9.6 अन्तर्विरोधपर बुखारिन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

9.6 अन्तर्विरोधपर बुखारिन

‘एक-दूसरेकी विरोधी भिन्न कार्यकारी शक्तियाँ पृथ्वीमें वर्तमान हैं। व्यतिक्रमके रूपमें इन शक्तियोंका समीकरण होता है, तब विरामकी स्थिति होती है। यानी उनके वास्तविक विरोधपर एक आवरण पड़ जाता है। लेकिन किसी एक शक्तिमें तनिकमात्र परिवर्तन करनेहीसे अन्तर्विरोधोंका पुनराभास होता है और उस समीकरणका अन्त होता है और यदि एक नये समीकरणकी सृष्टि होती है तो यह एक नये आधारपर यानी शक्तियोंके एक नये संयोगसे ही होती है। मार्क्सीय द्वन्द्वन्याय इस विरोधको भुला नहीं देता, लेकिन सामाजिक विकासमें इस विरोधको मुख्य स्थान नहीं देता। इतिहासके अध्ययनसे हम यह पाते हैं कि यद्यपि भिन्न देशोंमें भूगोल, जलवायु, उद्भिज्ज, जंगम और प्राकृतिक सम्पद‍्में परिवर्तन नहींके बराबर हुआ, तथापि वहाँके सामाजिक सम्बन्धोंमें महान् परिवर्तन हो गये, जैसे सामन्तप्रथाके स्थानपर पूँजीवादकी स्थापना।’
रूप एवं सार आदिका संघर्ष तथा परिमाणका गुणमें परिवर्तनकी कल्पना निराधार है। जीवन-मृत्युका तिरोभाव-आविर्भाव, अन्तर्ग्रहण तथा बहिर्मोचन आदि काल और विषयभिन्न होनेसे विरोध या संघर्षका प्रश्न ही नहीं उठता। ये सब चीजें समान वस्तुके विषयमें समान कालमें परस्पर विरुद्ध ठहरती हैं। कालभेदसे किसी भी वस्तुका आविर्भाव-तिरोभाव आदि निर्विरोध ही है। इसी तरह एक ही कालमें एककी मृत्यु, अन्यका जन्म आदि होनेसे कोई विरोध नहीं होता। पूर्वगृहीत वस्तुका बहिर्विमोचन, अगृहीत वस्तुका ग्रहण भी परस्पर विरुद्ध नहीं है। अत: इसे संघर्ष नहीं कहा जा सकता। पूँजीवादके अन्तर्विरोधकी कल्पना भी अतात्त्विक ही है। रामराज्यप्रणालीसे उत्पादन तथा वितरणकी व्यवस्था होनेसे यह विरोध टिक ही नहीं सकता। धन एवं पूँजीका भेद सिद्धान्तत: अमान्य है। प्रजाके उपभोगार्थ उत्पादनसे भी लाभ आनुषंगिकरूपमें प्राप्त होता है। उत्पादन-कार्यमें लाभके अनुसार कामके घण्टोंमें कमी, मजदूरोंकी संख्याकी वृद्धि तथा मजदूरोंका भी उचित दर होनेसे न बेकारी ही रहेगी और न क्रयशक्तिमें ही कमी आयगी और न मालकी खपतमें कोई गड़बड़ी होगी। भोगोपयोगी वस्तुओंका ही निर्माण करना और मजदूरोंके समुन्नत जीवनस्तर बनानेकी जिम्मेदारी मालिकोंपर होगी। व्यक्ति, समाज तथा सरकार—सभीका अनिवार्यरूपसे यह कर्तव्य होगा कि बेकारी तथा आर्थिक असन्तुलन सर्वथा दूर कर दिया जाय। विद्रोह भी प्रचारमूलक है, वास्तविक नहीं। वर्गसहयोगकी सम्भावनाका विस्तार होनेसे विद्रोहका अन्त हो सकता है। मशीनोंकी उन्नति बाध्यतामूलक नहीं है, किंतु लोभमूलक ही है। अन्ततोगत्वा मनुके सिद्धान्तानुसार महायन्त्रोंके निर्माणपर प्रतिबन्ध भी आवश्यक होगा। जैसे विश्वका संहारकारक एवं अनिष्टकारक होनेसे हाइड्रोजन बम आदिके विकासपर प्रतिबन्ध लगाना मार्क्सवादियोंको भी आज आवश्यक प्रतीत हो रहा है, उसी तरह बेकारी एवं संघर्ष तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रताका नाश होनेसे महायन्त्रोंपर भी प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक होगा।
अर्थ तथा औद्योगिक पूँजीका आपसमें कार्यकारण भाव है। दोनोंका दोनोंसे विस्तार होता है। उद्योगवृद्धिसे अर्थमें वृद्धि होती है। उससे उद्योगवृद्धिमें सहायता मिलती है। पूँजीपर सूद तो अब रूसमें भी मिलता है। पूँजी उत्पादनसाधन है, जैसे सब उत्पादनोंसे लाभ होता है, वैसे ही पूँजीसे भी सूदके रूपमें लाभ होना उचित ही है। फिर रामराज्यकी दृष्टिमें तो कुसीदवृत्ति निम्नकोटिका जीविका-साधन माना जाता है। प्रथाओं एवं क्रियाओंमें अन्तर्विरोध अप्रामाणिक है। सर्वहाराके अधिनायकत्वमें राज्यलोपकी कल्पना तो अभी स्वप्न ही है। अभी तो सर्वहाराका अधिनायकत्व भीषण तानाशाही बन रहा है। सर्वहाराके अधिनायकत्वमें वर्गका लोप केवल डण्डेके बलपर प्रतीत होता है। वस्तुत: लेखन भाषण, प्रेसकी स्वतन्त्रता न होनेसे वर्गभेद व्यक्त नहीं हो पाता। जब कभी अवकाश मिलेगा, वर्गभेद व्यक्त हो जायगा। मजदूर-किसान आदि समान वर्गोंमें भी परस्पर संघर्ष चलता ही है। सोवियत रूसमें भी कम्युनिष्टोंमें स्टालिन, ट्राटस्की आदिका भीषण संघर्ष विख्यात है। आपेक्षिक एवं पूर्ण सत्यका भी विषयभेद होनेसे विरोध असंगत है। एक ही वस्तु आपेक्षित तथा पूर्ण सत्य नहीं हो सकती, यह कहा जा चुका है। व्यापकमें कोई विरोध नहीं है—जैसे पशुत्वका गोत्वसे, मनुष्यत्वका ब्राह्मणत्वसे कोई विरोध नहीं। इसी प्रकार सभी व्यापक-व्याप्योंमें अविरोध ही है।
बुखारिनका यह कथन आंशिक सत्य है कि एक-दूसरेके विरुद्ध भिन्न कार्यकारिणी शक्तियाँ पृथ्वीपर वर्तमान हैं। यह कहना उचित है कि विचित्र विश्वमें विरोधिनी तथा अनुरोधिनी अनेक प्रकारकी शक्तियाँ वर्तमान हैं। यदि विरोध ही जगत‍्का तथ्य है, तब तो सहयोगमूलक कार्य ही नहीं होना चाहिये। किंतु वैर, प्रेम, सहयोग, विरोध—सभी संसारमें चलता है। सत्त्वादि गुण परस्पर विरोधी होनेपर भी विमर्दवैचित्र्य, परस्पर सहकारसे वे भी कार्यक्षम होते हैं। गुणोंकी विषमतासे गुणोंमें सहकार होता है; समतामें विरोध होता है। सारी सृष्टि गुणोंकी विषमता एवं सहकारके आधारपर ही टिकी है। परिणामी गुणोंका समता, विषमता—दोनों ही धर्म है। प्रलयानुगुण कर्मोंकी अपेक्षासे समता तथा सृष्टिके अनुगुण कर्मोंसे विषमता होती है। संसारमें प्रेम, परोपकार, सहयोग स्वाभाविक है; विरोध, ध्वंस निम्नगामिनी प्रवृत्तियोंके परिणाम तथा प्रामादिक हैं।
वेदान्तकी दृष्टिसे सभी चराचर विश्व विशेषत: प्राणिवर्ग परमेश्वरकी ही संतान है—‘अमृतस्य पुत्रा:।’ उनका तो समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृता ही मुख्य स्वभाव है। विरोध ही आवरणका कारण होता है, आवरण हटते ही विरोधका कहीं पता नहीं लगता—‘उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध। निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥’ जो जगत‍्की स्वाभाविक मूलभूत स्वाभाविक स्थितिको पहचानते हैं, वे लोग सम्पूर्ण संसारको भगवद्‍रूप ही देखते हैं। फिर वे किससे विरोध करें? स्वाभाविक स्थितिसे अविद्या, काम, कर्मद्वारा प्रच्युति होनेपर अविद्या स्वार्थ आदिके जागरूक होनेपर फिर विरोधवैमनस्य चलता है। तभी ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ जीवसे ही जीवका जीवन चलता है—यह धर्म-प्रच्युतिमूलक मात्स्यन्याय फैलता है। स्पेन्सर आदिके संघर्षवादका अन्धानुकरण ही मार्क्सवादियोंका अन्तर्विरोध है। इसके अनुसार जो प्रबल होगा, उसीका जीवित रहना न्यायसिद्ध है। इसमें किसी गरीब कमजोरकी सहायता करना मूर्खता है। जो अपनेको बदली हुई परिस्थितिके अनुकूल नहीं बदल सकता, वही गरीब है। उसपर दया करना बेकार है, परंतु आजके परस्पर सहकार सहयोगके जमानेमें यह एक अत्यन्त उपहासास्पद वस्तु है।
इसी तरह ‘पुराने समीकरणका अन्त तथा नये समीकरणकी नये आधारपर शक्तियोंके नये संयोगसे सृष्टि होती है’—यह कहना भी पिष्टपेषण ही है। अभ्युदयानुगुण परिवर्तनमें नये संयोगों या नये परिणामोंका अंगीकार सभीको सम्मत है ही। सामाजिक परिवर्तनोंका कारण ज्ञान, क्रिया, शक्तिका परिवर्तन ही है और उसमें भी ज्ञान-शक्तिका विकास ही मुख्य है। भौगोलिक तथा वातावरणका परिवर्तन भी इन नये परिवर्तनोंमें कारण होते हैं। जो लोग उत्पादन-साधनोंके परिवर्तनोंके आधारपर ही सामाजिक परिवर्तन मानते हैं, उन्हें भी उत्पादन-साधनोंके परिवर्तनका कारण ढूँढ़ना पड़ेगा और अन्ततोगत्वा बुद्धिपर ही आना पड़ेगा। बुद्धिमें कारण शिक्षण तथा अभ्यास ही होता है। आरम्भमें शिक्षण, अन्तमें अभ्यास और अन्वेषणके ही प्राखर्यसे बुद्धिका विकास होता है। बुद्धिविकाससे धन-धान्य-समृद्धिके कारण यन्त्रोंका भी विकास होता है और उसके बिना भी आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक क्षेत्रमें विकास होता है; इसीलिये कल-कारखानोंके विकासके बिना भी प्राचीन भारतमें आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक विकास उच्चकोटिका हुआ था। यद्यपि महायन्त्रोंका विकास प्राचीनकालमें भी हुआ था, तथापि उसका दुष्परिणाम देखकर उसे उपपातक निश्चितकर उसपर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। फिर भी विशिष्ट शस्त्रास्त्र, विमान, रथ तथा शिल्पकलादिका विकास मय, विश्वकर्मादिद्वारा होता ही रहा। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि भाप या बिजलीकी चक्‍की तथा कपड़ों, लोहों, ताम्रादिके बड़े-बड़े कल-कारखानोंके विकासके बिना धार्मिक, सामाजिक विकास या कोई उन्नति नहीं होगी।
वस्तुत: व्यापक इतिहासके महान् क्षेत्रमें सामन्तवाद और पूँजीवाद-जैसी प्रथाओंका कोई बड़ा महत्त्व नहीं है। प्रमाद-पुरुषार्थ, सुव्यवस्था-दुर्व्यवस्थाके अनुकूल ही अनुकूल-प्रतिकूल परिवर्तन होते रहते हैं। मार्क्सवादियोंके सामने केवल कुछ शताब्दियोंका ही इतिहास है। यदि शताब्दियोंके इतिहासमें इतने परिवर्तन हुए हैं, तो सहस्राब्दियों एवं लक्षाब्दियोंके इतिहासमें क्या-क्या परिवर्तन हुए होंगे, इसका भी तो विचार करना चाहिये। आस्तिकोंकी दृष्टिसे मनुष्यलोकमें ही नहीं, किंतु देवलोकके भी विकास तथा अभ्युदयकी पराकाष्ठा निर्धारित ही है और परम उत्कर्ष कैवल्य—अपवर्गका भी स्वरूप निश्चित है। तैत्तिरीय, बृहदारण्यक, कौषीतकि आदि उपनिषदों, इतिहास, पुराणोंमें लौकिक-पारलौकिक उन्नति तथा परम नि:श्रेयसके स्वरूप निर्धारित हैं। अन्तमें कहा गया है कि अचिन्त्य अनन्त स्वरूपभूत परमानन्द सुधासिन्धुका एक तुषारमात्र आनन्द ही अनन्त ब्रह्माण्डके धर्मिष्ठ सार्वभौम सम्राट्, मनुष्यगन्धर्व, देवगन्धर्व, कर्मदेव, आजानदेव, इन्द्र, बृहस्पति, प्रजापति, ब्रह्मादिके उत्तरोत्तर प्रकृष्ट आनन्दके रूपमें वितरित होता है। मनुष्यलोकके उत्कर्ष-अपकर्षकी कोई ऐसी अवस्था नहीं, जो इन करोड़ों वर्षोंमें न आयी हो; अत: शताब्दियोंकी परिवर्तनपरम्परा कोई अभूतपूर्व घटना नहीं है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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