8.2 इतिहासकी मार्क्सीय व्याख्या ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

8.2 इतिहासकी मार्क्सीय व्याख्या

मार्क्सके अनुसार ‘इतिहास छ: युगोंमें विभक्त है। प्रथम युगमें अति प्राचीन मनुष्य साम्यवादी संघोंमें रहता था। उस समय उत्पादन, वितरण आदि समाजवादी ढंगसे होता था। दूसरा युग दासताका है। कृषि-प्रथा गोपालनके फलस्वरूप व्यक्तिगत सम्पत्तिका जन्म हुआ। सम्पत्तिके स्वामियोंने अन्य सम्पत्तिरहित लोगोंको अपना दास बनाया। राज्य एवं तत्सम्बन्धी अन्य संस्थाओंका जन्म हुआ। तीसरा सामन्तशाही युग हुआ, इसमें सामन्त भूमिके स्वामी होते थे। गरीब किसान इन सामन्तोंके अधीन रहते थे, पर दास नहीं। चौथा युग आधुनिक पूँजीवादी युग है। इस युगका प्रादुर्भाव व्यवसायों एवं कारखानोंके फलस्वरूप हुआ है। इसमें अर्थ, समाज एवं राज्यके स्वामी पूँजीपति होते हैं। श्रमिक अपना जीवन-निर्वाह श्रमके द्वारा करते हैं। पाँचवाँ युग सर्वहाराके अधिनायकत्वका होगा। इसमें अर्थ, समाज एवं राज्यकी बागडोर श्रमिकोंके हाथमें होगी। यह समाजवादी एवं शोषणरहित युग होगा। इसके बाद मानव-जाति छठे युगमें प्रवेश करेगी। उसमें राज्यविहीन समाज होगा। वास्तविक स्वतन्त्रता तभी होगी, यह सुवर्णयुग होगा।’
मार्क्सका अति प्राचीन युग रूसोकी प्राकृतिक स्थितिके समान है। रूसोकी भाँति ही मार्क्सके मतमें भी व्यक्तिगत सम्पत्ति सभ्यताकी धात्री है। मार्क्सका आधुनिक पूँजीवादी युगका चित्रण रूसो-जैसा ही है। रूसोका ‘आदर्श प्रत्यक्ष जनतन्त्र’ और ‘सामान्येच्छाके सिद्धान्त’ की तुलना मार्क्सके ‘साम्यवाद’ से की जा सकती है। जैसे रूसोकी सामान्येच्छाद्वारा एक नयी स्वतन्त्रता सम्भव होती है, वैसे ही मार्क्सके क्रान्ति और सर्वहाराके अधिनायकत्वमें एक नयी साम्यवादी व्यवस्थाका जन्म होगा। रूसोकी यह स्वतन्त्रता प्राचीन प्राकृतिक स्थितिकी स्वतन्त्रतासे भिन्न थी। वैसे ही मार्क्सका साम्यवाद भी अति प्राचीन साम्यवादसे भिन्न है। भेद इतना ही है कि रूसो आदर्शवादी था और मार्क्स भौतिकवादी।
मार्क्सके अनुसार ‘मानव-इतिहास वर्ग-संघर्षका इतिहास है। यह संघर्ष युगानुरूप होता है। कभी प्रत्यक्ष, कभी अप्रत्यक्ष भी रहा है। कभी विजेताद्वारा नये समाजका निर्माण हुआ, तो कभी दोनों वर्गोंका विध्वंस हुआ है। सर्वहाराकी क्रान्तिद्वारा ही इस वर्ग-संघर्षका अन्त होगा; क्योंकि इसके द्वारा वर्गका अन्त होकर एक वर्गविहीन समाज बनेगा।’ आधुनिक लोगोंकी दुनिया ही छ: हजार वर्षकी है। इसके ही भीतर इन्हें अनेकों युगोंकी कल्पना करनी पड़ती है, परंतु भारतीय महर्षियोंकी दृष्टिसे वर्तमान सृष्टि ही दो अरब वर्षकी मानी जाती है। आधुनिक वैज्ञानिक भी अब सृष्टिकी प्राचीनताकी ओर बढ़ रहे हैं। इस दृष्टिसे धर्मराज्य, रामराज्य और सोपद्रव, क्षुद्रराज्य—तीन ही प्रकारका युग प्रतीत होता है। मार्क्सके छ: युग सोपद्रव क्षुद्रराज्यके भीतर ही हैं।
अनेक दार्शनिक हॉब्सके प्राकृतिक खूँखार मानव एवं उसके द्वारा अनुबन्धपूर्वक ‘दीर्घकाय’को सर्वाधिकार समर्पण आदि-जैसे ही मार्क्सके ऐतिहासिक वर्णनको भी अप्रामाणिक समझते हैं। अतीत घटनाओंके सम्बन्धमें प्रत्यक्षकी प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती, अत: अनुमान या आगमोंद्वारा ही उस सम्बन्धमें कुछ जानकारी हो सकती है। आगमोंपर मार्क्सका विश्वास नहीं था। अपुष्ट कारणोंके आधारपर इतिहासके सम्बन्धमें अटकल लगाकर किसीने तीन, किसीने पाँच तो किसीने छ: युगकी कल्पना कर डाली। ये कल्पनाएँ निराधार हैं। रूसोकी प्राकृतिक स्थितिमें स्वर्णयुग ही था, उसी प्रकार मार्क्सकी भी अति प्राचीन मनुष्योंकी साम्यवादी संघकी स्थिति थी। फिर उसका अन्त क्यों हुआ? जिस तरह उसका अन्त हुआ, उसी तरह मार्क्ससम्मत सर्वहाराके डिक्टेटरशिप्में होनेवाली क्रान्तिद्वारा वर्गहीन राज्यका भी अन्त क्यों न होगा? हीगेलके अनुसार कोई भी संवाद अन्तमें वाद बन जाता है; क्योंकि कुछ-न-कुछ लोग उस संवादके भी विरोधी रहते ही हैं। उन्हींका समुदाय उस संवादका प्रतिवादी बन जाता है। जब अति प्राचीन साम्यवादी संघवादी बन सका तो अन्तिम वर्गविहीन समाज क्या स्थायीरूपसे हो सकेगा? और उसका विरोधी कोई न होगा? फिर हीगेलका आदर्श राज्य भी द्वन्द्वमानके अनुसार अन्तिम ही है। इसमें भी सिवा अन्धविश्वासके और क्या प्रमाण है? फिर यह भी तो कहा जा सकता है कि जैसे रूसोकी सामान्येच्छाद्वारा प्राप्त स्वतन्त्रताका स्वप्न पूरा नहीं हुआ, उसी तरह मार्क्सके भी वर्गविहीन राज्यका स्वप्न पूरा होनेवाला नहीं। धर्मनियन्त्रित शासन-तन्त्रवादीके यहाँ ह्रास-विकासका चक्र चलता रहता है। अत: कृतयुगमें धर्म-राज्य एवं दण्ड आदिसे विहीन धर्मनियन्त्रित राज्य था और वह स्वर्णयुग था—यह आर्ष इतिहासोंसे विदित है। पुनश्च रजोगुण-तमोगुणके विस्तारसे उसमें गड़बड़ी हुई। फिर धर्मनियन्त्रित राज-तन्त्र हुआ, तमोगुण बढ़नेसे फिर और विविध विवादमय राज्य हुए। पुनश्च ‘चक्रनेमिक्रमेण’ धर्मनियन्त्रित लोकतन्त्र, धर्मनियन्त्रित राजतन्त्र एवं पुन: शुद्ध राजादि-विहीन धर्मनियन्त्रित राज्य हो सकता है। जैसे प्रतिवर्ष वसन्त, ग्रीष्म आदि ऋतुओंका प्रादुर्भाव होता है, वैसे ही यह भी सम्भव है। मार्क्सका ‘वर्ग-संघर्ष’ कोई वास्तविक तथ्य नहीं है। यह तो एक विकार है। मात्स्यन्यायका फैलना धर्मनियन्त्रण घटनेपर ही बढ़ता है। धर्मनियन्त्रण बढ़नेपर घट जाता है। यों तो प्रत्येक व्यक्तिके भीतर देवासुर-संग्राम चलता ही रहता है। रजोगुण, तमोगुणके अनुकूल वृत्तियाँ, चेष्टाएँ, भावनाएँ तथा उनसे युक्त व्यक्ति, समुदाय आसुर समुदाय है। सत्त्वगुणके अनुकूल वृत्तियाँ, भावनाएँ, चेष्टाएँ तथा उनसे युक्त व्यक्ति, समुदाय दैवी समुदाय है। इनका संघर्ष सदा ही चलता है, परंतु कभी व्यक्त, कभी अव्यक्त। भीतरका ही संघर्ष कभी-कभी बाह्यरूप धारण कर लेता है। कभी कोई पक्ष जीत जाता है तो कभी कोई पक्ष। तमोगुणपर सत्त्वगुणकी विजय ही अनृतपर सत्यकी, दानवतापर मानवताकी, आसुर-शक्तिपर दैवीशक्तिकी विजय है। यही जडवादीपर अध्यात्मवादीकी विजय है। यही व्यष्टिवादपर समष्टिवादकी, संकीर्णतापर उदारताकी जीत है। आदर्शवादी दार्शनिक हॉब्स आदिके प्राकृतिक मनुष्य और अनुबन्धद्वारा राज्य-कल्पनाको अप्रामाणिक एवं अनैतिहासिक कहते हैं। ठीक इसी तरह अति प्राचीन साम्यवादी समाज और वर्ग-भेद आदिकी मार्क्सीय कल्पना भी अप्रामाणिक एवं अनैतिहासिक ही है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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