पाश्चात्य राजनीतिपर विचार करते समय सर्वप्रथम उसके प्राचीन यूनानी राज्यदर्शनपर विचार करना पड़ता है। वहाँकी सबसे प्राचीन रचनाएँ होमरकृत महाकाव्य ‘इलियड’ तथा ‘ओडेसी’ हैं। इनका महाभारतके साथ इतना साम्य है कि सिकन्दरके सैनिकोंको भ्रम हो गया कि ‘कहीं महाभारत होमरकी रचनाओंका भारतीय संस्करण तो नहीं है।’ उक्त महाकाव्योंमें प्राप्त जीवनदर्शनके अनुसार राजाका स्वरूप सामने आता है। राजा न्यायकर्ता था, किंतु तभी जब कोई समस्या सार्वजनिक हितके लिये उठती अथवा कोई प्रपीड़ित व्यक्ति फरियाद लेकर राजद्वारपर आता, अन्यथा नरवधके मामले भी कुलपतियोंद्वारा सुलझा दिये जाते थे। राजा सैन्यशक्तिका प्रधान था। राजाकी स्थिति यद्यपि जनस्वीकृतिपर आधारित थी, फिर भी राजाका व्यक्तित्व उसके अधिकारप्रयोगमें अधिक महत्त्व रखता था।
हेसियड अपने वर्तमानको निकृष्ट तथा अतीतको स्वर्ण-युग मानता था। उसका विश्वास था कि मानव-इतिहासका उष:काल अत्यन्त सुखमय था। क्रमश: दु:खकी वृद्धि मानववर्गमें होती गयी, जिससे स्वर्णके बाद रौप्य (चाँदी) युग आया। इसके बाद ताम्रयुग तथा अन्तमें लौहयुग आया। अपने समयको वह लौहयुग मानता था।
प्लूटार्कने अपोलोके सात सन्तोंका उल्लेख किया है, किंतु अर्नस्ट वार्करके अनुसार इनमें केवल सोलन नामक संत ही ऐतिहासिक है। सोलनने सामाजिक तथा राजनैतिक जीवनमें महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये। उसका प्रमुख आधार न्याय एवं दण्ड था। वह एक ही साथ निर्धनोंका मित्र तथा धनवानोंका रक्षक था। उसका युग शोषणका युग था। उसके लिये उसने केवल वैधानिक राज्यकी ही स्थापना नहीं की, अपितु कार्यकारिणीकी अपेक्षा न्यायकी उच्चता एवं राज्यसत्ताका आधार जनता सत्तामें स्थापित किया तथापि उसका जनतन्त्र न्यायकी सीमाके अन्दर ही था। सीधे-सीधे राज्यकी नीति तथा संचालनमें जनताको कोई अधिकार नहीं था। जनता इस बातका ध्यान रख सकती थी कि ‘स्वीकृत नियमों तथा परम्पराके अनुसार ही वह शासित हो रही है।’
साफिस्टोंके पूर्व, उपर्युक्त दार्शनिकोंके अतिरिक्त, आयोनियाके भौतिकवादी दार्शनिकोंका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुत: यूनान विषमताओंका पुंज था। एक ओर गणतन्त्रीय राज्यसंघ तथा दूसरी ओर मेसेडोनियाका विशाल साम्राज्य। एक ओर हेराक्लीटसका पदार्थ-परिवर्तनवाद और दूसरी ओर परमेनाईडीजके द्वारा उसका खण्डन। ये सब विरोधीभाव साथ ही चल रहे थे। इसी प्रकार यूनानमें जिस समय डायनीशसका परिष्कृतरूप आरफ्यूसवाद बनकर जनप्रिय हो रहा था, उसी समय आयोनियामें उसका विरोधी पक्ष भी उपस्थित हो गया था।
यह नवीन विचारधारा अपने उद्गम आयोनियासे पेरिकिल्सके समयमें अनेक्सागोरसद्वारा एथेन्स लायी गयी थी। इस दार्शनिक विचारकी उत्पत्तिका कारण वार्करके अनुसार ‘पूर्वका प्रभाव’ है। हेराक्लीटसका सर्वव्यापक तत्त्व अग्नि, जल थे। जिस प्रकार उसके दर्शनमें अग्नि, जल तथा उष्ण एवं शीतकी धारणाएँ थीं, उसी प्रकार समाजके क्षेत्रमें वह ऊँच-नीचका विचार मानता था। वह शुष्क एवं अग्निप्रधान व्यक्तिको श्रेष्ठ, गीले एवं जलप्रधान व्यक्तिको नीच मानता था।
आयोनियाके अन्य दार्शनिकोंकी भाँति पाइथागोरस भी अनेक रूपात्मक जगत्में एक तत्त्वकी व्यापकता मानता था। किंतु उसका एक तत्त्व अग्नि तथा जल आदिसे अधिक सूक्ष्म ‘संख्या’ था। ‘संख्या’ के अस्तित्वमें स्थान (अवकाश) भी सम्मिलित है। इस प्रकार संसारकी प्रत्येक वस्तुका सार संख्या ही है। पाइथागोरसके मतसे ‘समस्त प्राणियोंकी आत्मा समान है तथा ‘जन्मचक्र’ में एक मनुष्यकी आत्मा अगले या पिछले जन्ममें कुत्ते, हाथी या किसी जन्तुके देहमें भी हो सकती है। ‘जन्म-चक्र’ से मुक्ति पानेके लिये साधना और संस्कार अपेक्षित हैं। साथ ही ज्ञानकी महत्ता सर्वाधिक है।’
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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