प्रवर
प्रत्येक ब्राह्मण का एक गोत्र होता है। वह वंश सूचक होता है कि ब्राह्मण किस ऋषि का वंशज है। उसके बाद उस ऋषि की परम्परा को सूचित करने वाला ‘कुल गोत्र’ होता है। उसके ‘प्रवर’ कहते हैं। प्रवर तीन या पाँच होते हैं। ये आदि ऋषि के नाम से, आदि ऋषि की तीसरी पीढ़ी के प्रमुख ऋषि के नाम से तथा आदि ऋषि की पाँचवी पीढ़ी के ऋषि के नाम से होता है। प्रत्येक (एक दो गोत्र को छोड़ कर) गोत्र के प्रवर अलग अलग होते हैं। प्रवर में पहिला प्रवर गोत्र के ऋषि का होता है। दूसरा प्रवर ऋषि के पुत्र का होता है और तीसरा प्रवर गोत्र के ऋषि पौत्र का होता है। इस प्रकार प्रवर से उस गोत्र प्रवर्तक ऋषि की तीसरी और पाँचवी पीढ़ी तक का पता लगता है। गोत्र की प्रवर संख्या तीन या पाँच होती है। एक समान गोत्र और प्रवर में आपस में विवाह करना शास्त्र द्वारा वर्जित किया गया है।
‘गोत्र’ के साथ ही कुल की परम्परा को सूचित करने वाला एक कुल गोत्र होता है। उसे ‘प्रवर’ कहते हैं। आदिऋषि के नाम से, आदि ऋषि की तीसरी पीढ़ी के प्रमुख ऋषि के नाम से, आदि ऋषि की पांचवीं पीढ़ी के नाम से, गोत्र के तीन भेद हो जाते हैं। यह ‘कुल गोत्र’ कहलाता है। गोत्र के अलग-अलग प्रवर होते हैं। गोत्र में पहला प्रवर गोत्रकार ऋषि का होता है। दूसरा प्रवर उस गोत्रकार ऋषि के पुत्र का, तीसरा प्रवर गोत्रकार ऋषि के पौत्र का होता है। इस प्रकार गोत्र से किसी व्यक्ति के वंश के आदि प्रवर्त्तक का पता लगता है और उसके बाद मवर से उस आदि पुरुष के के पुत्र और पौत्र का पता लगता है। कुल गोत्र से वंश के प्रवर्त्तक ऋषि की तीसरी और पाँचवीं पीढ़ी का पता लगता है। प्रवर तीन या पाँच होते हैं। जैसे वत्स गोत्र के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व और जामदग्न्य – ये पाँच प्रवर हैं।
गोत्रों के प्रवर
गोत्रों के प्रवरों के नाम प्रत्येक गोत्र के आगे दिये गये हैं। उनके नाम में प्रामाणिक ग्रन्थों के नाम संकेत में दिये गये हैं। उनके पूरे नाम इस प्रकार हैं-
संकेत अक्षर | प्रामाणिक ग्रन्थ | संकेत अक्षर | प्रामाणिक ग्रन्थ |
आ. | आश्वलायन | का. | कात्यायन |
आप. | आपस्तम्ब | लौ. | लौगक्षि |
बो. | बोधायन | म. | मत्स्य |
स०ब्रा० इति० -3
गोत्रों के क्रम से उनके प्रवर और वेदादि का परिचय इस प्रकार हैं-
गोत्रों के प्रवर
अगस्त्य | ३ | आगस्त्य, माहेन्द्र, मायोभुव (म०) |
उपमन्यु | ३ | वाशिष्ठ, ऐन्द्रप्रमद, आभरद्वसव्य (बो०म०) |
कण्व | ३ | आंगिरस, घौर, काण्व (आ०) |
कश्यप | ३ | कश्यप, असित, दैवल (म०) |
कात्यायन | ३ | वैश्वामित्र, कात्य, कील (आक्षील) (आ०का०) |
कुण्डिन | ३ | वाशिष्ठ, मैत्रावरुण, कौण्डिन्य (बो०आ०) |
कुशिक | ३ | वैश्वामित्र, देवरात, औदल (बो० का०लौ०) |
कृष्णात्रेय | ३ | आत्रेय, आर्चनानस, श्यावाश्व (बो०) |
कौशिक | ३ | वैश्वामित्र, आश्मरथ्य. वाघुल (म०) |
गर्ग | ५ | आंगिरस, वार्हस्पत्य, भारद्वाज, गार्ग्य, शैन्य (आ०) |
गौतम | ३ | आंगिरस, औचथ्य, गौतम (का०) |
घृतकौशिक | ३ | वैश्वामित्र, कापातरस, घृत |
चान्द्रायण | ३ | आंगिरस, गौरुवीत, सांकृत्य (बो०) |
पराशर | ३ | वाशिष्ठ, शाक्त्य, पाराशर्य (आप०) |
भरद्वाज | ५ | आंगिरस, वार्हस्पत्य, भारद्वाज, शौङ्ग, शैशिर (का०लौ०) |
भार्गव | ५ | भार्गव, च्यावन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य (म०) |
मौनस | ३ | मौनस, भार्व, वीतहव्य |
वत्स | ५ | भार्गव, च्यावन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य (आप०) |
वशिष्ठ | ३ | वाशिष्ठ, आत्रेय, जातुकर्ण्य (म०) |
शाण्डिल्य | ३ | शाण्डिल्य, आसित, दैवल (आ०बो०) |
संकृति | ५ | आंगिरस, सांकृत्य, गौरुवीत (का०लौ० बो०) |
सावर्णि | ५ | भार्गव, च्यावन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य (बो०) |
श्रोत: हरिदास संस्कृत सीरीज ३६१, लेखक: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र , शास्त्री , चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस , वाराणसी
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