9.9 सामाजिक व्यवस्था
कम्युनिष्ट यह मानते हैं कि ‘मनुष्य जिस किसी भी अवस्थामें रहा हो, उसके समक्ष कुछ सिद्धान्त, नियम एवं आदर्श रहे हैं’ परंतु उनके मतानुसार ‘समाजकी अवस्था बदलनेके साथ उनके सिद्धान्तों, नियमों एवं आदर्शोंमें भी परिवर्तन होता रहता है।’ उनकी इस मान्यताका मूल कारण यही है कि ‘सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, विश्वस्रष्टा ईश्वर उनकी समझमें आता ही नहीं।’ अतएव सर्वदेश-कालके अनुसार निर्धारित शाश्वत सिद्धान्तों, सत्यों एवं नियमोंपर उनका विश्वास नहीं जमता। सबसे बड़ा दोष तो यह है कि ‘वे परिस्थिति-परतन्त्र मनुष्योंकी परिस्थित्यनुसारिणी विचार-धाराओंको ही दर्शनोंका स्रोत मानते हैं, जो एक प्रामाणिककी दृष्टिमें अत्यन्त हेय एवं नगण्य है।’ वे कहते हैं कि ‘विचारोंके जीवनकी बदलती हुई परिस्थितियाँ ही विभिन्न विचारधाराएँ उत्पन्न करती हैं। किसी विशिष्ट समयकी विशिष्ट परिस्थितियोंमें जीवनका विकास होनेसे विचारकोंके संस्कार एवं विचारधाराएँ एक विशिष्ट मार्गपर ढल जाती हैं। वे तदनुसार ही सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवनके उद्देश्य एवं आदर्श निश्चित करनेका प्रयत्न करते हैं।’ उनके मतानुसार ‘सुकरात, अरस्तू, अफलातून आदि दार्शनिकोंने भी अपनी जीवनस्थितिके अनुसार ही अपने विचार व्यक्त किये।’
इन बातोंसे यह स्पष्ट है कि इन विचारकोंने प्रमाणके आधारपर तत्त्वकी दृष्टिसे किसी सत्यवस्तुका विचार नहीं किया। मार्क्सकी भी यही हालत थी, वह भी गरीबोंकी श्रेणीमें उत्पन्न हुआ था। अत: उसे भी अपनी परिस्थितिके अनुसार ही विचार करना पड़ा। इससे स्पष्ट है कि इन किन्हीं भी विचारोंका वस्तुस्थितिसे कोई सम्बन्ध नहीं। किंतु भारतीय दर्शनोंकी स्थिति ऐसी नहीं। यहाँ तत्त्वके सम्बन्धमें परिस्थितिका प्रभाव रोककर भी प्रमाणके बलसे काम लिया जाता है। प्रामाणिक निर्णय अमीर-गरीब, सुखी-दुखी, सम्पन्न-विपन्न, नौकर-मालिक-सबका एक-सा ही रहता है। आलोकसहकृत मन:संयुक्त निर्दोष चक्षुद्वारा सभी लोग रूपवान् पदार्थके सम्बन्धमें एकमत ही होंगे। उसी प्रकार निर्दोष श्रोत्रादिसे शब्दादि ज्ञान भी सबको एक-से ही होंगे। इस सम्बन्धमें परिस्थिति अकिंचित्कर ही रहेगी। इसीलिये शुक-जैसे महाविरक्त, वसिष्ठ-जैसे महान् श्रोत्रिय एवं राम-जैसे सम्राट् आदिकोंके धर्म, दर्शन आदिके सम्बन्धमें एक ही ढंगके विचार थे। उनके तत्त्व-निर्णयपर परिस्थितियों या सम्पत्ति-विपत्ति आदिका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता था।
कम्युनिष्ट कहते हैं कि ‘मनुष्य सर्वज्ञ परमेश्वर एवं शास्त्रोंके अनुसार होनेवाली सामाजिक व्यवस्थापर सन्तुष्ट नहीं होता। अपनी व्यवस्थामें उसे त्रुटियाँ मालूम पड़ती हैं; वह उनमें परिवर्तनकर फिर आगे बढ़ता है। पुनश्च उनमें आनेवाली रुकावटोंका अनुभवकर उसमें रद्दोबदल करता है। इस प्रकारके परिवर्तनोंसे ही विकास होता है।’ परंतु अल्पज्ञ मनुष्यकी बनायी हुई व्यवस्थासे कभी भी शान्तिकी आशा नहीं की जा सकती। मार्क्सवादी अपनी व्यवस्थाको ‘अन्तिम व्यवस्था’ कहते हैं। मजदूरों-पूँजीपतियोंके संघर्षको ही वे संघर्षकी अन्तिम कड़ी कहते हैं, परंतु विकास-क्रममें इसे भी अन्तिम कैसे कहा जा सकता है? वस्तुत: जैसे समय-समयपर असत्य-अधर्मके विस्तारसे सत्य एवं धर्म भी कुछ समयके लिये दब जाता है, तथापि अन्तमें सत्य और धर्मकी ही विजय होती है, वैसे ही ईश्वरीय व्यवस्था भी जो सर्वज्ञद्वारा सर्वदेश-काल एवं सर्वहितकी दृष्टिसे निर्धारित की गयी है, कभी-कभी दब-सी जाती है। पर अन्तमें उसीकी विजय एवं स्थिरता रहती है। अल्पज्ञोंद्वारा निर्धारित व्यवस्था थोड़े ही दिनोंमें दोषपूर्ण प्रतीत होने लगती है। अत: उसमें परिवर्तन आवश्यक प्रतीत होता है। इस तरह कोई भी मनुष्य मार्क्सके समान ही अपनी व्यवस्थाको ही सर्वोत्कृष्ट एवं अन्तिम समझता है,परंतु उससे भी उत्तम योजना लेकर दूसरे भी सामने आ ही जाते हैं। कई तार्किक बड़े-बड़े प्रयत्नसे दिव्य तर्कोंद्वारा कोई व्यवस्था उपस्थित करते हैं, पुनश्च उससे भी अच्छा तर्क लेकर दूसरे महाशय सामने आ जाते हैं।
यत्नेनानुमितोऽप्यर्थ: कुशलैरनुमातृभि:।
अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते॥
(ब्रह्म० शां० भा० १।१।१)
पर ईश्वरीय व्यवस्था हजारों नहीं लाखों वर्षोंसे सफल होती हुई चली आ रही है। संसारकी सभी सरकारोंने उसे मान्यता भी दी है। प्राय: सभी सरकारोंने व्यक्तियों एवं जातियोंकी धार्मिक स्वाधीनता एवं दायभाग आदिके सम्बन्धमें धार्मिक व्यवस्थाओंको स्वीकृत किया है। धर्म-नियन्त्रित मनुष्य सदा ही एक-दूसरेका पोषक रहा। उच्छृंखल होते ही उसमें ‘मात्स्यन्याय’ फैलता और वह एक-दूसरेका शोषक बन जाता है। उसी अवस्थामें प्रबल दुर्बलका घातक बनता है; धनवान्, शक्तिमान् निर्धन एवं शक्तिहीनका शोषक या भक्षक बन जाता है। जीवरूपसे सब समान होते हुए भी एक जीव दूसरे जीवोंको अपने उपयोगमें लाता है। उसी तरह मनुष्यताके नाते सब समान होनेपर भी एकका दूसरेके उपयोगमें आना पहले भी और आज भी अनिवार्य ही है। अंगांगिभाव, शेष-शेषिभावको उपकार्योपकारकरूपसे आदरणीय बना लिया जा सकता है। जैसे बेगार पहले कुछ शूद्रोंसे ही ली जाती थी, आज श्रमदानके रूपमें वही बेगार बड़े-से-बड़े लोगोंसे भी ली जा रही है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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