8.6 परिवर्तनके कारण
मार्क्सके मतानुसार ‘परिवर्तनका कारण न तो भौगोलिक अवस्था ही है न जनसंख्या ही; क्योंकि यूरोप सदियोंसे अपरिवर्तनशील रहा है, फिर भी वहाँ पंचायती व्यवस्था, दासप्रथा, सामन्तवादी, पूँजीवादी व्यवस्था आदि अनेक परिवर्तन हुए। जनसंख्या भारतमें इंग्लैण्ड, अमेरिकासे अधिक होनेपर भी वहाँ इतने परिवर्तन नहीं हुए।’ स्टालिनका कहना है कि ‘ऐतिहासिक भौतिकवादके अनुसार आवश्यक जीवन-साधनोंको प्राप्त करनेकी प्रणाली ही सामाजिक परिवर्तनकी नियामक-शक्ति है। व्यक्तिको जीवित रहनेके लिये भौतिक मूल्यों (वस्तुओं)-की आवश्यकता पड़ती है। उत्पादनके सिलसिलेमें वह अन्य व्यक्तियोंसे सम्बन्ध स्थापित करता है। यह उत्पादन स्वेच्छापर आश्रित नहीं होता, किंतु उत्पादन-शक्तियोंके रूपपर ही आश्रित रहता है। उत्पादन किसी अवस्थामें देरतक स्थिर नहीं रहता, अपितु विकासकी दिशामें उसका परिवर्तन होता रहता है। उत्पादन-पद्धतिमें परिवर्तन होनेसे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था, विचारों, राजनीतिक मतों और राजनीतिक संस्थाओंमें परिवर्तन अवश्यम्भावी हो जाता है।’
मार्क्सके शब्दोंमें ‘सामाजिक सम्बन्ध उत्पादक शक्तियोंसे जुड़े हुए होते हैं। नयी उत्पादक शक्तियोंके अर्जनमें मनुष्य अपनी उत्पादन-पद्धति बदल देते हैं। अपनी उत्पादन-पद्धति तथा अपनी जीविकोपार्जनकी प्रणाली बदलनेसे वे सभी सामाजिक सम्बन्धोंको परिवर्तित करते हैं। हाथकी चक्कीकी अवस्थामें सामन्तशाही सामाजिक सम्बन्ध व्याप्त होते हैं। भापसे चलनेवाली चक्कीसे वह समाज बनता है, जिसमें औद्योगिक पूँजीपतिका प्रभुत्व होता है। सामाजिक प्रगतिमें विचारों, सिद्धान्तों, मतों और संस्थाओंका भी स्थान होता है। ये सब भौतिक जीवनपर तो अवश्य आश्रित होते हैं; किंतु इनका सामाजिक शक्तियोंके समेटने, संघटित करनेमें महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। नये विचार, नये सिद्धान्त और नयी भौतिक परिस्थितियों में उत्पन्न उनके द्वारा जनसाधारणको भौतिक त्रुटियोंका ज्ञान होता है। यह विचार सामाजिक परिवर्तनमें बहुमूल्य होते हैं। इन्हींके आधारपर जनता उन शक्तियोंका विध्वंस करती है, जो प्रगतिमें बाधक होती हैं।’
अध्यात्मवादी रामराज्यके मतानुसार कोई मौलिक सिद्धान्त एवं विचार नये नहीं होते हैं। असत्का अर्थात् अत्यन्त अविद्यमानका कभी भाव नहीं होता, सत्का अर्थात् विद्यमानका कभी अभाव नहीं होता—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।’ (गीता २।१६) तिलमें तैल है, तभी वह प्रकट होता है। सिकतामें तैल नहीं होता है, अत: लाख प्रयत्न करनेपर भी सिकतासे कभी तैल प्रकट नहीं होता। मार्क्सवादी कुछ प्रादेशिक घटनाओंके आधारपर कार्य-कारण-भाव निश्चित करते हैं और उन्हींके आधारपर सिद्धान्त गढ़ते हैं, परंतु घटनाएँ अनुकूल-प्रतिकूल, इष्ट-अनिष्ट दोनों ही ढंगकी होती हैं। चोरी, हिंसा, दुराचार आदिका भी कभी विकास होता है, उसमें भी क्रम होता है, फिर भी वह सिद्धान्त नहीं बन जाता। व्यक्तिगतरूपसे तथा समाजगतरूपसे कभी विकास होता है और कभी ह्रास भी होता है, इसीमें प्रमाद एवं पुरुषार्थका उपयोग होता है। जिस मजदूर-समाजको मार्क्सने विकासोन्मुख माना है, उसकी ही अनुभूयमान हालत बहुत ही चिन्तनीय है। मशीनयुगके कारण बेकारीकी भी समस्या खड़ी हुई समझी जाती है। विद्या-बुद्धिका भी विकास नहीं कहा जा सकता है। फिर भी मार्क्स सर्वहाराका राज्य अवश्यम्भावी कहता है। वह किसानको उदीयमान वर्ग नहीं मानता था, परंतु चीनकी क्रान्तिमें किसानवर्ग उदीयमान वर्ग सिद्ध हो गया। यदि इसी प्रकार किसी अन्य वर्गका उदय हो जायगा तो मार्क्सकी अन्य भविष्यवाणियाँ भी झूठी सिद्ध हो जायँगी।
मार्क्सकी ऐतिहासिक कल्पनाएँ और तदनुसार नियम-निर्धारण सहस्रों नहीं, सैकड़ों वर्षोंके ऐतिहासिक अनुभवोंके आधारपर हैं, परंतु अध्यात्मवादियोंकी धरित्री और उसका इतिहास सहस्रों, लक्षों नहीं, अपितु अरबों वर्षोंके हैं। वहाँका यह व्यापक नियम है कि शुभ कर्मोंसे सुख एवं तत्साधनोंकी समृद्धि होती है और अशुभ कर्मोंसे दु:ख एवं तत्साधनोंकी समृद्धि होती है। बुद्धिमानी, सावधानी एवं तत्परतासे कर्तव्यपरायण होनेपर समृद्धि बढ़ती है और अविवेक, असावधानी तथा प्रमादसे असमृद्धि बढ़ती है। धन-धान्य-समृद्धि बढ़नेसे जीवनस्तर उन्नत होता है। प्रमादहीन होनेसे समृद्धिके कारण विद्या, विवेक, कला, काव्य, संस्कृतिका विकास होता है। प्रमादयुक्त होनेसे समृद्धि के परिणामस्वरूप अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचारकी वृद्धि होती है। असमृद्धिमें भी प्रमाद होनेपर अनाचार, दुराचार आदि बढ़ते हैं और प्रमादहीन होनेसे असमृद्धि-दशामें भी विद्या, विवेक, तपस्याका विस्तार होता है। विश्वकर्मा एवं मयकी शिल्पकला शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है। ‘समरांगण-सूत्रधार’ के रचयिता भोजका काल ईसाकी १०वीं शतीमें माना जाता है। उस ग्रन्थमें अनेक प्रकारके कला-कौशल, वायुयान आदिका वर्णन मिलता है। राज्यधर तक्षा (बढ़ई)-के द्वारा निर्मित वायुयान एक कीलके आघातसे आठ सौ योजन चल सकता था। उस तक्षाद्वारा निर्मित यन्त्रमय महानगरके सभी व्यवहार यन्त्रसे ही होते थे, तो भी तत्कालीन लोगोंके विचारों, सिद्धान्तोंमें कोई अन्तर नहीं पड़ा। इसका उल्लेख ‘कथासरित्सागर’ में मिलता है। ‘रामायण’ ‘महाभारत’ के अनुसार बहुत विशाल पुष्पकयान आधुनिक सभी वायुयानोंसे अधिक विशाल, कलापूर्ण, द्रुतगामी तथा निरापद था। ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र आदि अस्त्र-शस्त्रोंका मुकाबला तो आधुनिक हाइड्रोजन बमसे करोड़ोंगुना अधिक घातक अस्त्र बनाया जाय, तो भी नहीं किया जा सकता। तब भी उन ब्रह्मास्त्रादिके निर्माताओंके धर्म, सिद्धान्तों, विचारों, आचारोंमें कोई भी रद्दोबदल नहीं हुआ। ब्रह्मलोककी दिव्य ब्रह्मपुरीमें, इन्द्रलोककी दिव्य अमरावतीपुरीमें और विष्णुकी दिव्य वैकुण्ठपुरीमें जो विचार, जो सिद्धान्त, जो आचार आदरणीय थे, वे ही परम अकिंचन, वल्कलवसनधारी, कन्दमूल-फलाशी, अरण्यवासी, वीतराग महर्षियोंके यहाँ भी माननीय थे। सप्तद्वीपा मेदिनीके सम्राट् और अकिंचन दरिद्र ब्राह्मणके आचार, विचार, सिद्धान्त, धर्म एक-से ही होते थे। इन्द्रादि देवगणोंके दिव्य विमान, दिव्य भोग तथा दिव्य शक्तिसे सम्पन्न होनेपर भी उनके सिद्धान्तों एवं विचारोंमें कोई भेद नहीं होता था। पीछे बतलाया जा चुका है कि प्राचीन कालमें महायन्त्रोंका प्रचलन हुआ था, परंतु उसके बेकारी आदि दुष्परिणामोंको देखकर ही आस्तिकोंद्वारा उसपर प्रतिबन्ध लगाया गया था। कुछ धनिकोंको शोषक देखकर ‘धनवान् होना ही शोषक होनेका कारण है’ यह समझना नितान्त भ्रम है। कुछ बलवानोंको अन्यायी, अत्याचारी देखकर ‘बलवान् होना अन्यायी होनेमें हेतु है’ यह समझना और कुछ विद्वानोंको दुराचारी देखकर ‘विद्वान् होना दुराचारी होनेका कारण है’ यह समझना निरा भ्रम ही है।
यह बतलाया जा चुका है कि सत्पुरुषोंके यहाँ धन, बल एवं विद्या सर्वथा दान, रक्षण एवं ज्ञान-प्रकाशके लिये होती है। जैसे किसी मक्खीको घी हजम न होते देखकर कोई यह कल्पना करे कि घी किसीको हजम नहीं होता, तो यह भ्रम ही है। पानीसे आग बुझती हुई देखकर यदि कोई पानी-जैसी ही वस्तु पेट्रोलसे अग्नि बुझाना चाहेगा तो यह उसकी मूर्खता ही समझी जायगी। इसी तरह किसी राजा या धनवान्को नास्तिक, प्रमादी एवं दुराचारी देखकर यदि कोई वैसी व्याप्ति (नियम) बनाना चाहे तो यह उसका भ्रम ही कहा जायगा। चकमक पत्थरसे अग्नि निकाल लेना, अरणिमन्थनसे अग्नि निकाल लेना, दीपशलाका (दियासलाई)-से अग्नि निकाल लेना या और भी किसी आधुनिक साधनसे अग्नि निकाल लेना, इनसे अग्निके दाहकत्व, प्रकाशकत्व सिद्धान्तमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। हाथकी चक्कीसे आटा पीस लेने या यन्त्रकी चक्कीसे आटा पीस लेनेसे भोजन करके भूख मिटानेके सिद्धान्तमें कोई फरक नहीं पड़ा है, बल्कि आज भी स्वास्थ्यके विचारसे हाथकी चक्कीका आटा श्रेष्ठ समझा जाता है। आज भी अग्निहोत्रके लिये अरणि-मन्थनसे ही अग्नि प्रकट की जाती है। श्मशानकी अग्निसे भी चावल पक सकता है और अग्निहोत्रकी अग्निसे भी भोजन बन सकता है। फिर भी संस्कारकी दृष्टिसे श्मशानकी अग्नि अशुद्ध होती है, उससे पकाये गये अन्नको आस्तिक व्यक्ति ग्रहण नहीं करते। प्राचीन कालमें अनन्त धन-धान्यसम्पन्न विपुल वैभवयुक्त सार्वभौम सम्राट्, सामन्त, साधारण व्यापारी एवं किसान तथा उञ्छशिल वृत्तिवाला परम अकिंचन तपस्वी, सभी शास्त्रानुसारी, समान सिद्धान्त और समान विचारके होते रहे हैं।
किसी भी व्याप्तिज्ञानमें अनुकूल तर्क होना आवश्यक है। ‘जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ वह्नि होता है’ यह व्याप्ति प्रसिद्ध है, परंतु यहाँ भी ‘यदि धूम वह्निव्यभिचरित हो जाय तो क्या हो’ इस आक्षेपका समाधान यह है कि ‘तब धूमको वह्निजन्य न होना चाहिये,’ परंतु धूमकी वह्निजन्यता प्रत्यक्ष ही है। प्रत्यक्ष विरोध ही तर्ककी अवधि है। अनुकूल तर्कके बिना कतिपय स्थलीय सहचार दर्शनमात्रसे व्याप्तिका निश्चय नहीं हो सकता, इस तरह उत्पादनशक्तियोंका परिवर्तन होनेपर भी विचारों, सिद्धान्तों यथा समाजमें परिवर्तन न हो तो क्या हानि है? इसका समाधान आवश्यक है, पर इस सम्बन्धमें मार्क्सवादी कुछ भी उत्तर नहीं दे पाते। जिस प्रकार भ्रममें पूर्वप्रमाकी हेतुताका प्रश्न उठता है, अर्थात् पहले सर्पकी प्रमा (यथार्थ ज्ञान) होती है, तब सर्पका संस्कार होता है, तभी अज्ञान, सादृश्य, संस्कार आदिसे रस्सीमें सर्प-भ्रम होता है। अत: कहा जा सकता है कि आरोप्य प्रमा आरोपका हेतु है, परंतु वहाँ यह प्रश्न होता है कि आरोप्य प्रमाके बिना ही यदि भ्रम-प्रमा साधारण आरोप्य संस्कारसे ही आरोप हो तो क्या हानि है? यहाँ अनुकूल तर्क न होनेसे प्रमा और आरोपका कार्य-कारण-भाव सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार विचार एवं सिद्धान्तमें परिवर्तन प्रमाणके आधारपर होता है। प्रमा किसी भी सम्पत्ति-विपत्ति, अमीरी, गरीबी हालतके परतन्त्र नहीं होती। पुरुषकी परिस्थिति इच्छा या स्वयं पुरुष प्रमापर प्रभाव नहीं डाल सकते। सहस्रों प्रयत्नोंसे भी प्रमाणजन्य प्रमामें हेर-फेर नहीं हो सकता। प्रमाणकी उपस्थितिमें प्रमेयकी प्रमिति होती ही है; न कोई प्रमितिको रोक सकता है, न कोई उसमें रद्दोबदल ही कर सकता है। प्रमाणमूलक विचारों, सिद्धान्तोंमें और तन्निष्ठ लोगोंके तदनुसारी आचारोंमें कोई हेर-फेर नहीं हो सकता।
हाँ, कई प्रकारकी परिस्थितियाँ ऐसी अवश्य होती हैं, जिनमें प्राणियोंका शास्त्रसम्बन्ध और परम्परा टूट जाती है। तब नये ढंगके अपूर्ण या अर्धपूर्ण विचार अथवा सिद्धान्त उत्पन्न होते हैं। अकालों, दुष्कालों या युद्धोंके कारण किंवा भौगोलिक उथल-पुथलके कारण अथवा देशान्तर-गमनके कारण प्राचीन शिक्षा तथा सदाचार-परम्पराका सम्बन्ध टूटनेसे फिर विशृंखलता हो जाती है। जैसे प्राचीन कालके क्षत्रिय लोग विजयके उद्देश्यसे देशान्तरोंमें गये। वहाँ उनका अपने धर्म, संस्कृतिके आचार्यों तथा विद्वानोंसे सम्बन्ध टूट गया। फिर उनके आचारोंमें परिवर्तन हुआ और शिक्षा, विचार तथा सिद्धान्तोंमें परिवर्तन होते-होते उनके मूल स्वरूपमें पर्याप्त परिवर्तन हो गया—
शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय:।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च॥
(मनु० १०।४३)
यह कहा जा चुका है कि शिक्षा, समागमके अनुसार ही बुद्धि होती है, तदनुसार ही इच्छा और तदनुसार ही प्रयत्न होता है। प्राणी जैसे लोगोंका सहवास करता है, जैसे लोगोंका सेवन करता है और जैसा बननेकी इच्छा करता है, वैसा ही बन जाता है—
यादृशै: सन्निविशते यादृशांश्चोपसेवते।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पूरुष:॥
(महा० उद्योग० ३६।१३)
प्राणी जैसा संकल्प करता है, वैसा ही कर्म करता है और जैसा कर्म करता है, वैसा ही बन जाता है—
‘यथा क्रतुरस्मिंल्लोके पुरुषो भवति तथेत: प्रेत्य भवति।’
(छान्दो० ३।१४।१)
इस तरह संग एवं शिक्षामें परिवर्तन होनेसे जब बुद्धि, विचार सिद्धान्त तथा कर्ममें परिवर्तन होता है, तब समाजका भी रूप बदल जाता है। सत्समागम, सत्-शिक्षासे सद्बुद्धि, सदिच्छा, सत्कर्म एवं सत्समाज बनता है। असत्समागम, असत्-शिक्षासे असद्बुद्धि, असद्-इच्छा, असत्कर्म एवं असत्समाज बन जाता है। सत् और असत्का निर्णय प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगमके आधारपर ही होता है। कहा जा चुका है कि उत्पादन-साधनोंमें या सम्पत्तिमें रद्दोबदल होनेपर भी प्रमाणजन्य प्रमामें कोई अन्तर नहीं हो सकता है। इसलिये किसी भी स्थितिमें प्रमाणके आधारपर ही सत्-असत्का निर्णय हो सकता है। सत्को असत् और असत्को सत् समझ लिये जानेका कारण प्रमाद है। प्रमाणनिर्णीत सच्छिक्षा तथा सत्-समागमसे किसी भी हालतमें सद्विचार, सत्सिद्धान्त, सदिच्छा, सत्कर्म और सत्-समाज एवं सद्-व्यक्तिका निर्माण हो सकता है, परंतु ‘मानव-इतिहास प्रगतिका इतिहास है’ यह सिद्धान्त इस सम्बन्धमें सर्वथा ही असंगत है। कोई भी समझदार व्यक्ति कह सकता है कि आजकी स्थिति बुद्धि, शक्ति, सद्भावनाकी दृष्टिसे प्रगति नहीं, किंतु अधोगतिकी ही है। भौतिक बाह्य चमत्कृतिकी चकाचौंधमें चौंधियाया हुआ आजका मानव सत्प्रमाण, सच्छास्त्रसे बहिर्मुख होकर जडयन्त्रका किंकर होकर स्वयं भी जडयन्त्रवत् हो गया है। आध्यात्मिकता, धार्मिकतासे बहिर्मुख होकर, संस्कृति-सभ्यतासे प्रच्युत होकर वह पशुप्राय होता जा रहा है। यदि यही प्रगति है, तो फिर अधोगति क्या है, यह भी विचारणीय है।
उत्पादनमें सुविधाके लिये अल्प व्ययमें अल्प श्रमसे अधिक-से-अधिक उत्पादन हो सके, इसके लिये मनुष्योंकी प्रवृत्ति हो सकती है, परंतु उसके साथ सिद्धान्तमें, विचारमें तथा समाजमें भी परिवर्तन हो, यह आवश्यक नहीं है। रामायणके युगमें कई लोग पैदल चलते थे, कई लोग आकाश, समुद्र और पहाड़ोंपर समानरूपसे अव्याहत गतिवाले रथसे चलते थे—‘उदन्वदाकाशमहीधरेषु वसिष्ठमन्त्रोक्षणजप्रभावात्।’ कई पुष्पकयानसे चलते थे, कई पत्थरोंसे, वृक्षोंसे लड़ते थे, कई धनुष-बाणसे, कई भुशुण्डि, शतघ्नि तथा अन्यान्य विविध यन्त्रोंसे लड़ते थे, विविध प्रकारसे काम करते थे। फिर भी उनके विचार, सिद्धान्त सुस्थिर थे, क्षणिक या परिवर्तनशील नहीं थे। महाभारतके आख्यानोंके आधारपर भी यही बात कही जा सकती है। आज भी कितने ही लोग पदाति (पैदल भी चलते) हों, मोटरपर भी चलते हों और वायुयानपर भी चलते हों, तो भी उनके विचारों, सिद्धान्तोंमें कोई भी परिवर्तन नहीं होता है। इतना ही नहीं कितने ही आधुनिक विचारक अतिप्राचीन वैदिक अध्यात्मवाद एवं धर्मनियन्त्रित रामराज्यवादको पसन्द करते हैं। अनाग्रह बुद्धिका फल है—‘बुद्धे: फलमनाग्रह:।’ और तत्त्वका पक्षपात बुद्धिका स्वभाव होता है—‘तत्त्वपक्षपातो हि धियां स्वभाव:।’ जैसे पर्वत-कन्दरामें स्थित लाखों वर्षोंका गाढान्धकार भी प्रदीप-प्रभाके प्रकट होते ही नष्ट हो जाता है, वैसे ही भीषण-से-भीषण विपरीत वातावरणमें भी प्रमाणके द्वारा संशय-विपर्ययादिरहित निर्दोष तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता ही है। इसमें चाहे हाथकी चक्कीसे आटा पीसा जाय, चाहे भापकी चक्कीसे। जब किन्हीं कारणोंसे, परिस्थितियोंसे या प्रमादसे सत्समागम, सच्छिक्षामें गड़बड़ी आती है, तब सद्विचार, सत्सिद्धान्तसे प्रच्युति होती है और तभी धार्मिक, सामाजिक अधोगति होती है। यही धर्मग्लानि एवं अधर्माभ्युत्थान कहा जाता है; परंतु यह अवस्था स्थिर नहीं रहती है। गीताके आचार्य दार्शनिकशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके अनुसार जब-जब धर्मग्लानि और अधर्मका अभ्युत्थान बढ़ता है, तब-तब परमेश्वर अवतार ग्रहण करके धर्मका प्रतिष्ठापन करते हैं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें