1. पाश्चात्य-दर्शन
मार्क्सवादको समझनेके लिये उसकी पृष्ठभूमिपर एक दृष्टि डालना बहुत आवश्यक है। मार्क्सवादमें दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र तीनोंका ही समावेश है। किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, मत या वादका स्थायी आधार उसका दर्शन ही होता है। मार्क्सने भी अपनी विचारधाराका आधार दर्शन ही बनाया। भूत, वर्तमान और भविष्यको एक-दूसरेसे पृथक् नहीं किया जा सकता। यूरोपमें प्राचीनकालसे जो विचारधाराएँ चलती रहीं, उन्हींके विवेचनसे मार्क्सने अपने नये सिद्धान्त स्थिर किये। अत: यह बहुत आवश्यक है कि उन विचारधाराओंको भी पहले समझ लिया जाय। आरम्भमें ही यह प्रश्न उठता है कि दर्शन क्या है? इसलिये पहले हम इसीपर विचार करेंगे।
यूनानी ‘फिलासफस’ शब्द ज्ञान और प्रेमके अर्थमें प्रयुक्त होता था। उसीके आधारपर अंग्रेजीका ‘फिलासफी’ शब्द प्रचलित हुआ। यद्यपि सविस्तर मीमांसा या विवेचना ही इसका अर्थ है, फिर भी विषय-विशेषके संक्षिप्त विचार-दर्शनके लिये भी ‘फिलासफी’ शब्द व्यवहृत होता है। आजकल तो दर्शनकी एक-एक शाखाके लिये भी ‘फिलासफी’ शब्दका प्रयोग होता है। कई आधुनिक पाश्चात्य विद्वान् विशेषकर कम्युनिस्ट, जीवनके दृष्टिकोणको ही दर्शन मानते हैं। उनके मतमें ‘दर्शन’ युगधाराका परिचायक होता है। युगसंघर्षसे ही उसका जन्म हुआ है। दर्शनका उसके निर्माताओंके जीवनकी घटनाओंसे भी सम्बन्ध होता है। अफलातून (प्लेटो) राजकुलमें शिक्षक था, इसलिये उसके दर्शनमें राजसम्बन्धका असाधारण प्रभाव है। हेराक्लिटिस दलितवर्गमें पैदा हुआ, इसलिये उसका दर्शन परिवर्तनप्रवर्तक हो गया; क्योंकि दलित करनेवाली दूसरी श्रेणीका परिवर्तन आवश्यक था। हेलूमूसियस मध्यमश्रेणीका प्रतिनिधि था और कार्लमार्क्स उदीयमान श्रमिकोंका; इसलिये उन-उनके अनुसार उनके दर्शन भी बने। असाधारण विप्लवकालमें मार्क्सका जन्म हुआ। फलत: उसका जीवन क्रान्तिकारी रहा और वैसा ही उसका दर्शन भी।
यद्यपि अंशत: यह ठीक है तथापि यह स्वाभाविक स्थिति है। ऐसे विचारोंका ‘दर्शन’ नाम नहीं दिया जा सकता; क्योंकि इनमें भावनाओंका ही प्राधान्य है। पर भावनाएँ ‘दर्शन’ नहीं होतीं। भावनाके प्राबल्यसे तो कभी विधुर-परिभावित कान्ताका भी साक्षात्कार हो जाता है। परिस्थितिका प्रभाव विचारोंपर होनेसे उनकी यथार्थतामें सन्देह होना स्वाभाविक ही है। स्पष्ट है कि पित्तरोगयुक्त रसनासे गुड़की मधुरताका ठीक अनुभव नहीं हो सकता। पित्तयुक्त नेत्रसे श्वेत शंख भी पीत प्रतीत होता है। सर्पदंष्ट व्यक्ति कटु निम्बको भी मिष्ट समझता है। नीले-पीले उपनेत्रों (चश्मों)-से वस्तु नीले-पीले रूपमें प्रतीत होती है। कामी संसारको कामिनीमय और ज्ञानी ब्रह्ममय देखता है। निम्बके कीटको मिश्रीकी मिष्टताके अनुभवमें पर्याप्त कठिनाई होती है। नमकके पर्वतपर रहनेवाली चींटी मिश्रीके पर्वतपर जाकर मिश्रीकी मिठासका तबतक अनुभव नहीं कर सकती, जबतक कि अपने मुँहसे नमकके कणोंको निकाल न दे। ठीक इसी तरह जबतक तपस्या, सदाचार, नि:स्पृहता एवं योगाभ्यास आदिके सहारे राग-द्वेष, सम्पत्ति-विपत्ति, व्यक्तिगत परिस्थिति तथा वातावरणके प्रभावसे ऊँचा नहीं उठा जाता, तबतक सूक्ष्म विषयोंका यथार्थ ज्ञान कठिन ही नहीं, असम्भव भी है।
भारतीय दृष्टिसे पवित्र विचार अर्थात् धर्म-ब्रह्मादि पवित्र वस्तुसम्बन्ध कल्याणकारी पवित्र विवेचन मीमांसा है—‘माने जिज्ञासायाम्।’ और वस्तुतत्त्व परम सत्यका निर्दोष प्रमात्मक अनुभव करानेवाला विचार ‘दर्शन’ कहा जाता है—‘दृश्यते वस्तु याथात्म्यं अनेन इति दर्शनम्।’ दूसरे शब्दोंमें प्रमाणद्वारा आत्मानात्माका ज्ञान जिससे होता है, उसका नाम ‘दर्शनशास्त्र’ है। प्रमाण अज्ञातज्ञापक होता है, अकृतकारक नहीं। ज्ञान कर्मके समान पुरुषके अधीन नहीं होता। कर्म करने, न करने, उलटा करनेमें पुरुष स्वतन्त्र है, किंतु ज्ञानके सम्बन्धमें यह बात नहीं कही जा सकती। प्रमाण-प्रमेयके परस्पर सम्बन्ध हो जानेपर इच्छा न रहनेपर भी दुर्गन्धादिका ज्ञान होता ही है। दर्शन प्रमाण-परतन्त्र होता है। प्रमाण अनुरोधक-विरोधक सभी प्रकारके होते हैं। उनमें प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम मुख्य हैं, प्रत्यक्षानुमानका भी आगमानुसरण आवश्यक है। इसके बिना कितने ही अनुमानाभास भी अनुभवके रूपमें सामने आते हैं। उदाहरणार्थ कोई नरशिरके कपालकी हड्डीको प्राण्यंग समझकर शंखतुल्य पवित्र मान सकता है। पर यह अनुमानाभास है। अतएव पवित्र बुद्धिके मनुष्य ‘नरशिर:कपालं शुचि: प्राण्यङ्गत्वात् शङ्खवत्’ इस अनुमानका तिरस्कारकर ‘नारं स्पृष्ट्वास्थि सस्नेहं सवासा जलमाविशेत्’ इस आगमानुसार जुगुप्सित नरशिरकी अस्थिका स्पर्श हो जानेपर सचैलस्नान कर अपनेको पुन: शुद्ध करते हैं।
कुछ लोगोंका ऐसा भी मत है कि ‘मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, यह विश्व क्या है’ आदिका चिन्तन तथा विवेचन ‘दर्शन’ है। इसी प्रकार कुछ विद्वान् प्रकृति तथा उसके व्यापारका अध्ययन एवं उसके भीतर एकता देखनेको दर्शन कहते हैं। पर इन मतोंमें भी आंशिक सत्यतामात्र है। सभी दर्शन सभी विषयमें आदरणीय भी नहीं हो सकते। जैसे अन्धोंने हाथीके जितने अंग जिस रूपमें अनुभव किये, उसी ढंगसे उनका वर्णन किया। न इसे सम्पूर्ण मिथ्या ही कहा जा सकता है और न पूर्णतया सत्य ही। विशेषतया पाश्चात्य दर्शनोंके सम्बन्धमें तो अत्यन्त वैरूप्य है। भारतीय दर्शनोंमें यद्यपि इतना अधिक वैरूप्य नहीं है; क्योंकि उनके मूल अनादि-अपौरुषेय वेद, तदाधारित शास्त्र, योगज ऋतम्भरा प्रज्ञा तथा लौकिक प्रत्यक्षानुमान हैं तथापि यहाँ भी सभी विषयोंमें सभी ऋषियोंका समान आदर नहीं, अपितु जिस विषयमें जिस ऋषिने धारणा, ध्यान, समाधि आदिद्वारा तत्त्वानुभूति प्राप्त की, उसी विषयमें उसका सार्वभौम आदर है। जैसे शब्दके सम्बन्धमें पाणिनि, कात्यायन, पतंजलि आदिका एवं वाक्य-विचार आदिमें जैमिनि, व्यास आदिका।
पाश्चात्य-दर्शनोंमें अधिकांशका जन्म कुतूहल-बुद्धि एवं ज्ञान-पिपासा-शान्तिकी दृष्टिसे ही हुआ है। अनेक पाश्चात्य-दर्शनोंका प्रादुर्भाव राजनीतिक उद्देश्यकी पूर्तिके लिये भी हुआ है; किंतु भारतीय दर्शनोंका अन्तिम उद्देश्य दु:ख-निवृत्ति, मृत्यु-विजय तथा मोक्ष-प्राप्ति ही है, अवान्तर उद्देश्य अर्थ-काम-धर्मार्जन भी है।
वेदान्तमतमें ज्ञानस्वरूप आत्मा निर्विकार है। मन, अन्त:करण आत्मासे भिन्न प्राकृतिक है। चित्त, अहंकार आदिके समान ही पंचज्ञानेन्द्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ भी प्राकृतिक सूक्ष्म तत्त्वोंसे ही बनी हैं। स्थूल देहसे भिन्न पंचप्राणसहित उक्त मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार एवं कर्म-ज्ञानेन्द्रियोंको मिलाकर सूक्ष्म या लिंग शरीर कहा जाता है। स्थूल देहके नष्ट होनेपर भी यह सूक्ष्म देह नष्ट नहीं होता। सृष्टिसे लेकर प्रलयकालतक यह सूक्ष्म देह रहता है। इसीके आधारपर व्यापक आत्माका गमनागमनादि बनता है। इससे भिन्न एक रजस्तमोलेशानुविद्ध अतएव अविशुद्ध सत्त्वप्रधान अविद्यारूपी कारण शरीर भी मान्य है, जिसका तत्त्व-साक्षात्कारसे ही बोध होता है। इस तरह वह अनादि, सान्त है। मूल प्रकृति भी अनादि, सान्त है। सम्पूर्ण प्रपंच पंचभूतात्मक है। उन भूतोंकी ग्राहक इन्द्रियाँ भी सूक्ष्म भूतोंका ही परिणाम हैं। भिन्न कारणोंमें स्वकार्यानुकूल शक्ति होती है। इसी तरह ब्रह्ममें भी सर्वप्रपंचोत्पादिनी शक्ति होती है। इसीको मूल प्रकृति कहा जाता है। चेतन ईश्वर सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान् एवं सर्वव्यापी होता है। कर्मोंके अनुसार जन्म-मरणके समान ही संसारका सृष्टि-प्रलय होता है। संसारका कर्मके साथ असाधारण सम्बन्ध है। मोक्ष या भगवत्प्राप्ति संसारका चरम लक्ष्य है। वस्तुत: इन सभी विषयोंका विवेचन ‘दर्शन’ में आ जाता है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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