3.24 जनवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.24 जनवाद

जनवादकी व्याख्याएँ भी भिन्न-भिन्न ढंगसे होती रही है। अब्राहम लिंकनके अनुसार ‘जनताका जनताके लिये जनताद्वारा किया जानेवाला शासन ही प्रजातन्त्र या जनतन्त्र माना जाता है। प्रतिनिधि जनवादका आधार राष्ट्रका सामान्य हित होता है। सुशासनके लिये सामान्यहितको कार्यान्वित करनेके लिये कुछ प्रतिनिधियोंका निर्वाचन होता है। यही ‘परोक्ष-जनवाद’ है।’ आलोचकोंकी दृष्टिमें जनवादका अर्थ ‘मूर्खोंपर उनकी अनुमतिद्वारा शासन करना’ है। पर यह तो परम सत्य है कि जनवादमें जन-शिक्षा, निष्पक्ष जनमत, राजनीतिक दलोंका अस्तित्व, नागरिकोंका शासनमें सक्रिय भाग, सतर्कता और आदर्श निर्वाचन-व्यवस्था अनिवार्य है। इनके बिना तो जनवाद कोरा दम्भ ही है। राजनीतिक दलोंमें अर्धसैनिक-अनुशासन, नेताओंका बोलबाला और पूँजीपतियोंका दलोंपर अधिकार आदि जनवादके बाधक ही हैं। पक्षपातयुक्त प्रचार-साधन—रेडियो, पत्र, सिनेमा आदि भी बाधक हैं। समाचारपत्र आदि अपने दलों एवं मालिकोंका गुणगान करते हैं। इससे विवेकशीलताको धक्‍का पहुँचता है। सतर्कता भी इसमें परमावश्यक है। सतर्कता स्वतन्त्रताकी बहन है। कहा जा चुका है कि एतदर्थ विकेन्द्रीकरण और सक्रियता आवश्यक है। इसीलिये स्थानीय स्वशासनादि आवश्यक होते हैं। प्रतिनिधि जनवादमें योग्य उम्मीदवारोंका मिलना, स्वतन्त्र मतदान, निर्वाचकोंकी योग्यता, निर्वाचन-विधिकी सरलता और अल्पव्ययिता आदि भी आवश्यक हैं। यह सब इस समय असम्भव-सा ही हो रहा है। फिर भी इस समय इससे अन्य अच्छी व्यवस्था कोई नहीं है। यदि इसे शस्त्र एवं धर्म अथवा सामान्य मानव-धर्मसे भी नियन्त्रित कर दिया जाय, तो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, क्षमा, दया, ईश्वर-भक्ति आदि सद‍्गुणोंसे युक्त रामराज्य-प्रणालीका जनतन्त्र-राज्य राम-राज्य ही बन सकता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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