6.10 संघटनकी कुंजी ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.10 संघटनकी कुंजी यह तो हुई विघटनकी बात। अब जहाँ ‘सङ्घे शक्ति: कलौ युगे’ की बात आजकल बहुत होती है, वहाँ भी संघटनकी योजनाएँ कैसे सफल हों, इस विषयमें सभी परेशान हैं। वास्तवमें जो संघटनपर रातों-दिन व्याख्यान दे और लेख लिख रहे हैं, जो स्वयं प्रान्त, समाज, राष्ट्रके संघटनपर जमीन-आसमानके कुलाबे एक किया करते हैं,… Continue reading 6.10 संघटनकी कुंजी ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.7 वर्ग-विद्वेष ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.7 वर्ग-विद्वेष कहा जाता है कि ‘जिन प्राचीन हब्शी-भिल्ल आदि जंगली जातियोंमें प्राचीनकालके अनुसार जीवन व्यतीत होता है, उनमें व्यक्तिगत सम्पत्तिका अभाव है अथवा उन्नति नहीं हुई। उनमें न वर्ग-भेद है, न किसी वर्ग-विशेषका अधिकार है—न वर्ग-विरोध है। गाँवके मुखिया, पण्डित, पंच, प्रचलित रीतियों, धार्मिक अनुष्ठानोंका पालन कराते हैं, परंतु व्यापारकी वृद्धि और युद्धोंके फलस्वरूप… Continue reading 6.7 वर्ग-विद्वेष ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.21 संघवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.21 संघवाद १९वीं सदीके अन्तमें फ्रांसीसी संघवाद भी मार्क्सवाद एवं अराजकतावादके आधापर ही बना है। इसका भी अनेक देशोंपर प्रभाव फैला। कोकरके कथनानुसार यह राज्य-विरोधी, देशभक्ति-विरोधी, सैन्यवाद-विरोधी, राजनीतिक-दल-विरोधी, संसद्-विरोधी, मध्यमवर्ग-विरोधी और सोवियतवाद-विरोधी भी है। उस समयके वोलेञ्जर, ग्रेवी-विल्सन, पनामा आदि अनेक भ्रष्टाचारकाण्ड इसके कारण थे। लेवीनके मतानुसार जिस शासनमें नागरिक स्वयं निर्माण करे, वही वास्तविक… Continue reading 3.21 संघवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

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