2.2 प्लेटो (अफलातून)
प्लेटोके दर्शनमें दो पक्ष हैं—आदर्श तथा वास्तविक। अपने समयके स्वरूप अध्ययन करनेके बाद वह इस निष्कर्षपर पहुँचा कि ‘लोग पतनशील हैं।’ उसने एक आदर्श राज्यका चित्रण ‘रिपब्लिक’ नामक ग्रन्थमें किया, किंतु वह अमानवीय हो गया। इसके अनुसार इस आदर्शके निकट जितना ही पहुँचा जायगा, उतना ही कल्याण होगा। इस प्रकार वह आदर्शवादका जन्मदाता माना जाता है। कहा जाता है कि साम्यवाद तथा फासीवादका मूल प्लेटोके दर्शनमें ही था।
वह कहता है ‘अच्छे राज्य और अच्छे नागरिकका तात्पर्य एक ही है; क्योंकि आदर्श राज्यके बिना आदर्श व्यक्ति सम्भव नहीं। इसी प्रकार आदर्श राज्य भी आदर्श व्यक्तिके बिना सम्भव नहीं। आदर्श नागरिकका विस्तृत प्रतिबिम्ब आदर्श राज्य है। वह अपने गुरु सुकरातके वाक्य ‘सद्गुण ज्ञान है’ का कायल था। अत: राज्यमें वह सद्गुणका प्राधान्य मानता था। उसके युगमें तीन वर्ग थे—संरक्षक, सहायक-संरक्षक तथा कृषक-वर्ग। उनको वह ज्ञान (स्वर्ण), मान (चाँदी) तथा वासना (लोहा) मानता था। इन्हींको वह शरीरकी तीन विशेषताएँ भी मानता था।’
सद्गुणी जीवनकी स्थापनाके लिये वह साम्यवादकी स्थापना करना चाहता था। साम्यवादी राज्यमें वह सामान्य सम्पत्तिका पक्षपाती था। प्लेटो जब वास्तविक स्वरूपपर आता है, तब वैयक्तिक सम्पत्ति, परिवार-नियम-प्राधान्य कुछ अंशमें मानने लगता है। उसके अनुसार स्त्री-पुरुषके स्थायी (जीवनपर्यन्त) समागमसे लोलुपता बढ़ती है। बालकोंकी देख-रेखका उत्तरदायित्व राज्यपर माना गया; क्योंकि आदर्श राज्यमें ही आदर्श नागरिककी स्थापना हो सकेगी। वह स्त्रियोंको घरकी सीमासे बाहर नागरिक जीवनतक ले आया। उसने उनके समानाधिकारकी स्थापना की।
उसने आदर्श स्थितिके लिये आदर्श शिक्षाकी आवश्यकता बतलायी। उसके मतानुसार ‘१८ वर्षतक शिक्षा, व्यायाम आवश्यक है; क्योंकि इससे धैर्य, सहनशीलता तथा मनपर प्रभाव पड़ता है। इसी बीच संगीतका भी अध्ययन होना चाहिये; क्योंकि इसके द्वारा मनपर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता तथा आत्मसंयम बढ़ता है। १८ से २० वर्षतक सैनिकशिक्षा, २० से ३० वर्षतक बुद्धिगम्य विषय (गणित, तर्क, ज्योतिष), ३०—३५ वर्षतक दर्शन, ३५—५० वर्षतक समाज-सेवा तथा ५० वर्षके बाद सत्यप्राप्तिके लिये संन्यास, यही उसकी शिक्षाका क्रम था। ऐसी शिक्षासे ही व्यक्ति सद्गुणी बन सकता है।
उसकी राजनीतिका सार तत्त्व है—१. आदर्श राज्य, २. ज्ञानका प्राधान्य, ३. सद्गुणी राज्य, ४. सद्गुणी नागरिक, ५. शिक्षा और ६.साम्यवाद। वह ‘सामाजिक तथा आर्थिक’ न्याय मानता था। उसके अनुसार ‘व्यक्ति योग्यतानुसार कार्य करे और वह वस्तु ले, जिसे वह लेनेके योग्य हो। उसे अन्य कामोंमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। न्याय जीवनका क्रम है। न्यायकी विशाल धारामें समस्त जीवन ही आ जाता है।’
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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