1.2 यूनानी-दर्शन
पाश्चात्य-दर्शन प्राय: मनतक ही पहुँचते हैं। आत्मवादी भी मन और आत्माका अभेद मानते हैं। इस सृष्टिके पहलेकी सृष्टियोंका विचार भी उन लोगोंने नहीं किया। ‘मैटर’ या भूतसमुदाय यद्यपि बहुत सूक्ष्म माना जाता है तथापि वह सांख्यीय प्रकृतिसे भिन्न है। यही कारण है कि आत्माका विचार उनके लिये बहुत दूरकी बात हो गयी है। यूनानके दर्शन अति प्राचीन समझे जाते हैं, पर वहाँके प्राचीन दार्शनिकोंने जड़-चेतनका भेद ही नहीं माना। किस प्रथम द्रव्यसे संसारकी उत्पत्ति हुई, यही उनका विचारणीय विषय था। अन्नसे मनुष्यादि प्राणियोंकी, मिट्टीसे अन्नकी, जल जमते-जमते मिट्टीकी और गर्मीसे जलकी उत्पत्ति उन्होंने मानी है। जीव-शक्ति भी उसीमें मिली थी। फिर कुछ लोगोंने परमाणु, कुछने विद्युत्कण और कुछ लोगोंने बानवे तत्त्व माने। अन्तमें मैटर या अव्यक्त एक द्रव्यसे संसारकी उत्पत्ति मानी।
यूनानमें ई० सन्से ६०० वर्ष पूर्व थैलीज, एनैक्सीमैन्डर और ऐनैक्सिमैनीज—ये तीन दार्शनिक हुए हैं। हिप्पो और डायोजिनीज भी इन्हींके अनुयायी थे। ये लोग चेतन-अचेतन मिश्रित मूल कारण द्रव्य समझते थे। अतएव आत्मा या ईश्वर आदिके सम्बन्धमें इन लोगोंने कोई चर्चा नहीं की। यद्यपि सृष्टिके पहले अतिसूक्ष्म दृश्य एवं दृक् दोनों अविकल्पित होकर एकमेव-से थे—
‘आसीज्ज्ञानमथो ह्यर्थ एकमेवाविकल्पितम्।’
(श्रीमद्भा० ११।२४।२)
अर्थात् ज्ञान और अर्थ दोनों ही अविकल्पित होकर ही प्रतीत होते थे तथापि यह अविकल्पकता, एकता, सूक्ष्मताके कारण प्रतीत होती है, अविवेकके कारण नहीं, किंतु थैलीज आदि तो जीव-शक्ति-मिश्रित ही मूल कारण मानते थे। थैलीज जलसे, एनैक्सीमैन्डर किसी अनियत द्रव्यसे और एनैक्सिमैनीज वायुसे विश्वकी सृष्टि मानता था। कहा जाता है कि थैलीज ज्योतिषी था। उसने ५८५ ई० में जो सूर्य-ग्रहण हुआ था, उसे पहले ही बतला रखा था। उसके मतानुसार ‘जल ही दृढ़ता, द्रवता तथा वायुके रूपमें परिवर्तित होता है। जलसे वनस्पति तथा सभी जीवोंको जीवन मिलता है।’ किसी दृष्टिसे यह मान्यता भारतीयोंमें भी थी। मनुने लिखा है कि परमेश्वरने पहले जल ही रचा और उसमें अपनी शक्तिका निक्षेप किया—
‘अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत्॥’
(१।८)
जलमें निवासके कारण ही ईश्वरको ‘नारायण’ कहा जाता है। ‘अनेकात्मक प्रपंचका मूल एक वस्तु है’, यह खोज भी महत्त्वकी ही है।
ऐनैक्सिमैन्डर ज्योतिष एवं भूगोलका विद्वान् था। उसने एक अपरिच्छिन्न परिमाणवाले द्रव्यसे ही विश्वकी उत्पत्ति और उसीमें संसारका लीन होना माना है। यदि यह द्रव्य परिमित होता तो सृष्टि होते-होते समाप्त हो जाती। अत: यह द्रव्य अपरिमित अतएव अनश्वर है। इसकी गति भी शाश्वत है। यह स्वयं विशेष पदार्थ नहीं है, किंतु सब विशेष पदार्थ इसीसे निकलते हैं। शीत-उष्णका भेद, पृथ्वी, जल, वायु आदि सब इसीसे निकले। यह स्वयं थैलीजका सहवासी था और इसका शिष्य एनैक्सिमैनीज था। इसने (एनैक्सिमैनीजने) प्रथम द्रव्य वायुको माना है। वायुमें ही शीतलता तथा उष्णतासे घनीभाव और शैथिल्य ये दो गुण प्रकट होते हैं। वायुके शैत्यसे जल एवं उष्णतासे अग्नि प्रकट होती है। जैसे प्राणके आधारपर प्राणीका देह होता है, वैसे ही वायुके आधारपर संसार स्थित है। हिप्पो, थैलीजका ही अनुगामी था। वह आर्द्रतासे अग्नि और अग्नि तथा जलके संघर्षसे संसारका होना मानता था। इडीयस एवं डीयोजेनीज वायुको ही मूल कारण मानते थे; परंतु एनैक्सिगोरस अनेक तत्त्वोंका अस्तित्व मानता था। साथ ही वह ईश्वरकी इच्छासे ही इन तत्त्वोंके द्वारा सृष्टि स्वीकार करता था। पाइथागोरसने संख्याको ही मूल माना है। वह ईश्वरको एक संख्या तथा अन्य अंकोंका उसीसे निकलना मानता था। एकसे बहुतोंकी उत्पत्ति होती है। बहुत सम्भव है कि यह ‘एकोऽहं बहु स्याम्’ (एक मैं अनेक होकर व्यक्त हो जाऊँ) इस श्रौतसिद्धान्तका ही रूपान्तर हो।
एनैक्सिमैण्डर (ई० पू० ६४० से ५५०)-का कथन है कि ‘जो कुछ भी जाना जाता है, वह मूल नहीं है। मूलतत्त्व तो कोई और ही है, जिससे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश—इन पाँच तत्त्वोंका जन्म होता है और जिसे ‘असीम’ नाम दिया जा सकता है। वही घन-विरलभावसे विश्वरूपमें परिणत और उपरत होता रहता है।’ पाइथागोरस (ई० पू० ५७०-५००) तो मूल तत्त्वके सूक्ष्म रूपको ही सब कुछ मानता है। इसके अनुसार ‘रूपका एक प्रकार अनुपात है। जैसे पित्त, कफ और वातके उचित अनुपातसे स्वास्थ्य और विपरीत होनेपर अस्वास्थ्य होता है, वैसे ही अन्य विषयोंमें भी। इसलिये विश्वका मूल वस्तु नहीं, पर वस्तुका रूप ही है।’ उधर परामेनीडीजके मतमें विश्व न कभी उत्पन्न हुआ, न नष्ट ही होगा।
भारतीय दर्शनोंके लिये यह सब कुछ नया नहीं है। मीमांसकोंने कहा है कि ‘न कदाचिदनीदृशं जगत्।’ अर्थात् यह जगत् कभी भी ऐसा नहीं रहा, जैसा आज नहीं है, अर्थात् वह सदा ऐसा ही रहा। सारी गतियाँ बाणकी गतिके समान भ्रमात्मिका ही हैं। बाण किन्हीं विशिष्ट स्थानोंपर ‘सत्’ होते हुए भी ‘असत्’ रहता है अर्थात् रहते हुए भी नहीं रहता। वह उस स्थानविशेषसे होकर जाता है, अत: ‘सत्’ है, परंतु क्षणभर भी नहीं ठहरता, अत: ‘असत्’ भी है। हेराक्लिटसने वस्तुओंका अनादित्व, अनेकत्व और क्षण-विपरिवर्तित्व माना है। प्राकृत घटनाचक्र जितने भी हैं, वे सब सर्वज्ञकी बुद्धिद्वारा प्रवर्तित हैं और विश्वका मूल भी। अनाक्सागोरस (ई० पू० ५००-४८८) और एम्पीडोल्कीज (ई० पू० ४६०-३७०)-का कथन है कि ‘वस्तुओंकी अनेकविधताका पर्यवसान परमाणुओंकी अनन्ततामें हो जाता है। सभी वस्तुओंके बीजभूत परमाणुओंके संयुक्त होनेपर ही विश्व उत्पन्न होता है। असत्से कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता, न सत्का विनाश ही हो सकता है। अणुओंका संयोग-वियोगात्मक ही परिवर्तन है। कोई भी वस्तु ‘आकस्मिक’ नहीं। सब वस्तुएँ कार्य-कारणसम्बद्ध ही हैं। अणु और शून्य इन दोके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अणु अनन्त हैं और उनकी अवस्थाएँ भी अनन्त हैं। नये अणु नि:सीम प्रदेशोंमें अनवरत गिरते रहते हैं एवं पारस्परिक संघर्षोंसे ही भिन्न होते रहते हैं। उनके इन पारस्परिक संघर्षोंसे ही ‘पार्श्वभ्रमि गतियाँ’ (चारों ओर भँवर-जैसी गतियाँ) उत्पन्न होती हैं, जिनसे असंख्य विश्वोंकी उत्पत्ति और विनाशकी परम्परा (शृंखला) चलती रहती है।’ इनके मतमें ‘अणुओंमें आन्तरिक (भीतरी) गति नहीं होती। क्रान्ति और संघर्षोंसे ही परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। सूक्ष्म अणुओंसे सारा शरीर व्याप्त है और उन्हींसे ‘जीवन’ और ‘आत्मा’ कही जानेवाली वस्तुओंकी उत्पत्ति होती है।’
डीमोक्रीटस (ई० पू० ४६०-३५७)-के मतमें ‘इन्द्रियोंसे ही ज्ञान उत्पन्न होता है। जो एक जगह सत्य है, वह दूसरी जगह असत्य भी हो सकता है।’ इनके मतमें मानवानुभूतिका ही सर्वाधिक महत्त्व है, ऐसा सोफिस्टोंका कहना है। भौतिकवादियोंके मतमें ‘धार्मिक प्रचारोंसे दर्शनोंमें बड़ा प्रतिरोध उत्पन्न हुआ। चूँकि यहाँ मानव-बुद्धि सीमित ही है, अत: उससे तत्त्वज्ञान दुर्लभ ही है। प्रत्येक मानवके लिये दुर्भेद्य अन्धकार स्वभावसिद्ध है, इसीलिये प्रकृति भी रहस्यभूता ही रह जाती है।’
वस्तुतस्तु भौतिकवादी धार्मिक पक्षको बड़े विकृत रूपमें व्यक्त करते हैं। जो दग्धा (जलानेवाला) है, वह दहन (जलाये जाने)-का विषय नहीं हो सकता, उसी प्रकार जो ज्ञाता (जाननेवाला) है, वह ज्ञान (जानने)-का विषय नहीं हो सकता—यह सिद्धान्त सर्वथा युक्तिसंगत ही है। ठीक वैसे ही, रूप जैसे श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा नहीं जाना जा सकता (केवल चक्षुरिन्द्रियके द्वारा ही जाना जा सकता है), वैसे ही शब्दस्पर्शादिगुणपंचकसे परेके पदार्थ इन्द्रियागोचर हैं—इन्द्रियोंद्वारा नहीं जाने जा सकते (अर्थात् प्रत्यक्षके क्षेत्रके बाहर हैं, केवल अनुमान या शब्द-प्रमाणके द्वारा ही जाने जा सकते हैं)। यह सिद्धान्त भी ठीक ही है—इसमें भी कहीं कोई युक्तिविरुद्ध बात नहीं दिखलायी देती। प्रामाणिक अनुशासन (शास्त्र या आप्तवाक्य)-को भी न माननेपर ‘तर्कनवस्थान’ दोष अनिवार्य होगा। अर्थात् तर्कके वस्तुयाथार्थ्यपर अवलम्बित न रहकर व्यक्तिगत बुद्धिपर अवलम्बित रहनेके कारण जब जिस पक्षका व्यक्ति अधिक बुद्धिमान् होगा, तब उसीका मत सिद्धान्तमें मान लेना पड़ेगा और कब किस पक्षका व्यक्ति अधिक बुद्धिमान् होगा, इसकी कोई व्यवस्था नहीं; अत: कभी सत्यपक्ष सत्य रह सकता है और कभी असत्यपक्ष भी जीत सकता है और ऐसी स्थितिमें ज्ञान भी अस्थिर ही रहेगा—
यत्नेनानुमितोऽप्यर्थ: कुशलैरनुमातृभि:।
अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते॥
अर्थात् कुशल अनुमाता लोग बड़े प्रयत्नसे जिस अर्थको तर्कसिद्ध करते हैं, उसी अर्थको अन्य अनुमाता तार्किक अपने अनुमान—तर्कोंद्वारा अन्यथा ही सिद्ध कर देते हैं। इस तरह पूर्व अनुमित अर्थका खण्डन कर नवीन अर्थ प्रस्तुत और पुन: उसका खण्डन कर नवीन बात सिद्ध की जा सकती है। इसलिये तर्कमें अप्रतिष्ठितताका आरोप होता है तथापि यह तर्कका अप्रतिष्ठितत्व दूषण नहीं भूषण ही है; क्योंकि तर्कोंके अप्रतिष्ठितत्वकी सिद्धि भी तर्कसे ही होगी। जैसे ‘अयं तर्क: अप्रतिष्ठित: तर्कत्वात् तर्कान्तरवत्’ यह भी एक तर्क ही है और यदि यह तर्क भी अप्रतिष्ठित है, तो इस अप्रतिष्ठित तर्कके द्वारा तर्कोंका अप्रतिष्ठितत्व भी किस प्रकार सिद्ध होगा? और यदि यह तर्क प्रतिष्ठित है, तो सब तर्क अप्रतिष्ठित हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि यह भी तर्क है, जिसको प्रतिष्ठित मान लिया गया। अत: कदाचित् तर्कोंका अप्रतिष्ठितत्व भूषण है, दूषण नहीं। अत: बड़ी सावधानीसे किसी तत्त्वके निर्णयके लिये कुछ तर्कोंका प्रयोग किया जाना चाहिये।
सुकरातका मत था कि ‘सदाचारके अनुवर्तनसे ही सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है और वह ज्ञान प्रत्येक मनुष्यको उत्पन्न होनेवाले सामान्य ज्ञानसे भिन्न ही होता है। इष्ट घटनाओंद्वारा कार्यकारण-सम्बन्धसे सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति सम्भव है। सम्यग्ज्ञान उत्कृष्ट गुण है। व्यापक विचारोंसे उसकी उत्पत्ति होती है।’ कुछ लोगोंका यह जो मत है कि ‘सारा-का-सारा ज्ञान संशयाक्रान्त ही होता है, कोई भी ज्ञान निश्चयात्मक नहीं होता’ उसका निराकरण करते हुए उनका कहना है कि ‘देवता नहीं चाहते कि इस विषयको लोग जानें। इसीलिये संशयाक्रान्ति होती है और सदाचार तथा देवानुग्रहसे सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति भी सम्भव ही है, असम्भव नहीं।’ भौतिकवादियोंके मतमें सुकरातका दर्शन नीतिविषयक ही है। वैज्ञानिक अन्वेषणकी अपेक्षा उन्होंने आध्यात्मिक कल्पनाका ही अधिक आदर किया है। उनके मतमें ‘केवल बाह्य इन्द्रियोंसे ही अनुभूति होती हो सो बात नहीं है, अपितु तत्त्वानुभूति तो अन्तरात्मासे ही उत्पन्न (प्रत्यगुद्भूत ही) होती है। न्याय, सदाचार और सुबुद्धि मनुष्योंके आन्तरिक गुण है।’ उनके मतमें जो त्रिकालाबाध्य है, एकरस है, वही सत्य है। उन्होंने अप्रामाणिकप्राय असम्बद्ध ज्ञानोंसे उपप्लुत मस्तिष्कको परिष्कृतकर उनमें सत्य ज्ञानके बीज बोये। उनका दर्शन शब्दार्थज्ञानविषयक ही है। बाह्य ज्ञानकी अपेक्षा आन्तरिक ज्ञानकी ही महत्ता उन्होंने अत्यधिक प्रख्यापित की है।
उनके शिष्य अफलातून विशिष्ट दार्शनिक हुए। उन्हींके प्रभावसे अनेक विद्वान् अपूर्ण संसारसे विरक्त हो गये और अनन्त सत्यमें अपना मन लगा दिया। भौतिकवादियोंकी दृष्टिसे लोग ‘वस्तु’ से अपना ध्यान हटाकर अमूर्त्त व्यापक सत्यके अन्वेषणमें लग गये। इन्द्रियव्यापारोंसे उपरत होकर उन्होंने विचारशक्तिसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त स्थिर किये। उक्त विरोधाभासको ही तत्त्व मानकर यह मान लेना कि ‘गति या परिवर्तन विरोधपूर्ण है, अत: उसकी व्याख्या नहीं हो सकती’ मिथ्या ही है। इसलिये तत्त्व तो अपरिवर्तनीय ही रहा और वही सत्य भी है, वही नित्य भी है। परिवर्तन तो भ्रममात्र है।
भौतिकवादकी पद्धतिसे तो इस दर्शनमें अनुभव और प्रयोगकी उपेक्षा ही है। जो तत्त्व है, वह ‘कृतबुद्धिग्राह्य’ ही है अर्थात् परमेश्वरके अनुग्रहसे प्राप्त हुई किसी रहस्यमयी आत्मशक्तिद्वारा ही उसका ज्ञान (ग्रहण) हो सकता है।
अन्य यूनानियोंका यह मार्ग भी प्रादुर्भूत हुआ कि ‘तर्कद्वारा भी तत्त्वान्वेषण हो सकता है।’ अफलातूनके मतसे ‘भौतिक वस्तुओंको सत्यपरिचायक समझना चाहिये। घटनाएँ असम्पूर्ण और भ्रामिका होती हैं। इसलिये घटनाओंके मूलमें कोई गम्भीर सत्य रहता है। वही ‘वैज्ञानिक नियम’ कहलाता है। सारी सृष्टि उसीके अनुसार है। उन्हीं नियमोंसे घटनाओंकी व्याख्या भी होती है। साथ ही मूलभूत वैज्ञानिक नियम जाने भी जा सकते हैं।’ अफलातूनके मतमें ‘विश्वका घटनाचक्र यन्त्र-सा नहीं है, अपितु जैसे वस्तुओंकी वृद्धिका मूल सूर्य है, वैसे ही सब घटनाचक्र किसी-न-किसी शुभके ही उद्देश्यसे प्रवृत्त होता है। इसका विषयानुरूप विवरण यह हो सकता है कि जितने अंशसे इन्द्रिय जगत्-सम्बद्ध है, उतने अंशसे उसकी सत्ता न्यून है। यदि कोई हिम (बर्फ)-पर हाथ रखकर कवोष्ण जल (गुनगुने पानी)-में हाथ डाले, तो उसे वह जल अनुष्णके समान लगता है और यदि अनुष्ण जलमें पहले हाथ डालकर गुनगुनेमें डाले, तो उसे वह शीतल-जैसा लगेगा, इस प्रकार वही जल उष्ण भी है और शीतल भी। हाथीकी दृष्टिसे चूहा ‘लघु जन्तु’ है, परंतु चींटीकी दृष्टिसे वही ‘महान्’ अनुभूत होने लगता है। इस प्रकार वही मूषक लघु भी है, वही महान् भी। दृष्टिभेदकी दृष्टिसे यही युक्ति अन्य भी अनेक स्थलोंपर प्रयुक्त हो सकती है। कोई भी इन्द्रियानुभूत वस्तु विपरीत गुणयुक्त विदित होने लग सकती है। अत: गुण निश्चित नहीं कहे जा सकते और जो अपरिवर्तनीय गुणयुक्त नहीं है, वह सत्य नहीं है और न वह ज्ञान ही प्रमात्मक है। कोई चित्र किसीको सुन्दर लगता है, किसीको असुन्दर। जो वस्तु नित्य है, उसका गुण निश्चित होता है अथवा गुणाभाव निश्चित होता है।’ उन (अफलातून)-के मतसे ‘इन्द्रिय-सम्बद्ध जगत् जाना नहीं जा सकता।’ यदि पूछा जाय कि ‘जो विज्ञान अनुभूत होता है, वह किसका है?’ तो उनके मतसे उत्तर है—‘रूपजगत्का अथवा धारणाओंका।’ इन्द्रियानुभूत (वस्तुओं)-में गुणोंकी उपलब्धिका कारण रूप है। उसीसे उसमें सत्यत्वका आभास होता है। रूपका ही सम्यग्ज्ञान होता है। रूपशब्दसे यहाँ शाश्वतिक रूप लेना चाहते हैं। सारांश यह कि अपूर्ण बाह्य जगत्की अपेक्षा नित्यसिद्ध पूर्णताका ही अन्वेषण करना चाहिये।
अरस्तूने बाह्य एवं आन्तर दोनोंकी व्याख्या की है। ‘व्यापक विचारोंसे ही तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है’ यह तो उन्हें भी मान्य ही है। वे रूपको वस्तुसे संश्लिष्ट ही मानते हैं, अत्यन्त पृथक् नहीं। अफलातूनकी रेखागणितमें अभिरुचि थी, इसलिये काल्पनिक वस्तुकी ओर उनका स्वाभाविक झुकाव रहा। अरस्तूकी जीवविज्ञानमें रुचि थी, इसलिये प्रकृतिके विकार, परिवर्द्धन आदि संस्कारोंकी प्रबलताके कारण अपरिवर्तनीय धारणा आदिके सम्बन्धमें इनकी रुचि रही। उनके मतसे आकारमण्डित ही वस्तु विशिष्ट रूप ग्रहण करती है। विभिन्न वस्तुओंका वस्तुतत्त्व और रूप पृथक्-पृथक् होता है। जैसे मूर्तिका वस्तुतत्त्व पाषाण है और शिल्पिकृत रूप ही रूप है। वनस्पति, पशु, मनुष्य आदिका शरीर-संघटन वस्तुतत्त्व है। रूप है; पचन-क्रिया, इन्द्रियानुभूति और बोध। रूपके बिना वस्तु कुछ नहीं है; क्योंकि धरणी, जल, अनल, अनिल आदि भी किसी मूल वस्तुके अवस्थाविशेष ही हैं। विश्वका गतिदायक परमेश्वर है, जो स्वयं गतिहीन है। उसकी सत्तामात्रसे विश्व पूर्णताकी ओर अभिमुख होकर विकासोन्मुखी है।
जिस वस्तुमें जितने अधिक रूप हैं, उसका उतना ही अधिक महत्त्व है। आम्रका वस्तुभूत वृक्ष है और वृक्षका रूप आम्रफल है, परंतु वृक्ष भी वनका रूप है। उसकी दृष्टिसे वन वस्तु है। यहाँ एक ही पदार्थ किसीकी दृष्टिसे रूप है और किसीकी दृष्टिसे वस्तु।
अरस्तूकी दृष्टिसे भी सभी वस्तुएँ बीजरूपसे स्थित हैं ही। सारा-का-सारा वटवृक्ष बीजमें अवस्थित है। उपयुक्त सामग्रीसे उसके आवरणका अपनयन होनेपर उसकी अभिव्यक्ति हो जाती है। विकासोन्मुख वस्तुओंमें विकासानुगुण (विकासोचित या विकासोपयुक्त) शक्तियोंकी कल्पना कर लेनी चाहिये। वृद्धिशील वस्तुओंकी प्रवृत्ति किसी उद्देश्यसे ही होती है। विश्व कहाँसे और क्यों दृष्टिगोचर होता है, इस प्रश्नका उत्तर वस्तु, रूप, सुप्तशक्ति एवं वास्तविकता—इन चार बातोंसे होता है। बीज वृक्षका भौतिक हेतु है। दूसरा है नियम, जिससे आम्रवृक्षसे आम्रहीका वृक्ष होता है, पनस (कटहल)-का नहीं। तीसरा—कर्ता, जिसकी प्रेरणासे क्रिया निर्वृत्त होती है। वास्तविकता चौथा हेतु है, जिसके उद्देश्यसे बीजकी प्रवृत्ति होती है। बीजके क्षेत्रमें यह आम्रफल है, चित्रकारके क्षेत्रमें सम्पूर्ण चित्र है। यह सारा यूनानी भाषामें ‘टेलिओलौजी’ सिद्धान्त कहलाता है। यान्त्रिक हेतु इससे भिन्न है। वह कार्यका पूर्ववर्ती तथा भावी (कार्य)-का निर्णायक होता है। सामग्री सम्पूर्ण रहे तो कार्योत्पत्ति नि:संदिग्ध है। जैसे छोटे-छोटे यन्त्र महान् यन्त्रके चलानेवाले होते हैं। ‘टेलिओलौजी’ सिद्धान्त बतलाता है कि ‘इस बातपर भी ध्यान देना चाहिये कि कारण न हो तो वस्तु क्या हो जाय और किस उद्देश्यसे उसकी प्रवृत्ति होने लगे। सर्वत्र सुकल्पित, सुसंघटित व्यवस्था ही ईश्वरके अस्तित्वको भी सिद्ध करती है।’
‘अचेतन माया प्रकृति ही अन्य सभी चेतनोंका मूल है’ यह भी उनका मत है—कि ‘अन्तर्निहितशक्तिवाले भूत ही जीव, जन्तु, वनस्पति आदि रूपमें परिणत हो जाते हैं। जिस प्रकार जीर्ण-शीर्ण काष्ठ, सड़े-गले गोबर तथा गीले बालोंसे कीड़े, बिच्छू तथा जूँ आदि उत्पन्न हो जाते हैं।’ पर वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। यद्यपि इस मतकी विस्तृत समालोचना आगे चलकर मार्क्सदर्शनकी समीक्षाके अवसरपर की जायगी तथापि यहाँ इतना कह देना आवश्यक है कि गोबर, काष्ठ, लोम, केशादिकोंसे बिच्छू आदिके जड कलेवरकी ही उत्पत्ति होती है, न कि उनके चेतन आत्माकी। वह तो सदाके अनुसार अन्यत्रसे ही आता है, वहाँ उसकी अभिव्यंजनामात्र होती है। जैसे लोहा-लक्कड़, कोयला, पानी आदिपर स्वत: विद्यमान अग्निकी ही अभिव्यक्ति होती है, वैसे ही विद्यमान चेतनकी ही तत्तत् शरीरोंमें अभिव्यक्ति होती है।
आधुनिकोंमें बहुतोंका मत यह है कि पहले वस्तुओंको देखनेके साधन यन्त्र ऐसे नहीं थे, इसलिये समष्टि दृष्टिसे विचार-परम्परा चल पड़ी। ‘मानसिक विचारोंसे ही तत्त्वबोध हो सकता है’ इस धारणाका भी मूल कारण यही है। अरस्तूने ज्ञानरश्मियुक्त आत्माओंके जन्मान्तर माने हैं। भौतिकवादियोंका कहना है कि यह उनका भ्रम ही था; क्योंकि जीवविज्ञानशास्त्र का निश्चित मत है कि संस्कार एवं अन्तर्बोध इन्द्रियजन्य अनुभवका ही परिणाम है। अरस्तूके मतसे पदार्थोंमें जीवनके बीजाणु सर्वदा ही रहते हैं। संसारमें विशिष्ट श्रेणियाँ विशिष्टगुणयुक्त होती हैं। यह विज्ञानकी विशिष्ट उन्नति है। संसारका स्वरूप बुद्धिप्रसूत है, नियन्त्रित है। इसलिये सभी वस्तुएँ नियमानुवर्ती (नियमबद्ध) ही हैं। परिभाषाविज्ञानसे जीवों और जीवात्मक सभी वस्तुओंकी निरुक्ति-व्याख्याकी जा सकती है। पाश्चात्योंकी दृष्टिसे अरस्तूने अपनेसे पहलेके सभी दार्शनिकोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट व्यवस्थाएँ निर्धारित की हैं। अन्य लोग उसमें भी कुछ कमी देखते हैं। वे कहते हैं कि वस्तुओंके गुण निर्धारित मान लेनेपर उनका विकास उपपन्न नहीं होगा; (क्योंकि) किसी एक रूपका रूपान्तरमें परिवर्त्तित हो जाना ही तो विकास है। स्टोइक, स्कैपृक, एपिकुरस आदि नीतिके प्रपंचमें पड़े। एपिकुरसके विषयमें रोमके महाकवि ल्युक्रैटियस कैरसने कहा है कि ‘जब धर्मने मनुष्योंपर आसमानसे अपना खूंख्वार फौलादी पंजा फैलाया और मनुष्योंने धर्मके भारी हमलेके सामने घुटने टेक दिये, तब यूनानके एक महापुरुषने उसका उठकर सामना किया, जिसे देवताओंका क्रोध भी विमुख न कर सका।’
सर्वाभ्युदय-नि:श्रेयसहेतुभूत भगवान् धर्मके परम सुखकर स्वरूपको भी भ्रमवशात् इन लोगोंने उलटा ही समझा। ईश्वर ही संसारका मूल है। धर्म ही उसका तथा संसारके मूल परमपुरुषार्थका एकमात्र साधन है। अभ्युदय-नि:श्रेयसार्थ बुद्धिमान् जन उसका सेवन करते हैं। अत: अरस्तू इत्यादिकोंका दर्शन बहुत कुछ भारतीय आस्तिक दर्शनोंसे मिलता है।
उनके दर्शनका लक्ष्य सुखप्राप्तिके मार्गका ज्ञान ही है। सुख ही जीवनका लक्ष्य है। विश्वनियमोंको जान लेनेसे वह सुलभ हो जाता है और उनके न जाननेसे ही मनुष्य ‘रहस्यभूत कारण’ की कल्पना कर उससे डरता है। विमुक्ति ही सुख है, मृत्युसे अनुभवशक्ति नष्ट होती है, अत: वह उद्वेगका कारण नहीं। जब मृत्युसे अपनी या आत्माकी सत्ता ही उपलुप्त हो जाती है, तब उसके लिये चिन्ताका अवकाश ही कहाँ रह जाता है?
ज्ञानसे प्रसूत होनेके कारण सुख अच्छा है। अज्ञानसे उत्पन्न होनेके कारण दु:ख बुरा है। स्टोइकके मतसे गुण ही सुख है। एपिकुरसके मतसे सुखके लिये गुणकी आवश्यकता होती है। स्टोइकके मतसे गुणका उपयोग गुणहीके लिये है। गुणवृत्तिसे दु:ख भी सम्भव है, फिर भी गुणवृत्ति ही सुख है। एपिकुरसके मतसे गुण सुखका साधनमात्र है। यदि वह सुखका साधन न हो तो गुण ही कैसा? (यदि सुख साधनत्व न हो तो गुणत्व ही न रहे)। मनुष्य तबतक सुखी नहीं होता, जबतक महत्त्व, बुद्धि, न्यायशीलता आदि गुण उसमें नहीं आते, परंतु बुद्धिमत्त्व आदि गुण शाश्वत नहीं हैं, अपितु आपेक्षिक एवं परिवर्तनशील हैं।
डीमोक्रीटसको प्रकृति-परमाण्वादि-सिद्धान्त भी स्वीकृत है। डीमोक्रीटसके मतानुसार ‘परमाणु शून्यमें गिरते हैं।’ इस पक्षमें ‘उन (परमाणुओं)-के समान गतियोंसे ही गिरनेसे जटिल गतियोंकी उत्पत्ति नहीं होती, अत: विश्वसृष्टि दुर्लभ ही हो जायगी’ अत: एपिकुरसने उनका वक्रगतिसे पतन माना है, जिससे विश्वसृष्टि उत्पन्न हो जाय। इस प्रकार वह सिद्ध करता है कि मनुष्य स्वतन्त्र इच्छावाला है, किसी अन्यके द्वारा प्रयोज्य नहीं। शून्यसे शून्यकी ही उत्पत्ति हो सकती है, और किसीकी नहीं। अन्यथा किसीसे भी कुछ भी उत्पन्न हो जाय। जो है, वह पिण्ड है, जो नहीं है, वह शून्य है (अथवा जिसकी सत्ता है, वह पिण्ड है, जिसकी सत्ता नहीं है, वह शून्य है)। अणु अविभक्त हैं, अपरिवर्तनीय हैं एवं गतिमान् हैं। परस्पर अभिमुख होनेसे उनका संयोग होता है। गतियाँ अनादि हैं। परिमाण और आकारके अतिरिक्त उनका कोई गुण नहीं है। उनके मतमें आत्मा भी अणु-विशेष ही है। वस्तुओंसे पृथक् जीवन-क्रियाको प्रदर्शित करनेके लिये ही आत्माकी सृष्टि हुई (या की गयी) है। धर्मका बन्धन छुड़ाकर प्रकृतिका अध्ययन करना ही मुख्य ‘दर्शन’ है—ऐसा उन (डीमोक्रीटस)-के मतानुयायियोंका कथन है, परंतु ऐसा है नहीं। अणु परिमाण उसे कहना चाहिये, जिससे अन्य कोई अपकृष्ट परिमाण न हो—‘यत: अपकृष्टपरिमाणं नास्ति तद् अणुपरिमाणम्।’ सूक्ष्मताकी कल्पना करते-करते वाचस्पतिकी मति भी जहाँ परिश्रान्त हो जाय, उस अविभाज्य निरतिशय सूक्ष्म अवयवको परमाणु कहते हैं। स्वतन्त्र जड परमाणुओंमें प्रपंचारम्भ या विनाशानुकूल व्यापार स्वत: सम्भव नहीं; क्योंकि चेतनानधिष्ठित जड पदार्थोंमें विलक्षण व्यवस्थित अभीष्टकार्यकारित्व सम्भव नहीं। अतएव स्वतन्त्र रूपसे वक्र गति या सीधी गतिसे भी सृष्टि-निर्माण सम्भव नहीं, अपितु अदृष्ट और ईश्वरसापेक्ष ही परमाणुओंसे कदाचित् सृष्टि और विनाश होता है।
मिस्रके ‘अलेग्जैण्ड्रिया’ नगरमें बहुत-से दार्शनिकोंका आविर्भाव हुआ। पाश्चात्य एवं पौरस्त्य दार्शनिक वहाँ एकत्र हुआ करते थे। वहाँ प्लाटिनसके प्रभावसे धर्म और दर्शनका सम्मिश्रण हुआ। वे मानते थे कि ‘अनन्तप्रज्ञारूपिणी रहस्यपूर्ण सत्तासे ही सब वस्तुओंकी उत्पत्ति हुई है और वह सत्ता दुर्ज्ञेय है। उसकी प्रपंचोत्पादिनी शक्तिको ही ईश्वर मानकर व्यवहार चलाया जा सकता है और वह अपने भीतर ही संकल्पसे विश्वात्माकी सृष्टि करता है। विश्वात्मा ही समष्टिजगत् एवं व्यक्तियोंकी आत्मा है। पार्थिव सम्बन्धसे अवनति होती है और उसके विच्छेदद्वारा पूर्ण सत्ताप्राप्ति ही उत्थान है।’
क्रासिस्कन, जान स्टोक्टस, एरिगेना (ई० ८१०—८७०), रोजिलिनस (१०५१—११२१) इत्यादि दार्शनिक अफलातूनके सिद्धान्तसे प्रभावित रहे और ट्रोपिनिकन, एलबर्ट्स आदि अरस्तूके। एक्विनसकी दृष्टिसे निर्गुण पदार्थ-स्वरूप ही वस्तुएँ हैं। उन्हींसे प्रपंचकी उत्पत्ति होती है। उपलब्ध वस्तुएँ रूप ही हैं। जिन रूपोंसे वस्तुओंका ज्ञान होता है, उन्हींसे मूर्ति मूर्ति हो पाती है अन्यथा निराकार पिण्ड ही रहे। वस्तुहीके समान रूप भी सत्य है। वस्तुसे भी उच्चतर सत्य रूप है। मूर्तिका रूप कृत्रिम नहीं है, न बाह्याकृति है, अपितु वस्तुका तत्त्व भी वही है और बाह्य और आन्तर भी वही है। वस्तुका रूपान्तरण ही विकासवादका सिद्धान्त है। मनुष्य पशुका रूपान्तरण है और पशु अचेतन पदार्थका रूपान्तर। एक ही मूल वस्तुसे अनेक सत्योंका संघटन सम्भव है। जीवित, चिन्तनशील, अनुभवपूर्ण मनुष्य भी वैसा ही सत्य है। ऐक्विनसके मतसे ‘वस्तुतत्त्वका अनुभव तो बाह्य इन्द्रियोंसे होता है, परंतु रूपका बुद्धिसे ही होता है।’
स्कौट्स एरिजेनाके मतमें ‘प्रकृतिमें विवेक तो पहलेहीसे था। यथासमय शासनशक्ति भी उत्पन्न हो जाती है तथा समय प्रकृतिके साथ उत्पन्न होनेवाला है तथापि प्रारम्भकालमें शासनशक्ति नहीं थी। विवेकसे ही शासनशक्ति उत्पन्न होती है, न कि शासनशक्तिसे विवेक। विवेकहीन शासनशक्ति दुर्बल ही रहती है। विवेक तो शासनशक्तिसे निरपेक्ष भी अपने गुणोंसे ही सुरक्षित है।’
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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