8.5 मार्क्स एवं इतिहास
मार्क्सवादी समाजके विचारों, सिद्धान्तों तथा राजनीतिक संस्थाओंको समाजकी सत्ता और उसकी भौतिक परिस्थितियोंके ही अनुकूल मानते हैं और समाजकी सत्ता एवं भौतिक परिस्थितियाँ उनके मतमें उत्पादन-शक्तियों तथा उत्पादन-सम्बन्धोंपर निर्भर रहती हैं। इन्हींपर समाजका ढाँचा स्थिर होता है। दासयुगमें सामाजिक रीतियाँ अन्य युगोंसे भिन्न थीं। यही बात सामन्तवादी तथा पूँजीवादी युगके लिये भी कही जा सकती है। इन भिन्नताओंका कारण उत्पादन-शक्तियाँ और उत्पादनके सम्बन्ध हैं। मार्क्सने कहा है कि ‘मनुष्यकी सत्ता उसकी चेतनाद्वारा नहीं निश्चित होती; किंतु उसकी चेतना ही सामाजिक सत्ताद्वारा निश्चित होती है।’
अध्यात्मवादी रामराज्यमें विचारशील, सावधान मनुष्य शास्त्र तथा शिष्ट सज्जनोंके समागमसे सच्छिक्षा, सद्बुद्धि एवं सदिच्छा प्राप्त करके तत्परतासे सत्प्रयत्न करता है और सत्फलका भागी होता है। सत्प्रयत्नद्वारा चेतन प्राणी समाजकी सत्ता एवं परिस्थितियोंमें भी परिवर्तन कर सकता है। उत्पादन-शक्तियों एवं उत्पादन-सम्बन्धमें भी विचारवान् मनुष्यने ही परिवर्तन किये हैं और अब भी उसीके द्वारा परिवर्तन किये जा सकते हैं। सामान्य स्थितिमें मनुष्य भी आदत, स्वभाव या प्रकृतिके परतन्त्र होकर ही सब चेष्टा करता है। इसीलिये गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञानवान् प्राणी भी अपनी प्रकृतिके अनुसार ही चेष्टा करता है। सभी प्राणी प्रकृतिका ही अनुसरण करते हैं, उसमें किसीका निग्रह कुछ नहीं कर सकता—‘सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥’ (३।३३) भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हारा यह उद्योग व्यर्थ है, प्रकृति तुम्हें नियुक्त करेगी। मोहवश जो तुम नहीं करना चाहते हो, उसे भी प्रकृति हठात् तुमसे करायेगी—‘मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥’ ‘कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥’ (गीता १८।५९-६०) इत्यादि, परंतु जब शास्त्रोंमें तथा लोकमें भी विधि-निषेध मान्य होते हैं, तब सुतरां यह मानना पड़ता है कि प्राणी किसी कार्यके करने, न करने या अन्यथा करनेमें स्वतन्त्र होता है। स्वतन्त्र होनेपर ही वह कर्ता होता है, तभी उसके लिये विधि-निषेध सम्भव होते हैं। किसी जकड़े हुए, बँधे हुए, परतन्त्र प्राणीको कोई भी समझदार व्यक्ति किसी कार्यके करनेका आदेश नहीं दे सकता। ‘स्वतन्त्र: कर्ता’ इस पाणिनि-सूत्रकी बात हम पहले लिख ही चुके हैं। (पृष्ठ ५९४)। प्रकृति, स्वभाव, आदत या परिस्थिति सभीके सामने है। यदि सभी परतन्त्र ही हैं, तो प्रकृति या परिस्थितिसे परतन्त्र प्राणीद्वारा होनेवाले अपराधका उत्तरदायित्व उस प्राणीपर नहीं होना चाहिये, अतएव उसे दण्डभागी भी न होना चाहिये। इसी तरह किसी प्राणीसे शुभ कर्म बन जानेपर उसे अनुग्रहभागी भी न होना चाहिये; परंतु यह बात लोक तथा शास्त्र सबके विरुद्ध है।
इसके अतिरिक्त निम्न दशासे निकलकर उच्चस्थितिकी ओर चलनेका प्रयत्न भी कभी सफल नहीं हो सकेगा। फिर तो जैसी प्रकृति या परिस्थिति होगी, तदनुसार ही प्राणी पतित होने या उन्नत होनेके लिये बाध्य होगा, परंतु यह बात लोकानुभवसे विरुद्ध ही है। गीताचार्य भगवान्ने इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि सामान्यरूपसे इन्द्रियोंका अपने विषयोंमें स्वाभाविक राग-द्वेष होता है। अनुकूल विषयमें राग और प्रतिकूल विषयमें द्वेष होता है। उन राग-द्वेषोंके वश न होना ही पुरुषार्थका सार है अर्थात् राग-द्वेषरूप सहकारी कारणसे युक्त होकर ही प्रकृति प्राणीको स्वानुरूप कार्यमें प्रवृत्त करती है—
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥
(गीता ३।३४)
काम तथा प्रकृति काम्य—रागवान्को ही काम्य कर्ममें प्रवृत्त कर सकते हैं। काम, प्रकृति भी रागहीन द्वेषास्पद पदार्थमें प्राणीको प्रवृत्त नहीं कर सकते। सिंहकी हिंसा-प्रकृति द्वेषास्पद प्राणियोंकी हिंसामें ही उसे प्रवृत्त करती है, द्वेषानास्पद अपने शिशुकी हिंसामें सिंहकी हिंसा-प्रकृति भी उसे नहीं प्रवृत्त कर सकती। अत: जैसे मृत्तिकासे घट बननेमें जल सहकारी कारण है, जल न रहनेपर मृत्तिकासे घट नहीं बनता, वैसे ही प्रकृतिके प्रवर्तनमें राग-द्वेष सहकारी कारण हैं। राग-द्वेषके विघटित कर देनेपर प्रकृति या परिस्थिति व्यर्थ हो जाती है। अत: सच्छास्त्रोंके अभ्यास एवं सत्पुरुषोंके समागमसे आवश्यक, उचित, शास्त्रीय राग-द्वेष बनाकर स्वाभाविक पाशविक राग-द्वेषको विघटित कर देना चाहिये। इससे प्रकृति या परिस्थिति व्यर्थ हो जाती है। यही प्राणीका पुरुषार्थ है। इसीमें प्राक्तन सुकृत एवं ईश्वरानुग्रहका भी उपयोग होता है। इस पुरुषार्थके ही बलपर समाज एवं उसकी परिस्थितियाँ, उत्पादन-शक्तियाँ तथा उत्पादन-सम्बन्ध बनाये-बिगाड़े जाते हैं। अनुचित परिस्थितियोंके विघटन एवं उचित परिस्थितिके सम्पादनमें चेतन प्राणीकी ही स्वाधीनता होती है। व्यवहारमें स्पष्ट ही देखा जाता है कि चेतन अचेतनका गुलाम नहीं है; किंतु अचेतन ही चेतनका गुलाम है। दृष्टानुसारिणी ही कल्पना उचित होती है। इसके अनुसार पुरुषार्थपरायण महापुरुष इतिहासको, परिस्थितियोंको बदलते हैं, वे परिस्थितियों के दास नहीं होते। किसी भी युगमें दुर्गुण, दुर्व्यवस्था, कुविचार एवं आलस्य प्रमादके परिणाम होते हैं, वे सदा ही त्याज्य माने जाते हैं। सद्विचार एवं तत्परतामूलक किसी भी युगकी अच्छाइयाँ सदा ग्राह्य होती हैं। खलोंके लिये विद्या, धन और शक्ति सदा ही विवादार्थ, मदार्थ तथा परपीडनार्थ थीं, सत्पुरुषोंके लिये उक्त तीनों ही वस्तुएँ सदा ही ज्ञानार्थ, दानार्थ एवं रक्षणार्थ थीं। भूत-संघातमय मनुष्य तथा मनुष्य संघातप्राय समाज सभीकी सत्ता अनन्त, अखण्ड व्यापक बोधसे ही निर्धारित होती है। जड स्वयं अपनेको ही सिद्ध नहीं कर सकता, तो फिर उसके द्वारा चेतनकी सिद्धि कैसे कही जा सकती है? प्रकाशके द्वारा घटादिका निश्चय तो होता है, परंतु घटादिके बलपर प्रकाशका निश्चय कोई बुद्धिमान् व्यक्ति माननेको तैयार नहीं होगा।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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