10.2 पातिव्रत-धर्म
मार्क्सके अनुसार ‘पातिव्रत-धर्म’ केवल व्यक्तिगत सम्पत्तिके आधारपर ही बना है। व्यक्तिगत सम्पत्तिके आधारपर बना हुआ समाज तहस-नहस न हो जाय, इसीलिये एक ही पुरुषके साथ सम्बन्ध रखनेके लिये स्त्रीको समझा-बुझाकर राजी किया गया। तदनुसार ही धर्म, नीति, रिवाज गढ़े गये। स्त्रीकी स्वतन्त्रतासे धर्म और भगवान्के नाराज होनेका डर दिखलाया गया। ठीक ही है; जडवादी मार्क्ससे इसके सिवा और अधिककी आशा भी क्या की जा सकती थी? जिसकी दृष्टिमें विश्वका कारण सर्वज्ञ ईश्वर ही नहीं जँचता, जो भूत-प्रेतकी कल्पनाको ही परिष्कृतरूपमें ईश्वर-कल्पना समझता है, जिसके अनुसार धर्म-कल्पना भीरु मस्तिष्कका फितूरमात्र है, वह सीता, सावित्री आदिके परम गम्भीर पातिव्रतधर्मको कैसे समझ सकता था? अनसूयाद्वारा ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रको पातिव्रतबलसे तीन महीनेके बालक बनाया जाना, सावित्रीका यमराजसे अपने मृत पतिको पुन: प्राप्त कर लेना, शाण्डिलीका सूर्यनारायणके उदयपर प्रतिबन्ध लगा देना आदि मार्क्सवादकी दृष्टिसे कोरी कल्पनाएँ ही ठहरेंगी। आश्चर्य है कि परम सत्य आर्ष इतिहास मार्क्सवादियोंकी दृष्टिमें झूठे हैं, परंतु निराधार बन्दरसे मनुष्य उत्पन्न होनेका विकासवादी इतिहास सत्य है। भारतमें अभी-अभी हालहीमें सौ-पचास वर्षोंके भीतर सैकड़ों सतियाँ हुई हैं। वे हँसती-हँसती चितापर अपने पतिके साथ परलोक चली गयीं। उत्तरप्रदेश तथा राजस्थानमें तो कई सतियाँ बिना अग्निके ही अपने शरीरसे दिव्याग्नि प्रकट करके सती हुई हैं। चित्तौड़गढ़की पद्मिनी आदिके ऐतिहासिक सतीत्वसे कोई समझदार व्यक्ति आँख नहीं मूँद सकता। मार्क्सवादी सिवा अनर्गल प्रलापके इन बातोंका क्या उत्तर दे सकते हैं? स्पष्ट है कि जिन्हें धर्म, सभ्यता, संस्कृति, पातिव्रत मान्य है, ऐसे स्त्री-पुरुषोंके लिये मार्क्सवाद धर्म एवं मानवताका शत्रु ही है।
मार्क्सवादकी दृष्टिसे व्यक्तिगत सम्पत्ति तथा उत्तराधिकारका सम्बन्ध तो अब समाप्त हो गया; क्योंकि मार्क्सवादी दृष्टिकोणसे भूमि एवं सम्पत्तिका उत्तराधिकार-नियम समाप्त करके सबका राष्ट्रियकरण या समाजीकरण होना ही उचित है। जब व्यक्तिगत सम्पत्ति तथा उत्तराधिकारकी प्रथा समाप्त हुई, तब फिर तदर्थ स्त्रीका एक पुरुषसे सम्बन्धवाला नियम क्यों रहेगा? सम्बन्धित पतिके मरनेके बाद ही नहीं, अपितु एक साथ ही स्त्री यदि सैकड़ों पुरुषोंसे सम्बन्ध रखे तो भी कोई आपत्ति नहीं। जैसे एक पानीभरी बाल्टीसे अनेक व्यक्ति प्यास बुझा सकते हैं, वैसे ही एक स्त्रीसे भी यदि असंख्य पुरुष प्यास बुझा लें तो भी कोई हर्ज नहीं है। लेनिनके शब्दोंमें ‘गन्दी नालीके जलसे प्यास बुझाना ठीक नहीं; किंतु जैसे स्वास्थ्यकर, तृप्तिकर स्वच्छ जलसे ही प्यास बुझाना उचित है, वैसे ही तृप्तिकर, स्वास्थ्यवर्द्धक स्त्री-पुरुष-सम्बन्धमें कोई भी हानि नहीं है और अब तो गर्भपात करानेकी स्वाधीनता भी रूसमें मिल गयी है। ‘पुरुष-समाजके हाथमें ही धर्म, नीति, रिवाज सब कुछ था, इसलिये पुरुषने स्त्रीको स्वाधीन बनानेका प्रयत्न किया, मार्क्सवादियोंका यह कथन भी दुरभिसंधिपूर्ण है। मार्क्सवादी अधिकार पाकर जैसे दूसरोंको सदाके लिये कुचल देना चाहते हैं, महर्षियों तथा ईश्वरके सम्बन्धमें भी उनकी वैसी ही धारणा होती है। उनके मस्तिष्कमें अब्भक्ष, वायुभक्ष, परम निष्काम लोककल्याणपरायण महर्षियोंमें भी पक्षपात ही प्रतीत होता है, परंतु मार्क्सवादियोंकी यह धारणा संगत नहीं है। धर्मबुद्धिसे शिष्य जैसे स्वेच्छापूर्वक गुरुका अनुसरण (दास्य) करनेमें लज्जित नहीं होता, पुत्र जैसे माता-पिताका दास्य करनेमें नहीं हिचकता, वैसे ही स्त्री भी अपने पति एवं सास-ससुरका दास्य या सेवन एवं अनुसरण करनेमें लज्जित नहीं होती। जबतक धर्मबुद्धि रहेगी, वहाँ यह भाव भी पहलेके समान ही जारी रहेगा। इसपर सम्पत्ति-विपत्तिका असर नहीं पड़ता है, बल्कि आपत्तिकालमें तो धीरज, धर्म, मित्र एवं नारीकी विशेषरूपसे परीक्षा होती है—‘धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥’ रामराज्य-जैसी धन-सम्पदा, ऐश्वर्य-वैभवमें भी स्त्री-पुरुष अपने पूज्यों, गुरुजनोंके प्रति दास्यभाव ही रखते थे—‘दासवत् सन्नतार्याङ्घ्रि:’ (भागवत ७।४।३२)। प्रह्लाद गुरुजनोंके चरणोंमें सदा दासतुल्य विनत रहते थे। धन एवं सम्पत्तिकी वृद्धि खलोंको ही घमण्डी एवं उद्दण्ड बनाती है, सत्पुरुषोंको नहीं। इसीलिये औद्योगिक समृद्धिके युगमें भी सन्नारियोंके शीलस्वभावमें कोई अन्तर नहीं पड़ा। प्राचीनकालमें भी असत् स्त्री-पुरुष होते ही थे, वे उस कालमें भी उद्दण्ड ही थे, कोई किसीके नियन्त्रणमें नहीं रहता था। वैयक्तिक सम्पत्ति एवं नर-नारीके धर्ममूलक सम्बन्ध शाश्वतिक हैं। जडवाद एवं नास्तिकताके प्रचारसे कुछ थोड़ा-बहुत ह्रास होना सम्भव है; फिर भी इनका मिट सकना सम्भव नहीं। पुरुषकी अपेक्षा भी नारी-जाति श्रद्धालु है। वह अपने पतिसे भिन्न पुरुषको भ्राता, पिता, पुत्रकी ही दृष्टिसे देखना उचित समझती है, धर्महीन मनमाने यौन-सम्बन्धको वह पाप ही समझती है।’
वेदोंकी नीतिमें तो मुख्य विशेषता ही यह थी कि देशमें कोई स्वैरी पुरुष भी नहीं होता था, फिर स्वैरिणी स्त्रीका तो होना सम्भव ही कैसे था—‘न स्वैरी स्वैरिणी कुत:’ (छान्दो० ५।११।५)। स्त्री सर्वदा ही लज्जाशील होती है, वह कभी भी अभियोक्त्री नहीं होती। वेश्या भी अभियुक्ता होनेमें ही सुखका अनुभव करती है। पुरुष ही स्वैरी होकर स्त्रीको स्वैरिणी बनाता है। जहाँ पुरुष स्वैरी न होगा, वहाँ स्त्री भी स्वैरिणी नहीं हो सकती। स्त्री पुरुषकी हृदयेश्वरी है, प्राणेश्वरी है, आत्मा है, सब कुछ है। उसके हिस्से एवं अधिकारकी बात जडवादी नास्तिकोंके द्वारा ही उठायी जाती है। स्त्रीको पुरुषके बराबर बनानेका प्रयत्न करना उसका अपमान करना है, उसको हजारगुना नीचे उतारना है। शास्त्रोंने पितासे सहस्रगुना अधिक माताका सम्मान करना बतलाया है—‘सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते।’ (मनु० २।१४५) धार्मिक दृष्टिसे चतुर्थाश्रमी यति सर्ववन्द्य है। गृहस्थ पिता भी पुत्र संन्यासीका वन्दन करता है, परंतु उस संन्यासीको धर्मानुसार मातृवन्दन विहित है—‘सर्ववन्द्येन यतिना प्रसूर्वन्द्या प्रयत्नत:।’ (स्क० पु०, काशी० ११।५०) इस तरह माताको कुछ अधिकार प्रदान करना, क्या उसके सर्वाधिकारको सीमित करना नहीं है? किसी भी उपासना एवं साधनामें शिष्यको जैसे अपनी आत्मा गुरुकी आत्मामें मिलानी पड़ती है, गुरुकी इच्छामें शिष्यको अपनी इच्छा विलीन कर देनी पड़ती है, वैसे ही पत्नीको अपनी आत्मा, अपनी इच्छा पतिकी आत्मा तथा इच्छामें मिलानी पड़ती है। पतिद्वारा किये हुए सत्कर्मों तथा आराधनाओंमें पत्नीका भाग रहता है। पाश्चात्य राजतन्त्रने जडवादकी धुनमें ईश्वर एवं धर्मसे नाता तोड़ लिया, फिर पूँजीपतियोंने राजतन्त्रको भी समाप्त कर दिया। जहाँ ईश्वर एवं धर्मका राजतन्त्रपर नियन्त्रण नहीं, वहाँ सामाजिक बन्धनोंका ढीला पड़ना स्वाभाविक है।
पाश्चात्य शिक्षाका प्रभाव भारतपर अवश्य ही पड़ रहा है। इतना ही क्यों, भारतकी परिस्थिति तो अन्य देशोंकी अपेक्षा भी बदतर होती जा रही है। सर्वप्रथम औद्योगिक विकास जिस इंग्लैण्डमें हुआ था, वहाँके सर्वप्रथम एवं सर्वोत्कृष्ट नागरिक राज्य-सिंहासनाधीश तथा उसके परिवारके सिंहासन-सम्बन्धित व्यक्तियोंके लिये अभी भी पर्याप्त धार्मिक नियन्त्रण अधिक है। उन्हें तलाक देनेवाले स्त्री-पुरुषके साथ शादी करनेकी मनाही है। तलाक दी हुई स्त्रीके साथ शादी करनेके लिये अष्टम एडवर्डको राजगद्दी छोड़नी पड़ी। इसी प्रकार ब्रिटेनकी रानीकी बहन कुमारी मार्गरेटको धार्मिक नियन्त्रणके कारण अपने प्रेमीसे शादीका निश्चय छोड़ना पड़ा। वहाँ ‘बाइबिल’ के अनुसार पति-पत्नीका सम्बन्ध-विच्छेद ईश्वरीय नियमके विरुद्ध एवं पाप कहा गया है, परंतु जडवादसे प्रभावित, समाजवादका अन्धानुकरण करनेवाली भारतसरकार तलाकका नियम बनाकर स्त्रियोंको स्वाधीन करनेके नामपर उनका सर्वनाश कर रही है। घटना अवश्य समाजवादियोंके अनुसार घट रही है, परंतु यह घटना कॉलरा और प्लेगके समान अनिष्ट ही है, इष्ट नहीं। मार्क्सवादी-वर्णित स्त्रीसमाजकी दुर्दशाका मूल कारण धर्मविमुखता ही है, इसीसे बरक्कतमें भी कमी हुई। पहले घरमें एक व्यक्ति कमाता था, उससे घरभरका काम चलता था। आज पुरुष कमाता है, स्त्री कमाती है और बच्चे भी कमाते हैं, तब भी परिवारका पेट नहीं भरता। प्राचीन कालमें यथोचित वयमें कन्याओंका विवाह हो जाता था, स्त्रीको अनाथकी तरह भटकनेकी नौबत नहीं आती थी। अविवाहित दशामें प्रसवकालका, अनाथ-अवस्थाका उसे कोई अनुभव नहीं करना पड़ता था। मार्क्सवादी उत्तरोत्तर प्रगतिकी कल्पनाका स्वप्न देख रहे हैं, परंतु स्थिति यह दिखायी देती है कि समाजका उत्तरोत्तर अधिक पतन होता जा रहा है। स्त्रीसमाजकी दीनदशा उत्तरोत्तर बढ़ रही है। स्वतन्त्रताके नामपर तलाक-प्रथाके विस्तार होनेका परिणाम भीषण होगा। अल्पवयस्क लड़की भले ही तलाक देकर अपनी दूसरी शादी कर पाये, परंतु वही जब चार बच्चोंकी माँ हो चुकी होगी, उसका यौवन ढल गया होगा और सुन्दरता समाप्त हो गयी होगी, तब उसे यदि तलाक मिल गया तो उस अवस्थामें उसकी पुन: शादी होनी मुश्किल हो जायगी। उस दशामें वह औरत क्या स्वयं खायेगी और क्या बच्चोंको खिलायेगी? उस समय वह खूनके आँसू बहाती हुई भारतको नरककुण्ड बनायेगी।
धर्महीन क्या पूँजीवाद, क्या समाजवाद, सर्वत्र ही स्त्री-समाजकी दुर्गति ध्रुव है। रामराज्य-प्रणालीमें बाल्यावस्थामें ही लड़कियोंकी शादी हो जायगी। प्रत्येक कुटुम्ब एवं नागरिककी बेकारी, बेरोजगारी दूर करके सबका ही जीवनस्तर उन्नत बनाया जायगा। रामराज्यके अनुसार स्त्रियाँ गृह-लक्ष्मी, घरकी रानी होंगी, उन्हें नौकरानी बननेकी आवश्यकता ही न रहेगी। पुरुषोंका काम घरके बाहर होगा और स्त्रियोंका काम घरके भीतर। वैसे किसी खास अवसरपर उनकी बाहर आवश्यकता अपवादरूपमें ही होगी। सीता सदा गृहके भीतर रहती हुई भी शतमुख रावणका दर्प-दलन करनेके लिये रणचण्डीका रूप धारणकर पुष्करद्वीप गयी थी। (अद्भु० रामा० १७।२४) इसी कोटिका हाडी और झाँसीकी रानी आदिका उदाहरण है। विवाहकर परिवार-पालन करनेके उदात्त कर्तव्यको झगड़ा या झंझट समझनेकी प्रवृत्ति जडवादी उच्छृंखलपंथियोंकी ही प्रेरणा है। स्त्री और पुरुष सभी यदि नौकर-नौकरानी बनेंगे, तो उनकी संतानें भी अवश्य ही नौकर-मनोवृत्तिकी ही बनेंगी। माताका दुग्ध न पाकर, जननीका लाड़-प्यार, लालन-पालन न पाकर; डिब्बोंके दूध पीनेवाले बच्चे निम्न श्रेणीके ही होंगे। माता-पिताका भी बच्चोंमें कोई प्रेम न होगा, बच्चोंका भी माँ-बापके प्रति कुछ आकर्षण—अनुराग न होगा। पति-पत्नीका भी परस्पर स्थायी प्रेम न होनेसे किसी भी सम्बन्धकी स्थिरता न होगी। सभी सम्बन्ध वासना-तृप्ति और पैसेके कारण होंगे। विवाह और तलाककी अबाध परम्परा चलती ही रहेगी।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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