4.11 भाषा-विज्ञान
ज्ञानके लिये भाषा भी अपेक्षित होती है; क्योंकि ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं होता, जिसमें सूक्ष्म शब्दका अनुवेध न हो। भाषा भी सीखकर ही बोली जाती है। माता तथा कुटुम्बियोंकी बोलचाल सुनकर ही प्राणी बोलता है। स्वतन्त्रतासे कोई नयी भाषा बना भी नहीं सकता। कहते हैं कि गूँगे बहरे भी होते हैं। वे सुन नहीं सकते, इसीलिये बोल भी नहीं सकते, परंतु उनके मुँहमें बोलनेके साधन होते हैं। इसीलिये यन्त्रोंद्वारा उनसे बुलवाया जाता है। बिना सिखलाये कोई बोल नहीं सकता। गूँगा दूसरोंको मुँह फैलाकर बोलते देखकर वैसी नकल करता है। कहा जाता है कि भेड़ियेकी माँदसे निकले हुए मनुष्योंके बच्चे भेड़ियों-जैसा ही बोलते हैं। गूँगे और इन बच्चोंसे अ, इ, उ, ए, ओ के अतिरिक्त ककारादि वर्णमालाके अक्षर उच्चरित नहीं होते। यदि गूँगा अन्धा भी हो तो अ, इ आदिका उच्चारण नहीं कर सकता। प्रो० मैक्समूलरने ‘भाषा-विज्ञान’ (साइन्स ऑफ दि लैंगवेज)-में लिखा है कि ‘मिस्रके बादशाह सामिटकरने सद्य:प्रसूत दो बालकोंको गड़रियोंके सुपुर्द करके यह प्रबन्ध किया कि उन्हें पशुओंके अतिरिक्त किसीकी भाषा सुननेको न मिले। उन लड़कोंके बड़े होनेपर देखा गया कि वे अ, इ, उ के सिवा कुछ भी बोल नहीं सकते थे।’ इसी प्रकार द्वितीय फ्रेडरिक, चतुर्थ जेम्स, अकबर आदिने भी परीक्षा की थी। निष्कर्ष वही निकला कि मनुष्य बिना सिखाये भाषा सीख नहीं सकता। भाषा-विज्ञानके आधुनिक विद्वान् मनुष्य सृष्टिके साथ ईश्वरद्वारा भाषाका प्रादुर्भाव नहीं मानते। उनके अनुसार पहले हस्तसंकेत आदिद्वारा ही व्यवहार होता था। बादमें व्यवहारके लिये बुद्धिपूर्वक मनुष्योंने भाषा बनायी। विचारों और भाषाओंका अटूट सम्बन्ध होता है।
विकासवादियोंका कहना है कि ‘भाषाकी उत्पत्ति न एकाएक मनुष्यकी स्वेच्छासे हुई, न स्वभावसे, न दैवीशक्तिकी प्रेरणासे; किंतु सभ्यताके अन्य अंगोंकी तरह इसका भी धीरे-धीरे विकास हुआ है।’ उनके मतानुसार ‘जडचेतनात्मक बाह्य जगत्की ध्वनियोंके अनुकरणके आधारपर नाम रखे गये हैं, जैसे कू-कू बोली सुनकर कोकिलका अंग्रेजीमें ‘कुक्कू’ नाम रखा गया। काँव-काँव सुनकर संस्कृतमें कौवेका ‘काक’ नाम रखा गया। इसी तरह हर्ष, शोक, आश्चर्य आदिसे कुछ स्वाभाविक ध्वनियाँ मुखसे निकल पड़ती हैं, जैसे—हा-हा, हाय-हाय, अहह, वाह-वाह इत्यादि। इस तरह पहले इशारों या संकेतसे, फिर ध्वनियोंको सुननेसे और उद्गारात्मक शब्दोंके स्वभावत: निकलनेसे शनै:-शनै: भाषा बनी।’
पर विचार करनेपर यह पक्ष भी असंगत ही प्रतीत होता है; क्योंकि यदि ऐसी ही बात है, तब तो पशुओंमें भी इसी प्रकार भाषाका विकास होना चाहिये, परंतु ऐसा नहीं देखा जाता। इशारे व्यवहार असभ्य जंगली तथा अज्ञानियोंका नहीं हो सकता। तारमें ‘ट्रा टक्कू’ की ध्वनियोंसे, जहाजोंपर झण्डियोंसे, युद्धके समय चिनगारियोंसे बात करनेवाले जंगली नहीं, किंतु विशिष्ट बुद्धिमान् ही समझे जाते हैं। इसी प्रकार नृत्य, नाटॺमें अभिनयद्वारा भावकी अभिव्यक्ति विशेषज्ञोंका ही काम है, किसी अज्ञानीका नहीं। यहाँतक कि इशारेकी कला तो बोलनेकी अपेक्षा भी ऊँची है। इसीलिये पशुतुल्य अज्ञानी, जंगली इशारोंसे बातचीत नहीं कर सकता था। जैसे वर्णोंका उच्चारण सीखा जाता है, वैसे ही इशारा भी सीखना ही पड़ता है। गूँगोंको भी इशारा समझना पड़ता है। वे आँखोंसे देखकर इशारा सीखते हैं। यदि वे अन्धे भी होते हैं तो और भी अधिक कठिनाई पड़ती है। इसी तरह कोकिलके कू-कू और कौवेके काँव-काँवसे कुक्कू एवं काक शब्द बननेकी बात भी निराधार है। जब पहले क, ख, ग आदि वर्णोंका उच्चारण सीख लिया जाय, तभी यह अनुकरण बन सकता है। ये कोई शब्द वर्णात्मक नहीं होते हैं। यह तो वर्ण उच्चारण कर सकनेवाला व्यक्ति ही इन अव्यक्त शब्दोंमें व्यक्त शब्दोंकी कल्पना करता है। चूहेने ‘कट्ट’ से काट दिया, साँप ‘सर्र’ से चला गया, पीठपर डण्डा ‘गद्द’ से गिरा, बकरी ‘में-में’ कर रही है—यहाँ वर्णका उच्चारण करनेवाला ही अनुकृतिसे नाम रख सकता है, परंतु बाहरकी ध्वनियाँ ही जब स्पष्ट नहीं हैं, तब उनके द्वारा शब्दोंका उच्चारण कैसे सीखा जा सकता है? बाहरकी ध्वनियोंको भले, हम ‘टन्-टन्’ ‘धम्-धम्’ ‘खट्-खट्’ ‘पूँ-पूँ’ ‘झन्-झन्’ कहें; परंतु ये वर्ण बिलकुल नहीं होते। इसी तरह तोतेके, सारंगीके शब्दमें वर्णोंकी कल्पना वर्णज्ञ ही कर सकता है। मनुष्यके मुखको छोड़कर अन्यत्रसे वर्णोंका उच्चारण हो ही नहीं सकता। उसके लिये मनुष्यके जैसे कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दाँत, ओष्ठ, जिह्वा एवं आन्तरबाह्य प्रयत्न अपेक्षित होते हैं। जिनसे ‘ट’ का उच्चारण नहीं बनता, वे लोग ‘टन्-टन्’ का अनुकरण भी नहीं करते। यह विभिन्न वर्णोंके उच्चारण सीखे बिना कभी आ ही नहीं सकता। बाह्य अव्यक्त शब्दोंमें वर्ण नहीं होते, इसीलिये मुर्गेकी बोलीमें हम ‘कुकड़ूकूँ’ की कल्पना करते हैं। अंग्रेज लोग इसीको ‘कॉक ए डू डिल् डू’ कहते हैं। इसी प्रकार हर्ष, शोक आदिसे ‘हाय, हा-हा’ आदि शब्द भी उन्हींके मुखसे निकल सकते हैं, जिन्होंने वर्णोंका उच्चारण सीख रखा है। पशुओं और गूँगोंके मुखसे ‘हा-हा’ ‘हाय-हाय’ आदिका उच्चारण नहीं बनता है। बोलनेवालेका सम्पर्क हुए बिना किसी दुधमुँहे बच्चेके मुँहसे क, ख, ग, घ आदि वर्णमालाका उच्चारण नहीं हो सकता। आधुनिक लोग भी जब यह मानते हैं कि मनुष्यमें ही स्पष्ट शब्द उच्चारणकी शक्ति है अन्यमें नहीं, तब यह गुण जब इसके पूर्वजोंमें नहीं था, तब इसमें क्यों और कैसे आ गया?
कुछ लोग कहते हैं कि ‘ईश्वरने ही मनुष्यके मुखमें वर्णोंके उच्चारणकी शक्ति दी है।’ तब फिर यह भी क्यों नहीं माना जाता कि ईश्वरने ही मनुष्यको भाषा सिखायी? जब पशु मनुष्यकी बोली नहीं बोलता, तब मनुष्य ही पशुकी बोलीकी नकल करके भाषा बोलना कैसे सीख गया?
मैक्समूलरका कहना है कि ‘मनुष्यकी भाषा ध्वनि अथवा पशुओंकी बोलीसे नहीं बनी।’ लॉक एडम, स्मिथ एवं डॺू गल्ड स्टुवर्ट आदि कहते हैं कि ‘मनुष्य बहुत कालतक गूँगा रहा, संकेतसे, भ्रूक्षेपसे वह काम चलाता रहा। जब काम न चला, तब परस्पर संवाद करके शब्दोंके अर्थ नियत करके भाषा बना ली।’ इसके उत्तरमें मैक्समूलरने लिखा है कि ‘मैं नहीं समझता कि भाषाके बिना उनमें संवाद कैसे जारी रह सका? क्या अर्थ नियत करनेके पूर्व संवाद निरर्थक ही चला आता था? जबतक उनके पास कोई सार्थक ध्वनि नहीं थी, तबतक ‘अमुक शब्दका अमुक अर्थ है’ यह नियत करना कैसे सम्भव था? एकने दूसरेसे कैसे कहा कि रोटीको चूँ-चूँ कहना और समझना चाहिये’ और कैसे दूसरोंने ये सब बातें समझ लीं? अत: ज्ञानके बिना भाषा नहीं बन सकती और भाषाके बिना ज्ञान नहीं बन सकता। नाम-नामीका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। ऐसी दशामें यही तथ्य उपलब्ध होता है कि आदिम मनुष्य ज्ञान भाषाके सहित उत्पन्न हुआ है।
इसपर भी विचार करनेसे मालूम पड़ता है कि जब ज्ञान और भाषा दोनोंहीके लिये शिक्षा अपेक्षित है, तब बिना शिक्षाके ज्ञान और भाषा कैसे उत्पन्न हुई? अत: अन्तिम सिद्धान्त यह मानना ही पड़ता है कि परमेश्वरने ही मनुष्यको निर्मित करके उसे ज्ञान और भाषा प्रदान की। वेदोंसे भी यही स्पष्ट मालूम पड़ता है कि परमेश्वरने ब्रह्माको उत्पन्न करके उन्हें वेद प्रदान किया—
‘यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।’
(श्वेताश्वतर० ६।१८)
ब्रह्माने अपने पुत्रोंको और उन्होंने इसी तरह अपने पुत्रों और शिष्योंको आदिम भाषा और ज्ञानका उपदेश किया। आगे चलकर ज्ञान और भाषामें अपभ्रंश भी होता गया। यह पीछे कहा जा चुका है कि कोई भी बोध या ज्ञान ऐसा नहीं होता, जिसमें सूक्ष्म शब्दका सम्बन्ध न हो। फिर इस दृष्टिसे अनादि ईश्वरके अनादि ज्ञानमें जो शब्द अनुविद्ध थे, वही अनादि भाषा थी। कोई भी कार्य ज्ञान, चिकीर्षा एवं कृतिपूर्वक ही सम्पन्न होता है। इस तरह सृष्टि-कार्यमें भी ईश्वरकी ज्ञप्ति, चिकीर्षा और कृति अपेक्षित ही है। उस अनादि ज्ञानमें अनुविद्ध अनादि शब्द-समूहका होना अनिवार्य है। जब संस्कृत भाषा एवं वेदसे पुरानी पुस्तक संसारमें उपलब्ध नहीं है, इसकी अतिप्राचीनता तर्कोंसे भी सिद्ध होती है, तब मनु आदिके अनुसार उसे ही अनादि भाषा मानना युक्त है। उसके व्यापक धातुओंसे संसारकी सभी भाषाएँ निष्पन्न भी हो ही जाती हैं। अत: ‘ईश्वरने आदिम प्राणियोंको भाषा एवं विज्ञान सिखलाया’ यही पक्ष ठीक है। जैसे आजकल हिप्नोटिज्म करनेवाला अपने माध्यम (सब्जेक्ट)-के मुँहसे मानसिक प्रेरणाद्वारा ऐसी भाषाओंके शब्द उच्चारण करा देता है, जिसको माध्यमने कभी सुना भी नहीं, वैसे ही सर्वशक्तिमान् परमेश्वर भी मनुष्योंको अपनी शक्तिद्वारा शब्दोच्चारण करा सकता है। इसीलिये आदिम मनुष्य परम ज्ञानवान् थे—यही पक्ष श्रेष्ठ है।
सुकरातके मतानुसार भी कोई किसीको नया ज्ञान नहीं सिखलाता, अपितु भूले हुए ज्ञानको याद दिलाता है। जिसमें ज्ञान-शक्ति नहीं, उसे ज्ञान कराया नहीं जा सकता, जैसे—पाषाणोंको ज्ञान कराना असम्भव है। अतएव कोलबूकके मतानुसार भी भाषा मनुष्यका एक आत्मिक साधन है। आर० सी० ट्रीनिचने ‘शब्दोंका अध्ययन’ (स्टडी ऑफ वर्डस्)-में कहा है कि ‘ईश्वरने मनुष्यको वाणी उसी प्रकार दी, जिस प्रकार बुद्धि दी; क्योंकि मनुष्यका विचार ही शब्द है, जो बाहर प्रकाशित होता है।’ मैक्समूलरका कहना है कि ‘भिन्न-भिन्न भाषा परिवारोंमें जो चार-पाँच सौ धातु मूल तत्त्वरूप शेष रह जाते हैं, वे न तो मनोराग-व्यंजक ध्वनियाँ ही हैं और न अनुकरणात्मक शब्द ही। हम उनको वर्णात्मक शब्दोंका साँचा कह सकते हैं।’ प्लेटोके साथ हम कह सकते हैं कि ‘वे स्वभावसे ही विद्यमान हैं।’ वैदिकोंका तो स्पष्ट कहना है कि अनादि-निधन, सच्चिदानन्द ब्रह्म ही शब्द ब्रह्म है, उसीसे विश्वकी प्रक्रिया चलती है। अनन्त सदानन्दका ही प्रकाशविशेष अर्थ है। अनन्त चित् या अखण्ड बोधकी ही अभिव्यक्ति-विशेष शब्द है। दोनों एक सच्चिदानन्दके प्रकाश हैं, अतएव दोनोंमें विषय-विषयी भाव होते हुए भी अभेद है। इसीलिये कोई बोध बिना सूक्ष्म शब्दके नहीं होता। शब्द और अर्थका मीमांसकोंके मतसे औत्पत्तिक (स्वाभाविक) सम्बन्ध है। घटत्वादि जाति शब्दका शक्य होता है, अत: शब्दके समान ही अर्थ भी नित्य ही है—‘औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्ध:’ (पू० मी०)।
नैयायिक लोग शब्द और अर्थके सम्बन्धरूप संकेतको औत्पत्तिक, अकृत्रिम नहीं मानते, किंतु संकेतको पौरुषेय मानते हैं, परंतु जीव पुरुषके द्वारा नहीं; अपितु ईश्वरसे संकेतका होना मानते हैं। ‘अमुक शब्दसे अमुक अर्थको समझना चाहिये,’ इस प्रकार ईश्वर ही आदिम ऋषियोंको उपदेश करता है। इसपर मीमांसकोंकी आपत्ति यह है कि ‘ईश्वर जिन शब्दोंसे ऋषियोंको शब्दार्थ-सम्बन्ध बतलाता है, उन शब्दों और अर्थोंका सम्बन्ध यदि उससे पहले ऋषियोंको ज्ञात नहीं है, तो वे समझ कैसे सकते? यदि कहा जाय कि ‘हस्त, मुख, भ्रूक्षेप आदि इशारोंसे ईश्वर संकेत ग्रहण करायेगा’ तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि पहले तो ईश्वर निराकार है, उसका हस्त, भ्रूक्षेप आदि संकेत कैसे सम्भव होगा? यदि लीलाशक्तिसे उसे साकार भी मानें, तो भी अल्पज्ञ प्राणियोंको सब संकेतों, इशारोंका बोध भी कितना कठिन है? इसके अतिरिक्त, जितने असंख्यात शब्द और अर्थ हैं, उतने संकेत इशारोंसे हो सकना भी सम्भव नहीं। हस्त, मुख, भ्रू आदिके विक्षेप सीमित हैं, परंतु शब्द और अर्थ अपार समुद्रतुल्य हैं’—
‘इन्द्रादयोऽपि यस्यान्तं न ययु: शब्दवारिधे:।’
यदि ईश्वर शब्दोंके द्वारा संकेत (शब्दार्थ-सम्बन्ध)-को बोधित करे कि अमुक शब्दसे अमुक अर्थको समझना चाहिये, तो यह मानना ही पड़ेगा कि जिन शब्दोंके द्वारा वह बोध कराता है, उनका स्वार्थ सम्बन्धरूप संकेत प्रतिपादयिता और प्रतिपत्ता दोनोंको ही विदित होना चाहिये। इस दृष्टिसे नव-नवोत्पन्न अर्थों और अपभ्रंश शब्दोंका सम्बन्ध भले ही मनुष्यकृत हो; परंतु जिन गो आदि शब्दों एवं सास्नादिमत् व्यक्ति आदि अर्थोंके सम्बन्ध अनादि वृद्ध व्यवहारमें प्रचलित हैं, उनका संकेत अकृत्रिम एवं औत्पत्तिक ही मानना उचित है।
सुस्पष्ट है कि घटादि कार्य सशरीर व्यक्तियोंसे निर्मित होते हैं, परंतु अंकुरादि कार्य अशरीरसे निर्मित मान्य होते हैं। सर्वसाधारण मनुष्य-शरीर माता-पितासे उत्पन्न होते हैं, परंतु सृष्टिके प्रारम्भके शरीरको अशरीरसे निर्मित ही मानना पड़ता है। प्रथम साकार वस्तुको निराकारद्वारा निर्मित मानना पड़ता है। जैसे गन्धवती पृथ्वी निर्गन्ध जलका, सरस जल नीरस तेजका, स्पर्शवान् वायु नि:स्पर्श आकाशका कार्य है, वैसे ही कुछ शब्दार्थ सम्बन्ध कृत्रिम होनेपर भी आदिम शब्दार्थ अकृत्रिम ही हैं। सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् परमेश्वरके द्वारा ब्रह्माको और ब्रह्माद्वारा, वशिष्ठादि ऋषियोंको उपदेश किया जाता है। बीज अंकुर, दिन-रात, निद्रा-प्रबोध और जन्म-मरणके समान ही सृष्टि एवं संहारकी भी अनादि परम्परा है। तथा च जैसे प्रबुद्ध व्यक्तिको निद्राके पूर्वकी बातोंका स्मरण रहता है, वैसे ही सुप्त-प्रतिबुद्ध न्यायसे विशिष्ट ऋषियोंको प्रथमकल्पीय कुछ शब्दार्थ सम्बन्धों एवं कुछ मन्त्रोंका भी स्मरण होता है। ऐसे ही आर्ष मन्त्रद्रष्टा होते हैं। आवटॺ महर्षिको पिछले दस महाकल्पोंका स्मरण था—
‘दशसु महासर्गेषु पुन: पुनरुत्पद्यमानेन वर्तमानेन मया यत्किञ्चिदनुभूतं तत्सर्वं दु:खमेव।’
(योगभाष्य ३।१८)
पूर्वमीमांसक तो खण्ड प्रलय ही मानते हैं, महाप्रलय नहीं; अत: कहीं-न-कहीं सृष्टिका क्रम जारी रहता है। यह जगत् सदा ऐसा ही रहता है (न कदाचिदनीदृशं जगत्)। अत: हम जैसे अपने गुरुसे ही वेदाध्ययन करते हैं, वैसे ही पूर्वके गुरुओंने भी अपने-अपने गुरुओंसे वेदाध्ययन किया है। यह परम्परा बीजांकुर परम्पराके तुल्य अनादि है—
वेदस्याध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम्।
वेदाध्ययनसामान्यादधुनाध्ययनं यथा॥
जिन उत्तरमीमांसकोंके मतमें महाप्रलय होता है, उनके यहाँ भी प्रलयकालमें मूल गुरु परमेश्वरमें वेद विद्यमान रहते हैं। सृष्टिके आरम्भमें ईश्वर, वेद या शब्दार्थ सम्बन्धका निर्माण नहीं करते, किंतु नित्य सिद्धका उपदेश करके सम्प्रदाय प्रवर्तन करते हैं।
यह भी कहा जाता है कि प्रथम एकाक्षरात्मक वर्ण नहीं थे, वाक्योंद्वारा ही चिन्तन या विचार चलता है, अत: प्रारम्भमें वाक्यात्मक ही शब्द थे। जिससे पूर्णभावकी व्यक्ति हो, वही वाक्य है, भले वह ‘चल’ ‘ॐ’ आदिकी तरह अनेकाक्षर हों, चाहे अनेक शब्दोंके हों। विकासवादी भाषाके सम्बन्धमें भी विकासका सिद्धान्त मानते हैं। अयोगात्मक भाषा चीनियोंकी मानी जाती है, उसमें प्रकृति-प्रत्ययका भेद नहीं होता। योगात्मक भाषा तुर्की है, जिसमें प्रकृति-प्रत्यय स्पष्ट रहते हैं। विभक्तियुक्त भाषा संस्कृत है। इनमें भी विकासवादी क्रमिक विकास मानते हैं। आधुनिक अनुसंधानोंसे पता लगा है कि चीनी भाषा सदा ही ऐसी नहीं थी। उसमें पहले अनेकाक्षरके शब्द होते थे। ह्रासके कारण एकाक्षरके शब्द हो गये। जैसे मुखका ‘मुँह’; कभी ‘मूँ’ भी कह दिया जाता है, वैसे ही चीनमें हुआ होगा। रेड इण्डियनोंकी एवं इथियोपिक भाषाओंको बहुसंश्लेषणात्मक या बहुमिश्रात्मक कहा जा सकता है। अफ्रीकी भाषाओंको भी अनेकाक्षरात्मक ही कहा जा सकता है। इससे पता लगता है कि पहलेकी भाषाएँ विभक्तियुक्त अनेकाक्षरात्मक थीं, बादमें एकाक्षरात्मक हुईं। अत: प्रतीत होता है कि संस्कृत भाषा ही आदिम भाषा है और उसका अपभ्रंश अन्यान्य भाषाएँ हैं। संश्लेषणात्मक एवं विभक्तियुक्त भाषाएँ प्राचीन हैं और विश्लेषणात्मक या एकाक्षरात्मक भाषाएँ नवीन हैं। आर्य, सेमिटिक और पुरानी भाषाएँ एक ही परिवारकी हैं। इनमें भेद भी है और वह भेद बहुत पुराना भी हो सकता है। जब सबके मूल पुरुष एक थे, तब आदि ज्ञान एवं आदि भाषाका भी रूप एक ही होना चाहिये।
डेविसका ‘हार्मोनिया’ में कहना है कि ‘भाषाके मुख्य उद्देश्यमें विकास होना सम्भव नहीं है; क्योंकि उद्देश्य सर्वदेशी एवं पूर्ण होता है। उसमें किसी प्रकार परिवर्तन सम्भव नहीं है।’ मैक्समूलरके मतानुसार ‘सभी भाषाएँ मूलमें एक ही थीं। मनुष्यकी असावधानीसे ही उनमें बिगाड़ हुआ।’ इससे विकासके विपरीत ह्रास प्रतीत होता है। डॉ० पाटके अनुसार ‘भाषाके मूल स्वरूपमें परिवर्तन नहीं हो सकता, केवल कुछ बाह्य परिवर्तन ही होते हैं। पिछली जातिने एक भी नया धातु नहीं बनाया। ज्ञान, अज्ञानका ज्वारभाटा सदासे ही आता रहता है। जो जातियाँ कभी जंगली थीं, वही कभी ज्ञान-विज्ञानयुक्त हो जाती हैं और ज्ञान-विज्ञानयुक्त जातियाँ कभी अज्ञानसे जंगली बन जाती हैं।’ पीछे यह भी कहा गया है कि ‘द्रविड़ भाषाका आस्ट्रेलियन आदि अनेक भाषाओंसे सम्बन्ध प्रतीत होता है और केम्बल्स् द्रविड़, तेलगू आदि भाषाओंका वैदिक भाषासे ही निकलना मानता है। इनके सैकड़ों शब्द अबतक एक ही समान पाये जाते हैं। इन भाषाओंकी तुल्यता मिलती है। संस्कृतमें अम्ब, सीरियनमें आमो, द्राविड़में अम्मा, सामोपेडिकमें अम्म, सीथियनमें अम्माल, अरबीमें उम्म, मलयालीमें अम, तुलूमें अप्पा और चीनीमें माँ इत्यादि। जैसे संस्कृत, जेन्द और लैटिन भाषाओंमें लिंग एवं वचन तीन-तीन होते हैं, वैसे ही सेमेटिक, अरबी और हिब्रू भाषामें भी लिंग और वचन तीन-तीन होते हैं। पुँल्लिंगसे स्त्रीलिंग बनानेका ढंग वही है। जैसे रामका रामा, वैसे ही साहबको साहिबा और मालिकको मलिका बनाकर पुँल्लिंगसे स्त्रीलिंग किया जाता है। पुराने भेदके अन्तर्गत यूरल, अलताइक, तुंगसिक, मंगोलिक, तुर्की और तिलगू आदि भाषाएँ आती हैं। इनमें एक शाखा सामोपेडिक है, जो चीनकी पैतिसी तथा साइबेरियाकी ओबि नदीके किनारे विस्तृत रूपसे बोली जाती है। इस भाषामें संस्कृतकी भाँति तीन वचन और आठ विभक्तियाँ होती हैं।’
अनादिसिद्ध शुद्ध शब्दोंके उच्चारणमें शिक्षाकी कमीके कारण गड़बड़ी होती है। उच्चारणमें व्यत्यास हो जानेसे शुद्ध शब्द अपभ्रष्ट हो जाते हैं। जैसे असुर लोग ‘हे आर्य!’ के स्थानमें ‘हेलय’ उच्चारण करने लगे। आज भी इसी कारण सूक्ष्मको ‘छुच्छम’ और ‘टिकिट’ को ‘टिकस’ उच्चारण करते हैं। लिपिके अक्षरोंमें कमीके कारण अरबीमें ‘चरक’ को ‘सरक’, ‘कोटपाल’ को ‘कोतवाल’ कहा जाता है। तीन वचनवाली संस्कृत भाषासे उत्पन्न हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगाली आदि भाषाओंमें दो ही वचन होते हैं, तीन नहीं। इसी प्रकार जेन्द भाषामें तीन वचन हैं, उससे उत्पन्न फारसी, पश्तो, उर्दू आदि भाषाओंमें दो ही वचन हैं। लैटिनमें तीन वचन होते हैं, उससे उत्पन्न भाषाओंमें दो ही वचन होते हैं। इसी तरह हिन्दीमें नपुंसक लिंगका प्रयोग लुप्त हो गया। गुप्त कामोंके लिये इसी तरह अपभ्रष्ट करके कुछ संकेतमयी भाषाएँ बना ली जाती हैं। क्लिष्ट और विस्तृत संस्कृत भाषासे ही सरल और संकुचित करके उच्चारणकी दृष्टिसे अन्य भाषाएँ बनी हैं। जैसे ‘ऋत’ को ‘राइट’, ‘उष्ट्र’ को ‘उश्तर’, ‘स्थान’ को ‘स्तान’, ‘धनी’ को ‘गनी’, ‘विधवा’ को ‘विडो’, ‘गृभ’ को ‘ग्रिफ्ट’, ‘भ्रातर’ का ‘ब्रदर’, ‘मातर’ का ‘मदर’, ‘पितर’ का ‘फादर’, संस्कृत एवं जेन्दमें ‘असुर’ को ‘अहुर’, ‘सोम’ को ‘होम’, ‘सप्त’ को ‘हफ्त’, ‘आहुति’ को ‘आजुति’, ‘वाहू’ को ‘वाजू’, ‘पशु’ को ‘पसू’, ‘उक्षन्’ को ‘आक्स’ तथा संस्कृत एवं फारसीमें ‘तनु’ को ‘तन’, ‘जानु’ को ‘जानु’, ‘बाहु’ को ‘बाजू’, ‘अंगुष्ठ’ को ‘अंगुस्त’, ‘हस्त’ को ‘हस्त’, ‘पाद’ को ‘पा’, ‘शिर’ को ‘सर’ कहते हैं। संस्कृत और यूनानीमें ‘शतें’ को ‘केटन’, ‘दश’ को ‘डेक’, ‘अश्मन’ को ‘अक्मन्’ कहते हैं। संस्कृत और मिस्रीमें ‘अथ’ को ‘अख’, ‘आप’ को ‘आप’ कहते हैं। संस्कृत और अरबीमें ‘हर्म्य’ को ‘हरम्’ ‘सुर’ को ‘हुर’ कहते हैं। संस्कृत और अफ्रीकीमें ‘ध्यान’ को ‘धानी’, ‘कर्त्त’ को ‘काटा’ कहते हैं। संस्कृत और चीनीमें ‘स्थान’ को ‘तान’, ‘जन’ को ‘जिन’, ‘अम्बा’ को ‘माँ’, ‘होम’ को ‘घोम’ कहते हैं। संस्कृत एवं जापानीमें ‘का’ को ‘का’, ‘बहुत्व’ को ‘मोत्तो’ आदि कहते हैं। संस्कृत और द्रविड़में ‘तालु’ को ‘तला’, ‘मंजु’ को ‘मंछी’, ‘मेष’ को ‘मेक्’, ‘राजा’ को ‘राजू’ कहते हैं।
इस तरह इन उदाहरणोंसे यह सिद्ध होता है कि उच्चारणमें असावधानीसे ही अनेक भाषाएँ बनी हैं। संस्कृतमें, विशेषत: वेदमें उच्चारणकी सावधानी बहुत ही आवश्यक होती है। स्वर एवं वर्णसे हीन मन्त्रका प्रयोग मिथ्या प्रयोग कहा जाता है। वह जिस अर्थके लिये प्रयुक्त हुआ है, उसका बोध नहीं कराता। इतना ही नहीं, वह वाग्वज्र बनकर यजमानका नाश कर देता है। जैसा कि—‘इन्द्रशत्रो विवर्द्धस्व’ में स्वरके दोषसे अर्थात् अन्त्योदात्तके स्थानमें आद्युदात्तका प्रयोग करनेसे तत्पुरुष समासके अनुसार इन्द्रका शत्रु अर्थात् घातक अर्थ नहीं हुआ, अपितु बहुव्रीहि समासके अनुसार ‘इन्द्र है घातक जिसका’ ऐसा अर्थ हुआ। इस स्वरापराधसे यजमान वृत्र मारा गया। वैदिक-लौकिक दोनों ही प्रकारके व्याकरण वैदिक-लौकिक संस्कृत भाषाको बिगड़ने नहीं देते।
वैदिक भाषाकी लिपि भी प्राचीन ही है और उसी आधारपर लिपि भी यन्त्र आदिके काम आती है। अब बहुत-से प्राचीन लेख मिल रहे हैं। ब्राह्मी लिपिके पहलेके कहे जानेवाले लेखोंमें कोई स्पष्ट लिपि नहीं। कितने ही शिलालेख तो काल्पनिक ही हैं।
धातुपाठ, प्रत्यय, नियम, तीन वचन, आठ विभक्तियाँ, दस लकार, सन्धि-कौशल तथा स्वर-विज्ञानमें संस्कृत व्याकरणसे तुलना संसारका कोई भी व्याकरण नहीं कर सकता। इन सब प्रक्रियाओंका प्रयोग करनेसे शब्दोंके स्वरूप अटल रहते हैं। उनमें अपभ्रंशका अवसर (गुंजाइश) नहीं रहता। यही कारण है कि लाखों वर्षोंका प्राचीन साहित्य एक ही ढंगसे सर्वत्र उच्चरित और अवगत किया जा सकता है।
कुछ लोग समझते हैं कि प्राकृत भाषाका संस्कार करके संस्कृत भाषा बनायी गयी है। जैसे किसी प्राकृत काष्ठ, पाषाणका संस्कार कर मलापनयन, अतिशयाधानद्वारा उससे विशिष्ट संस्थानकी वस्तुएँ बनायी जाती हैं, परंतु वस्तुत: यहाँका संस्कार इस प्रकारका है कि जैसे मिश्रित ग्राह्य-अग्राह्य पदार्थोंमेंसे गालिनी (चलनी) द्वारा अग्राह्य और ग्राह्यका पृथक्करण किया जाता है, इसे भी संस्कार ही कहा जाता है। इसी तरह मिश्रित साधु-असाधु शब्दोंमेंसे व्याकरणके लक्षणों-सूत्रोंद्वारा असाधु शब्दोंसे साधु शब्दोंका विवेचन ही शब्दोंका संस्कार है। इस तरह नित्य शब्दोंमें भी संस्कारका व्यवहार होनेसे संस्कृतत्वका व्यवहार होता है।
कहा जाता है कि भौतिक विज्ञानसे उत्पन्न भौतिक उन्नति अनिश्चित होती है। बड़े-बड़े विद्वान् बड़ी बुद्धिसे, साधनोंसे जो निश्चित करते हैं, कालान्तरमें उसका खण्डन हो जाता है। कारण यह है कि जितने सूक्ष्म तत्त्वोंसे मस्तिष्क बना होता है, उनसे भी अधिक सूक्ष्म पदार्थ संसारमें विद्यमान हैं। जैसे नेत्रकी दर्शन शक्तिसे भी दृश्य पदार्थ अधिक सूक्ष्म पाये जाते हैं, वैसे ही सोचनेवाले यन्त्र मस्तिष्कसे भी सूक्ष्म पदार्थ हो सकते हैं। इसीलिये विद्वान् थॉम्सन्का कहना है कि ‘संसारके जब छोटे रहस्य खुल जाते हैं, तब आगे बड़े रहस्य आ खड़े होते हैं। संसारके आश्चर्योंको विज्ञान कभी मिटा नहीं सकता, प्रत्युत उन्हें अगाध बना देता है।’ मनोविज्ञानके पण्डितोंका कहना है कि ‘किसी भी जीवन-कार्यकी संगति भौतिक नियमोंसे अबतक स्पष्ट नहीं की जा सकी है। आँसू निकलने, पसीना बहनेके छोटे-छोटे जीवन-कार्य भी भौतिक तथा रासायनिक नियमोंसे स्पष्ट नहीं होते।’ एफ्० सोडीका कहना है कि ‘परस्पर दो पदार्थ क्यों आकर्षित होते हैं और क्यों जुदा होते हैं, यह भी ज्ञात नहीं है। यही स्थिति अन्य विज्ञानोंमें भी है। कल्पनाएँ बदलती रहती हैं।’
यहाँतक विकासवादके पक्षमें रखे जानेवाले तर्कोंपर विचार किया और संक्षेपमें अपने शास्त्रोंका मत रखा। अब उन्हींपर कुछ विस्तारपूर्वक विचार करनेकी आवश्यकता है। मूल प्रश्न यही है कि सृष्टि जडसे हुई या चेतनसे? पहले इसीपर विचार करना है—
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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