9.10 पाप-पुण्य और शोषण
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘प्रबल मनुष्य दुर्बल मनुष्योंको अपनी गुलामीमें जकड़े रखनेके लिये ही अपनी शक्तियोंका प्रयोग करता था और तदर्थ ही उसने अनेक सिद्धान्त बनाये। बहुतोंने निर्बलोंको सन्तोषका पाठ पढ़ाया और साधन-सम्पन्नोंको भी दया, सहानुभूति एवं त्यागका उपदेश किया; इस जीवनमें एवं मृत्युके बाद दूसरे जीवनमें सुखादि लानेका विश्वास दिलाया। व्यक्तियोंको समझाया गया कि ‘ये गुण व्यक्तिगत पूर्णताके लक्षण हैं और ऐहलौकिक-पारलौकिक सुखके साधक हैं। इन सभी उपदेशोंकी तहमें शान्ति एवं व्यवस्थाकी इच्छा और उद्देश्य ही मुख्य है।’ उनके मतानुसार ‘इसी इच्छाने धर्मको जन्म दिया है। फिर भी समाजके भीतर आनेवाली असमानताके कारण असन्तोष एवं अशान्तिकी सम्भावना बनी ही रहती है। इसीलिये समाजहितैषियोंने सदा ही असमानता दूर करने और समानता लानेका प्रयत्न किया। सभी सन्तों एवं धर्मोंने समानताका गुण गाया है।’
उपर्युक्त कथनका सार यह है कि वस्तुत: धर्म, सन्तोष, दया, त्याग, सहानुभूति वास्तवमें कोई महत्त्वकी चीज नहीं। केवल शोषकोंके कुछ पिट्ठुओंने शोषितोंके आँसू पोंछने, उन्हें शान्त रखने, विद्रोह न करनेके लिये ही इन सबको गढ़ रखा है। चार्वाकोंने भी धर्मके सम्बन्धमें ऐसी ही उलटी सीधी कल्पना की है। वस्तुत: महात्मा, आप्तकाम, परम विरक्त महर्षियोंने परम सूक्ष्म ऋतम्भरादृष्टिसे अपौरुषेय वेदादिशास्त्रोंके आधारपर कर्मका निर्णय किया है। श्रीकृष्ण एवं शंकराचार्य-जैसे तार्किकों, दार्शनिकोंने जिसका पूर्णरूपसे समर्थन किया है, भौतिकवादियोंकी बहिर्मुख दृष्टिमें वह समझमें न आये, तो क्या आश्चर्य? सृष्टिमें ही सत्त्व, रज, तम तीनों गुणोंका क्रमेण अभिभव-उद्भव होता रहता है। फलस्वरूप दैवी, आसुरी शक्तियाँ देश विदेशमें समय-समयपर उद्भूत होती रहीं। दैवी शक्तिके लोग आत्मा, ईश्वर, शास्त्र तथा धर्म लेकर चलते थे और दूसरे उसके विरुद्ध। हिरण्यकशिपुने भी जैसी विधिकी व्यवस्था थी, उससे विपरीत व्यवस्था बनानेकी प्रतिज्ञा की। ‘अन्यथेदं विधास्येऽहमयथापूर्वमोजसा॥’ जर्मनीमें हीगेल, एडवर्ड आदि विचारकोंने भी इस सम्बन्धमें अपना मत व्यक्त किया है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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