10.3 अर्थमूलक समाजमें सामाजिक सम्बन्ध
मार्क्सवादी सभी सम्बन्धोंकी धार्मिकता एवं परम्परामूलकताका नष्ट हो जाना आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टिमें ‘सब सम्बन्ध जब अर्थमूलक हो जायँगे, तब पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहन, शिक्षक-शिष्यका अर्थमूलक सीधा संघर्ष हो सकेगा। किसी परम्पराकी ओटमें संघर्षके कारणको छिपाया न जा सकेगा। सीधा संघर्ष क्रान्तिके अनुकूल ही होगा’, परंतु जिन्हें कुटुम्ब, समाज, धर्म, कर्म, सभ्यता, संस्कृति, भक्ति, प्रेम एवं आध्यात्मिक उन्नति अभीष्ट है, उनके लिये तो ये बातें गुण नहीं, अपितु कॉलरा एवं प्लेगके समान एक रोग ही होंगी। रामराज्य-प्रणालीमें स्त्रियोंकी यह दुर्दशा किसीको स्वप्नमें भी नहीं देखनी पड़ेगी। जैसे लता, वल्लरी आदि वृक्षाश्रित रहकर ही पनपती, फलती-फूलती हैं, उन्हें यदि अपने ही पैरों खड़ा करनेका प्रयत्न किया जाय तो भी वे वृक्षके समान सीधी खड़ी नहीं हो सकती हैं, पृथ्वीपर ही वे फैलती हैं और फिर उन्हें शतश: पादप्रहारकी भागिनी बनना पड़ता है, वैसी ही स्त्रियोंकी भी स्थिति है। उन्हें स्वतन्त्रताका पाठ पढ़ाकर ही पाश्चात्य जगत्ने भीषण दुर्दशातक पहुँचा दिया है।
यह तो सभीको मानना पड़ता है कि अनेक अंशोंमें स्त्रीसमाज तथा पुरुषसमाजमें समानता होते हुए भी अनेक अंशोंमें भिन्नता भी है। स्त्रियोंमें जितनी कोमलता, सुन्दरता और विश्रान्तहेतुता है, उतनी पुरुषोंमें नहीं है। वह गर्भ-धारण करती है और शिशुका पालन-पोषण करती है, अत: उसे पुरुषका आश्रय अपेक्षित है। बुद्धि एवं मस्तिष्ककी विचक्षणता होते हुए भी उसमें श्रद्धा एवं भक्तिका भी अंश अधिक होता है। पुरुषके कठोर, परिश्रमपूर्ण एवं रूक्ष जीवनको इसीसे सरसता मिलती है। प्राचीन दार्शनिकोंका तो मत है कि जैसे अग्नि एवं दाहिकाशक्ति, जल एवं शीतलता, दुग्ध एवं उसकी स्वच्छता, बीज एवं उसकी अंकुरोत्पादिनी शक्तिका अविच्छेद्य सम्बन्ध है, वैसे ही पति-पत्नीका भी अविच्छेद्य सम्बन्ध है। शक्ति आधेय है और शक्तिमान् आधार। शक्तिके बिना शक्तिमान् अकिंचित्कर है। शिव जब शक्तिसे समन्वित होता है, तभी संसारका उत्पादन, पालन, संहरण कर सकता है, अन्यथा शक्तिके बिना देव शिव हिल-डुल भी नहीं सकता—‘शिव: शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्त: प्रभवितुम्। न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि॥’ (सौन्दर्यल० १) विश्व-निर्माण जैसे महाकार्यनिर्माणकी बात तो दूर रही, शक्तिमान्से शक्तिके पृथक् करनेसे दोनोंकी ही दुर्गति होती है। इसीलिये भारतीय सभ्यतामें शक्तिसहित ही शक्तिमान्की आराधना होती है। अतएव मन्दिरोंमें गौरी-शंकर, लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम, राधा-कृष्ण, शक्ति-शक्तिमान् दोनोंकी आराधना चलती है। अभ्यर्हित होनेसे, पिताकी अपेक्षा भी माताके सहस्रगुणित अधिक पूज्य होनेके कारण ही नाममें पहले गौरी और पीछे शंकरका, पहले लक्ष्मी और पश्चात् नारायणका, प्रथम सीता एवं राधाका तथा पश्चात् राम और कृष्णका उच्चारण होता है। राष्ट्ररूपी मन्दिरमें भी लक्ष्मीस्थानीय नीतिके सहित ही नारायणस्थानीय धर्मका सम्मान श्रेयस्कर होता है। धर्महीन नीति विधवा-तुल्य और नीतिहीन धर्म विधुर-तुल्य माना जाता है। व्यष्टिरूपमें दस वर्षपर्यन्तकी कुमारी नव-दुर्गारूपमें और सुवासिनी साक्षात् भगवतीके रूपमें पूजित होती है। साक्षात् परमेश्वर ही जैसे शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि रूपमें पूजित होता है, वैसे ही शक्तिप्रधान परमेश्वर ही दुर्गा, लक्ष्मी, सीता, राधा आदिके रूपमें पूजित होता है। अधार्मिक, जडवादी लोग ही स्त्रीको केवल भोगकी सामग्री समझकर उसका अपमान करते हैं और उसे विपज्जालमें डालते हैं तथा उसी पापके कारण वे स्वयं भी सर्वनाशके गर्तमें निपतित होते हैं।
स्वतन्त्रता, आत्मनिर्णयका अधिकार आदि मोहक नामोंसे स्त्रियोंको बरगलाकर अपना शिकार बनाना और उन्हें मजदूरी या वेश्यावृत्ति करनेके लिये निराश्रय एवं असहाय छोड़ देना उनके साथ घोर अन्याय करना है। पुरुष जब सहर्ष अपनी कमाई स्त्रियोंको खर्च करनेके लिये समर्पण करता है, तब उन्हें कमानेके काममें लगानेका अर्थ ही क्या है? इसके अतिरिक्त गृहका कार्य भी कुछ कम नहीं है। यदि गृहिणी सुप्रबन्ध करनेवाली गृहलक्ष्मी न हो तो पुरुषके लाखों कमानेपर भी घरमें बरक्कत नहीं होती। मानव-जीवन और गृहको सरस एवं मांगलिक बनानेवाली स्त्रीके सिरपर कमानेका भार न होना ही अच्छा है। स्त्रीद्वारा उत्पादित रामचन्द्र, हरिश्चन्द्र, प्रह्लाद, ध्रुव, शिबि, दिलीप, भगीरथ-जैसी एक भी संतान समष्टि-व्यष्टि जगत्के लोक-परलोकका जीवन मांगलिक एवं समुन्नत बना सकती है। उपयोगितावादी स्मिथ तो धर्म, संस्कृति, प्रेम, सौन्दर्य, कला, क्षमा, दया, त्याग आदि सभी उदात्त गुणोंमें उपयोगिता ही ढूँढ़ता है। लोककल्याणार्थ अपने प्राणतकको बलिदान कर देनेमें स्मिथको कुछ भी उपयोगिता नहीं दिखायी दे सकती, परंतु क्या इतनेसे ही यह त्याग व्यर्थ कहा जा सकता है? संसारमें उपयोगिता ही सब कुछ नहीं है। माता, भगिनी, पुत्री, पत्नीका महत्त्व उपयोगिताकी कसौटीपर नहीं परखा जा सकता।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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