6.7 वर्ग-विद्वेष ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.7 वर्ग-विद्वेष

कहा जाता है कि ‘जिन प्राचीन हब्शी-भिल्ल आदि जंगली जातियोंमें प्राचीनकालके अनुसार जीवन व्यतीत होता है, उनमें व्यक्तिगत सम्पत्तिका अभाव है अथवा उन्नति नहीं हुई। उनमें न वर्ग-भेद है, न किसी वर्ग-विशेषका अधिकार है—न वर्ग-विरोध है। गाँवके मुखिया, पण्डित, पंच, प्रचलित रीतियों, धार्मिक अनुष्ठानोंका पालन कराते हैं, परंतु व्यापारकी वृद्धि और युद्धोंके फलस्वरूप जब प्राचीन व्यवस्थाका लोप हो जाता है, व्यक्तिगत सम्पत्ति बढ़ने लगती है, तभी उन लोगोंमें वर्गभेद उत्पन्न होता है। कुछके पास सम्पत्ति होती है, कुछके पास नहीं होती। सम्पत्तिवाला वर्ग शासन चलाता है, कानून बनाता है, नवीन प्रथाओं और संस्थाओंकी सृष्टि करता है। इन सब कामोंका उद्देश्य होता है, उस अधिकारी वर्गके हितों और स्वार्थोंकी रक्षा करना। उस वर्गके समाजकी विचारधारा उसके ही हितों एवं स्वार्थोंके अनुकूल बहने लगती है। जबतक ये स्वार्थ कुछ अंशोंमें सर्वसाधारणकी भलाईके अनुकूल होते हैं, जबतक उत्पादक शक्तियों एवं उत्पादन प्रणालीमें बहुत अधिक विरोध पैदा नहीं हो जाता, तबतक विभिन्न वर्गों एवं समूहोंमें समझौता या सुलह बनी रहती है। जब उत्पादक शक्तियों एवं उत्पादन-प्रणालीमें भेद या विरोध बढ़ जाता है, उस प्रणालीसे अधीन वर्गकी आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो सकतीं, तब वर्गकलह आरम्भ हो जाता है। फिर या तो उस समय कानूनी समझौता, शासनसुधार होता है अथवा उस समाजका विनाश होता है और नवीन सामाजिक प्रणालीका आविर्भाव होता है। यहूदी, यूनानी, रोमन आदि लोगोंका इतिहास ही इसका उदाहरण है। इस तरह अमीरों, गरीबों, कुलीनों, अकुलीनों, छोटों, बड़ों, गुलामों, नागरिकोंका संघर्ष जारी रहता है। अन्तमें इन समाजोंका उच्छेद होता है। साथ ही इन वर्ग-कलहोंसे ज्ञान-भण्डारकी वृद्धि होती है। मालिकों, गुलामों, जमीनदारों, किसानोंके समान ही पूँजीपतियों, श्रमजीवियोंका भी वर्गकलह अनिवार्य होता है और इससे क्रान्तिका जन्म तथा नवीन सिद्धान्तोंका प्रचार होता है। इस ऐतिहासिक विरोध और कलहके अनुसार ही बौद्धिक और राजनीतिक विरोधकी उत्पत्ति होती है। यह बौद्ध विरोध जननेताओं या पैगम्बरोंद्वारा विभिन्न मत-मतान्तरोंके रूपमें प्रकट होता है। उदाहरणार्थ, वैदिक, बौद्ध, ईश्वरवादी या अनीश्वरवादी, कैथलिक, प्रोटेस्टेण्ट, भौतिकवादी, अध्यात्मवादीका नाम लिया जा सकता है। ये सभी मत-मतान्तर चाहे जितने भी सूक्ष्म और आध्यात्मिक प्रतीत होते हों, सांसारिक जीवन और भौतिक प्रपंचमें कितने भी पृथक् क्यों न प्रतीत होते हों, परंतु उनके मूलका पता लगानेसे विदित होगा कि उनका भी आधार भौतिक ही है। समाजके आर्थिक आधार और उत्पत्तिकी प्रणालीमें विरोध उत्पन्न हो जाने और इसी कारण भिन्न-भिन्न वर्गों—दलोंमें कलह आरम्भ होनेसे ही सभी मत-मतान्तरोंकी उत्पत्ति हुई है।’
‘इसी तरह समस्त नैतिक, राजनीतिक, अर्थशास्त्र-सम्बन्धी प्रणालियों (जो कि प्रधानता पानेके लिये परस्पर प्रतियोगिता कर रही हैं) और समस्त प्रादेशिक या व्यापक युद्धोंके तात्कालिक कारण चाहे कुछ भी हों, पर मूल कारण सामाजिक आर्थिक दशा ही है। इसी तरह आदर्शवाद, उपयोगितावाद, एकतन्त्र, प्रजातन्त्र, रक्षित व्यापार, मुक्त व्यापार, राज्यनियन्त्रित अर्थव्यवस्था, स्वतन्त्र आर्थिक व्यवस्था, समाजवाद, व्यक्तिवाद आदि जितने भी सिद्धान्त घोषित किये जाते हैं, उनके समर्थनमें चाहे जितने भी उच्च भावनायुक्त तर्क उपस्थित किये जायँ और उच्च उद्देश्य बतलाये जायँ, पर उन सबकी उत्पत्ति समाजके भौतिक आधार और उत्पादन-प्रणालीद्वारा ही होती है।’
कम्युनिष्ट मैनिफिस्टोमें ऐतिहासिक भौतिकवादका सारांश इस प्रकार कहा गया है—‘इसे समझनेके लिये किसी गम्भीर अन्तर्ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है कि मनुष्यकी भौतिक अवस्था और सामाजिक जीवनकी दशामें परिवर्तन होनेसे ही उसके मानसिक भावों, विचारों और धारणाओंमें भी परिवर्तन होता है। संसारके विचारोंका इतिहास यही बताता है। भौतिक उत्पत्ति, पैदावारमें परिवर्तन होनेसे बौद्धिक उत्पत्तिमें भी परिवर्तन होता है। जब जिस वर्गका शासन होता है, तब उसके ही विचारोंकी प्रधानता होती है। जीवन-निर्वाहकी प्राचीन प्रणालीका नाश होते ही, प्राचीन विचारोंका ही लोप हो जाता है। यूरोपमें ईसाई धर्म तथा भारतमें बौद्धधर्मका आविर्भाव एवं पुराने धर्मका लोप भी आर्थिक दशाके बदलनेसे ही हुआ था। उत्पत्तिकी प्रणाली, सामाजिक वर्गविभाग और सम्पत्ति-सम्बन्धी नियम जब उत्पादक शक्तियोंके लिये बन्धनरूप बन जाते हैं और विभिन्न वर्गोंका स्वार्थ, विरोध वर्गकलहका रूप धारण कर लेता है, तब सामाजिक क्रान्तिका युग आता है। इससे प्राचीन समाज नष्ट होकर विस्मृतिके गर्भमें चला जाता है, परंतु वह नष्ट होनेसे पहले जीवनके नवीन मार्गका निर्माण कर देता है, जो उत्पादक-शक्तियोंके अनुरूप होता है। इस नवीन समाजकी वृद्धि चाहनेवाले लोग क्रान्तिकारी भावनाओंसे उत्पन्न होनेवाली समस्याओंको हल करनेमें संलग्न हो जाते हैं। इस तरह उत्पादक शक्तियोंकी उन्नति और पूर्णता ही मनुष्यजातिके विकासका सार है।’
‘आदिकालीन, मध्यकालीन, वर्तमानकालीन उत्पादन-प्रणालियोंको मनुष्यसमाजकी प्रगतिके विभिन्न युग कहते हैं। वर्तमान पूँजीवादी समाजकी उत्पादनप्रणाली इस विरोधयुक्त शृंखलाकी अन्तिम कड़ी है। यह विरोध व्यक्तिगत नहीं, किंतु समाजकी परिस्थितिद्वारा उत्पन्न होता है। साथ ही पूँजीवादके भीतर जो उत्पादक शक्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं, वे इस विरोधको मिटानेका मार्ग भी प्रशस्त कर रही हैं। इस प्रकार पूँजीवादी समाज मनुष्य-जातिके प्रागैतिहासिक युगका अन्तिम अध्याय है।’
उपर्युक्त बातोंका खण्डन पूर्वोक्त युक्तियोंसे ही हो जाता है। कम्युनिष्ट वर्गकलह, वर्गविद्वेष या वर्गसंघर्षको ही वर्गविकास एवं ज्ञान भण्डार-वृद्धिका कारण कहते हैं। साथ ही वर्गभेदको ही विकास या उन्नतिका लिंग मानते हैं। अतएव हबशी या भिल्ल आदि जंगली अविकसित जातियोंमें वर्गभेदका अभाव बतलाते हैं, परंतु यह सुविचारित सिद्धान्त है कि सुमति, दक्षता, सदाचार, सद्धर्म, नियन्त्रण, सहिष्णुतासे वैमत्य मतभेद मिटता है और संघटन, समन्वय, सामंजस्य एवं सौमनस्य होता है। इसका महत्त्व ऋग्वेद तथा अथर्ववेदमें भी सौमनस्य सूत्रोंके द्वारा कहा है—
‘सङ्गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।’
—आदि मन्त्रोंके द्वारा संगमन, संवदन तथा सौमनस्य-संघटन आदिको अभ्युदयका कारण कहा गया है। ‘मा विद्विषावहै’ आदि मन्त्रोंद्वारा ईश्वरसे भी परस्पर द्वेष मिटानेकी प्रार्थना की गयी है। जहाँ दुर्बुद्धि, दुर्भावना, असहिष्णुता, उच्छृंखलता बढ़ती है, वहीं विद्वेष, वैमनस्य, विवाद तथा विनाश आदि होता है। यदि कलह, संघर्ष, विद्वेष, विनाश आदि ही सभ्यता या प्रगतिशीलता है और संघर्ष, विनाश, वर्गविद्वेष आदि न होना पिछड़ना या असभ्यता है तो कोई भी बुद्धिमान् कहेगा कि ऐसी सभ्यतासे असभ्यता ही ठीक है, ऐसी प्रगतिसे अप्रगति ही ठीक है। तभी तो आजके बर्बरतापूर्ण नरसंहार, अशिष्टता, असभ्यता, दुर्दान्तताका नग्न अकाण्ड ताण्डव एवं मानवताको त्रस्त करनेवाली, पशुताको मात करनेवाली स्वेच्छाचारिता, विलासिताको प्रगति एवं सभ्यता माना जा रहा है। वस्तुत: यह विपरीत बुद्धि है। वैभव, सम्पत्ति, उन्नति, प्रगति, विघटन, वैमनस्य कभी भी वर्गविनाशका कारण नहीं होता। गरीबी भी विघटनकी कारण नहीं होती। प्रमाद, मूर्खता, विलासिता, स्वेच्छाचारिता, स्वार्थपरायणता ही विघटन, वैमनस्यका कारण होती है। इन दोषोंसे युक्त होनेसे गरीबों-अमीरों सबमें विघटन होता है।
चाहे अमीर हों या गरीब, जंगली हों या नागरिक, प्रगतिशील हों या अप्रगतिशील, मनुष्य हों या देवता अथवा पशु ही क्यों न हों, जहाँ दुर्बुद्धि, अविवेक और स्वार्थपरायणता बढ़ती है, वहीं विद्वेष, वैमनस्य, विघटन और विनाश बढ़ता है। जहाँ सद‍्बुद्धि, सदाचार, नियन्त्रण, सहिष्णुता है, वहाँ प्रेम संघटन उन्नति ही होती है। इसीलिये जंगली पशुओं, मनुष्यों, देवताओंमें भी इन गुणोंके आधारपर संघटन रहता है। गुणोंके अभाव एवं दोषोंके बढ़ जानेपर विघटन आदि बढ़ता है। मधुमक्खियोंका संघटन प्रसिद्ध है। कपोतों एवं अन्यान्य पशु-पक्षियोंमें भी संघटन होता है। कहते हैं, कुछ कपोत जालमें फँस गये, एकमत होकर एककी रायसे वे सब जाल लेकर उड़ गये एवं अपने मित्र हिरण्यक-मूषककी सहायतासे मुक्त हो गये। जंगली गायें एकत्र होकर सिंहका भी मुकाबला करती हैं। वे निर्बल, बाल-वृद्ध पशुओंको मध्यमें रखकर प्रबल साँड़ोंको आगे करके सिंह-व्याघ्रका मुकाबला करती हैं और अपने आपको बचा लेती हैं। कम्युनिष्टोंको भी मजदूर-संघटनसे अथ च दृढ़ प्रयत्नसे ही सफलता मिल सकती है। संघटनमें केवल एक स्वार्थ ही नहीं, किंतु सहिष्णु मनकी एकता ही मूल कारण है। एक उद्देश्यकी सिद्धिके लिये एक सूत्रमें सम्बन्धित व्यक्तियोंका ग्रन्थित होना ही संघटन है। महान् प्रयोजन होनेपर भी असहिष्णु, स्वेच्छाचारी संघटित नहीं हो सकते। कथंचित् किसी स्वार्थके लिये कुछ क्षणके लिये संघटित हो भी जाते हैं तो भी पद प्राप्त हो जानेपर स्वार्थके टकराते ही संघटन छिन्न-भिन्न हो जाता है। यही बात जडवादियोंके संघटनोंमें देखी जाती है। अधिकार-प्राप्तिके लिये ‘सफाया’ या ‘कण्टक-शोधन’ के नामपर अधिकारारूढ़ लोग अपने पुराने साथियोंको ही मौतके घाट उतारने लगते हैं। अमृत-प्राप्तिके लिये देवताओं एवं दानवोंमें भी संघटन हुआ था, पर स्वार्थमें आघात आते ही भीषण देवासुर-संग्राम हुआ। जालमें फँसे हुए लोमश बिल्लेने दो शत्रुओंसे घिरे हुए पलित मूषकका सन्धि-प्रस्ताव भी स्वीकार किया था। विडालसे मित्रता करके मूषक अपने शत्रु सर्प एवं श्येनसे मुक्त हुआ। आत्मरक्षाका ध्यान रखते हुए शिकारीके समीप आनेपर शीघ्रतासे जाल काटकर बिलावको भी बचा दिया, परंतु कार्य पूर्ण होते ही फिर दोनों पृथक् हो गये। फिर तो बिलावके बुलानेपर भी मूषक उसके पास नहीं गया, परंतु यदि किसी अहिंसकके प्रभावसे मूषक-मार्जारके स्वाभाविक वैर भी छूट जाते हैं तो वह सदाके लिये ही वैर छोड़ देते हैं। वे एक-दूसरेके भक्षक या शोषक न रहकर रक्षक या पोषक ही रहते हैं। यह चन्द्रमा मुनिके आश्रम एवं रामराज्यके उदाहरणसे स्पष्ट किया जा चुका है।
वैभव, सम्पत्ति, अधिकार या राज्य प्राप्त होनेपर प्रमादको अधिक अवसर होता है। तपस्यासे राज्य एवं राज्यसे मद उत्पन्न होता है। दु:खी, दरिद्र, उत्पीड़ित प्राणीको न्याय, धर्म, ईश्वर प्रिय लगते हैं। वह चाहता है कि ‘सबके साथ न्याय हो, सभी धर्मात्मा हों।’ परंतु जब इस शुभ भावना एवं तपस्यासे उसे राज्य प्राप्त होता है, तब वह न्याय, धर्म, ईश्वरादिको भूल जाता है। फिर वही घमण्ड, प्रमाद, शोषणकी प्रवृत्ति चलती है। अन्तमें उसके सामने पतन एवं नरकादि ही आते हैं। इसी ऐश्वर्य-मदके उन्मादसे हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, वृत्र, रावण-कंसादिका तथा इन्द्र, दक्ष, नहुष आदिका पतन हुआ था। इन्द्रके प्रमादसे त्रैलोक्यलक्ष्मी नष्ट हो गयी थी। पुन: महती तपस्या एवं प्रयत्नसे उसका प्रादुर्भाव हुआ था। पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि सबका ही पतन होता है, जो राज्य, ऐश्वर्य या सम्पत्ति प्राप्त करके भी सावधान रहते हैं, शास्त्र एवं धर्मके नियन्त्रणमें बने रहते हैं, समाज, राष्ट्र एवं विश्वके हितार्थ आत्मोत्सर्गके लिये तत्पर रहते हैं, उनका पतन न होकर उत्थान ही होता है।
‘धर्ममूलां श्रियं प्राप्य न जहाति न हीयते॥’
(महा० उद्योग० ३४।३१)
मनु, इक्ष्वाकु, दुष्यन्त, भरत, हरिश्चन्द्र, रामचन्द्र, शिबि, रन्तिदेव आदि ऐश्वर्यपूर्ण होनेपर भी प्रमत्त न होकर निरन्तर धर्मनिष्ठ ईश्वरपरायण रहकर विश्वहितमें लीन रहे; अत: उनकी उत्तरोत्तर उन्नति हुई है। यह बात—
विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्ति: परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधो: विपरीतमेतद्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
(गुणरत्नम् ७)
—से स्पष्ट कर दी गयी है।
विद्या, बुद्धि, शिक्षा आदिके सम्बन्धमें अपनेसे अधिक वृद्ध, बुद्धिमान् एवं विद्वान‍्से लोग तत्तद् वस्तुओंको प्राप्त करते हैं। यहाँ गुरु-शिष्यभाव रहता है—द्वेष नहीं। पूर्वजोंमें पूज्य-बुद्धि होती है, विरोध-बुद्धि नहीं। इसी तरह जिन प्राचीन नियमोंसे प्राणीकी उन्नति होती है, उनके प्रति भी विरोध-बुद्धि नहीं होती।
पूर्व-पूर्व अवस्थासे उत्तरोत्तर उन्नति होती है तो पूर्व-पूर्व अवस्थासे उत्तरोत्तर अवस्थाके संघर्षका अवकाश नहीं रहता। पूर्व-पूर्वकी पूँजी एवं साधनोंके सहयोगसे उत्तरोत्तर पूँजी एवं साधनोंकी वृद्धि अवश्य होती है। कोई व्यापारी सहस्रसे लक्ष, लक्षसे कोटि कमाता है, अत: परस्पर साध्य-साधन भाव या उपकारी-उपकारक भाव होना ही अधिक न्यायसंगत है। इसीलिये पूर्वकालमें ईश्वर, धर्म, धार्मिक राजा, धनवान्, पूँजीपति एवं सुखी किसान, सेवक, शूरवीर सभी साथ रह सकते थे। बैलगाड़ी, पुष्पकयान, पादचारी भी साथ रह सकते थे। लाठीसे लेकर ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्रतक शस्त्रास्त्र थे। हाथके करघेसे लेकर महायन्त्रतक थे। विश्वकर्मा, मयके आविष्कारके साथ हाथसे पर्णशाला बनाकर रहनेवाले भी थे। सब एक-दूसरेके पोषक थे, शोषक नहीं। सारांश यह है कि शास्त्र, धर्म एवं ईश्वरभावके नियन्त्रणके अभावमें ही वर्ग-संघर्ष, वर्ग-विद्वेष, वर्ग-विध्वंस एवं क्रान्ति आदिकी बात चलती है। जो दोष है, गुण नहीं हो सकता। इतिहासमें भली, बुरी सभी बातें होती हैं। सब न तो सिद्धान्त ही होती हैं, न ग्राह्य ही। भारतीय सभ्यतामें जो ‘मात्स्य न्याय’ कहा गया है, वही कम्युनिष्टोंका परम पुरुषार्थ एवं अभीष्ट वर्ग-संघर्ष है। यह पहले बतलाया जा चुका है कि कृतयुगमें जब कि सत्त्वगुणका पूर्णरूपसे विकास था, सभी धार्मिक, सात्त्विक थे। साथ ही विद्या, बल, शक्ति, वैभवका भी अभाव न था। ईश्वर, ब्रह्मा आदिमें सत्त्वकी प्रधानतासे ही विद्या, वैभव, विविध ऐश्वर्य होते हैं। इन्द्रादि देवताओंका ही नहीं, पर हिरण्यकशिपु, मय आदि दानवोंका ऐश्वर्य भी जो वेदों-पुराणोंमें वर्णित है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि उसके मुकाबले आजका वैभव कुछ नहीं है। पूर्ण उत्कर्ष कालमें भी सत्त्व एवं धर्मकी जब प्रधानता हुई, तब धर्मनियन्त्रित जनता किसी राजा, राज्य, दण्डविधानके बिना भी आपसमें ही सब काम चला लेती थी—
न वै राज्यं न राजासीन्न च दण्डो न दाण्डिक:।
धर्मेणैव प्रजा: सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्॥
(महा० शा० प० ५९।१४)
यह भी एक महान् आश्चर्य है कि जो सर्वत्र समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताका आदर्श रखते हैं, वे ही वर्ग-विद्वेषका मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। यह वैसी ही विरुद्ध बात है—जैसे कोई जाना चाहता है पूर्व, पर चल रहा है पश्चिमकी ओर। जहाँ समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताके लिये विद्वेष, वैमनस्य मिटाकर सदाचार, परस्पर पोषण, उपकार, सहिष्णुता एवं सहानुभूतिका भाव बढ़ाना अपेक्षित है, वहाँ मार्क्सवादी संघर्ष, विद्वेष बढ़ानेका मार्ग ग्रहण करते हैं। मार्क्सवादी समझते हैं कि शोषक-शोषितोंका विरोध मूषक-मार्जारके वैरके समान अमिट है; इनमें विरोध मिटाकर समानता, भ्रातृता आदि स्थापित नहीं हो सकती, अत: विद्वेष उत्तेजित कर वर्ग-विध्वंसके द्वारा ही समानता सम्भव है। शोषितोंका राज्य होने एवं शोषकोंकी समाप्ति होनेसे ही वर्गहीन समाजमें समानता ठीक सम्पन्न होगी, परंतु यह धारणा नितान्त भ्रान्तिमूलक है। कारण, पहले तो वर्गभेद ही कोई वास्तविक स्थिर भेद नहीं; क्योंकि शोषकों एवं शोषितोंकी कोई निश्चित जाति नहीं है। जो किसीकी अपेक्षा शोषित है, वही किसीका शोषक होता है। जलकी कोई भी मछली अपनेसे बड़ी मछलीद्वारा शोषित है, वही अपनेसे छोटी मछलीकी शोषक है। जंगलके पशुओंकी भी बात ऐसी ही है। मेढक साँपके मुखमें है; परंतु उस हालतमें भी वह मच्छरोंको खाता है। इस तरह शक्ति एवं सम्पत्तिमें तारतम्य रहता ही है। फिर उनमें भी प्रबल शोषक और दुर्बल शोषित होगा ही। वराटिकापति, रूप्यकपति, शतपति, सहस्रपति, लक्षपति आदिमें आपसमें शोषक-शोषित भावकी कल्पना हो सकती है। अन्तिम शोषितको ही रखकर सभी शोषकोंकी समाप्ति भी सम्भव नहीं है; क्योंकि अन्तिम शोषित कौन है? इसका निर्णय कठिन है।
यदि यह मान भी लिया जाय तो भी इसका यह अर्थ हुआ कि समुद्रके प्रबल जल-जन्तुओंको समाप्त करके सिर्फ अति क्षुद्र जन्तुओंका ही राज्य बनाया जाय। जंगलोंके सिंह-व्याघ्रादिको मिटाकर शृगालों या मच्छरोंका ही राज्य बनाया जाय, परंतु यह न तो कभी किसी शासनका आदर्श रहा ही, न आदर्श हो ही सकता है। आदर्श तो यह था कि समाजमें सब रहें, पर कोई किसीका शोषक न रहे, सब एक-दूसरेके पोषक रहें। बाघ, बकरे सब एक घाट पानी पीयें। बाघ बकरे दोनोंको ही जीवित रहनेका अधिकार है; परंतु दोनोंके पोषक होकर ही रहें, शोषक होकर नहीं।
जैसे बुद्धिमान् रोगीको न मिटाकर रोग मिटानेका ही प्रयत्न करते हैं, वैसे ही शोषकोंको न मिटाकर शोषण-वृत्ति मिटाना शासनका उद्देश्य है। दण्ड-विधानका भी उद्देश्य बदला चुकाना आदि न होकर अपराधीकी अन्तरात्मशुद्धि ही मुख्य उद्देश्य रखा गया था। शोषणवृत्ति बिना मिटाये शोषितोंमें ही शोषक उत्पन्न होते रहेंगे। अत्यन्त गरीब, मजदूर या कँगले भी अधिकार पाकर शोषक हुए हैं एवं हो सकते हैं। धार्मिक भावनावाले दिलीप-जैसे महासम्राट् भी एक गायकी रक्षाके लिये अपने प्राण दे सकते हैं, शिबि-जैसे सम्राट् भी एक कबूतरके प्राण बचानेके लिये अपने देहका सम्पूर्ण मांस दे सकते हैं।
साथ ही यह भी विचारणीय है कि क्या कोई मनुष्य स्वभावसे ही शोषक होता है या उसमें स्वाभाविक बुराई आगन्तुक है? यदि बुराई या शोषण कोयलेमें कालापनके समान स्वाभाविक है, तब तो अवश्य जैसे कितना ही साबुनसे धोनेपर बिना कोयलाके मिटे उसका कालापन नहीं मिट सकता, वैसे ही शोषक मनुष्यके मिटे बिना उससे शोषण या बुराई नहीं मिट सकती, परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं। स्वभावसे प्राणी बुरा या शोषक नहीं होता। यह कह चुके हैं कि कभीका शोषक ही पोषक बन जाता है तथा कभीका पोषक ही शोषक बन जाता है। शास्त्रीय संस्कार, सत्समागम एवं धर्मनिष्ठाके विस्तारसे प्राणी पोषक बनता है। अधर्म, प्रमाद, स्वार्थपरता बढ़नेपर पोषक भी शोषक बन जाता है। वाल्मीकि पहले शोषक थे, पर वे ही सत्समागमसे महर्षि एवं विश्वपोषक बन गये। अजामिल जो पहले साधु पुरुष थे, दुस्संगसे शोषक हो गये; फिर कालान्तरमें वे ठीक हो गये।
रामराज्यके सिद्धान्तानुसार प्राणिमात्र ईश्वरके अंश, अविनाशी, चेतन, अमल, सहज सुखराशि है—‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।’ वेद भी कहते हैं—‘अमृतस्य पुत्रा:’ प्राणिमात्र अमृत-परमेश्वरके पुत्र हैं। जैसे गंगाका तरंग गंगाजलके तुल्य ही शीतल, मधुर और पवित्र होता है, वैसे ही चेतन, अमल, सहज सुखराशि परमेश्वरकी संतान भी चेतन, अमल, सहज सुखराशि ही हैं। उनमें बुराई अविद्या, काम-कर्मके सम्पर्कसे आयी—
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जिमि जीवहि माया लपटानी॥
जैसे निर्मल जलमें भूमिके सम्पर्कसे मलिनता आ जाती है, वैसे ही माया आदिके सम्पर्कसे जीवमें मलिनता आ जाती है। जैसे मलिन जलमें निर्मल बूटी या फिटकिरी डालनेमें जलमें निर्मलता आ जाती है, वैसे ही स्वधर्मानुष्ठान एवं ईश्वर-भक्तिसे जीवकी मलिनता, बुराइयाँ दूर हो जाती हैं, फिर वह शोषक नहीं रह जाता, शुद्ध पोषक हो जाता है। असलमें मात्स्यन्याय दूर होनेके लिये ही शासनकी स्थापना हुई है। धर्म, सदाचारका विस्तार, सत्य, अहिंसाकी प्रतिष्ठा तथा दण्डके द्वारा शोषण मिटाकर समन्वय, सामंजस्य स्थापित करना ही शासनका मुख्य लक्ष्य है। वस्तुत: मार्क्सवादी स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृताकी बात तो करते हैं; परंतु उन्हें समानता, स्वतन्त्रता और भ्रातृताकी वास्तविक आधार-भित्ति विदित नहीं है। जड देह, मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि समानता आदिके आधार नहीं हो सकते। कारण, उनकी विषमता स्पष्ट है। देह किसी दोके भी एक समान नहीं। किसीका देह मोटा, किसीका पतला, किसीका लम्बा, किसीका नाटा होता है। सगे भाइयोंके भी प्रत्येक अवयवमें भेद रहता है। शक्तिमें भी भेद है। कोई दो-दो मोटरोंको रोक सकते हैं, कोई बकरीको भी नहीं रोक सकता। इसी तरह बुद्धिमें भी समता नहीं कही जा सकती। कोई कई शास्त्रोंके विद्वान् एवं दार्शनिक होते हैं और कोई अत्यन्त निर्बुद्धि भी होते हैं। कोई पर्याप्त अन्न, दुग्धादि पचा सकते हैं, कोई किंचिन्मात्र भी घृतदुग्धादि नहीं पचा सकते, वे थालीमें रखे हुए मोदकको छूनेसे परमाणुबम-जैसा डरते हैं। कार्यकरणक्षमता भी सबकी एक-सी नहीं। अत: भौतिकवादमें समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताकी कोई वास्तविक आधारभित्ति ही नहीं है। इसीलिये वहाँ समानता, भ्रातृता, स्वतन्त्रतादिकी केवल बात ही होती है, कार्य-वर्ग-विद्वेष वर्गविध्वंसका होता है। उनकी समानता उनके दलके साथियोंतक ही सीमित है। उनमें भी विरोध उत्पन्न होते रहते हैं और ‘सफाया’ कण्टकशोधनके नामपर कलके साथीको भी मौतके घाट उतारा ही जाता है, परंतु रामराज्यके सिद्धान्तमें समानता, भ्रातृता आदिका वास्तविक आधार अध्यात्मवाद है। जहाँ किसी सीमित दायरेके भीतर ही नहीं, किंतु किसी देश, जाति, सम्प्रदाय या पार्टीका अमीर, गरीब, पुण्यात्मा, पापात्मा, कोई स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध हो अथवा देवता, दानव, मानव, पशु-पक्षी, कीट-पतंग हों, सभी ईश्वरके पुत्र हैं। उनके देहोंमें भेद हो सकता है, किंतु देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धिका द्रष्टा, क्षेत्रज्ञ आत्मामें कोई भेद नहीं होता। सोने, लोहे, मिट्टीके घड़ेमें भेद है, पर उनमें स्थित आकाशमें कोई भेद नहीं। वैसे ही विभिन्न देह, इन्द्रिय, मन-बुद्धिमें भेद हो सकते हैं, उनके कार्योंमें भी विषमता होती है; परंतु सबमें रहनेवाले द्रष्टा, चेतन, अमल, सहज सुखराशिमें कोई भी भेद नहीं है। उसी बोधरूप आत्मामें वास्तविक समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृता हो सकती है। जडमें न स्वतन्त्रता ही सम्भव है, न समानता। आधि, व्याधि, मृत्युके परतन्त्र, किसी भी जड वस्तुमें स्वतन्त्रताका राग अलापना केवल विडम्बना ही है। सर्वोपाधिकृत भेदविवर्जित आत्माको ही लेकर समानता सम्भव है। जो सब प्राणियोंमें एक आत्मा या भगवान‍्को देखता है, वह किसका विरोध करेगा, किसका शोषक होगा?
उमा जे राम चरन रत
बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत
केहि सन करहिं बिरोध॥
जो प्राणिमात्रमें भगवत्सत्ताका अनुभव करता है अथवा सभी प्राणियोंको भगवान‍्की पवित्र संतान समझता है, वह कैसे किसीका शोषक होगा? शास्त्रोंमें भगवान‍्ने कहा है—नाना प्रकारके भूषणों, अलंकारों, नैवेद्योंद्वारा मेरा सम्मान करना और मेरे अंशभूत प्राणियोंको सताकर शोषण करना वैसी ही मूर्खता है, जैसे किसीको संतुष्ट करनेके लिये किसीके गलेमें माला पहनाना और उसीकी आँखमें काँटा चुभाना। प्राणियोंका अपमान करनेवाले पुरुषकी ईश्वरार्चा भस्ममें डाली हुई आहुतिके तुल्य व्यर्थ है। इसीलिये शास्त्र कहते हैं कि ईश्वर ही जीवरूपसे श्वान, चाण्डाल, उष्ट्र, गर्दभादि सभी प्राणियोंमें प्रविष्ट है, अत: दान-मानादिद्वारा सबका ही सम्मान करना चाहिये, किसीका भी अपमान नहीं करना चाहिये—
‘ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति॥’
(भाग० ३।२९।३४)
‘प्रणमेद्दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम्॥’
(भाग० ११।२९।१६)
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम्।
हित्वार्चां भजते मौढॺाद् भस्मन्येव जुहोति स:॥
(भाग० ३।२९।२२)
भक्तराज प्रह्लादने यही प्रार्थना की थी—
स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खल: प्रसीदतां
ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे
आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी॥
(भाग० ५।१८।९)
अर्थात् विश्वका कल्याण हो, खल प्राणी सज्जन बनें। खलको मिटाना अभीष्ट नहीं; किंतु उसकी खलताको ही मिटाना अभीष्ट है। दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शान्ति प्राप्त करें एवं शान्त प्राणी संसारबन्धनोंसे मुक्त हों तथा वे मुक्त होकर औरोंको भी बन्धनसे छुड़ानेका प्रयत्न करें—
दुर्जन: सज्जनो भूयात् सज्जन: शान्तिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बन्धेभ्यो मुक्तश्चान्यान् विमोचयेत्॥
सब प्राणी एक-दूसरेका परस्पर शुभानुसंधान करें, शुभचिन्तक बनें, सबका मन भद्रदर्शी हो, सबकी बुद्धि परमेश्वरनिष्ठ हो। इसीलिये महर्षिगण अपनी नाक कटाकर भी दूसरोंके शकुन बिगाड़ने-जैसा किसीका अनिष्ट-चिन्तन नहीं करते थे। धनवान् बलवान‍्को देखकर उन्हें ईर्ष्या नहीं होती थी। उन्हींका अनुसरण करते हुए आस्तिक प्रतिदिन ईश्वरसे प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो! सब सुखी हों, सब नीरोग हों,सब भद्रदर्शी हों और कोई भी दु:खभागी न हो। जिसे पुत्र न हो, उसे पुत्र मिले, पुत्रवान‍्को पौत्र मिले, निर्धन धनवान् हो तथा धनवान् दीर्घजीवी हो—
सर्वेऽपि सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दु:खभाग्भवेत्॥
अपुत्रा: पुत्रिण: सन्तु पुत्रिण: सन्तु पौत्रिण:।
अधना: सधना: सन्तु जीवन्तु शरदां शतम्॥
शास्त्रोंने भी अपनेसे निम्नस्तरवाले दु:खी लोगोंपर करुणा, समान लोगोंसे मैत्री तथा अपनेसे अधिक ऐश्वर्यवालोंसे मुदिता करनेके लिये कहा है। सब कुछ परमेश्वरसे उत्पन्न, परमेश्वरस्वरूप है। अत: परमेश्वर-स्वरूपसे ही सबका सम्मान उचित है। फिर शोषणकी कथा ही क्या है? लोकव्यवहारार्थ दण्डविधान आदि भी प्रजाहितार्थ ही होता है, ठीक वैसे ही, जैसे अध्यापक छात्रोंके हितके लिये ही शासन करता है।
जैसे कामीको सम्पूर्ण जगत् कान्तामय दिखायी देता है, वैसे ही भौतिकवादियोंको सब कुछ भूतमय ही प्रतीत होता है। इसीलिये वे सभी धर्मों, दर्शनों, आदर्शों आदिका मूल भौतिक अवस्था ही मानते हैं। प्राय: पाश्चात्य विचारोंके मतानुसार भिन्न-भिन्न दर्शन, निर्माताकी परिस्थिति, वातावरण एवं भौतिक अवस्थाके अनुकूल ही आविर्भूत होते हैं। इससे स्पष्ट है कि उन दर्शनोंमें भावनाओंकी ही प्रधानता है। सत्यका दर्शन वहाँसे बहुत दूर है। वस्तुत: बाह्य भावोंसे अप्रभावित समाधिसम्पन्न ऋषियोंके दर्शन ही सत्यसे सम्बन्धित हो सकते हैं। पाश्चात्य दर्शन-विवेचनके प्रारम्भमें ही यह बात कही जा चुकी है। वस्तुतस्तु स्वतन्त्ररूपसे जड किसी एक भी कार्यके सम्पादनमें असमर्थ होता है, परंतु भौतिकवादी सभी वस्तुओंका एकमात्र कारण भौतिक अवस्था ही मानते हैं। आस्तिक मूल वस्तु स्वप्रकाश सत् चेतनको ही मानते हैं। यद्यपि श्रोत्र, त्वक्, चक्षु आदि पंच ज्ञानेन्द्रिय एवं मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, अन्त:करणचतुष्टय और इनके द्वारा उपलब्ध होनेवाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध एवं तदात्मक पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश सब-के-सब भौतिक ही हैं, फिर भी इन सबसे सूक्ष्म चैतन्य आत्मज्योतिद्वारा ही इन भूतों एवं भौतिकोंकी सत्ता, स्फूर्ति एवं गति निष्पन्न होती है। उसके बिना सर्वत्र जगदन्धतापत्ति अनिवार्य है। जैसे बाह्य जडप्रपंच चेतन प्राणीके उपकरण एवं भोग्य होते हैं, उसी तरह अहंकार, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, देह भी स्वविलक्षण, असंगत चेतन आत्माके ही उपकरण एवं भोग्य हैं। जैसे झरने, स्रोत, सरिता आदि जलांश अपने अंशी समुद्रकी ओर स्वभावसे ही प्रवाहित होते हैं, उसी तरह व्यष्टिचेतन आत्मा समष्टिचेतन ब्रह्मकी ओर स्वभावत: प्रवाहित होता है। सम्पूर्ण भौतिक ऐश्वर्यको छोड़कर जीवमात्रकी प्रवृत्ति निद्रा या सुषुप्तिकी ओर होती है। अविद्यारूपी कारण बीज विशिष्ट चेतन अर्थात् अज्ञात सत्-रूप चेतनमें ही सुषुप्त जीव लीन होता है। सुषुप्तिमें यद्यपि विशिष्ट विज्ञानका अभाव रहता है, तथापि विशेष विज्ञानाभावका द्रष्टा कारण साक्षी विद्यमान रहता है। तभी ‘जो मैं सुखसे सो रहा था, वही मैं जग रहा हूँ’, यह अनुभूति होती है। यह कहा जा चुका है कि स्वभावसे सीमित सत्ता, ज्ञान, आनन्द, स्वतन्त्रता एवं सीमित शासन शक्तिवाला प्रत्येक जीव नि:सीम अनन्त सत्ता, नि:सीम अनन्त ज्ञान, आनन्द, स्वातन्त्र्य, शासनशक्तिसम्पन्न बनना चाहता है। तदनुगुण ही सबके प्रयत्न होते हैं। जैसे महाधन प्राप्त करनेके लिये व्यापारादि कार्योंमें पर्याप्त धन व्यय करना पड़ता है, वैसे ही महती स्वतन्त्रता-प्राप्तिके लिये पर्याप्त स्वतन्त्रताओंका त्याग कर विविध आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक नियम स्वीकार करना पड़ता है। इसीलिये कहा गया है कि सनातन परमेश्वर अपने सनातन अंश जीवोंका सनातन कैवल्यपद प्राप्त करानेके लिये ही सनातन नि:श्वासभूत वेदादि शास्त्रोंद्वारा आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, सनातन नियमरूप साधनोंका उपदेश करते हैं, अत: भौतिक अवस्थाओंके रद्दोबदलसे उनमें रद्दोबदल करनेका कोई प्रश्न ही नहीं खड़ा होता। यह दूसरी बात है कि साधनोंके न होनेपर साधनाहीन कामोंमें बाधा पड़ती है, भौतिक देहादि न रहनेपर तदधीन साधनोंमें बाधा होती है, वैसे ही धनादिके अभावमें तदधीन कार्योंमें बाधा पड़ती है। यह भी ठीक है कि भंग, सुरा आदि मादक पदार्थोंके सेवनका प्रभाव जैसे मन, बुद्धि एवं विचारोंपर पड़ता है, वैसे ही धन, भूषण, वस्त्र, भवन, वाहनादिके अस्तित्वमें मन-बुद्धिपर दूसरे ढंगका प्रभाव पड़ता है, उनके अभावमें दूसरे ढंगका प्रभाव पड़ता है। साधनसम्पन्न दूसरे ढंगसे सोचते-विचारते हैं और साधनविहीन दूसरे ढंगसे। फिर भी प्रमास्वरूप ज्ञानपर धनादिके भावाभावका असर नहीं पड़ता। एक धनविहीन भी नेत्रसे रूप देखता है, शब्द नहीं; श्रोत्रसे शब्द ही ग्रहण करता है, रूप नहीं; वैसे ही धनी भी। सम्पत्ति-विपत्ति, साधन-सम्पन्नता, साधन-विहीनता, किसी भी दशामें प्रमाणके अधीन नियमित ही प्रमा होती है। नीरोग उपविष्ट हो अथवा रुग्ण होकर भूमिपर विलुण्ठित हो रहा हो, निर्दोष चक्षुसे रज्जुका रज्जु ही ज्ञान होगा। जंगली, मध्यकालीन एवं आधुनिक प्रगतिशील, मनुष्य, सभ्य-असभ्य, अमीर-गरीब, शोषक-शोषित, सभी एक रूपसे ही श्रोत्रादि प्रमाणोंद्वारा शब्दादि प्रमेयोंकी प्रमा सम्पादन करते हैं। यहाँ अवस्थाओं, भावनाओं, परिस्थितियोंका कुछ भी असर नहीं पड़ता। इसी तरह जो नियम, सत्य या सिद्धान्त प्रमाणोंसे सिद्ध प्रमास्वरूप हैं, उनमें कभी भी किसी ढंगसे रद्दोबदल नहीं होता। सिद्धान्तत: जैसे काँटेसे काँटा निकाला जाता है, विषसे विषका प्रशमन होता है, वैसे ही भौतिक साधनोंसे ही भौतिक प्रपंचका प्रशमन कर अभौतिक, स्वप्रकाश, ब्रह्मतत्त्व प्राप्त किया जाता है। मर्त्यसे अमृत एवं अमृतसे सत्य वस्तुको प्राप्त कर लेना ही बुद्धिमानोंकी बुद्धि तथा मनीषियोंकी मनीषा है।
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्।
यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्॥
(भाग० ११।२९।२२)
वस्तुत: केवल उसी पारमार्थिक सद्वस्तुकी प्रतिपत्तिके लिये भूत एवं भौतिक प्रपंचकी उत्पत्ति होती है—
‘अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपद्यते।’
अध्यारोप एवं अपवाद निष्प्रपंच ब्रह्मकी प्रतिपत्तिके उपाय हैं। अध्यारोप बिना निष्प्रपंच ब्रह्म वाङ्मन आदिका गोचर ही नहीं होता। महाकाश जिस घटके द्वारा घटाकाश बनकर गोचर होता है, वस्तुत: वह घट एवं घटाकाश सब महाकाश ही है। अन्वय-व्यतिरेकसे घट मृत्तिकासे भिन्न वस्तु नहीं ठहरता। वैसे मृत्तिका जलसे, जल तेजसे, तेज वायुसे एवं वायु आकाशसे भिन्न नहीं ठहरता। ठीक इसी तरह आकाश अहंतत्त्वसे, अहंतत्त्व महतत्त्वसे, महत्तत्त्व अव्यक्तसे तथा अव्यक्त सत्तत्त्वसे भिन्न नहीं ठहरता। इस प्रकार उपेय ब्रह्मकी प्रतिपत्तिका उपाय स्वरूपभूत सत‍्से भिन्न कुछ भी नहीं ठहरता।
किंच यदि विकासवादके अनुसार अभी विचार चल ही रहा है तो पूँजीवादी-वर्ग एवं मजदूर-वर्गके इस वर्ग-विरोध, वर्ग-संघर्षको विरोधकी अन्तिम कड़ी क्यों माना जाय? हो सकता है आगे चलकर और प्रगतिशील लोग वर्गवाद सिद्धान्तको अपसिद्धान्त ही समझने लगें। आज अराजकतावाद आदि मत उपस्थित ही हो रहे हैं। बहुत सम्भव है कि वर्ग-संघर्षकी अशान्तिसे ऊबकर लोग साम्यवादकी मरुमरीचिका समझ जायँ और अध्यात्मवादी होकर शान्तिमूलक धर्म-नियन्त्रित शासन-तन्त्र रामराज्यको ही अपनायें। देखते ही हैं कि लोग कभी सत्त्वगुणसे हटकर रज एवं तमको फिर तम एवं रजसे हटकर पुन: सत्त्वको अपनाते हैं। जागरणसे स्वप्न एवं स्वप्नसे सुषुप्तिमें पहुँचते हैं और सुषुप्तिसे पुन: जागरण अवस्थाको अपनाते हैं। अत: पूँजीवादी युगको प्रागैतिहासिक युगका अन्तिम अध्याय मानना भी निर्मूल है। मार्क्सकी जीवनी पढ़नेसे विदित होता है कि उसने पहले अनेक मार्ग अपनाये और छोड़े और हो सकता है, यदि वह कुछ दिन और जीवित रहता तो अपने भौतिक द्वन्द्ववादकी त्रुटियोंको समझकर कोई और ही वाद अपनाता। किंतु सहस्रों, लक्षों वर्षोंके अपने जीवनमें अपौरुषेय वेदादि शास्त्रोंद्वारा प्राप्त अनुभवोंमें महर्षियोंने रद्दोबदल करनेकी आवश्यकता नहीं समझी।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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