3.25 अराजकतावाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.25 अराजकतावाद

मार्क्सवादियोंसे भी बढ़े-चढ़े अराजकतावादी हैं। इसके प्रवर्तक माइकेल बाकुनिन (१८१४—१८७६) और प्रिंस क्रोपोटकिन (१८४२-१९१९) हुए हैं। उनके मतानुसार क्रान्तिद्वारा पूँजीवादका अन्त होते ही राज्यका भी अन्त हो जाना चाहिये। श्रमिक क्रान्तिके पश्चात् वर्गीय संस्थाका अन्त हो जाना चाहिये। न मर्ज (वर्ग) रहे, न मरीज (राज्य) रहना चाहिये। मार्क्सवादी भी राज्यको वर्ग-विशेषकी ही संस्था मानते हैं। लेनिनके अनुसार भी राज्य दमन-यन्त्र हैं। किंतु वे विरोधियोंको कुचलनेके लिये उसकी आवश्यकता मानते हैं, परंतु अराजकतावादी इसका विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि ‘ऐतिहासिक दृष्टिसे राज्य आवश्यक नहीं। राज्यकी उत्पत्तिके पहले भी मनुष्य रहते थे और अपने समूहोंमें सुखी एवं स्वतन्त्र जीवन-निर्वाह करते थे। श्रमिक क्रान्तिके बाद भी वैसे ही बिना राज्यके सुखी एवं सम्पन्न रह सकते हैं। वर्गविहीन समाजमें, जो कि श्रमिक क्रान्तिका फल है, वर्गीय संस्था—राज्यकी आवश्यकता ही क्या है?’ अराजकतावादी कहते हैं कि ‘इतिहासके अनुसार राज्य कभी भी न्यायपूर्ण नहीं था। व्यक्तिगत सम्पत्तिके द्वारा ही राज्यका जन्म हुआ है। व्यक्तिगत सम्पत्ति एक चोरी है, राज्य इसका रक्षक रहा है। राज्य सदा ही शोषकोंका पक्षपाती तथा शोषितोंके विपरीत रहा है। जो संस्था सदा मजदूरोंके हितोंको कुचलती रही है, उससे मजदूर कैसे प्रेम कर सकता है।’ क्रोपोटकिनने कहा है कि ‘पूँजीवादी प्रथाके अभावका नाम ही शासन-प्रथाका अभाव है।’ अराजकतावादी राज्यको निरंकुशताका प्रतीक मानते हैं, चाहे वह राज्य जैसा भी हो। जैसे राजतन्त्र या कुलीनतन्त्रमें अल्पसंख्यकोंद्वारा बहुसंख्यकोंकी स्वतन्त्रताका अपहरण होता है, वैसे प्रजातन्त्रके बहुमतद्वारा भी वैयक्तिक स्वतन्त्रताका अपहरण होता है।
अराजकतावादियोंके अनुसार ‘कोई मनुष्य दूसरेका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। ‘अ’ का प्रतिनिधि सभामें ठीक ‘अ’ की भाँति नहीं बोल सकता। फिर समूहोंका प्रतिनिधि तो कोई हो ही कैसे सकता है? कोई विधान-विशेषज्ञ धारा-सभाका सदस्य बनता है। वह सफाई, शिक्षा तथा शासनके सम्बन्धमें अनुभवशून्य होता है। फिर उसके द्वारा इन विषयोंके सम्बन्धमें बनाये नियम किस तरह लाभदायक होंगे? अत: प्रतिनिधियोंकी सरकार वही होती है, जो सभी कार्योंको अयोग्यतापूर्वक करती है। निर्वाचनद्वारा जनताकी सामान्य इच्छाएँ तक व्यक्त नहीं हो सकतीं। शक्तिका मद तो शासकमें आ ही जाता है।’ अराजकतावादियोंके मतानुसार साधारणतया मनुष्य नेक होता है; परंतु पदपर पहुँचते ही वह बुरा हो जाता है। मनुष्य राजनीतिज्ञ होनेसे ही बुरा हो जाता है। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीका भी कहना है कि अधिकार पाकर किसे गर्व नहीं होता—
‘प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं।’
अराजकतावादियोंके मतानुसार राज्यके बिना भी मनुष्य खाता, सोता, बोलता, पढ़ता है। जुआड़ी जुएमें हारकर बिना राज्यके दबावके ही रुपया देता है। चोर भी आपसमें समझौता करते ही हैं। कितने ही खेलोंमें खिलाड़ी स्वयं नियम बनाते और उसका पालन करते हैं। इसी तरह राज्यके बिना भी स्वेच्छात्मक संस्थाओंद्वारा सब काम चल सकता है। बाह्य आक्रमणका भी सामना राज्य-सेनाकी अपेक्षा जनताकी सेना अधिक अच्छा कर सकती है। अराजकतावादी दण्ड-विधान एवं जेल आदिद्वारा भी सुधारमें विश्वास नहीं करते।
क्रोपोटकिनके अनुसार ‘जेलें पाखण्ड और कायरताकी स्मारक हैं।’ वह स्वयं रूस और फ्रांसकी जेलोंमें रहा था। जेलोंके अपने अनुभव बतलाते हुए वह लिखता है कि ‘जेलोंमें आधेसे अधिक हत्यारे तथा चोर थे, जो अनेक बार जेलोंमें रह चुके थे। दण्डके भयसे प्राणी अपराध नहीं करेगा, यह समझना सर्वथा भ्रम है। एक अपराधी अपराध करते समय यही सोचता है कि वह दण्डसे अपने आपको बचा लेगा। किसी व्यक्तिको फाँसी देनेसे उसके बाल-बच्चे निराश्रित असहाय होकर समाजके लिये अधिक हानिकर सिद्ध हो सकते हैं। अराजकतावादियोंके अनुसार इतिहास बतलाता है कि राज्यने कभी भी उच्च आदर्शकी पूर्ति नहीं की। उसके द्वारा सदा ही दु:ख एवं अन्यायको स्थायी बनानेका प्रयत्न किया गया है। राज्यकर्णधारोंके सदियोंके प्रचारद्वारा राज्य नितान्त आवश्यक वस्तु समझी जाने लगी है। जन्ममें यही सुनते, विद्यालयोंमें पढ़ते और पुस्तकों, लेखों और समाचार-पत्रोंमें राज्यकी आवश्यकताका वर्णन पढ़ते-पढ़ते मनुष्यके मस्तिष्कमें यह बात बैठ जाती है कि राज्य नितान्त आवश्यक संस्था है। कोई भी राजनीतिज्ञ यही कहता है कि ‘मुझे अधिकार दीजिये तो मैं देशमें घी-दूधकी नदियाँ बहा दूँगा।’ राज्यका अन्त हुए बिना इन पाखण्डोंकी समाप्ति नहीं हो सकती।’
अराजकतावादियोंका अपना कार्यक्रम भी है। उनके मतानुसार ‘क्रान्तिके पहले अराजकतावादकी शिक्षा होनी चाहिये। मनुष्य समाज अराजकताकी ओर अग्रसर हो रहा है। क्रोपोटकिन जीवशास्त्रज्ञ था। उसके अनुसार मनुष्य जातिने सहयोगद्वारा ही प्रगति की है, प्रतियोगिताद्वारा नहीं। सहयोगद्वारा ही मनुष्यने प्रकृतिपर विजय पायी है, सहयोगद्वारा ही प्राचीन मनुष्य जीवित रहते थे। आधुनिक युगमें भी सहयोगकी मात्रा बढ़ रही है, अतएव स्वेच्छात्मक संस्थाओंकी वृद्धि हो रही है। राज्यके कार्योंकी सीमा भी घट रही है। मनुष्य जितना सभ्य होगा, उतना ही सहयोगी होता है। सभ्यताकी प्रगतिसे स्वेच्छात्मक संस्थाओंद्वारा राज्य-कार्य सीमित हो रहे हैं। अब थोड़े ही प्रयत्नसे राज्यका अन्त एवं स्वेच्छात्मक संस्थाओंका युग आरम्भ होगा, यही अराजकतावादी युग है। वैज्ञानिक तर्कोंद्वारा जनताको अराजकताके पक्षमें कर लेना चाहिये। जनताके मस्तिष्कमें यह विचार कूट-कूटकर भर देना चाहिये कि अराजकतावादी युग अब बहुत ही निकटवर्त्ती है। जनता स्वागतके लिये तैयार रहे। यह अन्धविश्वास नहीं, किंतु वैज्ञानिक सत्य है। इसके लिये क्रान्ति आवश्यक है। अराजकतावादी समितियों तथा केन्द्रीय समितिके प्रयत्नसे यह क्रान्ति होगी। इनका भावी समाज साम्यवादी, स्वेच्छावादी और सहयोगवादी होगा। नागरिककी हैसियतसे राज्यसे, उत्पादककी हैसियतसे पूँजीवादसे और मनुष्यकी हैसियतसे शासनमात्रसे स्वतन्त्रता प्राप्त करना अराजकतावादका ध्येय है।’
अराजकतावाद ‘पूर्णस्वतन्त्रताका युग है। इसमें जो स्वस्थ और योग्य होगा, वह काम करेगा। २४ से ५० वर्षतक काम करनेकी अवस्था होगी। प्रत्येक व्यक्तिको प्रतिदिन ४ या ५ घण्टे काम करना होगा। मनुष्य वेतन और प्रोत्साहनके बिना ही काम करेगा। काम करना मनुष्यका स्वभाव है। मनुष्यको सभी सुगम एवं रोचक कार्य ही पसन्द होते हैं। अत: भावी समाजमें सभी काम सुगम एवं रोचक बना दिये जायँगे। विज्ञानकी प्रगतिसे कोई काम गन्दा न रह जायगा। अराजकतावादमें उत्पादन एवं उपभोगकी वस्तुओंमें कोई अन्तर न होगा। भोजन, वस्त्र, साइकिल, मोटर आदिकी सहायतासे, जो कि उपभोगकी वस्तु मानी जाती हैं, मनुष्य उत्पादन भी करता है; अत: सभी वस्तुओंका वितरण अराजकतावादी संघोंद्वारा होगा। पहले बच्चों, बूढ़ों, अंगहीनोंको उनके आवश्यकतानुसार चीजें दी जायँगी, फिर अन्य लोगोंको पहले जीवनोपयोगी वस्तुएँ दी जायँगी, फिर आरामकी वस्तुएँ। सामाजिक बहिष्कारसे असामाजिक कार्योंकी स्वत: निवृत्ति होगी। इतनेपर भी सुधार न होनेपर अपराधीका डॉक्टरी इलाज होगा, उसे सुधार-गृहमें भेजा जायगा। मनुष्य अपने सामाजिक समझौतोंको भंग न करेगा। आधुनिक समाज-रचनासे ही मनुष्यमें दुर्गुण आये हैं। संघटनके लिये छोटे-छोटे प्रादेशिक संघ होंगे। इनमें प्रत्यक्षजनवादी प्रबन्ध होगा। इन्हींसे प्रान्तीय समितियाँ बनेंगी और प्रान्तीय समितियोंसे देश-समिति बनेगी। वहाँसे यूरोपको प्रतिनिधि भेजे जायँगे और वहाँसे फिर संसारको प्रतिनिधि भेजे जायँगे। ये प्रतिनिधि विशेषज्ञ होंगे, अल्पज्ञ या अज्ञ नहीं। समस्या-पूर्ति होनेपर इन अस्थायी संघोंका भी अन्त हो जायगा। दूसरी समस्या आनेपर पुन: उस प्रकारके विशेषज्ञ प्रतिनिधि भेजे जायँगे; अर्थात् रोग-निवृत्तिके लिये चिकित्साविशेषज्ञ प्रतिनिधि होगा और खेलके लिये खेलका विशेषज्ञ खेलाड़ी-प्रतिनिधि होगा। स्वतन्त्र स्वेच्छात्मक संघोंको समुच्चय ही अराजकतावादी संघ होगा।’ अराजकतावादका सार ‘व्यवस्थाका अन्त नहीं, किंतु निरंकुशताका अन्त है।’ इसके अनुसार ‘समाजके बिना स्वतन्त्रतासे शोषण और अन्याय बढ़ता है एवं स्वतन्त्रताके बिना समाजवादसे दासता और पशुता बढ़ती है।’
कहना न होगा कि इतिहास भी एक विचित्र गोरखधन्धा है। इसके द्वारा ही भिन्न-भिन्न मतवादी अपना-अपना पक्ष सिद्ध करते हैं। इन लोगोंके इतिहास रामायण, महाभारतके समान महर्षियोंके आर्षविज्ञान एवं समाधिजन्य ऋतम्भरा प्रज्ञाके आधारपर नहीं बनते। इनके इतिहास तो कुछ ईंट-पत्थरों, मुद्राओंके आधारपर ही कल्पनाओंके खड़े किये गये महल हैं, जिनमें कि प्राय: अटकलपच्चू अनुमान भिड़ाये जाते हैं। आज भी प्राय: विभिन्न समाचार-एजेंसियोंके तारों, टेलिप्रिंटरोंके आधारपर समाचार प्रकाशित होते हैं, उनमें भी परस्पर पर्याप्त मतभेद दिखायी देता है। लड़ाईके दिनोंमें तो आँखों देखी घटनाओंसे भी विभिन्न एजेंसियोंके समाचार-संकलनोंमें पर्याप्त पार्थक्य दृष्टिगोचर होता है। उन्हें भी विभिन्न पत्र-प्रकाशक अपने-अपने दृष्टिकोणसे तोड़-मरोड़कर अपने उद्देश्यके उपयोगी बनाते हैं। सम्पादकीय टिप्पणियों एवं पर्यवेक्षकों, समालोचकोंकी विवेचनाओंके विभिन्न रूपोंमें ढलकर उन घटनाओंका सर्वथा ही रूपान्तर हो जाता है। उससे भी भिन्न-भिन्न मतवादी अपना मत सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं। सर सुन्दरलालकी ‘भारतमें अंगरेजी राज्य’ पुस्तकमें इतिहासके तोड़-मरोड़ और मिथ्या मनगढ़ंत इतिहास-निर्माणके सम्बन्धमें बहुत कुछ कहा गया है। जर्मनीके बुद्धिमानोंने सुझाव दिया था कि ‘संसारका इतिहास नये सिरेसे लिखा जाना चाहिये और उसका आरम्भ होना चाहिये जर्मनीके पर्वतों, नदियों, ग्रामों एवं नगरोंसे। उसमें जर्मन जातिकी वीर गाथाओंका वर्णन होना चाहिये।’ इंग्लैण्डकी पार्लामेंटमें अपने अनुकूल इतिहास गढ़नेके लिये मिथ्या पार्लामेंटरी प्रस्ताव प्रस्तुत किये गये हैं। आर्योंका पश्चिमोत्तर एशियासे भिन्न देशोंमें जाकर आबाद होना, उन्हींकी एक श्रेणीका भारतमें आना; ग्रीक, लैटिन, जेन्द आदि भाषाओंके समान ही सर्वभाषाओंकी जननी संस्कृत भाषाको सब भाषाओंकी बहन मानना और किसी अनुपलब्ध भाषाको ही सर्वभाषाओंकी जननी मानना; आर्यों-अनार्योंका भेद खड़ा करना आदि बहुत-सी भीषण ऐतिहासिक कल्पनाएँ जान-बूझकर गढ़ी गयी है। इस तरह जब सही इतिहास ही नहीं, तब उसके आधारपर किसी भी सिद्धान्तकी स्थिति कैसे हो सकती है?
अराजकतावादी सिद्धान्त वस्तुत: अराजकताकी ही सृष्टि करेगा। जिसके कारण समाजमें मात्स्यन्याय फैलेगा और मनुष्य पशुप्राय हो जायगा। हाँ, यदि सभी सात्त्विक धर्मनिष्ठ जितेन्द्रिय तत्त्ववित् हो जायँ तो अवश्य राज्य, राजा आदिके बिना भी कार्य चल सकता है। यह पीछे महाभारतके राजधर्मसे ‘न वै राज्यं न राजासीत्’ इत्यादिसे दिखलाया जा चुका है। जबतक यह स्थिति नहीं हो तो तबतक अराजकतावादसे सुख-शान्ति सर्वथा असम्भव हो जायगी। वाल्मीकिरामायणके अयोध्याकाण्डके ६७वें सर्गमें अराजकताकी दुरवस्थाका वर्णन किया गया है, जो नीचे दिया जा रहा है—
नाराजके जनपदे विद्युन्माली महास्वन:।
अभिवर्षति पर्जन्यो महीं दिव्येन वारिणा॥
नाराजके जनपदे बीजमुष्टि: प्रकीर्यते।
नाराजके पितु: पुत्रो भार्या वा वर्तते वशे॥
अराजके धनं नास्ति नास्ति भार्याप्यराजके।
इदमत्याहितं चान्यत्कुत: सत्यमराजके॥
नाराजके जनपदे कारयन्ति सभां नरा:।
उद्यानानि च रम्याणि हृष्टा: पुण्यगृहाणि च॥
नाराजके जनपदे यज्ञशीला द्विजातय:।
सत्राण्यन्वासते दान्ता ब्राह्मणा: संशितव्रता:॥
(वाल्मीकिरामायण २।६७।९—१३)
नाराजके जनपदे प्रहृष्टनटनर्तका:।
उत्सवाश्च समाजाश्च वर्धन्ते राष्ट्रवर्धना:॥
नाराजके जनपदे सिद्धार्था व्यवहारिण:।
कथाभिरभिरज्यन्ते कथाशीला: कथाप्रियै:॥
नाराजके जनपदे तूद्यानानि समागता:।
सायाह्ने क्रीडितुं यान्ति कुमार्यो हेमभूषिता:॥
नाराजके जनपदे धनवन्त: सुरक्षिता:।
शेरते विवृतद्वारा: कृषिगोरक्षजीविन:॥
(वाल्मीकिरामायण २।६७।१५—१८)
नाराजके जनपदे वणिजो दूरगामिन:।
गच्छन्ति क्षेममध्वानं बहुपण्यसमाचिता:॥
नाराजके जनपदे चरत्येकचरो वशी।
भावयन्नात्मनाऽऽत्मानं यत्र सायं गृहो मुनि:॥
(वाल्मीकिरामायण २।६७।२२-२३)
नाराजके जनपदे योगक्षेम: प्रवर्तते।
न चाप्यराजके सेना शत्रून् विषहते युधि॥
(वाल्मीकिरामायण २।६७।२५)
नाराजके जनपदे नरा: शास्त्रविशारदा:।
संवदन्तोपतिष्ठन्ते वनेषूपवनेषु च॥
(वाल्मीकिरामायण २।६७।२६)
यथा ह्यनुदका नद्यो यथा वाप्यतृणं वनम्।
अगोपाला यथा गावस्तथा राष्ट्रमराजकम्॥
(वाल्मीकिरामायण २।६७।२९)
सभीका शासनमें भाग लेना सम्भव न होनेसे ही प्रतिनिधिकी कल्पना करनी पड़ती है। प्रतिनिधि मुख्यसे भिन्न होता ही है; किंतु वह मुख्यका अपेक्षित एवं निश्चित कार्यकारी होता है। अराजकतावादियोंको भी तो संसारके लिये प्रतिनिधि निश्चित करना पड़ता है, अत: धर्मनियन्त्रित राजा या धर्मनियन्त्रित जनप्रतिनिधियोंका शासन अपेक्षित ही है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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