2.6 ग्रोशस
ग्रोशस (१५८३—१६४५) अन्ताराष्ट्रिय नियमका जन्मदाता था। सोलहवीं शताब्दी राजनीतिकी दृष्टिसे यदि फ्रांसकी थी तो सत्रहवीं शताब्दी इंगलैण्डकी। ग्रोशसकी पृष्ठभूमि वह युग था, जिसमें यूरोप अनेक धार्मिक मतमतान्तरोंमें विभक्त हो गया था। व्यवहारमें वह मेकियाविलीसे पूर्ण प्रभावित था। फिर भी वह मानवतावादी कहा जाता है। उसके अनुसार युगकी उद्दण्डताका कारण यह था कि ‘मनुष्यने अपने सम्बन्धों, व्यवहारोंसे अध्यात्मवादको निकाल दिया था। उसने कहा कि ‘पोप एक ऐसी तृतीय शक्ति थी, जो कि नैतिकताका निर्माण करती थी। उसकी समाप्तिकी शून्यताको ‘लौकिक नीति’ पूर्ण कर रही है, अतएव अनैतिकताका विकास भी प्रारम्भ है। वस्तुत: उस शून्यको अन्ताराष्ट्रिय नियमोंसे ही पूर्ण करना चाहिये। धार्मिक मतोंकी, विभिन्नता तथा परस्पर विरोधके कारण प्राकृतिक नियमका एक स्तर नहीं रह गया। इसका परिणाम यह हुआ कि वह समाप्त ही हो गया।’
इन मतमतान्तरोंसे बचनेके लिये ग्रोशसने ईसा-पूर्व युगमें अपने विचारोंका मूल रखा; क्योंकि उसके अनुसार वहाँपर एकताका सूत्र था। उसने अरस्तूके विचारोंका ‘पुनर्जागरण काल’ की विशेषताओंके प्रकाशमें विश्लेषण किया। प्रमाणस्वरूप अरस्तूने कहा था कि ‘मनुष्य सामाजिक प्राणी है।’ ग्रोशसके अनुसार यही प्राकृतिक नियमकी माँ है; क्योंकि जब वह एक साथ रहना चाहता है तो निश्चय ही प्राकृतिक नियमसे प्रभावित होगा और यह मनुष्य-स्वभाव समझौता करनेके लिये बाध्य करेगा। यह समझौता सिविल लाकी उत्पत्तिका कारण होगा।
मनुष्य स्वभावसे विवेकी है, इसीलिये वह समझौतेका आदर करता है। यह किसी भी शक्तिसे परिवर्तित नहीं हो सकता; क्योंकि यह प्रकृतिपर आधारित है। इसी प्राकृतिक नियमसे अन्ताराष्ट्रिय नियमका विकास होता है। मनुष्य स्वभावसे श्रद्धा, न्याय, आदर इत्यादिका पालक है। उसके दैनिक कार्यक्रम कुछ समझौतोंपर व्यतीत होते हैं, जो कि प्राकृतिक हैं। हम दूसरोंका विश्वास करते हैं, सत्य बोलते हैं, यह सब उपयोगिताके कारण नहीं, बल्कि यह हमारा स्वभाव है। संसारमें प्रबल, निर्बल दोनोंकी सत्ता है। ऐसा इसलिये कि हम प्राकृतिक नियमका पालन करते हैं।
अन्ताराष्ट्रिय जगत्में श्रद्धा, विश्वासका प्रयोग होता है, यही अन्ताराष्ट्रिय नियमके आधार हैं। यहाँतक कि युद्धके समयमें भी कुछ नियम उभयत: मान्य होते हैं। ग्रोशसका यह आन्तरिक विश्लेषण हाब्स, लॉक तथा रूसो इत्यादि दार्शनिकोंके विश्लेषणका मूल आधार बना; क्योंकि वे सब पहले प्राकृतिक स्थितिका विवेचन प्रस्तुत करते हैं और पुन: उसीके आधारपर अपने सारे दर्शनकी आधारभित्ति निश्चित करते हैं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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