8.4 उत्पादन-शक्तियाँ और नियम
कहा जाता है कि उत्पादन-शक्तियाँ दो प्रकारकी हैं—एक चेतन, दूसरी अचेतन। अचेतन शक्तियोंके अन्तर्गत भूमि, जल, वायु, कच्चा माल, औजार, मशीनें आदि आ जाती हैं। चेतन शक्तियोंमें मजदूर, आविष्कारक, अन्वेषक, इंजीनियर आदि आ जाते हैं। जातिगत गुणों अर्थात् किसी मनुष्य-समूहकी जन्म-सिद्ध योग्यताका भी चेतन शक्तियोंमें अन्तर्भाव है। सबसे अधिक महत्त्व शारीरिक और मानसिक श्रम करनेवाले श्रम-जीवियोंका है। उनके द्वारा ही पूँजीवादी समाजमें विनिमय मूल्यकी सृष्टि होती है। दूसरा महत्त्व आधुनिक यन्त्रविद्याका है, जिसके कारण आज समाजमें उथल-पुथल हो रहा है। मार्क्सके मतानुसार ‘मनुष्य उत्पादक कार्य और उसकी आवश्यकताके प्रभावानुसार अपने समाज, राज्य, धर्म-दर्शन और विधानसम्बन्धी सिद्धान्तोंकी रचना करता है। भौतिक, आर्थिक अवस्था इसकी आधार-भित्ति-स्वरूप है। उससे उत्पन्न होनेवाली धार्मिक, राजनीतिक, दार्शनिक आदि प्रणालियाँ उसके ऊपर बने हुए भवनोंके समान होती हैं। ये भवन जितने अंशोंमें अपनी आधारभित्तिके अनुरूप होते हैं, उतने ही दृढ़ होते हैं, उतनी ही उन्नति और समृद्धि होती है। सामाजिक दशाओंके द्वारा सम्पत्ति-सम्बन्धी नियम बनाये जाते हैं और मनुष्योंके उन पारस्परिक सम्बन्धोंका निर्णय किया जाता है, जिनसे उत्पत्तिका कार्य चलता है। उत्पादनके नियमोंका निर्णय समाजके मनुष्य ही करते हैं, जैसे और नियमोंका निर्णय समाजके मनुष्य ही करते हैं। जैसे मनुष्य प्राकृतिक सामग्री और शक्तियोंकी सहायतासे भाँति-भाँतिकी वस्तुओंका निर्माण करते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्कपर उत्पादक-शक्तियोंकी प्रतिक्रियाके फलस्वरूप सामाजिक, राजनीतिक और न्यायसम्बन्धी विधानों तथा धार्मिक, चारित्रिक, दार्शनिक सिद्धान्तोंका भी निर्णय वे ही करते हैं।’
उत्पादक-उत्पादन-शक्तियों और उनके द्वारा होनेवाले परिणामोंपर विचार करते हुए यह कभी न भूलना चाहिये कि उच्चावच अनन्तानन्त सब भौतिक पदार्थ भोग्य हैं। वे अपने लिये नहीं, किंतु भोक्ताके लिये होते हैं। भोक्ता भोग्यके लिये नहीं होता, किंतु भोग्य भोक्ताके लिये होता है। पलंग अपने लिये नहीं, किंतु सोनेवाले भोक्ताके लिये होता है। करोड़ों रुपयोंकी माला, मालाके लिये नहीं, अपितु पहननेवालेके लिये होती है, अतएव पलंग यदि छोटा पड़ जाय तो पलंगमें सुधार होना चाहिये, न कि सोनेवालेको काट-पीटकर पलंगके लायक बनाना चाहिये। माला छोटी पड़ती है, सिरसे गलेमें नहीं उतरती, तो मालाको तोड़कर सुधारना ठीक है; पहननेवालेका सिर छीलकर मालाका गले उतारना बुद्धिमानी नहीं। ठीक इसी प्रकार भोक्ता नित्य, चेतन, आत्माके लौकिक-पारलौकिक हितकी दृष्टिसे भौतिक वैभव एवं उनके रद्दोबदलका उपयोग किया जा सकता है, परंतु आत्माके लौकिक, पारलौकिक हितोंके विपरीत असर डालनेवाले भौतिक प्रभावोंको हर प्रकार रोकना ही उचित है। जैसे स्थूल देह सूक्ष्म मनके अधीन रहता है, वैसे ही देह, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सभी संहत आत्माके लिये होते हैं, वैसे ही देहादिसंघात स्वविलक्षण स्वप्रकाश असंहत आत्माके लिये हैं। रथादि अचेतनकी प्रवृत्ति सारथि चेतनसे अधिष्ठित होती है, वैसे ही जड देहादिकी प्रवृत्ति चेतन आत्मासे अधिष्ठित होती है। देहादि यदि आत्माके अधीन न हों तो भारभूत हो जाते हैं, इसी तरह अचेतन भौतिक सभी व्यवस्थाएँ भी समष्टि चेतन-नियन्त्रित रहकर ही सुख-साधक हो सकती हैं। आधुनिक वैज्ञानिक लोग जड प्रकृतिवशीकारके लिये प्रयत्नशील होते हैं। आधिभौतिक बड़ी-से-बड़ी उन्नति यदि आत्माके अनुकूल है, आत्माके नियन्त्रणमें है, तभी उसका महत्त्व है, अन्यथा वह भार-भूत दु:खरूप ही है। इस तरह भौतिक अवस्थाके अनुसार चेतनके सब नियमोंमें रद्दोबदल अत्यन्त असंगत है, आंशिक रूपसे भौतिक अवस्थाओंका उपयोग एवं अनुसरण मान्य है ही। फिर भी चेतनपर अचेतनका हावी हो जाना कथमपि उचित नहीं है, चेतन उत्पादक होनेसे एवं भोक्ता भी होनेसे महत्त्वपूर्ण है, वह पूँजी एवं यन्त्र दोनोंपर ही अधिकारी होता है, अत: चेतनसे अचेतनकी तुलना ही नहीं हो सकती। फिर भी श्रमजीवीको श्रमका फल जैसे मिलना आवश्यक है, वैसे ही पूँजीपतिको पूँजीका फल भी मिलना आवश्यक है और यह कम्युनिष्टको भी मानना ही होगा, भले ही उसकी दृष्टिमें ही यह फल व्यक्तिको न मिलकर समाजको मिले। यहाँ रामराज्यके अनुसार आधुनिक शोषक पूँजीवाद या व्यक्तियोंका अधिनायकवाद या नि:स्वत्ववाद नहीं मान्य है, किंतु वह पूँजी सबको मान्य है, जिसके द्वारा यन्त्र एवं आविष्कारक, अन्वेषक एवं श्रमजीवियोंका भी काम चला है। आधुनिक रूपमें आजकल भी व्यक्ति बैंकोंमें रुपया जमा करता है और उसका सूद भी प्राप्त करता है।
माली हालत या भौतिक अवस्था भले ही तत्सम्बन्धित नियमोंकी आधारभित्ति हो, परंतु ‘दार्शनिक धार्मिक सभी नियमोंकी आधारभित्ति या नींव भी माली हालत ही है’—यह कहना सर्वथा असंगत है। भले पुरुष चाहे निष्किंचन हों या धनवान्; किंतु अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदिका आदर सभी करते हैं। प्राचीन कालमें जैसे अकिंचन ब्रह्मचर्यका, तपस्याका सम्भावन करते थे, वैसे ही एक सर्वसाधन-सम्पन्न सम्राट् भी सब त्यागकर ब्रह्मचर्य एवं त्याग-तपमें परिनिष्ठित होता था। आज भी भले लोग धनी हों या गरीब, धर्मका आदर करते हैं। बुरे चाहे धनी हों या गरीब, धर्मकी उपेक्षा करते हैं। देह-भिन्न आत्माका अस्तित्व तथा ईश्वर सदा, राजा, रंक, अमीर, गरीब सभी मानते हैं; फिर माली हालतमें रद्दोबदल होनेसे धर्म एवं दर्शनमें रद्दोबदल होना कहाँतक संगत है?
कथंचित् भावनाओंपर वातावरणका किंचित् प्रभाव पड़ सकता है, परंतु तत्त्वज्ञान एवं वस्तुस्थितिसे सम्बन्ध रखनेवाले धर्म-दर्शनोंमें भी माली हालतके रद्दोबदल होनेसे रद्दोबदल मानना अत्यन्त मूर्खता है। लूट, खसोट, चोरी, हत्या, कभी भी धर्म बन जायँगे, परोपकार, दया, सत्य, कभी अधर्म बन जायँगे, तब तो कभी संखियाका अमृतरूपमें और अमृतका संखियारूपमें बदलना भी मान लिया जायगा। तत्त्वज्ञानकी व्यवस्था ही लीजिये—रज्जुमें रज्जुज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है, रज्जुमें सर्प, धारा, माला आदिका ज्ञान सदा ही अयथार्थ रहेगा, चाहे माली हालतमें रद्दोबदल हो, चाहे कितना ही भौतिक परिवर्तन हो, परंतु किसी भी हालतमें रज्जुमें रज्जुज्ञानकी अयथार्थता नहीं हो सकती। वस्तुत: मार्क्सवादी व्यक्तिगत भूमि-सम्पत्ति, खानों, कल-कारखानोंपर राष्ट्रीकरणके नामपर अधिकार करनेके लिये आदिपरम्पराप्राप्त शास्त्रीय नियमोंका अपलाप करके अपने कृत्योंका समर्थन करना चाहते हैं। परस्त्री, पर-धनका अपहरण, हत्या एवं जाल-धोखेको भी उचित या न्यायसिद्ध करनेके लिये ये वाग्जाल फैलाते हैं और कहते हैं कि ईश्वरीय या शास्त्रीय कोई भी सत्य न्याय अथवा धर्म नहीं है। माली हालत, भौतिक अवस्थाके अनुसार ही धर्म, सत्य, न्याय बनते हैं, अत: सभी नियमोंकी नींव माली हालत या भौतिक अवस्था ही है। इस दृष्टिसे वे कहते हैं कि ‘पुरानी माली हालत या भौतिक अवस्था बदल गयी तो पुराने सब नियम धराशायी हो गये। इसलिये पुराने नियमोंके अनुसार जो पहले अधर्म था, वह अब अधर्म नहीं है। अत: हमलोगोंका पर-धन, पर-स्त्री-हरण, हत्या, जाल-फौरेब आदि अधर्म या अन्याय नहीं है। जिन लोगोंने उत्पादन-साधनों एवं उत्पादनोंमें रद्दोबदल कर लिया, उन्हें धर्म एवं न्यायमें भी रद्दोबदल कर लेनेका हक है, उत्पन्न वस्तुओंके वितरण-सम्बन्धी नियमोंमें भी रद्दोबदल कर लेनेका हक है’—ये सब बातें अपने पापको, अन्यायोंको पुण्य या न्यायसिद्ध करनेका असफल वागाडम्बरमात्र है, जिसमें कुछ भी दम नहीं है। कोई भी व्यसनी या अपराधी, अपनी प्रवृत्ति या रुचिके अनुसार ही अधार्मिक धार्मिक सामाजिक राजनीतिक नियम चाह सकता है।’
मार्क्सका कहना है कि ‘मनुष्य स्वयं अपने इतिहासका निर्माण करता है। वह यह कार्य अपनी इच्छाके अनुसार अभिलषित मार्गसे नहीं कर सकता; किंतु उसे मार्गके अनुसार कार्य करना पड़ता है, जो कि उसके सामने प्रस्तुत होता है और जिसे वह प्राप्त कर सकता है। उदाहरणार्थ अति प्राचीन युगमें थोड़े-थोड़े मनुष्य गिरोह बनाकर रहते थे, रक्त-सम्बन्धके आधारपर संघटित होते थे। उनके देवता भी उनकी परिस्थितिके अनुसार बनाये गये। इससे प्रकट होता है कि उस परिस्थितिका प्रभाव उन जंगली लोगोंकी मानसिक अवस्था, उनके मजहब, उनके चरित्र और उनके सामाजिक नियमोंपर कैसा पड़ता था। सर्पों, सिंहों आदिकी पूजा उस कालकी निशानी है। इसी तरह मध्यकालके क्षत्रिय सरदारों, जमींदारोंका आधार भूमि-सम्बन्धी अधिकार और शहरोंकी दस्तकारीपर था। उस परिस्थितिके अनुसार उन लोगोंके धार्मिक विचार बदल गये और नवीन मतोंकी स्थापना हुई, जो कि इस युगके अधिकार प्राप्त लोगोंके हितके अनुकूल थे। जो नैतिक, धार्मिक, दार्शनिक विचार इस हितके विरोधी थे, उन्हें दबा दिया गया।’
‘इसी प्रकार वर्तमान पूँजीवादी समाज व्यक्तिगत पूँजीके आधारपर रचा गया है और वह सामूहिक तथा सहयोगमूलक भावोंके उच्छेदनार्थ प्रयत्नशील है। यह स्वार्थसिद्धिके लिये व्यक्तिगत स्वतन्त्रताका प्रचार करता है तथा श्रमजीवियों और सम्पत्तिका एक स्थानपर संग्रह करता है, जमींदारी, जागीरदारीकी प्रथा और उसके समर्थक विश्वासों (राजाको ईश्वररूपमें मानना)-को नष्ट करता है और उनके स्थानपर धार्मिक स्वतन्त्रता, व्यक्तिगत विवेकके सिद्धान्तका विस्तार करता है। यह समाज व्यक्तिगत अधिकारोंका प्रचार करता है, प्राचीन राजाओंके एकतन्त्र शासनके विरुद्ध युद्ध करता है, राष्ट्रियताका भाव फैलाकर व्यापार-व्यवसायका विस्तृत क्षेत्र प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है तथा जमींदारी आदिके विरोधार्थ ही वह एकतन्त्र सत्ताका समर्थन करता है। एकतन्त्र सत्ता भी जब पूँजीवादमें बाधक होती है, तब उसके विरुद्ध भी वह संग्राम करता है और एकतन्त्र शासनको नष्ट कर वैध राज्य-सत्ता या प्रजातन्त्रकी स्थापना करता है। यह सब काम इसलिये नहीं सम्पन्न किये जाते कि कोई विलक्षण बुद्धिमान् मनुष्य प्रबल विचारशक्तिद्वारा या नवीन ज्ञानोदयद्वारा या ईश्वरीय प्रेरणाद्वारा करता है, किंतु यह सब उस प्रभावसे सम्पन्न होता है, जो मनुष्यके भौतिक आधार या आर्थिक आधारके परिवर्तन होनेसे मनुष्योंके मस्तिष्कपर पड़ता है। मार्क्सका कहना है कि ‘मनुष्यके अस्तित्वका आधार उसके विवेक या अन्तरात्माके आदेशपर नहीं होता, किंतु अन्तरात्माका आधार उसकी सामाजिक स्थिति या दशापर होता है। कोई भी मनुष्य सामाजिक जीवनका निर्माण नहीं कर सकता और न उसके अनुकूल कानून ही बना सकता है। वह तो केवल एक नौकर या कार्यकर्ताके समान होता है, जो समाजके भौतिक आधार या आर्थिक दशासे उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्तियों और विचारधाराओंका अनुसरण करता है, तथापि कार्यकर्ता व्यापक ज्ञानवान्, उद्योगी एवं अधिक योग्य हों तो अपनी सीमाके भीतर महान् कार्य कर सकते हैं, की गयी उन्नतिको बहुत दूरतक बढ़ा सकते हैं। ईसा, मुहम्मद आदि इसी कोटिके थे।’
अवश्य भौतिक परिस्थितियाँ कभी-कभी प्राणीको अपने अनुसार चलनेके लिये बाध्य करती हैं, फिर भी लक्ष्य एवं सिद्धान्तके अनुसार महापुरुष परिस्थितियोंको ही बदल देते हैं, परिस्थितियोंके दास नहीं बनते, परिस्थितियोंके वशीभूत होकर भी अपना धर्म नहीं छोड़ते, भले प्राण छोड़ना पड़े तो प्राण छोड़ देते हैं। अति प्राचीन युगका मार्क्सीय इतिहास भी सर्वथा अप्रामाणिक है। गिरोह बनाकर रहना, पहले भी अच्छा था, आज भी अच्छा है। रक्त-सम्बन्धसे विशिष्ट समूह आज भी होता ही है। ‘परिस्थितिके अनुसार सर्प, सिंह आदिको देवता बनाने’ की बात प्रलाप है। शास्त्रविश्वासी आज भी शेषनाग एवं नृसिंह भगवान्को परमेश्वरके अवताररूपमें पूजते ही हैं। इसी तरह ‘मध्यकालमें धार्मिक विचार बदल गये’ यह कहना भी असंगत है। अनादि अपौरुषेय शास्त्रोंका प्रामाण्य माननेवालोंका जैसा विचार करोड़ों वर्ष पूर्व रामायणके रामराज्यमें था, हजारों वर्ष पूर्व महाभारतके युधिष्ठिर-राज्यमें था, वैसा अब भी है। शास्त्रप्रमाण न माननेवाले जैसे आज हैं, वैसे पहले भी थे। उनके मत सदा ही बदलते रहते हैं। शास्त्र अति प्राचीन कालके मालिकों, मध्य कालके सरदारों एवं अर्वाचीन कालके पूँजीपतियोंके बनाये नहीं हैं। वे आप्तकाम, पूर्णकाम, वीतराग, महातपा, अरण्यवासी, कन्दमूलफलाशी, वल्कलवसनधारी महर्षियोंद्वारा रचे गये हैं, सो भी स्वतन्त्ररूपसे नहीं, अपितु अनादि, अपौरुषेय, परमेश्वरीय वेदादि शास्त्रोंके आधारपर रचे गये हैं। उनकी व्यवस्थाओंमें आधुनिक ढुलमुल पन्थियोंकी अवसरवादिताका स्पर्श भी नहीं है। बाइबिलमें भी कहा गया है कि ‘सूईके छेदसे ऊँटका निकल जाना सम्भव है, पर धनिकोंका स्वर्गीय राज्यमें प्रवेश करना कठिन है।’ इसी प्रकार न केवल भारतीय धर्मग्रन्थ, अपितु संसारके सभी धर्मग्रन्थ वीतराग, अकिंचनों एवं साधारण श्रेणीके लोगोंद्वारा बनाये गये हैं और उनमें कोई पक्षपात नहीं है। मनु यद्यपि सम्राट् थे, फिर भी उन्होंने अकिंचनोंका ही महत्त्व गाया है। यह कहना नितान्त मूर्खता है कि ‘शास्त्रकार ऋषि धनिकोंके एजेंट थे। उनके हितोंकी रक्षाके लिये ये लोग पाप-पुण्यके चक्करमें जनसाधारणको फँसाये रखनेका प्रयत्न करते रहते थे।’ भला, जो राजान्नग्रहणको घोर पाप समझते थे, ‘कुसूल-धान्यक’ ब्राह्मणकी अपेक्षा जो अश्वस्तनिक (कलके लिये कुछ न रखनेवाले) ब्राह्मणको ही श्रेष्ठ मानते थे, महात्यागको ही सर्वस्व मानते थे, वे किस प्रलोभनसे ऐसा निष्ठुर कर्म करते? आज भी तो धनिकवर्ग नास्तिकप्राय है। वह किस भारतीय विद्वान्का सम्मान करता है? यह वर्ग जितना उच्छृंखलोंकी पूजा करता है, उतना आस्तिक पक्षकी प्रतिष्ठा करता तो आस्तिक पुरुषों एवं आस्तिक संस्थाओंको आर्थिक संकटके कारण कार्य करनेमें बाधा क्यों पड़ती? फिर भी शास्त्रविश्वासी शास्त्र, युक्ति एवं लोकसिद्ध न्यायके अनुसार उचित होनेसे व्यक्तिगत भूमि, सम्पत्ति आदिका समर्थन करते हैं। इसी तरह आस्तिकपक्षका राजाओंके एकतन्त्र शासनसे न विरोध है और न आधुनिक लोकतन्त्रके साथ कोई राग है। धर्म-नियन्त्रित एकतन्त्र-शासन भी लाभदायक होता है। धर्मनियन्त्रित होनेसे ही लोकतन्त्र या प्रतिनिधितन्त्र लाभदायक हो सकता है। उच्छृंखल, धर्मशून्य रावण, वेन आदिका एकतन्त्र भी हानिकारक हुआ था, वैसे उच्छृंखल लोकतन्त्र आजकल भी देशके लिये खतरनाक है।
शास्त्रोंके अनुसार कोई भी कार्य विचारशील ईश्वर, महर्षियों, बुद्धिमान् व्यक्तियों अथवा व्यक्तिसमूहोंकी गम्भीर विवेचनाओं एवं लोकहित भावनाओंसे होता है। भले कामोंका मूल भले विचार, भली प्रेरणाएँ तथा सावधानी और बुरे कामोंके मूल कारण बुरे विचार, बुरी प्रेरणाएँ एवं प्रमाद आदि होते हैं। इस तरह सिद्ध है कि बुद्धिपूर्वक कार्यकारी पुरुष विचारपूर्वक ही कोई कार्य करता है। शास्त्र ‘ईक्षतेर्नाशब्दम्’ (ब्रह्मसूत्र १।१।५) इत्यादि सूत्रोंसे कहते हैं कि जड प्रकृतिसे विलक्षण विश्वका निर्माण नहीं होता; क्योंकि विलक्षण कार्य ईक्षण अर्थात् विचारपूर्वक होता है। जड प्रकृतिमें विचारशक्ति नहीं है। अत: वह विश्वसृष्टिका स्वतन्त्र कारण नहीं है। प्रत्यक्ष, अन्वय-व्यतिरेकसिद्ध चेतनोंके सावधानी एवं प्रमादके आधारपर होनेवाले कार्योंकी भलाई-बुराईका प्रत्यक्ष कार्यकारण-भाव छोड़कर अचेतन भौतिक अवस्थाओंके अनुसार यन्त्रसंचालित ढंगसे घटनाओंका परिवर्तन मानना सर्वथा निराधार है। एक तरफ बुद्धिसंगत ईश्वर-प्रेरणा, शुभाशुभ कर्मरूप प्रारब्ध या दैवकी प्रेरणाको अन्धविश्वास बतलाना और दूसरी तरफ बुद्धिपूर्वक चेतनद्वारा होनेवाले कार्योंको यन्त्रसंचालित ढंगसे भौतिक अवस्थाओं या भौतिक ऐतिहासिक प्रभावोंका परिणाम मानना, यह कितनी उपहासास्पद बात है? यदि ‘चेतन प्राणी अपना और समाजका लौकिक-पारलौकिक हिताहित सोच-विचारकर बुद्धिपूर्वक कार्य नहीं करता, किसी भौतिक प्रवाहके परतन्त्र होकर ही कार्य करने एवं सोचनेको बाध्य होता है’, तो फिर व्यक्तियों या समूहोंका गुण-दोष क्यों माना जाय? फिर तो कानूनोंके द्वारा किन्हीं गुणोंका विधान या निषेध भी क्यों होना चाहिये? कोई भी विधान एवं निषेध स्वतन्त्रके लिये ही सम्भव होता है। लोहशृंखलासे निगडित हस्तपादादिवाले व्यक्तिको जलादि लानेके लिये कौन बुद्धिमान् आदेश देगा? ऐसे ही बलात् नियोजित कार्यसे किसीको कोई कैसे रोक सकता है तथा विहिताकरण, निषिद्धानुष्ठानके लिये दण्ड एवं शुभानुष्ठानके लिये पुरस्कारकी व्यवस्था कौन करेगा? ‘स्वतन्त्र: कर्ता’ पाणिनिके इस सूत्रके अनुसार—‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ’ को ही कर्ता कहा जाता है। अश्वसे चलने, पाँवसे चलने या न चलनेमें जो स्वतन्त्र होता है, वही कर्ता होता है। उसीके लिये अश्वसे जाना चाहिये या पैरसे जाना चाहिये यह विधान तथा अश्वादिसे न चलना चाहिये यह निषेध सार्थक होता है। उसीके लिये दण्ड एवं पुरस्कारकी व्यवस्था होती है। भूत, भौतिक अवस्था तथा उसका प्रवाह सब-के-सब जड हैं। वे अपने-आपको नहीं जानते। समाजका हानि-लाभ सोच नहीं सकते। प्रेरणा भी कर नहीं सकते। फिर उनके आधारपर किन्हीं भी घटनाओं, प्रवृत्तियों या आन्दोलनोंको मानना कहाँतक उचित है।
प्रवाह प्रवाहीसे भिन्न नहीं होता। जैसे पिपीलिकाओंसे भिन्न पिपीलिकाओंकी पंक्ति नहीं होती, सैनिकोंसे भिन्न सेना नहीं होती, एक-एक वृक्षोंसे भिन्न वन नहीं होता, वैसे जड भूतोंसे भिन्न उसका प्रवाह भी नहीं होता है। साथ ही जड भूतोंमें या उनके प्रवाहमें विचार्यकारिता भी नहीं होती। अत: उनके परतन्त्र चेतन बुद्धिमान्को कार्य करने एवं सोचनेको बाध्य होना पड़े, यह असंगत है। अवश्य सम्पत्ति या विपत्तिके रूपमें आनेवाली भूत या भौतिक घटनाएँ विचारणीय होती हैं। विचारशील शक्तिशाली प्राणी शक्ति रहनेपर भूतों या भौतिक घटनाओंको अनुकूल बनाता है, शक्ति न रहनेपर लाचारीसे सहन करता है। यदि प्रवाह-परतन्त्र ही सब घटनाएँ हों तो भलाई-बुराईका उत्तरदायित्व भी चेतन व्यक्तियों या समुदायपर न होना चाहिये और न तो उन्हें उसका फल ही भोगना चाहिये। फिर तो किसी परिस्थितिके अनुसार ही हिटलर एवं उसके साथियोंका जन्म हुआ, युद्ध छिड़ा एवं अभूतपूर्व विश्वव्यापी संग्राम हुआ। फिर उसके साथियोंको युद्धापराधी बनाकर फाँसीपर लटकानेका क्या अर्थ है?
कहा जाता है, गांधीजी बड़े प्रभावशाली थे। फिर भी उनके यन्त्रीकरणके विरुद्ध खद्दर आदिकी योजना प्रवाहविरुद्ध होनेसे सफल नहीं हुई। पर इससे यही क्यों न माना जाय कि उस योजनाके पीछे जितनी शक्ति अपेक्षित थी, गांधीजीके पास उतनी शक्ति न थी। इसके विरुद्ध यह भी कहा जा सकता है कि बढ़े-चढ़े बौद्ध-धर्मको रोकनेके लिये कुमारिल एवं शंकराचार्य सफल हुए। अत: चेतन शक्तिशाली पुरुष भौतिक प्रवाहको मोड़ते हैं, वे प्रवाहमें नहीं बहते। इसीलिये भारतीय सिद्धान्त है कि ‘कालो वा कारणं राज्ञ: राजा वा कालकारणम्। इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम्॥’ (महा०) काल राजाका कारण है या राजा कालका कारण है, यह संशय नहीं होना चाहिये—राजा ही कालका कारण होता है। काल प्रवाह, भौतिक प्रवाह या इतिहासकारको चेतन प्राणी, राजा, विशिष्ट महापुरुष तथा ईश्वर अवश्य ही बदल सकते हैं।
कहा जाता है कि ‘उत्पत्ति और समाजका एक रूप नष्ट होता है तो उसका स्थान दूसरा रूप ले लेता है। इस क्रान्तिकारी परिवर्तनका कारण दो प्रकारके घटना-समूह होते हैं। दोनों यद्यपि कभी संयुक्त रूपसे दिखायी देते हैं, फिर भी दोनों पृथक् रूपसे काम करते हैं। इनमें एक यन्त्र विद्यासम्बन्धी है, जिसके फलस्वरूप उत्पादन-शक्तियोंमें परिवर्तन होता है। दूसरा घटनासमूह व्यक्तिसम्बन्धी है, जिसका सम्बन्ध सामाजिक वर्गों और दलोंसे होता है। काम करनेवाले मजदूरोंकी बढ़ती हुई दक्षता, नवीन कच्चे माल और बाजारोंका अन्वेषण, माल बनानेकी नवीन पद्धति, औजारों और मशीनोंका आविष्कार-व्यापार तथा विनिमयके अधिक उत्तम संघटनके फलसे जब उत्पादक शक्तियोंकी वृद्धि हो जाती है और समाजका भौतिक आधार अथवा आर्थिक नींव बदल जाती है, तब उत्पत्तिकी पुरानी प्रणालीसे माल तैयार करनेका पुराना तरीका लाभदायक नहीं रह जाता; क्योंकि माल बनानेका पुराना तरीका, पुराने सामाजिक विभाग, पुराने कानून, पुरानी शासनसंस्थाएँ, पुराने विद्यासम्बन्धी सिद्धान्त (ऐसी उत्पादक शक्तियोंके अनुकूल जो या तो लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त हो रही हैं) रह नहीं जाते? अत: अब वह समाजरूपी भवन उसकी आर्थिक दशारूपी नींवके सदृश नहीं रह जाता। इस प्रकार उत्पादक शक्तियाँ और उत्पत्तिकी प्रणाली एक-दूसरेके विरुद्ध हो जाती हैं। प्राचीनता, नवीनताका यह विरोध धीरे-धीरे मनुष्यके विचारोंपर प्रभाव डालता है। मनुष्य एक नवीन युगका आरम्भ अनुभव करने लगता है। इस घटनासे समाजका संघटन भी बदलने लगता है। जो वर्ग पहले तुच्छ समझे जाते थे, वे ही महत्त्वपूर्ण और सम्पत्तिके स्वामी बन जाते हैं। जिन वर्गोंकी पहले प्रधानता थी, उनका पतन होने लगता है। इस प्रकार समाजके मूल आधारमें परिवर्तन होनेसे प्राचीन धार्मिक, कानूनी, दार्शनिक और राजनीतिक प्रणालियाँ पहले तो अपने अस्तित्व कायम रखनेके लिये हाथ-पैर मारती हैं, परंतु समय-परिवर्तनके कारण वे अव्यवहार्य और निकम्मी हो जाती हैं, लोगोंके उपयोगार्ह नहीं रह जातीं। मनुष्योंके विचार भी प्राय: परिवर्तनविरोधी स्थितिपालक होते हैं, पर फिर वे भी धीरे-धीरे घटनाओंका अनुसरण करने लगते हैं। महान् विचारक उत्पन्न होते हैं, वे नवीन परिस्थितिका रहस्य समझाते हैं। उसके अनुसार नवीन भावनाओं, विचारधाराओंका जन्म देते हैं। फिर मनुष्योंमें विवेक जाग्रत् होता है। सन्देह और प्रश्नोंकी परम्परासे नवीन सत्य सिद्धान्तोंका उदय होता है। फलस्वरूप मतभेद, वादविवाद, फूट, वर्गकलह और क्रान्ति उत्पन्न होती है।’
पूर्वके तर्कोंसे उपर्युक्त मार्क्सीय मन्तव्यका भी खण्डन हो जाता है। उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि काल या परिस्थिति एवं भौतिक अवस्थाओंके कारण सिद्धान्तोंमें परिवर्तन नहीं हो सकता। पैदल चलने, बैलगाड़ियोंद्वारा चलने एवं वायुयानद्वारा चलनेके जमानेमें भले ही भेद हो गया हो, परंतु उनमें रहनेवाले नित्य आत्मा एवं परमेश्वरमें भेद नहीं हो गया। इस तरह चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, नक्षत्रमण्डल, आकाशमण्डलमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अग्निका दहन, प्रकाशन-धर्म, पृथ्वीके अन्नादि उत्पन्न करनेके स्वभावमें रद्दोबदल नहीं हुआ। अग्नि, सूर्य, वायु एवं आकाशके धर्ममें रद्दोबदल नहीं हुआ। चन्द्रमाके घटने-बढ़ने एवं तदनुसार समुद्रके ज्वारभाटेमें भी रद्दोबदल नहीं हुआ। भोजनसे भूख मिटानेके सिद्धान्तमें, पानीसे प्यास बुझानेके सिद्धान्तमें, संतानोत्पादन कार्यादिमें भी उल्लेख्य परिवर्तन नहीं हुआ। अतएव सत्य-अहिंसा, स्तेयादि धर्मोंका भी महत्त्व घटा नहीं है। मशीनों एवं बड़े-बड़े कल-कारखानोंके बननेसे या मजदूरोंमें कार्यक्षमता, दक्षता, बढ़ जानेसे सम्पत्तिमें, सुख-सुविधा आदिमें वृद्धि हो जानी अलग बात है; परंतु इससे धार्मिक, दार्शनिक या राजनीतिक सिद्धान्तोंमें अन्तर पड़नेका कोई भी कारण नहीं है। पुनश्च आधुनिक लोगोंके मतानुसार जो छ: हजार वर्षके भीतर ही संसारका ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक काल मानते हैं, उनके लिये यह भले ही कोई नवीन अद्भुत विकास हो, परंतु जो अरबोंवर्षकी दुनिया मानते हैं, वे लाखों वर्ष पहले महायन्त्रोंका निर्माण करके उनका दुष्परिणाम भी जान चुके हैं। अतएव उनके निर्माणको पाप तथा अवैध घोषित कर चुके हैं। रामायणके पुष्पकयान तथा देवताओंके दिव्य विमानोंका मुकाबला करनेमें आजके विमान कुछ हैं ही नहीं। कथासरित्सागर, बृहत्कथामें वर्णित विमानोंका भी आधुनिक विमान मुकाबला नहीं कर सकते। उनमें एक कीलके दबानेसे एक बारकी उड़ानमें आठ हजार योजनतक जानेकी क्षमता थी, खतरेकी तो कोई सम्भावना थी ही नहीं। यन्त्रचालित नगर एवं बाजार आदिकी और उनके शासन आदिकी सम्पूर्ण व्यवस्था एक कारीगरके हाथमें होना कितना महत्त्वपूर्ण आविष्कार था।*
* राजा भोजके पास एक काष्ठमय अश्वाकार यन्त्र था, जिसकी एक घड़ीमें ११ कोसकी गति थी—‘घटॺैकया क्रोशदशैकमश्व: सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या। वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्रम्॥’ (समरां० सूत्र०)। उज्जैनके राजा प्रद्योतने राजा उदयनको फँसानेके लिये एक यन्त्रमय हाथी बनाया था, जिसपर ६० योद्धा बैठते थे (कथासरित्सागर)। भरद्वाजकृत अंशबोधिनीके ‘शक्त्युद्गमाद्यष्टौ’ इस सूत्रकी ‘बौधायनवृत्ति’ में शक्त्युद्गम आदि आकाशगामी विमानके आठ प्रकार इस तरह बतलाये गये हैं—(१) शक्त्युद्गम (बिजलीसे चलनेवाला), (२) भूतवाह (अग्नि, जल, वायुसे चलनेवाला), (३) धूमयान (वाष्पसे चलनेवाला), (४) शिखोद्गम (तैलसे चलनेवाला), (५) अंशुवाह (सूर्यकिरणोंसे चलनेवाला), (६) तारामुख (उल्कारस अर्थात् चुम्बकसे चलनेवाला), (७) मणिवाह (चन्द्रकान्त-सूर्यकान्त आदिसे चलनेवाला) और (८) मरुत्सक (केवल वायुसे चलनेवाला)। पुष्पकविमानका वर्णन वाल्मीकिरामायणमें सुप्रसिद्ध है—‘ब्रह्मणोऽर्थे कृतं दिव्यं दिवि यद् विश्वकर्मणा। विमानं पुष्पकं नाम सर्वरत्नविभूषितम्॥’ ‘भागवत’ में शाल्वके विमानका भी वर्णन इन शब्दोंमें आया है—‘स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम्। ययौ द्वारावतीं शाल्वो वैरं वृष्णिकृतं स्मरन्॥ क्वचिद् भूमौ क्वचिद् व्योम्नि गिरिमूर्ध्नि जले क्वचित्।’ (१०।७६।८, २२) कुबेरका पुष्पकयान, कर्दमका दिव्ययान और शाल्वका विमान जल, स्थल, पर्वत तथा आकाशमें सर्वत्र चलता था। शुक्रनीतिके चौथे अध्यायमें तोप-बन्दूक आदिका विशेष-रूपसे उल्लेख है—‘नलिकं द्विविधं ज्ञेयं बृहत् क्षुद्रविभेदत:। तिर्यगूर्ध्वच्छिद्रमूलं नालं पञ्चवितस्तिकम्॥ मूलाग्रयोर्लक्ष्यभेदि तिलबिन्दुयुतं सदा। यन्त्राघाताग्निकृद् द्रावचूर्णसूलककर्णकम्॥’ (शुक्रनी० ४।१०२८-२९)।
महाभारतके ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र-जैसे अस्त्र-शस्त्रोंकी बराबरी आजकलके हाइड्रोजन बम आदि भी नहीं कर सकते हैं। वे अस्त्र प्रयुक्त किये जाते थे, साथ ही मध्यसे ही लौटाये भी जा सकते थे और पाशुपतास्त्र तो क्षणभरमें ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डोंका संहार कर सकता था। धन, रत्न, मणियोंकी कमी रामचन्द्र, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर आदिके राज्यमें न थी। उनकी बुद्धि, शक्तिकी भी आजके लोगोंसे तुलना नहीं की जा सकती। विश्वकर्मा, मय एवं नल-नीलकी कारीगरी, हनुमान्, अंगद, बालि, अर्जुन, भीमकी शक्तिकी बराबरी आज कौन कर सकता है? तथापि उन लोगोंने अपौरुषेय शास्त्रों एवं तदाश्रित धर्म, दर्शन एवं आर्ष नीतियोंमें कोई परिवर्तन आवश्यक नहीं समझा एवं आज भी जिन अमेरिका आदि राष्ट्रोंने पचासों तल्ले ऊँचे भवन बनाये, पन्द्रह सौ मील प्रति घण्टे चलनेवाले वायुयान बनाये, परमाणु बम, हाइड्रोजन बम-जैसे शस्त्रास्त्र बनाये हैं, वे भी ईसाईमतकी ही पुकार मचा रहे हैं, धर्म एवं ईश्वरका सम्मान ही कर रहे हैं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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