8.7 इतिहास और व्यक्ति
स्टालिनका कहना है कि ‘इतिहास विज्ञानको वास्तविक विज्ञान बनाता है तो सामाजिक इतिहासके विकासको सम्राटों, सेनापतियों, विजेताओं तथा शासकोंके कृत्योंकी परिधिके अन्तर्गत सीमित नहीं किया जा सकता। इतिहास-विज्ञानके लिये आवश्यक है कि भौतिक मूल्योंके निर्माता लाखों, करोड़ों मजदूरोंके इतिहासके चिन्तनको अपना मूल विषय बनायें। द्वन्द्ववादके अनुसार प्रकृतिके सभी बाह्य रूपों एवं पदार्थोंमें आन्तरिक असंगतियाँ सहजरूपसे विद्यमान हैं। इन पदार्थों और रूपोंमें भावपक्ष तथा अभावपक्ष दोनों ही हैं। उनका अतीत है तो अनागत भी है। एक अंश मरणशील है तो दूसरा विकासोन्मुख। इन दो विरोधी अंशों—पुरातन और नवीन, मरणशील और विकासोन्मुख, निर्वाण और निर्माण—का संघर्ष ही विकास-क्रमकी आन्तरिक प्रक्रिया है।’ इस आधारपर कम्युनिष्ट, मार्क्सवादी सदा ही नवीन एवं विकासोन्मुख विचारधारा या दलका साथ देता है, चाहे वह बाह्यरूपसे कितनी ही बलहीन दशामें क्यों न हो। वह कभी पुरातन एवं मरणशील विचारधारा या दलके साथ सहानुभूति नहीं रखता, चाहे वह कितना ही समृद्ध दृष्टिगोचर क्यों न हो। इसी पृष्ठभूमिके आधारपर मार्क्सवादियोंका कहना है कि ‘सर्वहारा अधिनायकत्वद्वारा नयी सभ्यता, नयी संस्कृतिका जन्म होगा। वह नयी सभ्यता मानवकी सब देनोंको ग्रहण करेगी और उन्हें जनवादीरूप देगी। साथ ही विज्ञान एवं उत्पादनकी प्रगतिसे नयी मानवताका जन्म होगा।’ कहा जाता है कि ‘रूसके परिवर्तनसम्बन्धी साहित्योंसे यह स्पष्ट है।’ वेव दम्पतिका कहना है कि ‘रूसके नागरिक उसी जीवनको आदर्श जीवन मानते हैं, जिसका ध्येय बन्धुओंका हित हो, चाहे वे बन्धु किसी भी आयु, लिंग, धर्म या जातिके हों।’ जॉनसनके अनुसार ‘ईसाइयोंकी तरह कम्युनिष्ट भी समाज-हितको ही जीवनका लक्ष्य मानते हैं। कम्युनिष्ट ईसामसीहके सच्चे उत्तराधिकारी हैं। सभी धार्मिक नेताओंने मानवके सामने जो आदर्श रखे हैं, रूसके नागरिक ही उन आदेशोंके अनुसार जीवन-निर्वाह करते हैं।’ इन सबका कारण मार्क्सवादीके मतानुसार ‘उत्पादन-शक्तियों एवं उत्पादन-सम्बन्धोंमें परिवर्तन ही है। रूसमें उत्पादन-शक्तियोंपर जनताका राज्यद्वारा एकाधिकार है और उत्पादन-सम्बन्ध समाजवादी है। इसीलिये वहीं नयी सभ्यताका जन्म हो सकता है।’ मैक्सिम गोर्कीके अनुसार ‘सोवियत कारखाना एक समाजवादी शिक्षाकेन्द्र है, न कि पूँजीवादी कसाईखाना।’
जहाँ किसी पक्षविशेषके समर्थनके लिये ही साहित्यिक तैयार किये जाने हैं और इसी ढंगका इतिहास गढ़ा जाता है, वहाँके साहित्य एवं इतिहाससे किसी सत्य घटना या सत्य सिद्धान्तका निर्णय असम्भव ही होता है। आजके मार्क्सवादी इतिहासमें भी लाखों, करोड़ों मजदूरों, किसानोंको कोई नहीं पूछता है। हाँ, उनके नामपर कुछ राजनीतिक चालबाजोंकी ही इतिहास एवं साहित्यमें प्रशंसाके पुल बाँधे जाते हैं और उन्हींका स्वागत-सत्कार होता है। लेनिन, स्टालिन आदि ही ऐतिहासिक व्यक्ति कहलाये जाते हैं, मिल-मजदूरों, किसानोंको कौन जानता है? द्वन्द्ववादी विचार तर्ककी कसौटीपर अव्यभिचरित नहीं निकलते, यह दिखलाया जा चुका है। ह्रास-विकास, निर्वाण-निर्माणके सिद्धान्तकी कहानी नयी नहीं, पुरानी ही है, परंतु इन सबमें अनुस्यूत, अविनाशी आत्माको भुलाकर इसका दुरुपयोग किया गया है। अनाचार, पापाचार एवं अन्याय भी विकासोन्मुख हो सकते हैं, विविध प्रकारके रोग भी विकासोन्मुख होते हैं। सद्भावना, सद्गुण और स्वास्थ्य भी ह्रासोन्मुख एवं निर्वाणोन्मुख होते हैं। मार्क्सवादियोंके अनुसार विकासोन्मुखका साथ देकर और ह्रासोन्मुखको दो धक्के देकर उसे शीघ्र ही खतम कर देनेकी कल्पना अवसरवादिता, स्वार्थ-परायणता और दानवताके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। फिर तो मरणोन्मुख अपने साथीकी भी सहायता करना मूर्खता ही कही जायगी और फिर चिकित्सा-पद्धतिका विकास भी व्यर्थ ही समझा जायगा। इसके अतिरिक्त बाह्यरूपसे बलहीन दशामें विद्यमान व्यक्ति या समूहकी विकासोन्मुखता भी किस तरह विदित हो सकेगी? मार्क्स तथा लेनिनने किसानोंको विकासोन्मुख नहीं समझा था, परंतु चीनमें ठीक उसके विपरीत अनुभव हुआ। इसीसे मार्क्सवादी अटकलका मिथ्यात्व सिद्ध हो जाता है। मार्क्सवादी असंगतियाँ काल्पनिक हैं। वे ऐसी नहीं हैं, जिनका समाधान ही न हो। अन्यथा किसी भी व्यक्ति, समुदाय, जीवन या व्यवस्थाको इकाई मानकर उसीमें अन्तर्विरोध या असंगतियोंकी कल्पना करके उसे विकासोन्मुख मानकर आगन्तुक विघ्नोंके हटानेका प्रयत्न न करके उसके विनाशके लिये ही दो धक्के देना ठीक समझा जायगा। फिर तो विनश्वर वस्तु अवसरसे पहले ही नष्ट हो जायगी। यही बात कम्युनिष्ट नेताके शरीर, स्वास्थ्य एवं वर्गहीन समाज तथा नयी सभ्यताके सम्बन्धमें भी कही जा सकती है।
यदि उत्पादन-शक्तियों एवं उत्पादन-सम्बन्धोंके आधारपर नयी सभ्यता, नयी मानवता और नयी संस्कृतिका जन्म हो सकता, तब तो जिस पूँजीवादके द्वारा इन शक्तियोंका विकास हुआ है, पहले उस पूँजीवादका ही इसके द्वारा कल्याण होता और फिर वे सद्गुण जिनकी कल्पना कम्युनिष्टोंमें की जा रही है, पूँजीवादमें भी हो सकते थे। अत: ‘यन्त्रों, मशीनों एवं उत्पादनके बढ़नेसे मनुष्यता तथा सद्गुण बढ़ जायँगे’ यह कल्पना आकाशकुसुम-जैसी ही है। यदि ऐसा ही होता तो मानवता-सम्पादनार्थ बड़े-बड़े धनपति, कुबेरपति एवं सम्राट् धन तथा साम्राज्य छोड़कर अकिंचन बनकर अरण्यवासी होनेका प्रयत्न न करते। वेव दम्पती तथा जॉनसनकी दृष्टिसे रूसी कारखाने समाजवादी शिक्षाके केन्द्र हैं और रूसके नागरिक ईसाके उत्तराधिकारी हैं, परंतु भूतपूर्व विभिन्न देशोंके प्रसिद्ध कम्युनिष्टोंद्वारा ही लिखे हुए उनके अनुभवोंके संकलन—‘पत्थरके देवता’ पुस्तक पढ़नेसे तो रूसी नागरिकोंका दूसरा ही रूप मालूम पड़ता है। हंगरी तथा पोलैण्डकी घटनाओंने तो तथाकथित रूसी कसाईखानेको भी विश्वके सम्मुख रख दिया। कम्युनिष्ट अपने दलके सदस्यों या स्वमतसे अविरुद्ध लोगोंके लिये भले ही कुछ करते हों, परंतु उनसे मतभेद रखनेवालोंको रूसमें जीवित रहनेका भी अधिकार नहीं है। कितने ही वैज्ञानिकोंको इसलिये मौतके घाट उतार दिया गया कि उनके सिद्धान्तोंमें कुछ चेतन कारणवादकी झलक आती थी। कम्युनिष्ट कहते हैं कि ‘रूसमें दूसरी पार्टी इसलिये आवश्यक नहीं है कि वहाँ कोई दूसरे वर्ग हैं ही नहीं, फिर उनका प्रतिनिधित्व करनेवाली पार्टीकी क्या आवश्यकता है? कम्युनिष्ट-सरकारविरोधी विचार व्यक्त करना रूसमें राष्ट्रविरोधी विचार प्रकट करना समझा जाता है।’ परंतु यह स्पष्ट है कि जब गैर-सरकारी विचार व्यक्त करनेका किसीको अधिकार ही नहीं है, तब फिर यह मालूम भी कैसे हो कि रूसमें मतभेद, वर्गभेद है या नहीं? फिर यदि वहाँ मतभेद है ही नहीं तो प्रबल पुलिस एवं गुप्तचर-विभाग वहाँ किसलिये है और वर्गसफाया फिर किसका होता है?’
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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