9.5 अतिभौतिकवाद और द्वन्द्वमान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

9.5 अतिभौतिकवाद और द्वन्द्वमान

अतिभौतिकवादी विचारमें—‘प्रकृति वस्तुओं और दृश्यगत घटनाओंका एक आकस्मिक बटोर है, जहाँ वे एक-दूसरेसे विच्छिन्न तथा स्वतन्त्र हैं।’ इसके विपरीत द्वन्द्वमान इन वस्तुओं और दृश्यमान घटनाओंको एक सूत्रमें बाँधता है, जिसमें उनकी पारस्परिक निर्भरता प्रकाश पाती है। इसलिये द्वन्द्वमानके अनुसार किसी प्राकृतिक घटनाको स्वतन्त्ररूपसे, अपने बहिरावेष्टनसे अलगकर नहीं समझा जा सकता; क्योंकि वे इन बहिरावेष्टनोंसे सम्बन्धित हैं और अपनी पारिपार्श्विक अवस्थाद्वारा सीमित हैं।
अतिभौतिकवादके विपरीत द्वन्द्वमान यह मानता है कि प्रकृतिकी अवस्था स्थिर और गतिहीन नहीं है, बल्कि अविराम गति और परिवर्तनकी अवस्था है, अविराम नवीन और विकासकी अवस्था है, जहाँ किसी-न-किसी चीजका उत्थान और विकास होता है और किसी-न-किसी चीजका ध्वंस और निर्माण। इसलिये द्वन्द्वमानके तरीकेकी यह माँग है कि दृश्यगत घटनाओंका विचार न केवल उनके पारस्परिक सम्बन्ध और उनकी पारस्परिक निर्भरताके दृष्टिकोणसे होना चाहिये, बल्कि उनकी गति, उनका परिवर्तन, विकास, आविर्भाव और अन्तर्धानकी दृष्टिसे भी होना चाहिये। द्वन्द्वमानका तरीका मुख्यरूपसे उसको महत्त्व नहीं देता, जो उस मुहूर्तमें स्थायी और दृढ़ मालूम होता है, लेकिन जिसका अन्त होना आरम्भ हो गया हो; बल्कि उसको जिसका उत्थान और विकास हो रहा हो, यद्यपि उस क्षणमें वह भंगुर ही मालूम पड़ रहा है; क्योंकि द्वन्द्वमान उसीको अजेय मानता है, जिसका उत्थान और विकास हो रहा हो। एंजिल्सके शब्दोंमें सारी प्रकृति, छोटी-से-छोटी लेकर बड़ी-से-बड़ी चीज, एक बालूके कणसे सूर्यतक, प्रोटिस्टा (प्राथमिक जीवित कोष)-से मनुष्यतक, लगातार आविर्भाव और तिरोधानकी अवस्थामें है, सदा परिवर्तनशील है और परिवर्तनकी अवस्थामें है, इसलिये एंजिल्सका कहना है कि द्वन्द्वमान वस्तुओं और उनके मानसिक प्रतिबिम्बोंको उनके पारस्परिक सम्बन्ध और संयोगमें उनकी गति, उनके उत्थान और अन्तर्धानमें देखता है।
‘अतिभौतिकवादके विपरीत द्वन्द्वमान विकासकी क्रियाको सामान्य वृद्धिके रूपमें, जहाँ परिमाणकी वृद्धि और ह्राससे गुणोंका परिवर्तन नहीं होता, नहीं देखता, बल्कि ऐसे विकासके रूपमें देखता है, जो नगण्य और अदृश्य परिवर्तनसे बुनियादी गुणोंके परिवर्तनके रूपमें परिणत होता है। इस विकासमें गुणात्मक परिवर्तन धीरे-धीरे नहीं होता, बल्कि एकाएक और द्रुतगतिसे; जो एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें कुदानका रूप लेता है। यह आकस्मिकरूपसे घटित नहीं होता, बल्कि क्रमवर्धमान परिमाणात्मक परिवर्तनोंके संग्रहका परिणाम है। द्वन्द्वमानके तरीकेके लिये यह आवश्यक है कि इस विकासकी क्रियाको हम चक्रगतिके रूपमें न देखें, न इस रूपमें कि जो कुछ पहले घटित हो चुका है, उसकी सामान्य पुनरावृत्ति हो रही है, बल्कि एक अनुगति और ऊर्ध्वगतिके रूपमें, एक गुणात्मक अवस्थासे दूसरी नयी गुणात्मक अवस्थामें परिवर्तनके रूपमें, साधारणसे असाधारण, निम्नस्तरसे उच्चस्तरपर विकासके रूपमें देखना चाहिये।’
अवश्य ही वस्तु-वैचित्र्य विचार-विस्तारमें उपयोगी है, फिर भी वस्तु बिना भी स्वप्नों, मनोरथोंमें विचार, विस्तार परिलक्षित होते हैं, परंतु विचार बिना तो वस्तुका विकास असम्भव ही है। जैसे वैज्ञानिक यन्त्र, रासायनिक तत्त्वोंका विकास, विश्लेषण विचारप्रभूत हैं, वैसे ही प्राकृतिक, भौतिक गति या विकास भी ईश्वरीय विचारमूलक ही हैं। इसीलिये—
‘तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’
(छां० उ० ६।२।३)
—इत्यादि वचनोंसे उपनिषदोंमें स्पष्टरूपसे कहा गया है कि स्वप्रकाश, सत्, चेतनने ही ईक्षणपूर्वक विश्व-निर्माण किया। द्वन्द्वमानके जादूसे जड-प्रकृति या जड-भूतोंमें स्वत: चन्द्र, सूर्य आदि निर्माणकी क्षमता नहीं सिद्ध होती। पशु-मनुष्य एवं उसके दिव्य मस्तिष्क आदि यदि केवल भूतोंका ही करिश्मा है, तो विविध यन्त्रोंके निर्माणके लिये भी चेतन मनुष्यकी अपेक्षा न होनी चाहिये। अध्यात्मवादमें प्रकृति, वस्तुओं एवं घटनाओंका आकस्मिक बटोर नहीं है। यह कल्पना तो असमीक्ष्यकारी जडमें ही हो सकती है। अध्यात्मवादमें तो संसारके किसी पदार्थकी चेष्टा कर्मसापेक्ष ईश्वरके विचारसे ही होती है। किसी भद्दे पाश्चात्य अध्यात्मवादमें प्रकृतिको वस्तुओं एवं घटनाओंका आकस्मिक बटोर कहा जा सकता है। मार्क्सवादका प्रकृति शब्द भी भ्रामक है, वस्तुत: वे सांख्योंकी प्रकृतितक पहुँच भी नहीं सके हैं। वे तो भूतों, परमाणुओं तथा उसके कतिपय विश्लेषणोंतक ही पहुँच सके हैं। अध्यात्मवादियोंकी दृष्टियोंसे आकाशसे भी सूक्ष्म शब्द तन्मात्रा और उससे भी सूक्ष्म अहं, अहंसे भी सूक्ष्म महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे भी सूक्ष्म प्रकृति है। इसका विस्तृत विवेचन अन्यत्र किया जा चुका है।
प्रपंचकी विचित्रतासे सम्बन्धकी भी विचित्रता होती है, अतएव विच्छिन्न, अविच्छिन्न, स्वतन्त्र, अस्वतन्त्र—अनेक प्रकारके पदार्थ संसारमें होते हैं। प्रत्येक भोग्य पदार्थ भोक्तृसम्बद्ध होते हैं। प्रत्येक कार्य कारणसम्बद्ध भी होते हैं। साथ ही अनेक पदार्थ परस्पर सम्बद्ध होते हैं, कई असम्बद्ध होते हैं। कई अनुकूल सम्बन्धवाले, कई प्रतिकूल सम्बन्धवाले होते हैं। भौतिकवादी सम्मत-प्रपंचकी अप्रामाणिक एक सूत्रबद्धताकी अपेक्षा ईश्वर, काल, कर्म तथा भोक्तासे उसकी सम्बद्धता कहीं श्रेष्ठ है। घटनाओंके सम्बन्धमें भी यही बात कही जा सकती है। संसारमें कितने ही पदार्थ उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं, उनका परम्परासे भी परस्पर सम्बन्ध नहीं होता; फिर प्रत्येक पदार्थको परस्पर निर्भर कैसे कहा जा सकता है? द्वन्द्वमानमें ही नहीं, किसी भी दर्शनमें किसी वस्तुको समझने, पहचाननेके लिये अपेक्षित अंगोपांगका ज्ञान सम्पादित किया जाता है। किसी रोगको समझनेके लिये उसके निदान, आहार-विहार, देश-काल, साक्षात् या परम्परासे प्रभाव डालनेवाले पदार्थों तथा घटनाओंपर विचार किया ही जाता है। इसी प्रकार सम्बन्धित सभी घटनाओंके सम्बन्धमें विचार किया ही जाता है। प्रकृतिकी अविराम गति और प्राचीनका तिरोभाव, नवीनका आविर्भाव आदि कल्पनाएँ सांख्योंकी ही हैं। इसी आविर्भाव-तिरोभावको निर्माण तथा ध्वंस कहा जा सकता है। अवश्य ही सांख्यके मतानुसार सत‍्का ही आविर्भाव-तिरोभाव होता है; अत्यन्त असत‍्का नहीं—
‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।’
(गीता २।१६)
यह कोई द्वन्द्वमानका नया दृष्टिकोण नहीं है। सभी विचारक किसी भी घटनामें आविर्भाव-तिरोभावके विचारको आदर देते हैं।
जिसकी आयति (भविष्य) उत्तम होती है, वही महत्त्वपूर्ण होता है। इसीलिये द्वितीयाके चन्द्रका वन्दन किया जाता है; क्योंकि वह उत्तरोत्तर वर्धमान दशामें रहता है। आयतिशून्य पूर्णिमाका पूर्ण चन्द्र भी इतना मांगलिक नहीं माना जाता; क्योंकि उसके अभ्युदयके दिन समाप्त हो चुके होते हैं, अब उसका उत्तरोत्तर ह्रास ही होनेवाला है—‘प्रतिपच्चन्द्रमिव प्रजा:।’ फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि जो ह्रासको प्राप्त हो रहा है, अब उसका विकास होगा ही नहीं। देखते ही हैं कि जिस चन्द्रमाका ह्रास होता है, उसीका पुन: विकास होता है। जिस समुद्रमें भाटा आता है, उसमें पुन: ज्वार आता है। अनेक बार मनुष्यकी रुग्णता और पुन: स्वस्थता होती है। माली हालतमें भी बिगाड़, सुधार होता रहता है। पृथ्वी अनेक बार अनुर्वरा हो जाती है, उपज घट जाती है; पुन: उपचारसे उर्वरा बनायी जाती है।
मार्क्स तथा लेनिनकी भविष्यवाणी थी कि ‘मजदूरोंद्वारा ही क्रान्ति होगी। किसान सामान्य पूँजीवादी भले ही संख्यामें अधिक हों और गरीब भी हों; तब भी वे कभी वर्धमान, विकासमान नहीं हैं; अत: उनकी कभी उन्नति होनेवाली नहीं।’ पर चीन और भारतमें ठीक इसके विपरीत हुआ, यहाँ किसानों, मध्यवर्गों, सामान्य उत्पादन साधनवालों अर्थात् साधारण पूँजीपतियोंद्वारा ही क्रान्ति हुई। इतना ही नहीं, भारतमें तो शान्तिपूर्ण अहिंसात्मक आन्दोलनद्वारा पर्याप्त सफलता मिली है, जिसकी मार्क्सवादमें कल्पना भी नहीं हो सकती। परिवर्तनसम्बन्धी एंजिल्सकी बात अध्यात्मवादीके लिये कोई नवीन वस्तु नहीं है। हाँ, आत्मा कूटस्थ होनेसे अपरिवर्तनशील है, वह सब परिवर्तनोंका द्रष्टा है, अन्यथा परिवर्तनका अस्तित्व भी कैसे सिद्ध होगा? बाह्य वस्तुओंमें मन एवं मानसिक परिवर्तनोंके होनेपर भी सर्वसाक्षी अपरिवर्तित ही रहता है।
सच्ची बात तो यह है कि मार्क्सवादियोंने भारतीय दर्शनोंकी गम्भीरता ही नहीं समझी। वे अध्यात्मवादके नामपर बहुत-सी अनर्गल बातें कहते हैं। अध्यात्मवादी सामान्य-वृद्धिरूप विकास नहीं मानते, किंतु बादलोंके संघर्षसे या ऋणात्मक, धनात्मक विद्युत्-धाराओंके सम्पर्कसे एकाएक महान् प्रकाश-जैसा द्रुतगामी प्रकाशरूप विकास भी मानते हैं। जलका बर्फ बन जाना और बाष्प बन जाना यह कौन नहीं जानता? इसे एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाकी कुदान कही जाय या क्रमवर्धन परिमाणात्मक परिवर्तनोंके संग्रहका परिणाम कह लिया जाय अथवा सीधी भाषामें परिणामविशेष कह लें, कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। इसी तरह विकासकी गति उत्तरोत्तर अग्रगति, ऊर्ध्वगतिकी ओर अवश्य होती है; परंतु जिनका इतिहास क्षुद्रतम है, उन्हीं लोगोंके लिये ऐसी अनुभूति होती है। जिनके यहाँ वर्तमान सृष्टिका ही इतिहास अरबों वर्षोंका है, फिर अनन्त सृष्टि-संहारोंका इतिहास भी जिनके सामने है, उनके लिये तो चन्द्रमाके ह्रास-विकासके तुल्य, सूर्यके उदय-अस्तकी तरह दिन-रात, जन्म-मरण, समुद्रके ज्वार-भाटा, सोने-जागने तथा ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर, वसन्त ऋतुके परिवर्तनके तुल्य सृष्टि-प्रलयकी परम्परा चलती है।
संसारके सबसे प्राचीन ग्रन्थ अपौरुषेय अनादि वेद कहते हैं—
‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत।’
(तै० आ० १०।१।१४)
‘धाताने यथापूर्व ही सूर्य-चन्द्रका निर्माण किया।’ महादार्शनिक भगवान् श्रीकृष्ण गीतामें कहते हैं—
‘भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।’
(८।१९)
ये वे ही भूतग्राम पुन: उत्पन्न होकर प्रलीन होते हैं। यह प्रपंच-प्रवृत्ति निरुद्देश्य नहीं है। जड प्रकृतिका स्वतन्त्र कोई उद्देश्य नहीं होता। उद्देश्य चेतनका ही होता है। अनादि अविद्या काम-कर्मबद्ध जीवोंको भोग एवं अपवर्ग सम्पादन करना ही प्रकृतिप्रवर्तनका ईश्वरीय उद्देश्य है।
मार्क्सीय विचार-धाराका आधार इतिहास लघुतम है। जिसमें कुछ शताब्दियोंसे ही मनुष्य संसारकी उत्पत्ति, वर्गसंघर्षके इतिहासका प्रारम्भ और कुछ ही शताब्दियोंमें वर्गसंघर्षके इतिहासकी समाप्ति भी हो जाती है। मार्क्सके मतानुसार कम्युनिष्ट-राज्य होते ही वर्ग-संघर्षकी समाप्ति हो जाती है। इस वर्ग-संघर्षके भी विकासकी उत्तरोत्तर प्रगति क्यों नहीं होती, यह तो वे ही जान सकते हैं। यदि किसी भी सिद्धान्तके विरोधी कुछ लोग हो सकते हैं और उनकी संख्या बढ़कर प्रतिवाद खड़ा हो जाता है, तो कम्युनिज्म ही इसका अपवाद क्यों? उसके भी तो विरोधी हैं ही, उनकी संख्या भी बढ़ती ही है।
सिद्धान्ततस्तु—
सर्वे क्षयान्ता निचया: पतनान्ता: समुच्छ्रया:।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम्॥
(वाल्मी० रा० अयोध्या० १०५।१६)
संसारके सभी संग्रहोंका एक दिन क्षय होता है, सभी उत्थानोंका एक दिन पतन होता है, सभी संयोगोंका एक दिन वियोग होता है और सभी जीवनोंका एक दिन मरण होता है। फिर कम्युनिष्ट राज्यका कभी अन्त न होगा, यह कल्पना भी अन्ध-विश्वास ही है। यदि सब पुरानी वस्तुओंका विनाश होता है, तो कभी कम्युनिष्टराज्य या वर्गविहीन-राज्य भी पुराना होगा और इसका भी विनाश, ध्वंस किंवा निर्वाण ध्रुव है।
एंजिल्सके शब्दोंमें ‘प्रकृति द्वन्द्वमानका परीक्षास्थल है।’ यह मानना पड़ेगा कि आधुनिक प्रकृति-विज्ञानने इसके प्रभूत उदाहरण दिये हैं, जो प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं और इस प्रकार यह प्रमाणित कर दिया है कि अन्तिम विश्लेषण करनेपर प्रकृति आतिभौतिक नहीं बल्कि द्वन्द्वात्मक है। अनन्तकालसे यह किसी चित्रगतिसे नहीं घूमती; बल्कि इसका एक इतिहास है। यहाँ डार्विनका नाम सर्वप्रथम है, जिसने यह प्रमाणित कर कि आजका सावयव संसार उद्भिज्ज पशु और इस प्रकार मनुष्य भी कोटिश: वर्षोंकी विकास-क्रियाका परिणाम है, प्रकृतिकी आतिभौतिक कल्पनापर प्रचण्ड प्रहार किया। वह कहता है—‘भूतविज्ञानमें प्रत्येक परिवर्तन परिणामका गुणमें परिवर्तन है। यह परिणाम किसी-न-किसी प्रकारकी गतिका परिणाम है, जो या तो वस्तुविशेषमें वर्तमान है या उसको दी जाती है। उदाहरणार्थ पानीके उत्तापको एक सीमातक बढ़ाते हुए उसकी द्रवावस्थापर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन ज्यों-ज्यों यह उत्ताप घटता या बढ़ता है, एक क्षण आता है, जब पानीकी अवस्थामें परिवर्तन होता है और एक दशामें यह भाप बन जाता है और दूसरी दशामें बर्फ। किसी प्लैटिनमके तारको गर्म करनेके लिये कि वह चमक सके, एक निश्चित परिमाणकी बिजली आवश्यक है। हर खनिज पदार्थके लिये गलनेका एक विशेष उत्ताप होता है। हर वायवीय पदार्थके लिये एक निश्चित बिन्दु है, जब कि उचित ठंढक और दबावके प्रयोगसे उसको तरल पदार्थमें परिणत किया जा सकता है। पदार्थ-विज्ञानमें जिनको स्थिरसंज्ञक माना जाता है, अधिकांश क्षेत्रमें वे ही बिन्दु हैं, जब गति या बिन्दुके ह्राससे वस्तुविशेषमें गुणात्मक परिवर्तन होता है। ऐसी स्थिर संज्ञाका उदाहरण है वह कोण, जिसपर आलोक रश्मिका परिवर्तन होकर सीधा प्रतिफलन होता है।’
रसायनशास्त्रपर विचार करते हुए एंजिल्स आगे चलकर कहता है—‘रसायनशास्त्रके विज्ञानका सार यह है कि वस्तुओंमें परिमाणात्मक परिवर्तनके फलस्वरूप उसके गुणोंमें परिवर्तन होता है। हीगेलको इसका ज्ञान था। अम्लजन, यदि इसके अणुमें दो न होकर तीन परमाणु हों, तो यह ओजोन बन जाता है, जिसका गुण साधारण अम्लजनसे भिन्न है। अतिभौतिकवादके विरुद्ध द्वन्द्वमान यह समझता है कि सब वस्तुओंमें तथा दृश्यगत घटनाओंमें अन्तर्विरोध वर्तमान है; क्योंकि इनमें एक भावात्मक और दूसरा अभावात्मक कोण है। एक भूत तथा भविष्य है। इनमें कुछ विकास हो रहा है, परिमाणात्मक परिवर्तनोंकी गुणात्मक परिवर्तनोंमें परिणति हो रही है। विकास क्रियाकी भीतरी बात है इन विरोधियोंका संघर्ष, पुराने और नयेमें; जिसका विनाश हो रहा है और जन्म हो रहा है, उसमें; जो अदृश्य हो रहा है तथा जिसका विकास हो रहा है, उसमें।’
आधुनिक विज्ञान कोई ऐसी चीज नहीं है, जो इदमित्थं सही हो और उसके आधारपर आत्मा, धर्म तथा ईश्वरकी समस्या हल की जा सके। उसके सम्बन्धमें कितने ही विकल्प हैं। लार्ड केल्विनकी घोषणा थी कि वे ऐसा भाव समझनेमें असमर्थ थे, जिसको वे यन्त्र-रचनामें परिणत न कर सकें, परंतु अब तो केन्द्राकर्षण, काल और दिक्सम्बन्धी विचारतक बदल गये। गणित तथा पदार्थ-विज्ञानमें बहुत-से सिद्धान्त ऐसे हैं, जो परस्पर विरोधी हैं। उदाहरणार्थ पहले यूक्लिडके स्वत:सिद्ध नियम अनिवार्य विचार-तत्त्व माने जाते थे; परंतु सालिवानके अनुसार अब वह पुरानी वस्तु हो गयी। उनका कहना है आजसे सौ वर्ष पूर्व लोवाशेफ्स्की नामक रूसीने और बोलीयाई नामक हंगेरियनने यह जान लिया था कि यूक्लिडका रेखागणित अविवेच्य आवश्यकताका स्थान नहीं ले सकता। दो हजार वर्षतक यूक्लिडके सिद्धान्तोंने निर्विरोध राज्य किया, सभी वैज्ञानिक उन्हें जितना मनुष्योंके लिये, उतना ही देवताओंके या ईश्वरके लिये भी आवश्यक मानते थे। उस समय लोआशेफ्स्की तथा बोलियाईको लोग विक्षिप्त कहते थे। महान् विद्वान् गाँसतकको जो स्वयं इसे समझ चुका था, अपना आविष्कार प्रकाशित करनेका साहस न हो सका, परंतु अन्तमें लोआशेफ्स्की आदिकी बात मान्य हुई।
सालिवानके अनुसार ‘आज जर्मन रेखागणितकार रीमानके रेखा-गणितसे ही अपने प्रश्नोंका निर्णय होता है।’ अब वैज्ञानिकोंको विश्वास हो गया कि जिस दिक्में हमारा अस्तित्व है, वह यूक्लिडके रेखा-गणितके नियमोंपर नहीं चलती, रीमानके दो रेखागणितके नियमोंपर चलती है। आज पहलेके सिद्धान्तोंके विपरीत मान्यता है कि दिक‍्का विस्तार असीम नहीं, सीमित है। दो बिन्दुओंके बीचका न्यूनतम अन्तर ऋजु रेखा नहीं, एक त्रिकोणके तीनों कोण सम्मिलित होकर दो समकोण नहीं बनाते। प्रकाशकी किरणें ऋजु रेखाओंमें नहीं फैलतीं। जिस वस्तुपर प्रकाश-रश्मि पड़ती है, उसपर दबाव डालती है। सीमित एवं गोलाकार दिक‍्का आकार निरन्तर तेजीसे बढ़ता जा रहा है। दिक् पारिमाणिक नहीं। एक परमाणुका प्रभाव सम्पूर्ण विश्वपर रहता है। परमाणुमें इलेक्ट्रान (परमाणुका अस्थिर शक्तिकण), प्रोटान (केन्द्रित शक्तिसमूह)-के चारों ओर घूमे हुए बिना ही बीचके स्थानकी यात्राके एक मार्ग-चिह्नसे दूसरे मार्गचक्रमें पहुँच जाता है। आज तो विज्ञान-वेत्ताओंने विद्युत्कणको स्वेच्छाचारी भी मान लिया है, जिससे यन्त्रवादका बिलकुल ही नाश हो जाता है। जिस आइजक न्यूटनके केन्द्रिय आकर्षणका सिद्धान्त आज भी श्रद्धासे पढ़ाया जाता है, उसीके सम्बन्धमें सालिवानका कहना है कि न्यूटनका यह आविष्कार और इसकी पुष्टि मानुषी बुद्धिकी चरम कृति समझी जाती थी, तो भी आज हम केन्द्रियाकर्षणकी व्याख्या सर्वथा भिन्न परिभाषाद्वारा करते हैं। इस विषयपर हमारा सम्पूर्ण दृष्टिकोण न्यूटनके दृष्टिकोणसे जड़से ही भिन्न है। न्यूटनके सिद्धान्तको लागू करनेसे कई अंशोंमें वह अवास्तविक और अशुद्ध ठहरता है। आज वह प्रणाली जड़ और शाखासहित उखाड़ फेंकी गयी, जिसकी नींवपर इस सिद्धान्तको खड़ा किया गया था।
इस तरह आजके पाठॺग्रन्थोंमें पढ़ाया जाता है कि पृथ्वीमें गम्भीर प्रवेश करनेवाली प्रकाशरश्मियाँ दूरवर्ती तारकगणोंके स्तरपर हो रहे द्रव्यनिर्माणकी उपज हैं। दूसरे सिद्धान्तद्वारा इसी प्रकारकी उपजका कारण द्रव्यनाश बतलाया जाता है, जो कि ठीक पूर्वके विपरीत है। एक सिद्धान्तके अनुसार अस्थिर विद्युत्कण तरंगका गुण रखते हैं, दूसरे सिद्धान्तके अनुसार कणोंका इनमेंसे किसीका भी त्यागना सम्भव नहीं; क्योंकि कुछ घटनाओंकी व्याख्या पहले सिद्धान्तानुसार होती है, कुछका दूसरे ही द्वारा। मनोविज्ञानके क्षेत्रमें भी परस्परविरोधी सिद्धान्तोंपर आधारित चार सम्प्रदाय बन गये हैं। इन फ्रायड, एटलर, यूंग और स्टैक्‍कैलके सम्प्रदायमें बड़े-बड़े प्रतिभाशाली विद्वान् अपने पक्षका समर्थन करते हैं। जीवशास्त्रमें भी आकस्मिक परिवर्तनोंके प्रश्नपर प्रो० वाइजमैन एवं लेमार्कके अनुयायी एक-दूसरेका निरन्तर विरोध करते हैं। एलोपैथिकमें बी० सी० जी० के प्रामाणिक विद्वान् पी० बी० बैंजमिनके अनुसार बी० सी० जी० प्रभावशाली एवं निरापद यक्ष्मानिरोधक उपचार है। पर डॉक्टर डब्ल्यू०एफ० ब्राडले (इंग्लैंड) अभी भी इसे विवादास्पद ही समझते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञानका प्रवर्तक फ्रायड कहता है कि हिस्टीरियामें जो डॉक्टर औषध देता है, वह कोरा ठग है; किंतु सभी डॉक्टर हिस्टीरियामें औषध देते हैं। सालिवानके अनुसार सत्यसे वैज्ञानिकोंका वास्तविक अन्तिम अभिप्राय सुविधासे है। वैज्ञानिक सैद्धान्तिक दृष्टिकोणसे अपने-आपको कुछ भी समझें, वास्तवमें वे क्रियासाधक होते हैं। अलेक्सिस कैरलका कहना है कि गणित, भौतिक और रसविज्ञान आवश्यक विज्ञान हैं, परंतु चेतन द्रव्योंकी खोजमें मूल प्रारम्भिक विज्ञानोंका स्थान इन्हें प्राप्त नहीं हो सकता। उसके अनुसार मानव-जातिके दुष्ट और पतित बड़ी संख्याके नियन्त्रण तथा मार्गदर्शनके लिये सात्त्विक आहार-विहारद्वारा आध्यात्मिक प्रवृत्तिवाले तपस्वियोंकी एक अल्प संख्या बननी चाहिये—यह भारतीय ही सूझ है।
अभी थोड़े ही दिन हुए डॉक्टर लोकी यह बात इंग्लैण्डकी विज्ञानपरिषद‍्में दुहरायी गयी है कि आधुनिक विज्ञानकी सबसे बड़ी खोज यह है कि ‘अभी हमलोग कुछ भी नहीं जानते हैं।’ फिर विज्ञानके बलपर मार्क्स, एंजिल्सका सब कुछ जान सकनेका दावा करना निरा दम्भ नहीं तो क्या है? जहाँ अभीतक अहंतत्त्व और महत्तत्त्वतक; शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध—इन मात्राओंको जाननेमें विज्ञान सफल नहीं हुआ है, फिर अहंतत्त्व, महत्तत्त्व और अव्यक्त प्रकृतिकी बात तो दूरकी है। फिर ‘अणोरणीयान्’ आत्मा और परमात्माको वैज्ञानिकोंकी यान्त्रिक कसौटीपर कसना केवल उपहासास्पद नहीं तो क्या है? इसी प्रकार एंजिल्स तथा मार्क्सका इतिहास महान् आर्ष इतिहासकी अपेक्षा एक विकृत अप्रामाणिक क्षुद्रतम इतिहास है, अत: इसके आधारपर संसारका स्वरूप निर्धारित नहीं हो सकता। डार्विनने स्वयं ही अपने लिये अनेक विषयोंको अज्ञेय माना है। उद्भिज्ज, पशु और मनुष्योंकी विकास-कहानी स्वयं ही अप्रामाणिक है, फिर इसके द्वारा अतिभौतिकवादपर प्रचण्ड आघात आकाशमुष्टिहननके तुल्य है।
हेतुविशेषोंसे वस्तुओंका रूपान्तरण होता है; किंतु वह रूपान्तरण वस्त्वन्तरण नहीं है। बर्फ हो जानेपर भी वस्तु जल ही रहता है। इसी तरह भाप बन जानेपर भी जलका अभाव नहीं हो गया। ‘नासतो विद्यते भाव:’ का निश्चित सिद्धान्त सुस्थिर है। जैसे प्रसारित पट और संकुचित पट पटकी अवस्था-विशेष है, वैसे ही बर्फ और भाप जलकी अवस्था-विशेष ही हैं। अन्य उदाहरण भी इस सिद्धान्तके विरोधी नहीं हैं। रसायनशास्त्रके उदाहरण भी उक्त सिद्धान्तके बाधक नहीं हैं। अम्लजनके तीन परमाणुओंसे ओजोन बनता है, उसका गुण अम्लजनसे भिन्न होता है। इसी तरह नैयायिकोंके अनुसार दो परमाणुओंके द्वॺणुक बनते हैं; परंतु तीन परमाणुका कुछ भी नहीं बनता। छ: परमाणुओंका त्रसरेणु बनता है, पाँचका कुछ नहीं। औषधोंकी मात्राभेदसे गुणभेद तो प्रसिद्ध ही है। पृथक्-पृथक् ओषधियोंके गुणोंसे सम्मिलित ओषधियोंके गुणोंमें संसर्गजनित विशेषता होती है। एक मात्रासे पानी, अन्न या दुग्ध शरीरके पोषक होते हैं और वे ही दूसरी मात्रासे शरीरके नाशक बन जाते हैं। ऐसी बातोंको अतिभौतिकवादके विरुद्ध समझना नितान्त भ्रम है।
वस्तुओं एवं घटनाओंमें अन्तर्विरोधकी कल्पना भी तत्त्वशून्य है। भावात्मक-अभावात्मक यदि क्रमिक हों तो उनका विरोध कहा ही नहीं जा सकता, विरोध तो सम देश-कालमें उसी वस्तुके भावाभावका होता है। भूत और भविष्य आविर्भाव-तिरोभाव पुराने-नये—ये सभी भिन्नकालिक होनेसे विरोधी हैं ही नहीं। पिता-पितामहादि प्राचीन, पुत्र-पौत्रादि नवीन, अध्यापक प्राचीन, छात्र नवीन, इनमें विरोध नहीं है, किंतु उपकार्योपकारभाव है। मनुष्यकी बैठने, लेटने, चलने आदिमें कई ढंगकी अवस्थाएँ विकसित होती हैं, जो परस्पर एक-दूसरेसे विलक्षण होती हैं। इसी तरह बीजके अवयवोंकी बीज, अंकुर, नाल, स्कन्ध, शाखा, उपशाखा आदि अनेक अवस्थाएँ होती हैं, इनमें पूर्व-पूर्व अवस्था उत्तरोत्तर अवस्थाओंकी जननी है—सहायक है, विरोधकल्पना दूरभिसंधिपूर्ण है। सिर्फ वर्गविद्वेष, वर्गविध्वंसके काले कारनामोंके समर्थनके लिये उसे दार्शनिकरूप देनेका प्रयत्न किया जाता है। जैसे पिता अपने उत्तराधिकारी पुत्रके जन्मके लिये प्रयत्नशील होता है, उसी प्रकार कारण भी अपने उत्तराधिकारी कार्यके जन्मके लिये अनुकूल होता है। राजा शिबि एवं दिलीपने तो स्वशरीर देकर भी कपोत तथा नन्दिनी गायकी रक्षाके लिये प्रयत्न किया था। यहाँ विरोध नहीं, किंतु उपकारकी भावना है। वस्तुस्थिति तो यह है कि विवर्धमान क्षीयमानका सहायक होता है, युवक वृद्धकी सेवासे अपनेको पुण्यात्मा मानता है; बलवान् निर्बलका, विद्वान् अविद्वान‍्का, धनवान् निर्धनका सहायक होता है—यही मानवता है।
कहा जाता है कि ‘द्वन्द्वमानके अनुसार निम्न स्तरसे ऊँचे स्तरपर विकासको हम साधारण पट-परिवर्तनके रूपमें नहीं देखते; बल्कि वस्तुओं और दृश्यगत घटनाओंमें वर्तमान विरोधके रूपमें तथा इन विरोधियोंकी बुनियादपर कायम दो विपरीत गतियोंके संघर्षके रूपमें देखते हैं। लेनिनके शब्दोंमें द्वन्द्वमान वस्तुओंकी सत्ताके आन्तरिक विरोधका अध्ययन है। लेनिनके ही शब्दोंमें द्वन्द्वमान वस्तुओंकी सत्ताके आन्तरिक विरोधका अध्ययन है और विकास विरोेधियोंके संघर्षका नाम है। द्वन्द्वमान प्रतिदिनके साधारण तर्कशास्त्रका स्थान नहीं ले सकता, जिस प्रकार बीजगणित या संख्यानुगणित अंकगणितका स्थान नहीं ले सकते। जिस प्रकार अंकगणितकी सीमाके बाहरकी समस्याओंको हल करनेके लिये गणितकी उच्च शाखाओंका प्रयोग किया जाता है, उदाहरणार्थ उन समस्याओंका जिनमें अज्ञात और परिवर्तनीय परिमाण या संख्या और उनके सम्बन्धोंका विचार होता है। उसी प्रकार द्वन्द्वमान गतिशील सम्बन्धों और क्रियाओंका साधारण तर्कशास्त्रके दायरेमें लानेका साधन है; क्योंकि साधारण तर्कशास्त्र केवल स्थिर सम्बन्धोंको लेकर चलता है, द्वन्द्वमान उसीको लेकर कार्यारम्भ करता है, जिसको अपने दायरेके बाहर रख छोड़नेके लिये साधारण तर्कशास्त्र मजबूर है, वह यह कि किसी वस्तुको अपने ही द्वारा समझा नहीं जा सकता। इसको यों ही समझा जा सकता है कि यह और किसी वस्तुसे आया और किसी अन्य वस्तुकी ओर यह जा रहा है और इसकी गतिका कारण है, इसके और इसके बहिरावेष्टनके बीचका एक क्रियाशील सम्बन्ध। इसलिये द्वन्द्वमान प्रत्येक वस्तुकी अन्य वस्तुओंके बीच पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रियाके फलस्वरूप गतिका मूर्तरूप ही समझता है। प्रत्युत्पादक, विपरीतानुवर्तन, विरोध और संघर्ष (जो परिवर्तन और विकासका भी जनक है)-के बिना द्वन्द्वमान असम्भव हो जाता है। गति और उसके रूपान्तरके अध्ययनके लिये द्वन्द्वमान अत्यावश्यक है। लेकिन जहाँ रूप, सार सम्बन्धका विकार तुलनात्मकरूपसे नहीं होता, वहाँ साधारण तर्कशास्त्रका प्रयोग ही सिद्ध है।’
‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मनुष्यके वास्तविक भौतिक अस्तित्वके स्थूल सत्यको लेकर चलता है। यह उस अतिभौतिकवादी तरीकोंका तिरस्कार करता है, जो संसारके विषयमें एक कल्पित मतका प्रचार करना चाहता है, जैसे यह एक है या अनेक, यह युक्त है या विच्छिन्न इत्यादि। प्रत्यक्षीकरण और प्रत्यक्षीभूत कल्पनाका रूप प्रतिबिम्बका रूप है। बाहरी दुनियाका द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इस ओर भी दृष्टि आकर्षित करता है कि यह मानसिक क्रियाशील है, यह निष्क्रिय प्रतिबिम्बमात्र नहीं है। इसके अनुसार विचार, भूत जिसका वास्तविक अस्तित्व है, जो क्रियाशील और इसलिये विकासमान है कि सम्बन्धित सम्पूर्णता और जीवित मनुष्योंके बीच व्यावहारिक सम्बन्धका परिणाम है। यान्त्रिक भौतिकवाद विश्वको मशीनकी तरह एक प्रणालीबद्ध रूपमें देखता है, जब कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इसको एक असीम सृजनात्मक क्रियाके रूपमें देखता है।’
पूर्वोक्त युक्तियोंसे स्पष्ट है कि मार्क्सवादियोंका विरोध एक विचित्र वस्तु है, जो कारणगत विरोधरूपसे उच्चस्तरीय विकासका कारण बनता है। अध्यात्मवादीको इसमें विरोधकी कोई बात ही नहीं दिखती। जो एक साथ मिलकर कार्योत्पादक होते हैं, उन्हें अध्यात्मवादी सहयोगी ही कहते हैं, विरोधी नहीं। अग्नि, जल, सत्त्व, रज, तम आदि परस्पर विरोधी तत्त्व भी सहयोगी होकर कार्योंके जनक होते हैं, यह स्पष्ट किया जा चुका है। साधारण तर्कशास्त्र एवं द्वन्द्वमानका भेद भी वैसा ही है, जैसे मित्रातनय एवं वन्ध्यातनयका। कहना न होगा कि ऐसा कोई भी द्वन्द्वमानका विषय नहीं है, जो तर्कशास्त्रका विषय न हो। जो वस्तु अनादि, अपौरुषेय, शास्त्रैकसमधिगम्य है, वह धर्म-ब्रह्मादि न तर्कका विषय है, न द्वन्द्वमानका। अत: ‘अंकगणितकी सीमाके बाहरकी समस्याओंको हल करनेके लिये जैसे बीजगणित-संख्यानुगणित अपेक्षित होते हैं, वैसे ही साधारण तर्ककी सीमाके बाह्यकी समस्याओंको हल करनेके लिये द्वन्द्वमान है, यह भी साधारण तर्कसे उच्चकोटिका तर्क है,’ इत्यादि कथन भी मार्क्सवादियोंका स्वगोष्ठिनिष्ठ सिद्धान्त है। स्थिर, अस्थिर—सभी सम्बन्धोंमें तर्कशास्त्रका प्रवेश होता है। वस्तुत: मार्क्सवादमें साधारण तर्क या द्वन्द्वमानका कोई भी स्पष्ट अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव दोषरहित लक्षण और परिभाषा नहीं है। इसीलिये रबड़-छन्दके समान मार्क्सवादमें मनमाना तर्क चलता है। किंतु तर्कशास्त्रमें तर्ककी विशेष परिभाषा है—‘व्याप्यारोपेण व्यापकारोपस्तर्क:।’* व्याप्यके आरोपसे व्यापकका आरोप तर्क कहलाता है। तर्क स्वयं प्रमाण नहीं होता, किंतु अनुमानमें अपेक्षित व्याप्तिज्ञानका सहायक होता है। जो अतर्क्य है, उसीको तर्कशास्त्र छोड़नेको मजबूर होता है। उस सम्बन्धमें द्वन्द्ववाद भी मूक ही रहेगा। साध्य, साधनभाव जैसे स्थिर, वैसे ही गतिशील पदार्थोंके सम्बन्धमें भी लागू होते हैं।
* अथवा ‘अविज्ञात तत्त्वको प्रमाण, हेतु, उपपत्तिसे जाननेके लिये ऊहापोह करना तर्क है।’ (न्याय० १।१।४०)
किसी वस्तुको समझनेके लिये सम्भावित, असम्भावित सम्बन्धों तथा विविध परिस्थितियोंको जानना तर्कशास्त्रको भी अभीष्ट है। कुछ भारतीय तार्किकोंका तो यहाँतक कहना है कि एक घटका ज्ञान भी पूरा और सही तब होता है, जब घटेतर सकल वस्तु प्रतियोगि-भेदयुक्त घटका बोध होता है। अर्थात् स्वेतर सकल पदार्थोंसे ‘भिन्नत्वेन रूपेण’ घटका बोध होता है। इतर-भिन्नता जाननेके लिये इतर सकल पदार्थोंका ज्ञान भी आवश्यक होता है। कौन वस्तु किन-किन हेतुओंसे उद‍्भूत होती है, किन-किन प्रमाणोंसे विदित होती है, इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा, उसका किन वस्तुओंपर किस ढंगका प्रभाव होगा—यह तो राजनीति, अर्थशास्त्र, वाणिज्य, आयुर्वेद, अध्यात्मशास्त्र, मन्त्रशास्त्र आदि शास्त्रोंमें विचारा जाता है। इतना ही नहीं, किसका कितना दृष्ट प्रभाव पड़ेगा, कितना अदृष्ट प्रभाव पड़ेगा, यह भी विचार भारतीय शास्त्रोंमें होता है। फिर भी संसारकी प्रत्येक वस्तुका क्रिया-प्रतिक्रियारूप सम्बन्ध नहीं होता। संसारमें कितने ही पदार्थ परस्पर सहयोगी होते हैं, कितने विरोधी होते हैं, कितने ही उदासीन भी होते हैं। हाँ, प्रत्येक कार्य वस्तु त्रिगुणात्मक होनेसे और गुणोंका चल स्वभाव होनेसे गतिका मूर्तरूप तो नहीं, किंतु गतिका फल कहा जा सकता है। उसमें जैसे गति निदान है, वैसे ही सत्त्वका प्रकाश और तमका अवष्टम्भ भी मिला हुआ है। विपरीतानुवर्तन विरोध एवं संघर्षके अनेक स्थान हैं, परंतु वहाँ द्वन्द्वमान नामकी कोई सर्वसम्मत वस्तु नहीं है।
गतिका रूपान्तरण स्वयं नहीं होता, किंतु किसी वस्तुके रूपान्तरणमें गति कारण अवश्य है, परंतु वहाँ द्वन्द्वमानकी गन्ध भी नहीं है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और यान्त्रिक भौतिकवादका भेद भी अवास्तविक है। एकता-अनेकता, युक्तता-अयुक्तता, विच्छिन्नता-अविच्छिन्नताका विचार काल्पनिक नहीं है। इन विचारोंके बिना वस्तुयाथात्म्यका बोध असम्भव ही है। समूचे शरीरको ही मनुष्य या आत्मा मान रखना अविवेकका पूरा परिचय है। जैसे ईंट, चूना, पत्थर, काष्ठ आदिसे बना हुआ मकान एक संघात है, वह किसी अपनेसे असंहत भोक्ता चेतनके लिये होता है, वैसे ही माता-पिताके शुक्र, शोणितसे बना हुआ अस्थि, मांस, चर्ममय पंजर देह भी मकानके समान ही किसी अपनेसे असंहत, असंग चेतनके लिये होना चाहिये।
अचेतनके सभी व्यवहार चेतनकी दु:ख-निवृत्ति—सुखप्राप्तिके लिये होते हैं, वैसे ही देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, दिल, दिमाग आदिकी प्रवृत्तियोंको भी किसी चेतनके सुखार्थ मानना युक्तियुक्त है। इसे काल्पनिक कहना अनुचित है। अतएव मानसिक क्रियाको क्रियाशील मानना भी अनभिज्ञता है। गुण और क्रिया स्वयं ही द्रव्याश्रित होते हैं। जैसे गुण गुणका आश्रय नहीं होता, वैसे ही क्रिया भी क्रियाका आश्रय नहीं होती है। वस्तुत: मानसिक क्रिया भौतिक है—यह भारतीय अध्यात्मवादी भी मानते हैं। ब्रह्मात्मक ज्ञान नित्य-ज्ञान है, वह विभिन्न मानसिक क्रियाओंका भी निर्विकार भासक है। मानसी क्रियाओंकी विशेषता स्पष्ट है, नित्य ज्ञान क्रिया नहीं है, अध्यात्मवादी इसे प्रतिबिम्बरूप मानते ही नहीं। ‘फिर निष्क्रिय प्रतिबिम्ब नहीं है’—यह कथन भी अनुक्तोपलम्भ है। विकासमान भूतकी सम्बन्धित पूर्णता या जीवित मनुष्योंके बीच व्यावहारिक सम्बन्धका परिणाम ही ज्ञान है—यह कथन मानसिक क्रियारूप ज्ञानके सम्बन्धमें कहा जा सकता है, परंतु नित्यज्ञानके सम्बन्धमें ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ज्ञानका प्रागभाव या प्रध्वंसाभाव नहीं सिद्ध होता; क्योंकि भाव, अभाव किसी वस्तुके ग्रहणके लिये ज्ञान आवश्यक ही है।
ज्ञानको स्वभावका ज्ञापक कहना ‘वदतोव्याघात’ है। जैसे महाकाशमें घटादि उपाधिद्वारा परिच्छिन्नता और अनेकता प्रतीत होती है, वैसे ही विषयों एवं मानसी वृत्तियोंके कारण नित्य ज्ञानमें परिच्छिन्नता तथा अनेकता प्रतीत होती है। वस्तुत: निरुपाधिक अनन्त आकाशके तुल्य ही निरुपाधिक ज्ञान भी नित्य एवं अनन्त है। अपरप्रेरित जडपदार्थोंमें स्वत: सर्जनकी शक्ति नहीं होती। विज्ञानसे भी नहीं सिद्ध होता है कि किसी चेतन मनुष्यके प्रयत्नके बिना जडपरमाणु, जडविद्युत्कण, जडभूत या प्रकृति गतिशील होनेपर भी नियमित तथा अनुकूल गति बनाकर अभीष्ट कार्य-सिद्धि कर सकेंगे। जल तथा वायु गतिशील हैं, फिर भी कार्यसिद्धिके अनुकूल गतिशील बनाना चेतनका ही कार्य है। इसी तरह गतिशील भूतोंको भी नियामक चेतनकी आवश्यकता है। क्रिया कोई भी असीम नहीं होती, कर्म या क्रिया स्वयं क्षणभंगुर ही होती है। हाँ, सदृश क्रियाओंका प्रवाह असीम हो सकता है, परंतु यह असीमता भी तो प्रत्यक्ष नहीं है। असीमताका अनुमान ही करना पड़ेगा। अनुमानका भी कोई निश्चित लिंग नहीं है। संसारभरके प्राय: सभी अध्यात्मवादी सम्प्रदाय तथा बौद्ध योगाचार, सौत्रान्त्रिक, वैभाषिक एवं माध्यमिकतक बन्धको अनादि, किंतु सान्त मानते हैं। भगवान् कृष्णकी गीता भी उसे अनन्त बतलाती है। ‘नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा’ (१५।३)। इस संसारका न अन्त है, न आदि है। अद्वैतवेदान्तके अनुसार अनादि होते हुए भी सान्त है। गीताके वचनका अभिप्राय यही है कि तत्त्व-साक्षात्कारके बिना इस संसारका अन्त नहीं होता। असीम भी हो, सर्जनशक्ति भी हो, तो भी, जडका प्रेरक-प्रवर्तक चेतन आवश्यक ही है। किसी भी जडकी अनुकूल सर्जनशक्तिके बिना नियन्त्रणके सर्वथा अदृष्टचर है।
‘मनुष्यके मानसिक तथा बाहरी वस्तुओंके संयोगजनित व्यवहारने यह सिद्ध किया कि जिस दिशामें प्राचीन भौतिकवादी सत्यको खोजना चाहते थे; वह वहाँ नहीं है, उसको खोजनेके लिये दूसरी दिशाको जाना पड़ेगा। मनुष्यका विचार जिस सत्यको पहुँच सकता है, वह अनन्त कालके लिये सम्पूर्ण सत्य नहीं है, जिसका अस्तित्व ऐसे पुरुषके लिये है, जो मनुष्यके राग-द्वेष और ससीमतासे मुक्त हो। जिस सत्यको मनुष्य पहुँच सकता है, वह उन सम्बन्धोंका—जिनके अन्दर मनुष्य जाता है, चलता-फिरता है और रहता है—एक विकासमान समन्वय है। यह आपेक्षिक सत्य है; क्योंकि यह कुछ पारस्परिक सम्बन्धों तथा क्रिया-प्रतिक्रियाओंका रूप है, जिनको हम उन सम्बन्धोंके अन्दरसे ही देखते हैं। पुन:परिमाणकी दृष्टिसे भी यह आपेक्षिक है; क्योंकि इसमें सदा वृद्धि होती रहती है और अधिकतर वृद्धिप्राप्ति करनेकी इसमें शक्ति है। लेकिन गुणात्मक दृष्टिसे और तुलनात्मकरूपमें यह सत्यपूर्ण भी है। यद्यपि यह पूर्ण सत्य नहीं, तथापि जहाँतक यह प्रयोग सिद्ध है, वहाँतक यह सत्य ही है।’ ‘सिद्धान्त और प्रयोग, पूर्णता और आपेक्षिकता, पुरानी अवस्थाका जारी रहना और परिवर्तित होना, कायमी अवस्था और वृद्धि, इन विरोधियोंके एकत्वमें ही काण्टके पूर्व यान्त्रिक भौतिकवाद तथा द्वन्द्वात्मक भौतिकवादका प्रमेय है। एंजिल्सके शब्दोंमें—‘पिछली सदीमें भौतिकवादका रूप यान्त्रिक होनेके कारण यह था कि उस समय प्रकृतिविज्ञानकी शाखाओंमें यन्त्रविज्ञानका ही काफी विस्तार हो चुका था। देकार्तेके लिये पशु एक मशीन-जैसा था। अठारहवीं सदीके भौतिकवादके लिये मनुष्य भी वैसे ही था। उस समयके फ्रांसीसी भौतिकवादकी यह संकीर्णता थी कि वह हर प्रक्रियाके सम्बन्धमें यन्त्रवादका प्रयोग करता था, चाहे वह रसायन-शास्त्र हो, चाहे जीव-प्रकृति; जिसके सम्बन्धमें यान्त्रिक सिद्धान्त लागू है सही, लेकिन जिनका नियन्त्रण और उच्चकोटिके नियमोंद्वारा होता है। उसकी दूसरी संकीर्णता यह है कि वह विश्व संसारको सक्रियरूपमें भूतके ऐतिहासिक विकासके रूपमें नहीं देखता। प्रकृतिकी अविराम गतिका ज्ञान तो लोगोंको था, लेकिन उस समयके विचारके अनुसार यह गति अनन्तकालसे एक चक्रके आकारमें है और उन्हीं परिणामोंका बारम्बार आविर्भाव होता रहता है। यान्त्रिकवाद एक यन्त्रचालकका अनुमान करता है और इस प्रकार ईश्वर और अप्रकृतिवादकी पुन: सृष्टि करता है। वास्तविक परिवर्तनकी व्याख्या यह नहीं कर सकता। वास्तविक परिवर्तनका कारण है वस्तुकी स्वयंगति।’
द्वन्द्वमानके संक्षिप्त सूत्र १६ हैं—हीगेलके तर्कशास्त्रके ऊपर लेनिनने १६ सूत्रोंका विस्तार किया है, जिनके अध्ययनसे द्वन्द्वमानको समझनेमें बहुत सहायता मिलती है। लेनिनके शब्दोंमें द्वन्द्वमानका संक्षिप्त विवरण है, विरोधियोंका एकत्व। एक प्रकारसे ये सोलहों सूत्र इसीके विशद विस्तार हैं। मनन-क्रियाका आरम्भ होता है, विश्व-प्रक्रियासे। उसके कुछ विशिष्ट गुणोंको अलग करके उनके अलग रूपको ही ध्यानमें लाकर वस्तु (कर्म)-को लेकर ही मनन-क्रियाका आरम्भ है। इसलिये द्वन्द्वात्मक मनन-क्रियाके लिये पहले आवश्यक है, वस्तुओंको ज्यों-की-त्यों उनके अलग रूपमें देखना। यही लेनिनका पहला सूत्र है—वस्तुनिरीक्षण।
‘लेकिन वस्तुतत्त्वके तोड़नेके पहले कदमको पूरा करना पड़ता है। दूसरे कदमसे इस द्वन्द्वमानका पुनर्निर्माण करके यदि विश्व संसार एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है, जिसके अंग परस्पर सम्बन्धित हैं तो हम इनकी पहचान यों करते हैं कि मस्तिष्कमें इन आंशिक क्रियाओंको, यथा समाज उत्पादनके साधन परिवर्तनशील वस्तु शब्दको अलग कर लेते हैं। इनका हम नाम देते हैं—पृथकित (आइसोलैट्स)। यह पृथकित, पारिपार्श्विक अवस्थासे (बहिरावेष्टन) या स्थान, काल, भूतसे अलग कर लिया गया है। इसलिये स्वयं पृथकित एक कल्पनामात्र है; क्योंकि द्वन्द्वात्मक दृष्टिसे पारिपार्श्विक अवस्थासे मुक्त कोई वस्तु रह नहीं सकती। लेकिन यह कल्पना भी वास्तविक ही है, इसलिये कि वस्तुराज्यमें इसका अस्तित्व है। द्वन्द्वमानके अध्ययनका पहला कदम है इन पृथकितोंका स्वतन्त्ररूपसे अध्ययन करना और फिर उनको अपनी पारिपार्श्विक अवस्थासे संयुक्तकर द्वन्द्वमान पुनर्निर्माण करना। इसी प्रकार हम अतिभौतिकवादी अलाहिदापने और एकतरफापनेके ऊपर उठ सकते हैं और दुनियाको एक अन्त:सम्बन्धित गतिके रूपमें देख सकते हैं। यही लेनिनका दूसरा सूत्र है। हमें प्रत्येक वस्तुके दूसरे वस्तुओंसे सम्बन्धोंकी विचित्रता और परिपूर्णताका विचार करना चाहिये।’
प्राचीन भौतिकवादी एवं द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दोनोंहीकी खोजसे परमार्थ सत्य मिलनेवाला नहीं है। परमार्थ नि:सीम सत्य एक ही है, उसमें पूर्णता-अपूर्णताकी खिचड़ी नहीं है। उसी परमार्थ सत्यका औपाधिकरूप स्वप्न, शुक्ति, रजतादिमें प्रातिभासिक सत्यरूपमें प्रस्फुटित होता है। व्यावहारिक आकाशादिमें व्यावहारिक सत्यरूपमें प्रस्फुटित होता है। अत्यन्त अबाध्य वस्तु ही परमार्थ सत्य होती है, अत: परमार्थ सत्यका अनन्त एवं कालातीत होना स्वाभाविक है। अविचारित संघातप्राय मनुष्य भले ही आपेक्षिक सत्य हो, परंतु विचारनिर्णीत स्वरूप तो मनुष्योंका ही नहीं, प्राणिमात्रका अनन्त सत्य ही है और इस अनृत मर्त्य मनुष्य-देहादिसे ही सत्य अमृत प्राप्त करना जीवनका ध्येय है, यही बुद्धिमानोंकी मनीषाका माहात्म्य है—
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्।
यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्॥
(श्रीमद्भा० ११।२९।२२)
अठारहवीं सदीके भौतिकवादियोंसे बहुत पहले ईसाके भी बहुत पहले भगवान् श्रीकृष्णने स्थूलदेह एवं इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राणादियुक्त सूक्ष्म शरीरको यन्त्र मानकर यन्त्रारूढ़ जीवोंको ईश्वराधिष्ठित मायाद्वारा भ्रमण करना माना है—
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥
(गीता १८।६१)
शरीर, दिमाग आदिसे उत्तम यन्त्र अबतक कोई भी नहीं निकले हैं। बल्कि यों कहना चाहिये कि रेल, तार, रेडियो, मोटर, हवाईजहाज एवं अन्य कारखानोंके मशीन-यन्त्र आदि सबका आविर्भाव करनेवाला मनुष्य शरीर, बुद्धि, मस्तिष्क ही है। सुतरां इस सर्वोत्कृष्ट यन्त्रका निर्माता तथा संचालक सर्वज्ञ ईश्वर ही है। वस्तुकी स्वयंगति असिद्ध है। अचेतन रथादिकी गति चेतनाधिष्ठित ही होती है। अत: जल, वायु आदिकी प्रवृत्ति भी अन्तर्यामी चेतनसे अधिष्ठित ही होती है। यदि स्वयंगति भूत है, तब उनसे स्वयं ही विलक्षण कार्योंकी उत्पत्ति होनी चाहिये, फिर चेतन मनुष्यके इच्छानुसार जडभूतकी कार्याकारेण परिणति न होनी चाहिये। अग्नि, जल, वायुके तुल्य स्वयं गति होनेपर भी कार्यानुकूल गतिके लिये चेतन ईश्वर नियामक एवं व्यवस्थापकरूपसे आवश्यक है।
विरोधियोंके एकत्वके सम्बन्धमें कहा जा चुका है कि भाव, अभाव-जैसे विरोधियोंकी एकता सर्वथा असम्भव तथा अदृष्ट है। अग्नि, जल, सत्त्व, रज, तम-जैसे विरोधियोंका भी सहयोग होता है, एकता नहीं। ‘वस्तु अर्थात् कार्यसे मनन-क्रिया अर्थात् ज्ञानका आरम्भ होता है’, यह कल्पना भी व्यर्थ है। अनुभव-सिद्ध बात है कि ‘जानाति, इच्छति, अथ करोति’ प्राणी किसी वस्तुको जानता है, फिर इच्छा करता है, फिर कर्म करता है। किसी भी कर्मके लिये पहले संकल्प अपेक्षित होता है। ‘यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते।’ (छा० उ०) प्राणी जैसा संकल्प करता है, वैसा ही कर्म करता है—
सङ्कल्पमूल: कामो वै यज्ञा: सङ्कल्पसम्भवा:।
व्रतानि यमधर्माश्च सर्वे सङ्कल्पजा: स्मृता:॥
अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्।
यद्यद्धि कुरुते किञ्चित्तत्तत्कामस्य चेष्टितम्॥
(मनुस्मृ० २।३-४)
सभी काम संकल्पसे ही होते हैं और सकामकी ही क्रिया होती है। नि:संकल्प निष्कामकी कोई भी क्रिया कभी भी देखी नहीं जाती। विश्वनिर्माण भी ईश्वरीय संकल्प तथा चिकीर्षामूलक ही है। व्यवहारमें भी कोई शिल्पी पहले वस्तुकी कल्पना या संकल्प करता है, फिर इच्छा करता है, पुन: साधन-संग्रहपूर्वक मन:स्थ वस्तुको बाह्याकार देता है। लेनिनका सूत्र इस सहज स्वाभाविक व्यवहारका उल्लंघन करता है। वस्तु-तत्त्वको तोड़ना और पुनर्निर्माण करना यह द्वन्द्ववादी भाषा ही असंगत है। पुनर्निर्माण शब्द निर्मित वस्तुके ही पुनर्निर्माणके अर्थमें प्रयुक्त होता है, नव निर्माण और पुनर्निर्माणमें यही अन्तर है। मृत्पिण्डका विभाजन घट-निर्माणके लिये होता है। एक अवस्था हटनेपर ही दूसरी अवस्था आ सकती है। अत: पिण्डावस्था हटती है, तब घटावस्था आती है। इस तरह कार्यावस्थासे पूर्व व्यवस्थाका प्रत्यावर्तन नहीं होता। देशकाल तथा विविध सम्बन्धित पदार्थोंसे सम्बन्ध रहनेपर भी पृथक्त्व रहता ही है, वैज्ञानिक विश्लेषण भी तभी सार्थक है। सम्मिलित, सम्बन्धित, अविविक्त भूमण्डल सूर्यमण्डलमें विवेकद्वारा विभिन्न गुणधर्मयुक्त अनेक पदार्थ मिलते हैं। यों तो कारणरूपसे सभीकी एकता है। पार्थिवरूपसे अभिन्न होते हुए भी लोहा, सोना, चाँदी, पत्थर, मिट्टी आदि रूपसे भिन्नता मानना ही तत्त्वज्ञान है। अध्यात्मवादके लिये यह कोई नयी वस्तु नहीं है। वस्तुके यथार्थ जो भी दृष्टिकोण हों, उपयोगिताकी दृष्टिसे सभीपर विचार होना चाहिये। काकदन्तपरीक्षा, गर्दभरोमगणना आदि व्यर्थकी परीक्षाएँ होती हैं, वे अमान्य होती हैं।
कहा जाता है कि ‘प्रत्येक वस्तु विराट् विश्वप्रक्रियाका एक अंग है। इसकी प्रकृतिको इसकी रूपान्तरिक अवस्थासे अलग करके नहीं समझा जा सकता।’ यही लेनिनका तीसरा सूत्र है। ‘हमें वस्तु या दृश्यगत घटनाओंके विकास, इसकी अपनी गति, इसके अपने जीवन आदिका विचार करना चाहिये। लेकिन यह विकास ऐसा नहीं है, जो मनमानी ढंगसे, बिना किसी कारणके रहस्यमयरूपमें होता है। विकास सदा बाहरी सम्बन्ध तथा आन्तरिक सम्बन्धोंकी जाँचका है। हमें वस्तुकी अन्तर्विरोधी प्रवृत्तियों और दिशाओंकी खोज करनी चाहिये।’ यही लेनिनका चौथा सूत्र है। पाँचवाँ सूत्र है कि ‘हमें वस्तुको विरोधियोंके एकत्व तथा योगफलके रूपमें देखना चाहिये।’ छठा सूत्र है—इन विरोधियोंके पटविस्तार तथा संघर्षको हमें देखना चाहिये और सातवाँ सूत्र वस्तु-विश्लेषण तथा समन्वयका एकीकरण है। आठवाँ सूत्र है—प्रत्येक वस्तुका सम्बन्ध न केवल बहुविध है, बल्कि सार्वभौमिक है। प्रत्येक वस्तु प्रत्येक अन्य वस्तुसे सम्बन्धित है। नवाँ सूत्र न केवल विपरीतोंका एकत्व बल्कि प्रत्येक गुणका उसके विपरीतमें रूपान्तरित होना है।
दसवाँ सूत्र नये पार्श्वों और सम्बन्धोंके दृश्यगत होनेकी असीम क्रिया है। ग्यारहवाँ सूत्र है—मनुष्यद्वारा वस्तु, दृश्य, क्रिया इत्यादिके ज्ञानको गहराईमें ले जानेकी तथा बाह्यावरणसे तत्त्वपर और कम गहराईके तत्त्वसे अधिक गहराईके तत्त्वपर पहुँचनेकी असीम क्रिया। बारहवाँ सूत्र है—सह अस्तित्वसे कार्यकारणके सम्बन्धको पहुँचना। एक प्रकारके सम्बन्ध और पारस्परिक निर्भरतासे अधिक गहरा तथा अधिक व्यापक सम्बन्ध-तथा पारस्परिक निर्भरताकी ओर जाना। तेरहवाँ सूत्र निम्नस्तरसे ऊँचे स्तरपर विकासकी क्रियामें कुछ गुणोंकी पुनरावृत्ति है। चौदहवाँ सूत्र प्रतीयमानरूपसे पुराने रूपपर लौट जाना ‘प्रतिषेधका प्रतिषेध’ है।
रामराज्यकी दृष्टिमें प्रत्येक वस्तु महाविराट्का ही अंश है। सुतरां मूलके गुण-धर्म, शाखा-उपशाखाओंमें होने उचित ही हैं। कारणकी अपेक्षा कार्योंमें अनिर्वचनीय विलक्षणता भी होती ही है। स्पष्टतया स्पर्शहीन आकाशसे स्पर्शवान् वायुकी, रूपहीन वायुसे रूपवान् तेजकी उत्पत्ति स्पष्टरूपसे होती है। मनमानी ढंगसे विकास तो जडवादी ही मानते हैं। अध्यात्मवादी तो हरएक कार्यके साधारण, असाधारण—कई ढंगके कारण मानते हैं, परंतु सभी कारण दृष्ट ही नहीं, कुछ अदृष्ट भी होते हैं। दिक्, काल, आकाश, ईश्वर, अपूर्व ‘अदृष्ट’ प्रागभाव, प्रतिबन्धकाभाव आदि साधारण कारण होते हैं। उपादान, निमित्त, सहकारी आदि अनेक असाधारण कारणका योग होता है, तभी कोई विकार सम्पन्न होता है। विरोधियोंके एकत्वकी अपेक्षा सहयोगियोंके सहयोगसे कार्यकी उत्पत्ति कहना कहीं अधिक संगत है।
विरोधियोंके संघर्षकी कल्पनाकी अपेक्षा यही कहना ठीक है कि किसी समान उद्देश्यकी सिद्धिके लिये विरोधी भी सहयोगी हो जाते हैं। विरोधियोंके संघर्षका सहयोगरूपमें परिवर्तन हुए बिना दोमेंसे एकका विनाश ध्रुव है। फिर विरोधियोंकी एकताका स्वप्न व्यर्थ ही है। संघर्ष रहते हुए पदविस्तारकी कल्पना भी निराधार है। वस्तुके विश्लेषण तथा समन्वयका एकीकरण क्रमेण विश्लेषण, विभाजन तथा समन्वय हो सकता है, परंतु समकालमें दोनोंका अस्तित्व तथा एकीकरण असंगत एवं अप्रमाणित है।
प्रत्येक वस्तुके सम्बन्धोंका बहुविधत्व, सार्वभौमत्व अंशत: ठीक ही है; पर इसमें भी सहयोग विरोध तथा उदासीनताको भी गिन लेना चाहिये। वाच्यत्व, प्रमेयत्वादि तथा दैशिक, कालिक सार्वभौम सम्बन्ध अध्यात्मवादको भी मान्य है। किंतु इससे कोई मार्क्सीय अभिप्राय नहीं सिद्ध होता। विपरीतोंका एकत्व तथा प्रत्येक गुणका रूपान्तरित होना सारशून्य है। भाव-अभाव, सत्-असत् आदि विपरीतोंकी एकता असम्भव है, यह कहा जा चुका है। अग्नि, जल, सत्त्व, रज आदि विपरीतोंका एकत्व न कहकर सहयोग ही कहना ठीक है। कारणकी अपेक्षा कार्योंमें तथा अल्पसंख्यकोंकी अपेक्षा बहुसंख्यकोंमें गुणधर्मका वैलक्षण्य अध्यात्मवादमें मान्य है। मृत्तिकासे जलानयनका कार्य नहीं सम्पन्न होता, मृत्तिकाके कार्य घटसे वही कार्य सम्पन्न हो जाता है। तृण साधारण नगण्य तथा अल्पशक्ति होता है, पर वही सामूहिकरूपमें एकत्रित रज्जु बनकर दुरुच्छेद्य बन जाता है।
वस्तुत: कारणसे भिन्न होकर कार्य नहीं होता, फिर भी व्यवहारमें कारण-कार्यका वैलक्षण्य मान्य होता है। अतत्त्वभूत रज्जुसर्पसे भी सत्य भय-कम्प आदि देखा जाता है। अतएव नये पार्श्वों और सम्बन्धोंकी कल्पना निराधार है; क्योंकि अत्यन्त अविद्यमान कोई वस्तु या सम्बन्ध व्यक्त नहीं होता है। वटबीजमें जितनी शक्ति विद्यमान है, उतना ही विकास होता है। विकास ही नहीं, किंतु विकासके साथ ह्रास भी स्पष्ट दिखायी देता है। संश्लेषण-विश्लेषणकी विचित्रतासे शक्तियोंमें विचित्रता भी परिलक्षित होती है। औषधोंके संयोग-वियोग तथा पौधोंके कलम ‘जोड़’ से तथा बीजोंके संस्कारसे विकासमें विचित्रता होती है; फिर भी विकास निस्सीम नहीं है। प्रत्येक वस्तुमें ‘जायते अस्ति वर्धते’ के बाद ही ‘विपरिणमते अपक्षीयते एवं विनश्यति’ की स्थिति आ जाती है। अर्थात् उत्पत्ति वृद्धिकी एक सीमा है। उसके बाद ही विपरिणाम, अपक्षय एवं विनाश आ जाता है। व्यष्टिमें जो गुण-धर्म हैं, समष्टिमें भी उनका अस्तित्व रहता है। अत: शुद्ध स्वप्रकाश ब्रह्मातिरिक्त किसी भी वस्तुको निस्सीम नहीं कहा जा सकता। जब संसारमें सावयव पदार्थोंकी उत्पत्ति और विनाश दृष्ट है, तब सावयव विश्व-प्रपंचकी भी उत्पत्ति तथा विनाश मानना अनिवार्य है।
प्रवाह भी प्रवाहियोंसे भिन्न नहीं होता। दिन-रातका प्रवाह या बीजांकुरका प्रवाह एवं कर्म तथा देहोंका प्रवाह आदि सभी प्रवाह प्रवाहियोंके अनित्य होनेसे अनित्य ही है। जिस वस्तुका प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव तथा अत्यन्ताभाव बन सकता है, उस वस्तुको निस्सीम कहना उपहासास्पद ही है। जैसे अनादि परमाणुकी श्यामता अग्निजन्य पाकसे नष्ट होती है, अग्निसे दग्ध होनेसे अनादि बीजांकुरकी परम्परा टूट जाती है, उसी तरह विश्वप्रपंचकी परम्परा भी कालसे किंवा तत्त्वज्ञानसे टूट जाती। मार्क्सवादी विश्वकी निस्सीमतामें प्रत्यक्ष-प्रमाण एवं प्रत्यक्ष साधन-यन्त्रोंका प्रयोग वर्तमान कालके लिये जो भी करें, परंतु भविष्यके सम्बन्धमें तो प्रत्यक्ष या यन्त्र कथमपि सफल नहीं हो सकते। अनुमान कोई ऐसा निर्दोष नहीं है, जिससे विश्वकी अनन्तता या निस्सीमता विदित हो सके। फिर क्रिया कोई भी चाहे वह प्रातिस्विक हो या सामूहिक, नि:सीम नहीं कही जा सकती।
मनुष्यद्वारा वस्तु, दृश्य, क्रिया इत्यादिके ज्ञानकी गहराईमें ले जानेकी तथा बाह्यावरणसे तत्त्वपर और कम गहराईके तत्त्वसे अधिक गहराईपर पहुँचनेकी असीम क्रियाकी बात भी कल्पना ही है। अतत्त्व अनात्मसम्बन्धी ज्ञान यद्यपि अल्पज्ञ जीवके लिये असीम ही है; फिर भी सर्वज्ञ ईश्वरके लिये वह भी निस्सीम नहीं। दूसरी दृष्टिसे ज्ञातरूपसे तथा अज्ञातरूपसे सभी वस्तु साक्षीभास्य हैं—‘किञ्चिज्जानामि किञ्चिन्न जानामि’ अमुकको नहीं जानता हूँ, अमुकको जानता हूँ—इस रूपसे अज्ञानविषयतया या ज्ञानविषयतया सभी वस्तु साक्षीभास्य हैं। सर्वकारण सर्वाधिष्ठानरूपसे भी परम तत्त्वका ज्ञान अन्तिम ही तत्त्वज्ञान है। इसी ज्ञानके सम्बन्धमें गीताचार्यका कहना है—
‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥’
(७।२)
जिसको जानकर पुन: अन्य कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रहता।
‘एतद‍्बुद्‍ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥’
(१५।२०)
इस तत्त्वको जानकर प्राणी बुद्धिमान् होता है और कृतकृत्य हो जाता है। उपनिषदें भी कहती हैं—आत्माके श्रवण, मनन, विज्ञानमें सबका श्रवण, मनन तथा विज्ञान हो जाता है—
‘आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम्॥’
(बृहदा० उप० २।४।५)
जैसे पृथ्वीके विज्ञानसे पार्थिवतत्त्व, जलके विज्ञानसे जलीयतत्त्व तरंग आदिका विज्ञान हो जाता है, वैसे ही सर्वकारण सर्वाधिष्ठानके विज्ञानसे सब कुछ विज्ञात हो जाता है।
सहयोगियोंका सहअस्तित्व तो सभी मानते हैं। विरोधियोंका सहअस्तित्व अगर मार्क्सवादको मान्य है, तब तो फिर मजदूर और मालिकका भी सहअस्तित्व हो ही सकता है। फिर मार्क्सवादी चूहा, बिल्लीके तुल्य वर्गोंका अमिट विरोध क्यों मानते हैं?
पारस्परिक सम्बन्ध तथा निर्भरताकी बात अच्छी है, पर स्वात्मनिर्भरताका भी महत्त्व नहीं भूलना चाहिये। परमुखापेक्षिता दोष भी है। अध्यात्मपक्ष माननेपर तो बाह्य साधनानपेक्षता बड़े ही महत्त्वकी वस्तु है। उत्तरोत्तर ज्ञान, क्रिया, शक्तिका विकास हो रहा है, संसार उन्नतिके उच्च शिखरकी ओर बढ़ रहा है, इस विश्वासमें भी अन्धविश्वासका ही अंश अधिक है। स्तर-भेद होनेपर भिन्नता ही कहनी चाहिये, पुनरावृत्ति नहीं। प्रतिषेधके प्रतिषेधकी मार्क्सवादी मान्यता असंगत है, यह पीछे दिखाया जा चुका है। अंकुरके कारणभूत जौके दाने अंकुरके फलभूत जौके दानोंसे सर्वथा भिन्न हैं। यह प्रतिषेधके प्रतिषेधका उदाहरण नहीं हो सकता। इसका शुद्ध उदाहरण पीछे दिखलाया जा चुका है।
‘पन्द्रहवाँ सूत्र लेनिनका है—रूप और सार, आकार और आकारके अन्दर अस्तित्वका संघर्ष तथा इसका विपरीत। सोलहवाँ सूत्र है—परिमाणका गुणोंमें परिवर्तन तथा इसका विपरीत; व्याख्या और उदाहरण। जीवनका उदाहरण प्रकृतिके द्वन्द्वात्मक रूपपर स्पष्ट प्रकाश डालता है। अवयवके तथा कोषके जीवनमें जीवन और मृत्यु, आविर्भाव और तिरोभाव, अन्तर्ग्रहण तथा बहिर्मोचन, भूत और शक्तिको ये पास-पास ही मिलते हैं तथा परस्पर संश्लिष्ट रहते हैं। इसके अतिरिक्त पूँजीवादमें अन्तर्विरोधके तीन सूत्र हैं—१. प्रत्येक भिन्न फैक्टरीमें उत्पादनका सुचारुरूपसे संघटन होता है और सामाजिक उत्पादन क्षेत्रमें अराजकताकी चेष्टा की जाती है। २. एक ओर मशीनकी उत्पत्ति और उत्पादनका विस्तार प्रत्येक पूँजीवादीके लिये बाध्यतामूलक नियम है; दूसरी ओर उद्योगकी रिजर्व सेनामें वृद्धि और सामयिक संकटका बार-बार होना, ये उत्पादनके सम्बन्ध पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धोंके विरुद्ध विद्रोह करते हैं। ३. सम्पूर्ण पूँजीवादी प्रथामें एक ओर पूँजी ही सम्पत्ति है और दूसरी ओर उद्योगमें पूँजीका प्रयोग किया जाता है, यानी एक ओर बैंकमें एकत्रित पूँजी है और दूसरी ओर औद्योगिक पूँजी है। इस प्रभेदके उदाहरण हैं सूदजीवी, जिनकी जीविका है पूँजीपर सूदद्वारा और दूसरे जो अपनी जीविका पूँजीके व्यावहारिक प्रयोगसे अर्जन करते हैं।’ (लेनिन)
‘हर प्रथा या क्रियाके आन्तरिक विरोधोंके रूप और गुण भिन्न होते हैं। सर्वहाराके अधिनायकत्वमें राष्ट्रका लोप भी विरोधका उदाहरण है, पर यही वर्ग-संघर्षके अन्तका कारण बन जाता है और इस प्रकार राष्ट्रका लोप होता है। आपेक्षिक और पूर्ण सत्य भी विरोधका उदाहरण है। विशिष्ट और व्यापकके सम्बन्धमें अन्त:प्रवेश भी विरोधका एक उदाहरण है। व्यापक (साधारण)-के सम्बन्धसे विच्छिन्न होकर विशिष्टका कोई अस्तित्व नहीं है और विशिष्टोंसे ही व्यापकका अस्तित्व है। प्रत्येक व्यापकरूप केवल करीब-करीब ही सब विशिष्ट वस्तुओंको अपनी व्यापकतामें ला सकता है और प्रत्येक विशिष्ट वस्तु कुछ-न-कुछ व्यापक रूप ग्रहण करती है।’


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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