7.24 पूँजीवादी साम्राज्यवाद
मार्क्सवादके अनुसार ‘किसी देशका पूँजीवाद जब मुनाफेके लिये अपने देशसे बाहर कदम फैलाता है, तब वह साम्राज्यवादका रूप धारण कर लेता है। प्राचीन समयका साम्राज्यवाद सैनिक आक्रमणके रूपमें आगे बढ़ता था और पराधीन देशोंका शोषण भूमि-करके रूपमें बरतता था। पूँजीवादका साम्राज्य-विस्तार आरम्भ होता है व्यापारसे। फिर अपने व्यापारको दूसरे देशोंके मुकाबलेमें सुरक्षित रखनेके लिये और पिछड़े हुए देशोंके कच्चे मालपर एकाधिकार रखनेके लिये साम्राज्यवादी देशोंमें परस्पर झगड़ा और युद्ध होता है।’
मार्क्सवादके अनुसार ‘पूँजीवादके ऐतिहासिक विकासका परिणाम है साम्राज्यवाद। जिस प्रकार पूँजीवाद व्यक्ति-स्वतन्त्रतासे आरम्भ होकर पूँजीपतियोंके एकाधिकारमें परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार साम्राज्यवाद भी अन्ताराष्ट्रिय स्वतन्त्र व्यापारसे आरम्भ होकर बलवान् पूँजीपति राष्ट्रके एकाधिकारमें परिवर्तित हो जाता है और इस एकाधिकारको प्रत्येक पूँजीवादी राष्ट्रके पूँजीपति अपने ही अधिकारमें रखना चाहते हैं।’
रामराज्य-प्रणालीके अनुसार एक सार्वभौम शासन अन्ताराष्ट्रिय शासन होता है। उसके द्वारा सभी राष्ट्रोंके परस्पर समन्वय एवं सामंजस्यका सफल प्रयत्न होता है। उसके अनुसार अन्ताराष्ट्रिय व्यापारकी भी सुविधा होती है। अपने प्रयोजनयोग्य वस्तु रखकर शेष वस्तु उन देशोंमें भेजी जाती है, जहाँ उस वस्तुकी कमी होती है। इसी तरह एक देशमें अधिक उत्पादन होनेपर अन्य देशोंमें माल भी उसी व्यापारद्वारा सहजमें पहुँचाया जा सकता है। स्वभावसे ही जहाँ जिस वस्तुकी कमी होती है, व्यापारी वहीं लाभके लिये माल पहुँचाते हैं। राष्ट्रहितकी दृष्टिसे अपने यहाँसे भी यदि माँग पूर्ति हो सकती है तो बाहरके मालपर प्रतिबन्ध लगाया जाता है। तदनुसार ही व्यापारिक समझौता होता है। इसी समझौतेके द्वारा जिस देशमें जिस वस्तुकी बहुतायत है, वहाँसे उसका निर्यात होता है। जिस वस्तुकी किसी देशमें कमी है, उसमें उस वस्तुका देशान्तरसे आयात होता है। इसी आधारपर जापानको लोहा, इंग्लैण्डको रूई, जर्मनीको पेट्रोल अन्य देशोंसे मिलता है। इसी आधारपर स्वीडन लोहा, कनाडा लकड़ी, अमेरिका रूईका निर्यात करता है। अवश्य पाश्चात्य साम्राज्यवादियोंने व्यापारके लिये अनेक देशोंको गुलाम बनाया और उपनिवेशके रूपमें राजनीतिक प्रभावक्षेत्रमें रखकर विविध प्रकारका लाभ उठानेका प्रयत्न किया और अब भी कर रहे हैं। यद्यपि अब उपनिवेशवाद मिट रहा है, फिर भी कई साम्राज्यवादी अभी भी उसका मोह छोड़नेमें असमर्थ हैं। भारतीय अंश गोवाको पुर्तगाली अब भी उपनिवेश बनाये हैं। अमेरिकाके कई क्षेत्रोंमें अब भी उपनिवेशवाद है। उपनिवेशवादके रूपमें न सही, परंतु राजनीतिक प्रभावक्षेत्र बनानेकी दृष्टिसे तो मार्क्सवादी राष्ट्र रूस, चीन आदि भी प्रयत्नशील हैं। इस समय पूँजीवादी अमेरिका एवं मार्क्सवादी रूसकी ही होड़ है। दोनों ही अपने-अपने प्रभावक्षेत्रके विस्तारके लिये प्रयत्नशील हैं। इनके व्यापारिक समझौते भी उन्हीं क्षेत्रोंमें होते हैं। सिद्धान्तके विचारसे देखा जाय तो किसी देशमें कम्युनिज्म रहे तो भी पूँजीवादी राष्ट्रका कोई नुकसान नहीं, परंतु कम्युनिष्ट राज्य तो सिद्धान्तत: तबतक किसी देशमें कम्युनिज्मकी स्थापना असम्भव समझते हैं, जबतक सारे संसारमें उसकी स्थापना न हो जाय। ऐसी दशामें जब हम मार्क्सवादियोंके द्वारा सह-अस्तित्वकी घोषणा सुनते हैं—तो आश्चर्य होता है।
अन्ताराष्ट्रिय कम्युनिष्ट राज्य या विश्व-मजदूर-सरकार बनाना कम्युनिष्टोंका ध्येय है और जैसे एक राष्ट्रमें तानाशाही मजदूर-शासन होता है, वैसे ही विश्वभरमें तानाशाही मजदूर-शासन होगा। इसकी अपेक्षा रामराज्य-प्रणालीके अनुसार सार्वभौम विश्व-सरकारकी योजना कहीं श्रेष्ठ है। जिसमें केवल शान्ति, सामंजस्य, समन्वय एवं विकासके लिये सार्वभौम नियन्त्रण होगा। अपने-अपने क्षेत्रमें अधिकाधिक स्वाधीनताका उपयोग सब कर सकेंगे। जहाँ राष्ट्रके भीतर नागरिकोंको भी पर्याप्त स्वाधीनता रहती है, वहाँ अन्ताराष्ट्रिय क्षेत्रमें तो और अधिक स्वाधीनता मान्य होती है। प्राचीन कालमें यद्यपि चरित्र, बुद्धि, शक्ति और संघटनके बलसे ही विश्वपर सार्वभौम सत्ता स्थापित होती थी तो भी तत्-तत् राजाओंकी स्वीकृति अपेक्षित होती थी और परम्परासे जन-सामान्य स्वीकृतिकी प्राप्ति की जाती थी। ढंग लगभग वही-का-वही आज भी है। बुद्धि, धन एवं सैनिक-संघटन तथा अस्त्र-शस्त्र शक्ति एवं नीतिके बलपर ही आज बड़े-बड़े गुट बनते हैं। उनका कोई मुखिया होता है और उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षरूपमें जनस्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक होता है। जबतक किसी ढंगकी सार्वभौम सत्तावाली विश्वसरकार न बनेगी, तबतक अपने-अपने क्षेत्रके विस्तारका प्रयत्न होता ही रहेगा। व्यापारिक लाभ भी प्रत्येक राष्ट्र उठानेका प्रयत्न करता ही रहेगा। इसमें पूँजीवादी राष्ट्रोंके समान ही समाजवादी राष्ट्र भी संघर्षरत रहते हैं। जैसे व्यक्तियोंमें स्वार्थलिप्सा होती है, वैसे ही वर्गों तथा राष्ट्रोंमें भी स्वार्थलिप्सा रहती है। जैसे अपने वर्गहितके लिये कम्युनिष्ट हिंसा, लूट-खसोट सब कुछ उचित समझता है, वैसे ही कम्युनिष्ट सरकारें अपने राज्य-हितके लिये भी दूसरे राष्ट्रोंके साथ न्याय, अन्याय सब कुछ उचित समझती हैं। फिर अपने ही उपस्थापित सभी आक्षेपोंसे कम्युनिष्ट स्वयं नहीं मुक्त हो सकते; क्योंकि छीना-झपटी, अन्याय, हिंसा आदिमें कम्युनिष्ट व्यक्तिगतरूपसे, वर्गरूपसे, राज्यरूपसे इतर लोगोंकी अपेक्षा बढ़े-चढ़े हैं। उनमें आपसमें भी पदच्युत करके पदाधिरूढ़ होनेका संघर्ष चलता ही है। कितने ही मतभेदवाले व्यक्तिसमूह कंटक-शोधनके नामपर समाप्त कर दिये गये।
धर्मनियन्त्रणरहित पूँजीवादी तथा व्यक्तिवादी भी इसी कोटिमें हैं। धर्म-नियन्त्रित रामराज्यवादी चाहे व्यक्ति हो, चाहे राज्य, चाहे सार्वभौम सरकार हो; वह तो प्राणीमात्रको परमेश्वरकी संतान समझती है। समष्टि-व्यष्टि सबके ही हित-स्वत्वका रक्षण, सबके साथ न्याय उसे अभीष्ट है। बहुमत ही नहीं, अल्पमतके साथ भी अन्याय होना अनुचित है। जैसे कभी-कभी अस्त्र-शस्त्र-बलके द्वारा किसीपर अन्याय होता है, वैसे ही बहुमतके बलपर अल्पमतपर भी। कभी-कभी अल्पसंख्यक सज्जनोंपर बहुसंख्यक अन्यायी एवं डाकुओंद्वारा अन्याय किया जाता है। धर्मनियन्त्रित व्यष्टि, राज्य अथवा सार्वभौम शासन सदा सर्वत्र अन्याय मिटाकर सामंजस्य-स्थापनमें ही तत्पर रहेगा। इतिहासमें भली-बुरी सभी ढंगकी घटनाएँ होती हैं। वे सब सिद्धान्त ही नहीं होतीं। अत: पूँजीवादी, व्यक्तिवादी अथवा समाजवादी वर्गोंद्वारा हुई अवांछनीय घटनाएँ कभी ग्राह्य नहीं हो सकतीं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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