दूसरी जगह मजदूरी तलाश कर सकते हो।’ मजदूरीका दर समाज भरमें एक ही रहता है; क्योंकि सभी पूँजीपति अतिरिक्त श्रमसे लाभ उठाना चाहते हैं।’
‘यदि मजदूरकी मजदूरी उसी पदार्थके रूपमें दी जाय, जिसे वह अपने परिश्रमसे तैयार करता है, तो उसे इस बातका अनुमान हो सकता है कि उसके परिश्रमके फलका कितना भाग उसे मिलता है और कितना भाग मालिककी जेबमें चला जाता है, परंतु मजदूरी या वेतनका पर्दा मजदूरसे उसके शोषणकी वास्तविकताको छिपाये रहता है। पूँजीवादी समाजमें मेहनत करनेवाली साधनहीन श्रेणी पैदावार तो बहुत अधिक करती है, परंतु खर्च करनेके लिये बहुत कम पाती है। पैदावारकी शक्ति और साधन तो खूब बढ़ते जाते हैं, किंतु जनताकी पैदावार, खर्च करनेकी शक्ति घटती जाती है। इन सबका कारण है, अतिरिक्त मूल्यके रहस्यमय मार्गद्वारा जनताके परिश्रमका मुनाफेके रूपमें पूँजीपति श्रेणीके खजानोंमें जमा होते जाना। इस व्यवस्थासे मेहनत करनेवाली साधनहीन श्रेणी तो संकट भोगती ही है, परंतु पूँजीपति श्रेणीको भी कम उलझनका सामना नहीं करना पड़ता। समाजमें हो सकनेवाली पैदावारको जनता खपा नहीं सकती। पूँजीपतियोंके पैदावारके विशाल साधन निष्प्रयोजन खड़े रहते हैं। उन साधनोंमें लगी उनकी पूँजी उन्हें कोई लाभ नहीं पहुँचा सकती और वे भयंकर आर्थिक संकट अनुभव करने लगते हैं।’
‘यद्यपि पूँजीवादी व्यवस्थामें मेहनत करनेवाली श्रेणीका शोषण उन्हें दी जानेवाली मजदूरीके पर्देमें छिपा रहता है, जिसके द्वारा उन्हें सदा यह विश्वास दिलाया जाता है कि उनकी मेहनतका पूरा फल मेहनत करनेवालोंको मिल जाता है, परंतु मजदूरोंको उनकी मेहनतसे मिलनेवाले फलमें नित्य कमी आते जानेसे उनका जीवन दिन प्रतिदिन संकटमय होता जाता है; इसलिये मजदूरश्रेणी अपनी मजदूरीको बढ़ानेकी पुकार उठाये बिना नहीं रह सकती।’
मार्क्सने उसी बातको बार-बार दोहराया है। कहा जा चुका है कि मजदूरीका दर उचित होना चाहिये, परंतु मार्क्सवादी तो किसी न्यायालय या पंचायतकी बात माननेको प्रस्तुत ही नहीं होते। समझौता उन्हें अभीष्ट नहीं होता। उनका उद्देश्य तो सम्पूर्ण पूँजीको हथियाना है। जो पहले बेकारीके कारण परेशान होकर नौकरी ढूँढ़ता था, उसे काम मिला। नौकरी मिलनेसे जब बैठनेको जगह मिल गयी तो अब वह मालिकको समाप्त करके स्वयं मालिक बनना चाहता है। ऐसी दृष्टिवाला व्यक्ति या समाज समझौता भला कब चाहेगा? शोषण, उत्पीड़नका अतिरंजित बीभत्स वर्णन केवल उत्तेजना और विद्वेष फैलानेकी दृष्टिसे मार्क्सवादी करते हैं। उनके वर्णनमें तथ्यांश नगण्य ही होता है।
मार्क्सका अतिरिक्त श्रम, अतिरिक्त मूल्य सर्वथा निराधार है। मजदूरीका मार्ग बिलकुल स्पष्ट है। इसमें कोई भी रहस्य नहीं। जैसे आपसी समझौते या पंचायत अथवा निष्पक्ष सरकारद्वारा कच्चे मालकी दर निर्धारित होती है, वैसे ही श्रमकी भी दर निर्धारित होती है और हो सकती है। यह प्रत्यक्ष ही संसारकी आँखमें धूलि-प्रक्षेप है कि ‘व्यापार या उद्योगमें होनेवाले लाभका मूल कारण उस श्रमिकका श्रम ही है, जो वेतनसे काम करता है। पूँजीका लाभमें कोई हाथ नहीं है।’ जब सूदपर रुपया लेने या बैंकमें जमा कर देनेसे भी रुपयोंका सूद मिलता है, तो फिर यदि अधिक लाभका लोभ न हो तो कौन बुद्धिमान् उद्योगोंमें रुपया लगायेगा और क्यों रुपयेको व्यर्थ खतरेमें डालेगा? क्योंकि उद्योग या व्यापारमें हानिकी भी तो सम्भावना रहती है और झंझटमें ऊपरसे पड़ना। लाभमें रुपयेका कोई हाथ भी नहीं समझा जाता। यदि लाभ सब मजदूरका ही है पूँजीपतिका कुछ नहीं, तब क्या पूँजीपति पागल है, जो निरर्थक अपना रुपया खतरेमें डालेगा? और झंझट मोल लेगा? हर्गिज नहीं, फिर तो अच्छा होता कि वह अपनी पूँजी बैठकर खाये और दूरसे तमाशा देखे कि साधनोंके बिना मजदूर श्रममात्रसे क्या कमाता है?
पैदावारके साधनोंको बढ़ाना, औद्योगिक नगरोंमें श्रमिकोंको इकट्ठा करके उचित नौकरी देकर योग्य कामपर लगाकर उन्हें शिक्षित तथा अनुभवी बनाना अपराध नहीं है। वस्तुत: रामराज्यवादीके मतानुसार महायन्त्रका निर्माण अपराध है और उसपर प्रतिबन्ध लगाना चाहिये। मार्क्सवादमें तो पूँजीवाद, साम्यवादका उपकारक है; क्योंकि मार्क्सवादका यन्त्रवाद ही प्राण है। मनुष्योंको भूखा-नंगा बनानेवाला पूँजीवाद अवश्य अपराधी है, उसका मिटना आवश्यक है, परंतु विचारणीय बात यह है कि कहीं भूखा नंगा बना देनेका लाँछन लगाकर उसके विनाशका बहानामात्र तो नहीं ढूँढ़ा जा रहा है? जैसे हिटलर, मुसोलिनी दूसरोंको सभ्य बनानेके लिये उनपर हमला करनेके लिये अपनेको बाध्य समझते थे। एक भेड़िया नीचेकी ओर पानी पीनेवाली बकरीको अपराधिनी घोषित कर उसे खानेको अपनेको बाध्य मानता है। उसी तरह देशका सर्वस्व हरण करके अपना अधिनायकत्व स्थापित करनेके लिये पानी पी-पीकर मार्क्सवादी पूँजीवादको कोसते हैं। अत: न तो सब व्यवस्थाओंसे दूसरी व्यवस्थाओंका जन्म ही होता है, न आवश्यक ही है।
यह स्पष्ट है कि पूँजी, मशीन, कल, कारखाने, कच्चा माल और श्रमिकोंका श्रम सब मिलकर उत्पादनके हेतु होते हैं। जैसे श्रमिक बिना सब चीजें व्यर्थ होती हैं, वैसे ही कच्चे माल आदि बिना श्रमिकोंका श्रम भी व्यर्थ रहता है, तभी बेकारीका प्रश्न उठता है, बल्कि गन्ने आदि कई ढंगसे कच्चे माल, कारखानोंमें बिना गये भी उपयोगी होनेसे कीमती होते हैं। पर श्रम इन वस्तुओंके बिना सर्वथा व्यर्थ रहता है। पूँजीपति जैसे दामसे मशीन खरीदता है, मकान बनाता है, दामसे कच्चा माल खरीदता है, वैसे ही दामसे श्रमिकोंका श्रम भी खरीदता है। जैसे श्रमिकोंके श्रमके दाममें घटाव-बढ़ाव होता रहता है, वैसे ही कच्चे माल और मशीनोंके दाममें भी घटाव-बढ़ाव होता रहता है। काम, कामके घंटे तथा वेतन पारस्परिक समझौतेसे ही तय होता है। यदि आपसी समझौतासे तय न हुआ हो, तब धर्मशास्त्रद्वारा निर्धारित वेतन श्रमिकोंको प्राप्त हो सकता है। राष्ट्र-हितके लिये बेरोजगारी दूर करनेके लिये, कामके घंटे और वेतनकी दरका निर्धारण सरकार भी कर सकती है। सर्वथापि आयका जरिया केवल श्रम नहीं, किंतु श्रम, मशीन, कच्चा माल सब मिलकर ही आयके हेतु हैं। कच्चा माल, मशीन, श्रम सबका दाम पूँजीपतिने चुकाया है, अत: न्यायत: आयका हिस्सेदार पूँजीपति ही है, अतिरिक्त श्रम और अतिरिक्त मूल्यकी कल्पना सर्वथा निराधार है। धर्मशास्त्रोंने स्पष्ट ही आयमें पूँजी लगानेवालोंका हिस्सा बतलाया है। वेतनके सम्बन्धमें आपसी समझौते तथा न्यायालयके मतका उल्लेख बृहस्पति-स्मृतिमें इस प्रकार है—
कुलीनदक्षानलसै: प्राज्ञैर्नाणकवेदिभि:।
आयव्ययज्ञै: शुचिभि: शूरै: कुर्यात्सह क्रिया:॥
समोऽतिरिक्तो हीनो वा यत्रांशो यस्य यादृश:।
क्षयव्ययौ तथा वृद्धिस्तस्य तत्र तथाविधा॥
प्रयोगं कुर्वते ये तु हेमधान्यरसादिना।
समन्यूनाधिकैरंशैर्लाभस्तेषां तथाविध:॥
(बृहस्प० स्मृति० गायक० १३।१—२, ४)
अर्थात् कुलीन, दक्ष, निरालस्य, विद्वान्, व्यापारविशेषज्ञ, आय-व्ययके ज्ञाता साहसी लोग मिलकर व्यापार करें। मूलधनमें जिनका जितना कम या अधिक अंश होता है, उसके अनुसार ही उनका हानि-लाभमें भी भाग रहता है।
सुवर्ण, अन्न, रसादिका व्यापार करनेवालोंका मूलधनके भागके अनुसार ही लाभमें भी भाग होता है। यहाँ स्पष्ट ही व्यापारमें धन लगानेवालोंका ही लाभमें हिस्सा कहा गया है। लाभको श्रममात्रका फल नहीं माना गया।
समो न्यूनाधिको वांशो येन क्षिप्तस्तथैव स:।
व्ययं दद्यात्कर्म कुर्याल्लाभं गृह्णीत चैव हि॥
क्षयहानिर्यदा तत्र दैवराजकृताद् भवेत्।
सर्वेषामेव सा प्रोक्ता कल्पनीया तथांशत:॥
(बृहस्प० स्मृति० गायकवाड संस्कृ० १३।५, ८)
बराबर या कम-अधिक मूलधनमें जिसका जैसा भाग होता है, तदनुसार ही उसका वेतन आदि सम्बन्धसे व्यापारिक व्ययमें खर्च होगा, तदनुसार ही लाभमें हिस्सा मिलेगा। उसी तरह यदि राजकृत या दैवकृत हानि हो तो भी मूलधनके भागानुसार ही हानि भी सबको सहनी पड़ेगी।
अनिर्दिष्टो वार्यमाण: प्रमादाद्यस्तु नाशयेत्।
तेनैव तद्भवेद्देयं सर्वेषां समवायिनाम्॥
राज्ञे दत्त्वा तु षड्भागं लभेरंस्ते यथांशत:॥
दैवराजभयाद्यस्तु स्वशक्त्या परिपालयेत्।
तस्यांशं दशमं दत्त्वा गृह्णीयुर्तेंऽशतो परम्॥
(बृह० स्मृ० १३।९—११)
समुदायकी सम्मति बिना एवं मना करनेपर भी अगर किसीने प्रमादवश धन नष्ट किया है, तो उसे सबको धन देना पड़ेगा। राजाका षष्ठांश देकर शेष आय मूलधनके भागानुसार सबको मिलना चाहिये। जिसने विशेषरूपसे दैवभय या राजभयसे धनको नाश होनेसे बचाया है, उसे दशांश देकर शेषका अंशानुसार समुदायके लोग ग्रहण करें—
बहूनां सम्मतो यस्तु दद्यादेको धनं नर:।
करणं कारयेद्वापि सर्वैरेव कृतं भवेत्॥
समवेतैस्तु यद्दत्तं प्रार्थनीयं तथैव तत्।
न याचते च य: कश्चिल्लाभात्स परिहीयते॥
श्रूयतां कर्षकादीनां विधानमिदमुच्यते।
वाह्यवाहकबीजाद्यै: क्षेत्रोपकरणेन च।
ये समा: स्युस्तु तै: सार्धं कृषि: कार्या विजानता॥
(बृह० स्मृ० २२; २५—२७)
बहुतोंकी सम्मति किसी उद्योगके लिये, एक व्यक्ति जो धन देकर उद्योग प्रारम्भ करता है, वह सभीद्वारा दिया गया समझा जाना चाहिये। जिन संयुक्त लोगोंने जो धन दिया है, सभीको मिलकर ही उसे माँगना चाहिये। जो उनसे नहीं माँगता, उसे लाभमें वंचित रहना पड़ेगा। संयुक्तरूपसे कृषिकर्म करनेवालोंमें भी जिनका हल, बैल, मजदूर, बीज, खाद, खेत आदिके सामान कम या अधिक जिनके जैसे हैं, तदनुसार ही उनको लाभमें हिस्सा मिलना चाहिये।
वाह्यबीजात्ययाद्यत्र क्षेत्रहानि: प्रजायते।
तेनैव सा प्रदातव्या सर्वेषां कृषिजीविनाम्॥
हेमकारादयो यत्र शिल्पं सम्भूय कुर्वते।
कर्मानुरूपं निर्वेशं लभेरंस्ते यथांशत:॥
शिक्षकाभिज्ञकुशला आचार्याश्चेति शिल्पिन:।
एकद्वित्रिचतुर्भागान् लभेयुस्ते यथोत्तरम्॥
हर्म्यं देवगृहं वापि धार्मिकोपस्कराणि च।
सम्भूय कुर्वतां चैषां प्रमुखो द्वॺंशमर्हति॥
नर्तकानामेष एव धर्म: सद्भिरुदाहृत:।
तालज्ञो लभते ह्यर्धं गायनास्तु समांशिन:॥
(वही २८; ३४—३७)
जिसके हल-बैल या बीजकी कमीसे जो खेतकी हानि हो उसीको वह हानि सहनी पड़ेगी। हेमकार आदि शिल्पी जहाँ मिलकर काम करते हों, वहाँ कर्मानुरूप प्रत्येकको वेतन मिलना चाहिये। शिक्षक, अभिज्ञ, कुशल आचार्यको एक, दो, तीन या चार भाग क्रमेण मिलना चाहिये। प्रासाद, देवगृह, धार्मिक उपस्करण बनानेमें प्रमुखको दो अंश मिलना चाहिये। नर्तकोंमें यही विधि है। तालज्ञको आधा मिलना चाहिये और गायकोंको समान अंश मिलना चाहिये।
इन प्रसंगोंसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि व्यापार, उद्योग तथा अन्य कृष्यादि कर्मोंमें होनेवाले लाभ एवं हानिके भागी धनादि साधन लगानेवालोंको ही मिलता है। श्रमिकोंको उनके श्रमका फल वेतन होता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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